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धरोहर

वैदेही वनवास सर्ग11-18/अयोध्यासिंह उपाध्याय ‘हरिऔध’

एकादश सर्ग रिपुसूदनागमन छन्द : सखी बादल थे नभ में छाये। बदला था रंग समय का॥ थी प्रकृति भरी करुणा में। कर उपचय मेघ-निचय का॥1॥ वे विविध-रूप धारण कर। नभ-तल में घूम रहे थे॥ गिरि के ऊँचे शिखरों को। गौरव से चूम रहे थे॥2॥ वे कभी स्वयं नग-सम बन। थे अद्भुत-दृश्य दिखाते॥ कर कभी दुंदुभी-वादन। […]

पारिजात सर्ग1-6/अयोध्यासिंह उपाध्याय ‘हरिऔध’

प्रथम सर्ग (1) गेय गान शार्दूल-विक्रीडित आराधे भव-साधना सरल हो साधें सुधासिक्त हों। सारी भाव-विभूति भूतपति की हो सिध्दियों से भरी। पाता की अनुकूलता कलित हो धाता विधाता बने। पाके मादकता-विहीन मधुता हो मोदिता मेदिनी॥1॥ सारे मानस-भाव इन्द्रधानु-से हो मुग्धता से भ। देखे श्यामलता प्रमोद-मदिरा मेधा-मयूरी पिये। न्यारी मानवता सुधा बरस के दे मोहिनी मंजुता। […]

पारिजात सर्ग7-10/अयोध्यासिंह उपाध्याय ‘हरिऔध’

सप्तम सर्ग अन्तर्जगत् मन (1) मंजुल मलयानिल-समान है किसका मोहक झोंका। विकसे कमलों के जैसा है विकसित किसे विलोका। है नवनीत मृदुलतम किसलय कोमल है कहलाता। कौन मुलायम ऊन के सदृश ऋजुतम माना जाता॥1॥ मंद-मंद हँसनेवाला छवि-पुंज छलकता प्यारेला। कौन कलानिधि के समान है रस बरसानेवाला। मधु-सा मधुमय कुसुमित विलसित पुलकित कौन दिखाया। नव रसाल […]

पारिजात सर्ग 11-15/अयोध्यासिंह उपाध्याय ‘हरिऔध’

एकादश सर्ग कर्म-विपाक (1) कर्म-अकर्म अवसर पर ऑंखें बदले। बनता है सगा पराया। काँटा छिंट गया वहाँ पर। था फूल जहाँ बिछ पाया॥1॥ जो रहा प्यारे का पुतला। वह है ऑंखों में गड़ता। अपने पोसे-पाले को। है कभी पीसना पड़ता॥2॥ जिसकी नहँ उँगली दुखते। ऑंखों में ऑंसू आता। जी खटके पीछे पड़कर। है वही पछाड़ा […]

भारत-भारती/मैथिलीशरण गुप्त

श्री रामः प्रिय पाठकगण, आज जन्माष्टमी है, आज का दिन भारत के लिए गौरव का दिन है। आज ही हम भारतवासियों को यहाँ तक कहने का अवसर मिला था। कि- जय जय स्वर्गागार-सम भारत-कारागार। पुरुष पुरातन का जहाँ हुआ नया अवतार।। जब तक संसार में भारत वर्ष का अस्तित्व रहेगा, तब तक यह दिन उसकी […]

सैरन्ध्री/मैथिलीशरण गुप्त

सुफल – दायिनी रहें राम-कर्षक की सीता; आर्य-जनों की सुरुचि-सभ्यता-सिद्धि पुनिता। फली धर्म-कृषि, जुती भर्म-भू शंका जिनसे, वही एग हैं मिटे स्वजीवन – लंका जिनसे। वे आप अहिंसा रूपिणी परम पुण्य की पूर्ति-सी, अंकित हों अन्तःक्षेत्र में मर्यादा की मूर्ति-सी। बुरे काम का कभी भला परिणाम न होगा, पापी जन के लिए कहीं विश्राम न […]

स्वदेश संगीत/मैथिलीशरण गुप्त

1. निवेदन राम, तुम्हें यह देश न भूले, धाम-धरा-धन जाय भले ही, यह अपना उद्देश्य न भूले। निज भाषा, निज भाव न भूले, निज भूषा, निज वेश न भूले। प्रभो, तुम्हें भी सिन्धु पार से सीता का सन्देश न भूले। 2. विनय आवें ईश ! ऐसे योग— हिल मिल तुम्हारी ओर होवें अग्रसर हम लोग।। […]

द्वापर/मैथिलीशरण गुप्त

1. मंगलाचरण धनुर्बाण वा वेणु लो श्याम रूप के संग, मुझ पर चढ़ने से रहा राम ! दूसरा रंग। 2. श्रीकृष्ण राम भजन कर पाँचजन्य ! तू, वेणु बजा लूँ आज अरे, जो सुनना चाहे सो सुन ले, स्वर ये मेरे भाव भरे— कोई हो, सब धर्म छोड़ तू आ, बस मेरा शरण धरे, डर […]

हिन्दी कविता/मैथिलीशरण गुप्त

1. जीवन की ही जय है मृषा मृत्यु का भय है जीवन की ही जय है । जीव की जड़ जमा रहा है नित नव वैभव कमा रहा है यह आत्मा अक्षय है जीवन की ही जय है। नया जन्म ही जग पाता है मरण मूढ़-सा रह जाता है एक बीज सौ उपजाता है सृष्टा […]

यशोधरा/मैथिलीशरण गुप्त

मंगलाचरण राम, तुम्हारे इसी धाम में नाम-रूप-गुण-लीला-लाभ, इसी देश में हमें जन्म दो, लो, प्रणाम हे नीरजनाभ । धन्य हमारा भूमि-भार भी, जिससे तुम अवतार धरो, भुक्ति-मुक्ति माँगें क्या तुमसे, हमें भक्ति दो, ओ अमिताभ ! सिद्धार्थ 1 घूम रहा है कैसा चक्र ! वह नवनीत कहां जाता है, रह जाता है तक्र । पिसो, […]

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