- प्रार्थना
यद्यपि हम हैं सिध्द न सुकृती, व्रती न योगी,
पर किस अघ से हुए हाय ! ऐसे दुख-भोगी?
क्यों हैं हम यों विवश, अकिंचन, दुर्बल, रोगी?
दयाधाम हे राम ! दया क्या इधर न होगी ? ।।१।।
देव ! तुम्हारे सिवा आज हम किसे पुकारें?
तुम्हीं बता दो हमें कि कैसे धीरज धारें?
किस प्रकार अब और मरे मन को हम मारें?
अब तो रुकती नहीं आँसुयों की ये धारें! ।।२।।
ले ले कर अवतार असुर तुम ने हैं मारे,
निष्ठुर नर क्यों छोड़ दिये फिर बिना विचारे?
उनके हाथों आज देख लो हाल हमारे,
हम क्या कोई नहीं दयामय कहो, तुम्हारे? ।।३।।
पाया हमने प्रभो! कौन सा त्रास नहीं है?
क्या अब भी परिपूर्ण हमारा ह्रास नहीं है?
मिला हमें क्या यहीं नरक का वास नहीं है,
विष खाने के लिए टका भी पास नहीं है! ।।४।।
नहीं जानते, पूर्व समय क्या पाप किया है,
जिसका फल यह आज दैव ने हमें दिया है:
अब भी फटता नहीं वज्र का बना हिया है,
इसीलिए क्या हाय ! जगत में जन्म लिया है! ।।५।।
हम पापी ही सही किन्तु तुम हमें उबारो,
दीनबंधू हो, दया करो, अब और न मारो ।
करके अपना कोप शांत करुणा कर तारो,
अपने गुण से देव ! हमारे दोष विसारो ।।६।।
हमें तुमहीं ने कृषक-वंश में उपजाया है,
किसका वश है यहाँ, तुमहारी ही माया है ।
जो कुछ तुमने दिया वही हमने पाया है,
पर विभुवर ! क्यों यही दान तुमको भाया है?।।७।।
कृषक-वंश को छोड़ न था क्या और ठिकाना?
नरक-योग्य भी नाथ ! न तुमने हमको माना !
पाते हैं पशु-पक्षी आदि भी चारा-दाना,
और अधिक क्या कहें, तुम्हारा है सब जाना।।८।।
कृषि ही थी तो विभो! बैल ही हमको करते,
करके दिनभर काम शाम को चारा चरते।
कुत्ते भी हैं किसी भांति दग्धोदर भरते,
करके अन्नोत्पन्न हमीं हैं भूखों मरते! ।।९।।
कृषि-निन्दक मर जाय अभी यदि हो वह जीता,
पर वह गौरव-समय कभी का है अब बीता।
कृषि से ही थी हुई जगज्जननी श्रीसीता,
गाते अब भी मनुज यहां जिनकी गुण-गीता ।।१०।।
एक समय था, कृषक आर्या थे समझे जाते-
भारत में थे हमी ‘अन्नदाता’ पद पाते ।
जनक सदृश राजर्षि यहाँ हल रहे चलाते,
स्वयं रेवतीरमन हलायुध थे कहलाते ।।११।।
लीलामय श्रीकृष्न जहाँ गोपाल हुए हैं,
समय फेर से वहीं और ही हाल हुए हैं ।
हा ! सुकाल भी आज दुरन्त दुकाल हुए हैं,
थे जो मालामाल अधम कंगाल हुए हैं! ।।१२।।
जिस खेती से मनुज मात्र अब भी जीते हैं-
उसके कर्ता हमीं यहाँ आँसु पीते हैं!
भर कर सबके उदर आप रहते रीते हैं,
मरते हैं निरुपाय हाय ! शुभ दिन बीते हैं।।१३।।
हम से ही सब सभ्य सभ्य बनकर रहते हैं,
तो भी हमको निपट नीच ही वे कहते हैं ।
कृषिकर होकर हम न कौन-सा दुख सहते हैं?
निराधार मंझधार बीच कब से बहते हैं! ।।१४।।
जिस कृषि से सब जगत आज भी हरा भरा है,
क्यों उससे इस भाँति हमारा हृदय डरा है?
