मैं स्त्री हूँ /कविता/नन्दिता शर्मा माजी

मैं स्त्री हूँ, प्रायः घर की देवी भी कहलाती हूँ,
कहीं प्रताड़ित, तो कहीं पूजी जाती हूँ,
कहीं मेरा मान-सम्मान किया जाता है,
कहीं मुझे कोख में ही मार दिया जाता है,
कभी बड़े चाव से सोलह श्रृंगार करते है,
कभी भरी सभा में मेरा वस्त्र भी हरते है,
कभी वंश वृद्धि के लिए सिर माथे बिठाते हैं,
कभी रहन-सहन पर बेबात ही उँगली उठाते है,
देख चोंचलें समाज के, आ जाता है रोष मुझे,
पूछती हूँ दर्पण से, क्यों जडा़ यह दोष मुझे?
क्यों मर्यादा की बेड़ी ने, स्त्रियों को ही जकड़ा है,
मान की जंजीरों ने पुरुषों को कब पकड़ा है,
जिद्दी, अड़ियल, ढीठ, चाहे जो कह लो मुझे,
देवी की संज्ञा न दो, बस स्त्री ही रहने दो मुझे।
मैं स्त्री हूँ /कविता/नन्दिता शर्मा माजी

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