जंगल-जंगल ढूँढ़ता, मृग कस्तूरी गन्ध।
निज कुंडलि देखे नहीं, हुआ मोह में अन्ध।।
हुआ मोह में अन्ध, खोज में इत-उत भटके।
कानन कानन ढूँढ़, भ्रमित मन वन में अटके।।
माया का यह बन्ध, डाल वह करता दंगल।
अन्तस छिपी सुगन्ध, ढूँढ़ता जंगल-जंगल।।
माया/कुण्डलिया/नन्दिता माजी शर्मा