कृषि ने होकर विवश कड़ा कर आज वरा है,
हम कृषकों के लिए रही बस शून्य धरा है! ।।१५।।
कड़ी धूप में तीक्ष्ण ताप से तनु है जलता,
पानी बनकर नित्य हमारा रुधिर निकलता!
तदपि हमारे लिए यहाँ शुभ फल कब फलता?
रहता सदा अभाव, नहीं कुछ भी वश चलता ।।१६।।
वर्षा का सव सलिल खुले सिर पर है झड़ता,
विकट शीत से अस्थिजाल तक आप अकड़ता।
है बैलों के साथ बैल भी बनना पड़ता,
जलता तो भी उदर, अहो! जीवन की जड़ता! ।।१७।।
कृषक-वंश में जन्म यहाँ जो हम पाते हैं
तो खाने के नाम नित्य हा हा खाते हैं !
मरने के ही लिए यहाँ क्या हम आते हैं?
जीवन के सब दिवस दु:ख में ही जाते हैं! ।।१८।।
शिक्षा को हम और हमें शिक्षा रोती है,
पूरी बस यह घास खोदने में होती है!
कहाँ यहाँ विज्ञान, रसायन भी सोती है;
दुआ हमारे लिए एक दाना मोती है ।।१९।।
परदेशों की तरह नहीं कुछ कल का बल है,
वह तो अपने लिए मन्त्र, माया या छल है!
जो कुछ है बस वही पुराना हल-बक्खल है,
और सामने नष्टसार यह पृथ्वीतल है।।२०।।
बहते हुए समीप नदी की निर्मल धारा-
खेत सूखते यहाँ, नहीं चलता कुछ चारा।
एक वर्ष भी वृष्टि बिन समुदाय हमारा-
भीख माँगता हुआ भटकता मारा मारा! ।।२१।।
प्रभुवर ! हम क्या कहें कि कैसे दिन भरते हैं?
अपराधी की भांति सदा सबसे डरते हैं ।
याद यहाँ पर हमें नहीं यम भी करते हैं,
फिजी आदि में अन्त समय जाकर मरते हैं।।२२।।
बनता है दिन-रात हमारा रुधिर पसीना,
जाता है सर्वस्व सूद में फिर भी छीना ।
हा हा खाना और सर्वदा आँसू पीना,
नहीं चाहिए नाथ ! हमें अब ऐसा जीना!।।२३।।
देव ! हमारी दशा तुम्हारी है सब जानी,
नहीं मानती किन्तु आज यह व्याकुल वाणी।
सुन लो, अपने दीन जनों की रामकहानी,
दया करोगे आप हुए यदि पानी पानी।।२४।।
तुम भी वाचक-वृन्द तनिक सहृदय हो जाओ
अपने दुर्विध बंधुजनों को यों न भुलायो ।
यहीं समय है कि जो कर सको कर दिखलाओ,
बंधु नहीं तो मनुज जान कर ही अपनाओ।।२५।।
- बाल्य और विवाह
जब कुछ होश सँभाला मैंने अपने को वन में पाया,
हरी भूमि पर कहीं धूप थी और कहीं गहरी छाया ।
एक भैंस, दो गायें लेकर दिन भर उन्हें चराता था,
घर आ कर, व्यालू में, माँ से एक पाव पय पाता था ।।१।।
सुख भी नहीं छिपाऊंगा मैं पाया है मैंने जितना,
कभी कभी घी भी मिलता-था, यद्यपि वह था ही कितना ।
माता-पिता छाँछ लेकर ही मधुर महेरी करते थे,
भैंस और गायों की रहंटी घी दे दे कर भरते थे।।२।।
देख किसी का ठाठ न हमको ईर्ष्या कभी सताती थी,
और न अपनी दीन दशा पर लज्जा ही कुछ आती थी ।
मानों उन्हें वही थोड़ा है और हमें है बहुत यही,
जो कुछ जो लिखवा लावेगा पायेगा वह सदा वही।।३।।
जो हो, मैं निश्चिन्त भाव से था मन में सुख ही पाता,
किसी तरह खेती-पाती से था संसार चला जाता ।
मुक्त पवन मेरे अंगों का वन में स्वेद सुखाती थी,
