उतरा है रंग बहारों का/गीत/गोपालदास नीरज

फूलों की आँखों में आँसू
उतरा है रंग बहारों का
लगता है आने वाला है
फिर से मौसम अंगारों का।

आंतरिक सुरक्षा के भय से
बुलबुल ने गाना छोड़ दिया
गोरी ने पनघट पर जाकर
गागर छलकाना छोड़ दिया,
रस का अब रास कहाँ
होता है नाटक बस तलवारों का ।
लगता है आने वाला है
फिर से मौसम अंगारों का।

काँटों के झूठे बहुमत से
हर सच्ची खुशबू हार गई
जो नहीं पराजित हुए उन्हें
मालिन की चितवन मार गई
हो गया जवानी में बूढ़ा
सब यौवन मेघ-मल्हारों का।
लगता है आने वाला है
फिर से मौसम अंगारों का।

यह प्रगति हुई देवालय की
पूजा मदिरालय जा पहुंची
सर्वोदय तजकर राजनीति
तम के सचिवालय जा पहुंची
सब पात्रों का स्वरूप बदला
यूँ घूमा चाक कुम्हारों का।
लगता है आने वाला है
फिर से मौसम अंगारों का।

ऐसा अंधा युग-धर्म हुआ
नैतिकता भ्रष्टाचार बनी
विज्ञापन की यूँ मची धूम
रामायण तक अख़बार बनी
सिंहासन तो है संतों का
शासन है चोर बज़ारों का।
लगता है आने वाला है
फिर से मौसम अंगारों का।

कमज़ोर नींव, कमज़ोर द्वार
उखड़ी खिड़की, टूटी साँकल
हर तरफ़ मुँडेरों पर बैठे
दुख के काले-काले बादल
अब कौन बचायेगा बोलो
यह घर गिरती दीवारों का।
लगता है आने वाला है
फिर से मौसम अंगारों का।

उतरा है रंग बहारों का/गीत/गोपालदास नीरज

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