गुजर रही थी बेसबब ज़िस्त ये हमारी
पाया जो तुम्हें , जीने का तब शऊर आया ।
बिन तुम्हारे ज़िन्दगी में कोई नूर न था।
मिले जो तुम खुद को गमों से दूर पाया ।
बदगुमानियों का दौर था सामने हमारे
तेरे रफ़ाक़त से न खुद को मज़बूर पाया।
महफ़िलों की रौनक में डसती तन्हाई थी।
जाना जब तुमको जीवन में एक सरूर आया।
बहार बन कर आये हो पतझड़ के मौसम में ।
फिज़ाओं को भी तुझ पर आज गरूर आया।
मिल गये हो तो साथ निभाते रहना ।
ज़िक्र ए मोहब्बत पे नाम तेरा जरूर आया ।।
नेमते ज़िस्त/दया शर्मा