घनी घनी छाया पेड़ों की गोदी में बिठलाती थी।।४।।
मुझसे ही मेरे साथी थे, सब मिल कर खेला करते,
हरी घास पर कभी लेटते, कभी दण्ड पेला करते।
मन निर्मल था, तन पर जो कुछ आ पड़ता झेला करते,
गुंजारित करते कानन को जब कि हर्ष-हेला करते ॥5॥
ऊपर नील वितान तना था, नीचे था मैदान हरा;
शून्य-मार्ग से विमल वायु का आना था उल्लास भरा।
कभी दौड़ने लग जाते हम रह जाते फिर मुग्ध खड़े,
उड़ने की इच्छा होती थी उड़ते देख विहंग बड़े! ॥6॥
बन्दर सम पेड़ों पर चढ़ते, डालें कभी हिलाते थे;
पके पके फल तोड़ परस्पर खाते और खिलाते थे।
शब्द-विशेषों से पशुओं को चलते समय बुलाते थे,
कान उठाकर, घर चलने को वे भी दौड़े आते थे॥7॥
पत्तों पर मोती-से हिमकण प्रातःकाल चमकते थे,
सन्ध्या को ऊपर तारागण कैसे दिव्य दमकते थे।
आते-जाते समय हमारा मानस-हंस मोद पाता,
देख भरा भाण्डार प्रकृति का ग्लानि और श्रम मिट जाता ॥8॥
झुके पयोद पकड़ने को हम कभी पहाड़ों पर चढ़ते,
कभी तैरते हुए होड़ से पानी में आगे बढ़ते।
मानों स्वयं प्रकृति ही फिरती हमें गोद में लिये हुए,
खगता, मृगता और मनुजता तीनों के गुण दिये हुए ॥७॥
मोर नाचते थे उमंग से, मेघ मृदंग बजाते थे,
कोयल के सहयोगी हो कर चंचल चातक गाते थे।
रस बरसाती हुई घटा भी नीचे उतरी आती थी,
प्रकृति-नटी निजपट पल पल में प्रकट पलटती जाती थी ॥10॥
हा! पूर्वस्मृति, तू अब तक भी किस आशा से बची रही?
क्यों आगे आ गयी अचानक जबकि शून्य हो चुकी मही!
लौटा दो, लौटा दो कोई मेरा बीता समय वही,
मैं न मरूँ पाऊँ यदि उसको, है जीवन का यत्न यही ॥11॥
पर भाई! वह समय कहाँ अब, चला गया सो चला गया;
वर्तमान से विगत हमारा एक बार ही छला गया!
अब किस को पाकर जीने की इच्छा मुझको होती है?
फिर क्यों पूर्वस्मृति! तू मन की मरण-शान्ति भी खोती है? ॥12॥
सघन करोंदी का निकुंज था, छाया फैली थी गहरी;
मन का राजा बना हुआ मैं बिता रहा था दोपहरी।
भैंस हाँकने का डण्डा था मानों राजदण्ड मेरा,
बैठे थे पशु भी छाया में किये हुए अपना डेरा ॥13॥
नहीं जानता, किस चिन्ता में उलझ रहा था मेरा मन,
शायद यही सोचता था मैं-क्यों मरते-जीते हैं जन।
पीतल क्यों पीतल ही रहता, सोना क्यों बनता है धन,
अच्छा, धन ही क्या है, जिसने डाली है इतनी उलझन ॥14॥
धन मन का माना ही धन है, पीतल भी तो पीला है,
धन तो खाया नहीं न जाता. जग की कैसी लीला है।
धन जो हो, परन्तु क्यों उस पर मानव ऐसे मरते हैं?
क्यों वे उसके लिए निरन्तर पुण्य-पाप सब करते हैं? ॥15॥
धन को धनता मिली हमीं से और हमीं उस पर फूले,
अपने से भी बढ़ कर उसकी चिन्ता में पड़ कर भूले।
अपने ऊपर आप चढ़ाया हमने क्या पागलपन है,
तब तो पशु-पक्षी ही अच्छे, जिन्हें न धन का बन्धन है ॥16॥
जन से धन बढ़ गया कि जिससे जन ही जन को मार रहा
महाजनों को हम लोगों का है कब कष्ट-विचार अहा!
