जब-जब मेघ झरे अंबर से झंझा पंथ बुहारे । तब-तब प्रीत-पखेरू बोले आजा प्रीतम प्यारे ।। ठंडी-ठंडी पुरवाई ये तन में अगन लगाए , रिमझिम-रिमझिम मेहा मेरे- मन की प्यास बढा़ए। गरज-तरज तन-मन को पीड़ित- करते घन-कजरारे ।। तपती धरती को अंबर ने हौले से दुलराया , जैसे परदेशी बालम बिन पाती द्वारे आया। और चकित चंचला प्रेयसी अपलक उसे निहारे।। सूखी नदिया धन्य हो गयी अंतर्मन सरसाया , टूट गये तटबंध नेह के तन ऐसा हुलसाया । जाल लिए नदियों के तट पर आ पहुँचे मछुआरे।।
आजा प्रीतम प्यारे/गीत/वसंत जमशेदपुरी
