घुमड़ रहे हैं घन विकराले/सजल/नन्दिता माजी शर्मा

घुमड़ रहे हैं घन विकराले।
दबे जा रहे विमल उजाले।।
साधु-संत-मुनि ध्यानमग्न सब।
काम,लोभ, मद मन में पाले।।
कम कृतित्व है अधिक दिखावा।
अधजल-गगरी नीर उछाले।।
लाल महावर सजा पगों में।
झाँक रहे हैं तलवे काले।।
ढोल पीटते पर-दोषों का।
निज पर लोगों के मुख ताले।।
विवश क्षुधा से भिक्षु विकल है।
नालों में नित बहे निवाले।।
घुमड़ रहे हैं घन विकराले/सजल/नन्दिता माजी शर्मा

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