प्रभुवर! धन के लिए किसी का मैं न कभी अपकार करूँ,
धन ही मिले मुझे तो उससे जनता का उपकार करूँ॥17॥
पाठक खिन्न न हों कि दीन यह पागल-सा क्या बकता है,
नहीं गँवार किसान तत्त्व का अनुशीलन कर सकता है।
इस अनपढ़ जड़ जन के ऊपर समुचित इससे रोष नहीं,
आप खिन्न हों, किन्तु दास का इसमें कुछ भी दोष नहीं ॥18॥
जो हो, सोच रहा था मन में मैं यों कितनी ही बातें,
वे कैसी ही हों, पर उनमें थीं न दूसरों पर घातें।
बड़ी देर हो गयी सोचते, पर न समझ में कुछ आया,
आखिर अपनी वंशी लेकर मैंने एक गीत गाया-॥19॥
“अरी जसोदा! तेरे सुत ने सबको आज सनाथ किया,
कूद अथाह अगम जमना में काली को है नाथ लिया”
जब तक पूरा करूँ गीत मैं-एक विकट चीत्कार नया-
मानों मेरे कान फोड़ कर, तान तोड़ कर गूंज गया! ॥20॥
चौंक उठा मैं और शीघ्र ही डण्डा ले बाहर आया,
भीत भाव से सब पशुओं को इधर उधर भगते पाया।
सन सन पवन शून्य में चलती, धरा धूप से जलती थी,
किन्तु प्रकृति के रोम रोम से ध्वनि बस वही निकलती थी ॥21॥
चारों ओर वहाँ पर मैंने तीक्ष्ण दृष्टि जो दौड़ाई-
नदी किनारे एक बालिका केवल चिल्लाती पाई।
उसके पशु भी भाग रहे थे पानी पीना छोड़ अहा!
देखा और कि एक तेंदआ उसी ओर है लपक रहा! ॥22॥
सर्वनाश! भय से लड़की ने आँखों को था मींच लिया,
दौड़ा मैं, या उसी दृश्य ने मुझे आप ही खींच लिया।
पल भर में सब हुआ-उधर तो वह उस लड़की पर टूटा,
और इधर उसके माथे पर मेरा एक हाथ छूटा ॥23॥
छड़ी न थी बाबू लोगों की, मेरा मोटा डण्डा था;
और उन्हीं के श्रीशब्दों में मैं भी कुछ मुस्तण्डा था।
पोले का लोहा हिंसक के दृढ़ मस्तक में पैठ गया,
रही छलाँग अधूरी, तत्क्षण वह नीचे ही बैठ गया! ॥24॥
करके फिर हुंकार मचा दी मारामार वहाँ मैंने,
सुध न मुझे भी रही कि कितने किये प्रहार कहाँ मैंने।
लगे एक दो घाव मुझे भी किन्तु तेंदुआ मार लिया,
तो भी बड़ी देर तक मेरा धक धक करता रहा हिया! ॥25॥
उसी समय मेरे कुछ साथी, सोते थे जो जहाँ तहाँ,
अपने अपने अस्त्र उठाकर आ पहुँचे सोत्साह वहाँ।
सुनकर ‘अस्त्र’ शब्द पाठकगण! आप न कुछ अचरज मानें,
हँसिया, खुरपी और कुल्हाड़ी इनको ही सब कुछ जानें ॥26॥
चले मारने वे भी उसको कह कर केवल अहो! अहो!
