मुक्तक/वसंत जमशेदपुरी

तुम धरती हो मैं अंबर हूँ,तुम सरिता मैं सागर हूँ |

तुम वृषभानु लली कुसुमांगी,मैं नटखट नट नागर हूँ |

तुम मरीचिका हो मरुधर की,मैं हूँ मदमाता सावन-

तप्त देह को सिंचित करने,आया ले जल-गागर हूँ |

 

 

जिस सावन में मेघ न बरसे,वह सावन क्या सावन है |

परिरंभन की चाह न हो तो,वह साजन क्या साजन है |

वेग नहीं हो जिसके जल में,वह सरिता भी क्या सरिता-

गंधहीन हो पुष्प अगर तो,क्यों कह दूँ मनभावन है |

 

 

मैं मरुधर की तृषित भूमि हूँ,प्रिय तुम नीर भरे बादल |

यायावर-से क्यों मँडराओ,निरुद्देश्य जैसे पागल |

आओ स्वागत करूँ तुम्हारा,बरसो मेरे आँगन तुम-

तन भी भीगे,मन भी भीगे,भीगे यह कोरा आँचल |

मुक्तक/वसंत जमशेदपुरी

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