तुम धरती हो मैं अंबर हूँ,तुम सरिता मैं सागर हूँ |
तुम वृषभानु लली कुसुमांगी,मैं नटखट नट नागर हूँ |
तुम मरीचिका हो मरुधर की,मैं हूँ मदमाता सावन-
तप्त देह को सिंचित करने,आया ले जल-गागर हूँ |
जिस सावन में मेघ न बरसे,वह सावन क्या सावन है |
परिरंभन की चाह न हो तो,वह साजन क्या साजन है |
वेग नहीं हो जिसके जल में,वह सरिता भी क्या सरिता-
गंधहीन हो पुष्प अगर तो,क्यों कह दूँ मनभावन है |
मैं मरुधर की तृषित भूमि हूँ,प्रिय तुम नीर भरे बादल |
यायावर-से क्यों मँडराओ,निरुद्देश्य जैसे पागल |
आओ स्वागत करूँ तुम्हारा,बरसो मेरे आँगन तुम-
तन भी भीगे,मन भी भीगे,भीगे यह कोरा आँचल |
मुक्तक/वसंत जमशेदपुरी
