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धरोहर

एक-पत्र/धर्मवीर भारती

डियर राबर्ट, सुना है तुम कामन्स की बैठक में बंगाल के अकाल की जाँच की माँग करने वाले हो। सोफी के पास आये हुए पत्र से यह भी मालूम हुआ कि तुम्हारा विचार है कि अकाल की घटनाओं से भारत में असन्तोष फैलने की सम्भावना है और तुम्हें सन्देह है कि कहीं उससे युद्ध-प्रयत्नों में […]

हिन्दू या मुस्लमान/धर्मवीर भारती

सरकारी अस्पताल के बरामदे में 30 लाशें एक कतार में रक्खी हुई थीं। लाशें, नहीं उन्हें लाशें कहना गलत होगा, मगर उन्हें जिन्दा भी नहीं कहा जा सकता था। वे सूखी हड्डियों के मुरदार ढाँचे जिन पर जर्द, झुर्रीदार चमड़ा मढ़ा हुआ था । कलकत्ते की विभिन्न सड़कों से मुरदे उठाकर लाये गये थे इलाज […]

कफन चोर/धर्मवीर भारती

सकीना की बुखार से जलती हुई पलकों पर एक आँसू चू पड़ा। ‘‘अब्बा!’’ सकीना ने करीम की सूखी हथेलियों को स्नेह से दबाकर कहा, ‘‘रोते हो! छिह।’’ बूढ़े करीम ने बाँह से अपनी धुँधली आँखें पोंछते हुए कहा, ‘‘बेटा, तुम बुखार में जल रही हो और मैं तुम्हारे ओढ़ने के लिए एक चादर भी न […]

स्वर्ग और पृथ्वी/धर्मवीर भारती

कल्पना ने आश्चर्य में भरकर वातायन के दोनों पट खोल दिए। सामने अनंत की सीमा को स्पर्श करता हुआ विशाल सागर लहरा रहा था। तट पर बिखरी हुई उषा की हलकी गुलाबी आभा से चाँदनी की चंचल लहरें टकराकर लौट रही थीं। प्रशांत नीरवता में केवल चाँदनी की लहरों का मंद-मर्मर गंभीर स्वर नि:श्वासें भर […]

मुरदों का गाँव/धर्मवीर भारती

उस गाँव के बारे में अजीब अफवाहें फैली थीं। लोग कहते थे कि वहाँ दिन में भी मौत का एक काला साया रोशनी पर पड़ा रहता है। शाम होते ही कब्रें जम्हाइयाँ लेने लगती हैं और भूखे कंकाल अँधेरे का लबादा ओढ़कर सड़कों, पगडंडियों और खेतों की मेंड़ों पर खाने की तलाश में घूमा करते […]

गुलकी बन्नो/धर्मवीर भारती

‘‘ऐ मर कलमुँहे !’ अकस्मात् घेघा बुआ ने कूड़ा फेंकने के लिए दरवाजा खोला और चौतरे पर बैठे मिरवा को गाते हुए देखकर कहा, ‘‘तोरे पेट में फोनोगिराफ उलियान बा का, जौन भिनसार भवा कि तान तोड़ै लाग ? राम जानै, रात के कैसन एकरा दीदा लागत है !’’ मारे डर के कि कहीं घेघा […]

तारा और किरण/धर्मवीर भारती

वह विस्मित होकर रुक गया। नील जलपटल की दीवारों से निर्मित शयन-कक्ष-द्वार पर झूलती फुहारों की झालरें और उन पर इंद्रधनुष की धारियां। रंग-बिरंगी आभा वाली कोमल शय्या और उस पर आसीन स्वच्छ और प्रकाशमयी वरुणबालिका। उसका गीत रुक गया और वह देखने लगा, सौंदर्य की वह नवनीत ज्योति… वरुणा आगंतुक की ओर एक कुतूहल […]

मेरी पहली कविता/सुमित्रानंदन पंत

अल्मोड़े में पादरियों तथा ईसाई धर्म प्रचारकों के भाषण प्रायः ही सुनने को मिलते थे, जिनसे मैं छुटपन में बहुत प्रभावित रहा हूँ। वे पवित्र जीवन व्यतीत करने की बातें करते थे और प्रभु की शरण आने का उपदेश देते थे जो मुझे बहुत अच्छा लगता था। गिरजे के घंटे की ध्वनि से प्रेरणा पाकर […]

मैं क्यों लिखता हूँ/सुमित्रानंदन पंत

मैं क्यों लिखता हूँ—यह प्रश्न मेरे जैसे व्यक्ति के लिए उतना स्वाभाविक नहीं जितना कि मैं क्यों न लिखूँ। जब लिखने को जी करता है, उसमें सुख मिलता है जो कि एक उपेक्षणीय वस्तु नहीं—तब कोई क्यों न लिखे? किन्तु जागतिक ऊहापोहों के कारण कभी मेरे मन में भी यह बात आती है कि मैं […]

कवि के स्वप्नों का महत्व/सुमित्रानंदन पंत

कवि के स्वप्नों का महत्त्व!—विषय सम्भवतः थोड़ा गम्भीर है। स्वप्न और यथार्थ मानव-जीवन-सत्य के दो पहलू हैं : स्वप्न यथार्थ बनता जाता है और यथार्थ स्वप्न। ‘एक सौ वर्ष नगर उपवन, एक सौ वर्ष विजन वन’—इस अणु-संहार के युग में इस सत्य को समझना कठिन नहीं है। वास्तव में स्वप्न और वास्तविकता के चरणों पर […]

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