वाक्यस्फूर्ति हुई तब मेरी अब तो वह मर चुका, रहो।
काँप रही थी भीत बालिका, धीरज उसे दिया मैंने,
अब डर नहीं, कौन हो तुम? यों उससे प्रश्न किया मैंने ॥27॥
बोल न सकी किन्तु कुछ भी वह भोले भाले मुखवाली,
केवल मेरे ऊपर उसने एक अपूर्व दृष्टि डाली।
पाया प्रत्युपकार हृदय ने, देखा मैंने उसे जहाँ,
मेरे लिए विषाद भाव भी था कृतज्ञता सहित वहाँ ॥28॥
वहीं पास के एक गाँव में उस कुलवन्ती का घर था,
पर किस तरह अकेली जाती? छूटा नहीं अभी डर था।
उसे साथ जाकर तब मेरे दो साथी पहुँचा आये,
धोकर घाव नदी में मैंने मन में हरि के गुण गाये ॥29॥
फैल गयी झट इस घटना की चर्चा गाँवों गाँवों में,
पड़ने लगीं दृष्टियाँ सब की मेरे गहरे घावों में।
हुए प्रसन्न पिता भी मन में, मिला सुयश यों अनचीता.
माँ ने कहा कि मेरा कलुआ कोरा दूध नहीं पीता! ॥30॥
दो दिन पीछे समाचार यह सुना गया सन्देह-रहित-
कुलवन्ती मुझको ब्याहेगा उसका पिता मान कर हित।
माँ को हर्ष और मुझ को कुछ लज्जामय संकोच हुआ,
किन्तु विवाह कहाँ से होगा, सौम्य पिता को सोच हुआ ॥31॥
पहला ही ऋण नहीं चुका है, रहँटी, बीज, खवाई का;
कैसे चुके, लगा है झगड़ा सबके साथ सवाई का!
खेती में क्या सार रहा अब, कर देकर जो बचता है,
कड़े व्याज के बड़े पेट में सभी पलों में पचता है! ॥32॥
दुखी किन्तु निष्पाप पिता को इस अदृष्ट पर क्रोध हुआ,
फिर भी वह सम्बन्ध न करना उनको अनुचित बोध हुआ।
भैंस और गायों का देना उन्हें बेचकर चुका दिया,
जो बाकी बच रहा उन्होंने उससे मेरा ब्याह किया ॥33॥
बस, ये बातें रहें यहीं तक, मैंने कुलवन्ती पायी,
दैन्यावस्था में भी मुझको हुआ समय वह सुखदायी।
हाय! स्वप्न भी उन बातों का हो सकता अब प्राप्त नहीं,
तो आगे बढ़ने के पहले क्यों न ठहर लूँ तनिक यहीं ॥34॥
- गार्हस्थ्य
मेरे लिए सुहाग रात का कैसा हुआ प्रभात?
पड़ी कान में दो पथिकों के लुट जाने की बात।
कहाँ? नदी पर, जहाँ तेंदुआ मारा था उस रोज,
चलो, पुलिस की चिन्ता छूटी, करनी पड़ी न खोज! ॥1॥
“नई वधू के लिए दीन जब पा न सका उपहार-
तब क्या करता, लूट-मार का करना पड़ा विचार ।
पर कुछ बिगड़ा नहीं अभी तक कर ले यदि स्वीकार,”
प्राज्ञ पुलिस का यही तर्क था, कौन करे प्रतिकार! ॥2॥
कहा पिता ने-“वह लड़का है, यह कैसा अन्धेर?”
किन्तु वहाँ इसके उत्तर में लगती थी क्या देर।
“ऐसा लड़का है कि अकेले की दो दो पर घात,
लड़े तेंदुओं से जो उसको है यह कितनी बात?” ॥3॥
“अच्छा, यही सही, तो उसका कर दो तुम चालान,
डर क्या है, सच और झूठ का साक्षी है भगवान।”
यह सुनकर भी जमादार ने किया न कुछ भी रोष,
बोला वह कि “मान लो, कल्लू छूट गया निर्दोष-” ॥4॥
“पर कितनी बदनामी होगी जब होगा चालान,
जान बूझ कर भी क्यों ऐसे बनते हो अनजान?
