सँवरकी/धीरज श्रीवास्तव
आज अचानक हमें अचम्भित, सुबह-सुबह कर गयी सँवरकी। कफ़ ने जकड़ी ऐसे छाती, खाँस-खाँस मर गयी सँवरकी। जूठन धो-धोकर,खुद्दारी, बच्चे दो-दो पाल रही थी। विवश जरूरत जान बूझकर, बीमारी को टाल रही थी। कल ही की तो बात शाम को ठीक-ठाक घर गयी सँवरकी। लाचारी पी-पीकर काढ़ा ढाँढस रही बँधाती मन को। आशंकित थी, दीमक […]