उसके नाम/कविता/अवतार सिंह संधू ‘पाश’

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  • अवतार सिंह संधू (9 सितम्बर 1950 - 23 मार्च 1988), जिन्हें सब पाश के नाम से जानते हैं पंजाबी कवि और क्रांतिकारी थे। उनका जन्म 09 सितम्बर 1950 को ग्राम तलवंडी सलेम, ज़िला जालंधर और निधन 37 साल की युवावस्था में 23 मार्च 1988 अपने गांव तलवंडी में ही हुआ था। वे गुरु नानक देव युनिवर्सिटी, अमृतसर के छात्र रहे हैं। उनकी साहित्यिक कृतियां, लौहकथा, उड्ड्दे बाजाँ मगर, साडे समियाँ विच, लड़ांगे साथी, खिल्लरे होए वर्के आदि हैं। पाश एक विद्रोही कवि थे। वे अपने निजी जीवन में बहुत बेबाक थे, और अपनी कविताओं में तो वे अपने जीवन से भी अधिक बेबाक रहे। वे घुट घुटकर, डर डरकर जीनेवालों में से बिलकुल नहीं थे। उनको सिर्फ अपने लिए नहीं बल्कि सबके लिए शोषण, दमन और अत्याचारों से मुक्त एक समतावादी संसार चाहिए था। यही उनका सपना था और इसके लिए आवाज़ उठाना उनकी मजबूरी थी। उनके पास कोई बीच का रास्ता नहीं था। त्रासदी यह भी कि भगतसिंह को आदर्श मानने वाले पाश को भगतसिंह के ही शहादत दिन 23 मार्च 1988 को मार दिया गया। धार्मिक कट्टरपंथ और सरकारी आतंकवाद दोनों के साथ एक ही समय लड़ने वाले पाश का वही सपना था जो भगतसिंह का था। कविताओं के लिए ही पाश को 1970 में इंदिरा गांधी सरकार ने दो साल के लिए जेल में डाला था।

     

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मेरी महबूब, तुम्हें भी गिला होगा मुहब्बत पर

मेरी ख़ातिर तुम्हारे बेक़ाबू चावों का क्या हुआ

तुमने इच्छाओं को सुई से जो उकेरी थी रूमालों पर

उन धूपों को क्या बना, उन छायाओं का क्या हुआ

 

कवि होकर कैसे बिन पढ़े ही छोड़ जाता हूँ

तेरे नयनों में लिखी हुई इक़रार की कविता

तुम्हारे लिए सुरक्षित होंठों पर पथरा गई है री

बड़ी कड़वी, बड़ी नीरस, मेरे रोजगार की कविता

 

मेरी पूजा, मेरा ईमान, आज दोनों ही ज़ख़्मी हैं

तुम्हारी हँसी और अलसी के फूलों पर नाचती हँसी

मुझे जब लेकर चले जाते हैं, तुम्हारी ख़ुशी के दुश्मन

बहुत बेशर्म होकर खनकती है हथकड़ियों की हँसी

 

तुम्हारा दर ही है, जिस जगह झुक जाता है सिर मेरा

मैं जेल के दर पर सात बार थूककर गुज़रता हूँ

मेरे गाँव में ही सत्व है कि मैं बिंध-बिंधकर जीता हूँ

मैं हाकिम के सामने से, शोर की तरह दहाड़कर गुज़रता हूँ

 

मेरी हर पीड़ा एक ही सुई की नोक से गुज़रती है

है लुटी शांति सोच की, क़त्ल है जश्न खेतों के

वे ही बन रहे हैं देखो तुम्हारे हुस्न के दुश्मन

जो आज तक चरते रहे हमारे खेतों का हुस्न

 

मैंने देखा है ओस से नहाते गेहूँ के बदन को

देखने पर मुझे उसके मुख पर आई लाज भी दिखी है

मैंने बहते खाल के पानी पर बिंधती देखी है धूप सूरज की

मैंने रात सपने में वृक्षों को चूमते देखा है

 

धरेक1 के फूल पर गाती महक को मैंने देखा है

कपास के फूलों में ढलती टकसाल को मैंने देखा है

चोरों की तरह खुसर-फुसर करती चरियों को मैंने देखा है

सरसों के फूल पर ढलती शाम को मैंने देखा है

 

मेरा हर चाव इन फसलों की मुक्ति से जुड़ता है

तुम्हारी मुस्कान की गाथा है, हर किसान की गाथा

मेरी क़िस्मत है बस अब बदलते हुए वक़्त की क़िस्मत

मेरी गाथा है बस अब चमकती तलवार की गाथा

 

मेरा चेहरा आज तल्ख़ी ने ऐसे खुरदुरा बना दिया है

कि इस चेहरे पर आकर चाँदनी को खुजली-सी लगती है

मेरी ज़िंदगी के ज़हर आज इतिहास के लिए अमृत हैं

इन्हें पी-पीकर मेरी क़ौम को होश-सा आता है।

 

उसके नाम/कविता/अवतार सिंह संधू ‘पाश’

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