सोचो, कौन दरोगा जी का पकड़ सकेगा हाथ,
झूठे झगड़े में भी उनका कौन न देगा साथ? ॥5॥
“आते हैं मौके पर अब वे करने तहकीकात,
वहाँ बुलाते ही कल्लू को बिगड़ जायगी बात।
अब तक कोई नहीं जानता, आया हूँ मैं आप,
मान रहे तो जान-सोच लो, तुम हो उसके बाप” ॥6॥
“तो क्या करूँ?” पिता ने पूछा उग्र भाव को त्याग,
तब शुभचिन्तक जमादार ने दिखलाया अनुराग।
था सारांश-एक गिन्नी से चल सकता है काम,
पर गिन्नी कैसी होती है, सुना आज ही नाम ॥7॥
बहुत नहीं, बस पन्द्रह रुपये रख सकते हैं लाज,
पर क्या पन्द्रह पैसे भी हैं मेरे घर में आज।
हे कमलेश! बचा लो मेरी लज्जा अब की बार,
दिलवा दो उधार ही मुझ को तुम पन्द्रह कलदार ॥8॥
आना रुपया व्याज लिखा कर करके अति उपकार,
सदय साह ने इस विपत्ति से हमको लिया उबार!
मुझे घूस देना खटका, पर देख पिता का रोष-
कह न सका कुछ, सहम गया मैं, था मेरा ही दोष! ॥9॥
आयी जमींदार की बारी जमादार के बाद,
हुक्म हुआ-“इस साल खेत में तुम न डालना खाद।
उसी जगह के मिलते हैं अब पन्द्रह के पच्चीस,
तुम्हीं जोतना चाहो तो फिर देने होंगे तीस!” ॥10॥
दीख पड़ा सब ओर पिता को अन्धकार इस बार
ज्ञात हुआ केवल प्रकाश मय पटवारी का द्वार!
किन्तु बड़ों के सम्मुख कैसे जावें रीते हाथ?
दोनों पैरों पर रखने को जोड़ी तो हो साथ! ॥11॥
यह भी किया और पटवारी आये दया विचार,
जमींदार से कहा उन्होंने करके शिष्टाचार”
देता है पच्चीस दूसरा फिर इससे क्यों तीस?
यह समझा-बूझा है, इसके अच्छे हैं चौबीस ॥” ॥12॥
तय पाये पच्चीस अन्त में, देने पड़े न तीस;
दो पटवारी-पूजन के थे, यों सब सत्ताईस।
तीन बचे, पर बारह टूटे, तो भी हुए सनाथ;
लिखी “कबूलत,” हुई निशानी, कटवा बैठे हाथ ॥13॥
जमींदार ने कहा कि “सुन लो, कहते हैं हम साफ-
अबकी बार फसल फिर बिगड़े या लगान हो माफ।
पर हम जिम्मेदार नहीं हैं, छोड़ेंगे न छदाम,
जो तुमको मंजूर न हो तो देखो अपना काम ॥” ॥14॥
कहा पिता ने-“क्यों कहते हैं ऐसी बात हुजूर,
प्रभु क्या अब भी सदय न होंगे, है मुझको मंजूर”
मैं भी था, मन ही मन मैंने लिया राम का नाम,
और कहा-मंजूर न हो तो देखो अपना काम! ॥15॥
हुक्म हुआ फिर-“मगर कबूलत होगी फिर बेकार,”
इन्दुलतलब नाम का रुक्का लिखा गया लाचार।
फिर भी वह “बेकार कबूलत” रही उन्हीं के पास,
उतने में उतने ही मिलकर पूरे हुए पचास! ॥16॥
“अविश्वास क्यों, बड़े लोग क्या होंगे बेईमान?”
मैंने कहा कि-“वे क्यों, हम हैं, साक्षी है भगवान।”
पर यह मेरी ‘गुस्ताखी’ थी, मिली डाँट भरपूर,
कुशल यही थी कि मैं पिता से बैठा था कुछ दूर ॥17॥
और सुनाऊँ? अभी बहुत कुछ कहना है अवशिष्ट,
एक ओर से कभी किसी का होता नहीं अनिष्ट ।
क्या बोवें, क्या खाकर जोतें, पाकर पट्टा मात्र?
घर में प्लेग वाहनों के घर हैं मिट्टी के पात्र! 18॥
चलो, महाजन के सम्मुख अब जाकर जोड़ें हाथ,
बीज, खवाई वहीं मिलेगी, होंगे वहीं सनाथ।
“पहले पहला खाता देखो, दिये गये थे बीस,
होकर वे दो वार सवाए हुए सवा इकतीस!” ॥19॥
कितने दिन में? दो फसलों में, बीत चला है साल,
फसलें हैं कि फाँसियाँ हैं ये, साल है कि है काल!
