गणेश उत्सव की तैयारियाँ चल रही थी । वह भगवान की मूर्तियाँ बनाता था । मिट्टी की मूर्तियों में जान फूंक देता था । आज अचानक मूर्ति पर काम करते हुए उसके हाथ रुक गए । एक प्रश्न कुछ दिन से मन को मथ रहा था । आज पूछ ही डाला !
“कुछ कहना है…देखो न !”
“आँखें तुमने अभी नहीं बनायी ।केवल सुन सकता हूँ, क्या समस्या है तुम्हारी ?”
“सोचता हूँ… कह दूँ या नहीं! कह दूँ क्या?”
“अवश्य !”
“शंका है छोटी सी “।
“हाँ ।हाँ! कहो निःसंकोच ।”
“बुरा न मानोगे? सजा तो न दोगे?”
“इतना विश्वास है मुझ पर तो सजा कैसी?”
“ठीक है …तो बताओ …क्या तुमने मुझे बनाया या मैं तुम्हें बना रहा हूँ?”
“तुम्हारा मन क्या कहता है?”
“मन कहता है तुमने मुझे बनाया और बुद्धि कहती है मैं तुम्हें बना रहा हूँ । शंका का निवारण करो …सत्य क्या है?”
“मैं कह भी दूँगा तो क्या? तुम्हारा मन मान जाएगा और बुद्धि विरोध कर देगी” ।
“तुम कहकर तो देखो !”
“तो सुनो मन का आधार है विश्वास और बुद्धि का तर्क ।”
“तो”
“तो मन मनवा कर शांत कर देता है और बुद्धि भटका देती है” ।
“तो”
“तो क्या…तुम्हें क्या चाहिए शान्ति या भटकाव?”
उसकी नज़रें झुक गईं और हाथ फिर चलने लगे!
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