जैसा समझो रहो मिलाते अपने मन में मेल,
किन्तु बोलना नहीं, नहीं तो बिगड़ जायगा खेल ॥20॥
होंगे फिर आना ऊपर ये बढ़कर उनतालीस,
तो चौबीस और दे दीजे होंगे यह भी तीस।
अभी जेठ है, अगहन भर में होंगे सभी वसूल,
सब पन्द्रह आने कम सत्तर! जाना कहीं न भूल ॥21॥
क्या पन्द्रह आने कम सत्तर, नहीं मिलेगी छूट?
आने तो मैं दे न सकूँगा, व्याज है कि है लूट!
देख विचार-विहीन पिता का ऐसा भोला भाव,
हँसा महाजन भी फिर उसने मान लिया प्रस्ताव! ॥22॥
तीन बार होकर सनाथ यों लौटे श्रान्त शरीर,
तीनों वार किसी विध माँ ने रोका लोचन-नीर।
स्वार्थ पूर्ण संसार! सजग हो, हुआ बहुत अविचार,
प्रलय करेगा निर्दोषों का अश्रु-सिन्धु इस बार! ॥23॥
ढोर बिक चुके थे पहले ही बाकी थे दो बैल,
मैं था, वे थे और नित्य थी हार-खेत की गैल।
सघन करोंदी के निकुंज का वहीं रहा विश्राम,
खेल-कूद के साथी छूटे, पड़ा राम से काम ॥24॥
सूर्य्य निरन्तर बरसाता था सिर पर तीखे तीर,
घायल-सा हो लगा चाहने मैं पल पल में नीर।
सूरत बदल गयी दो दिन में जर्जर हुआ शरीर,
पर उस जीवन-समर-भूमि में बना रहा मैं धीर ॥25॥
हुए प्रसन्न पिता भी मुझ पर रोष-भाव को छोड़,
करने लगे परिश्रम मिल कर हम दोनों जी तोड़।
जोत जात कर बीज योग्य जब खेत किये तैयार,
तब वर्षा के लिए इन्द्र की होने लगी पुकार ॥26॥
पानी के बदले ऊपर से बरस रही थी आग,
आँधी बन कर खेल रही थी हवा धूल की फाग।
शान्त रही न महामारी भी पा कर योग उमंग,
लगीं धधकने मृतक-होलियाँ, हुआ रंग में भंग ॥27॥
भाग बचे थे प्लेग-वेग से, अब है कौन उपाय?
चारों ओर आग की ज्वाला फैल रही है हाय!
अर्द्ध रात्रि थी, सोता था मैं, खुली अचानक आँख,
अन्धेरे में सुना कि जननी रही कष्ट से काँख ॥28॥
माँ कह कर मैं उठा और झट पहुँचा उसके पास,
मुझे देख कर उसने केवल लिया एक निश्वास।
काली छाया डाल चुका था मुँह के ऊपर काल,
पुत्र देख सकता है कैसे जननी का यह हाल ॥29॥
पर, वश क्या था, रोने का भी समय न था इस बार,
करने लगे शीघ्र ही हम सब किसी भाँति उपचार।
कुछ न हुआ, आते ही आते ऊषा का आलोक-
अन्धकार छा गया गेह में, दीख पड़ा बस शोक ॥30॥
मैं अचेत सा था, लोगों ने करवाया संस्कार,
आते ही आते श्मशान से पिता हुए बीमार।
निर्दय दैव! सँभल जाने दे, न कर घात पर घात,
एक साथ कह भी न सकूँगा मैं तेरी वह बात ॥31॥
- सर्वस्वान्त
कुलवन्ती! क्या करूँ? पिता भी चल दिये!
हम दोनों रह गये यातना के लिए।
छोड़ हमें प्रतिबिम्ब सदृश अपना यहाँ,
वे दोनों किस लिए जा छिपे हैं कहाँ? ॥1॥
सहदय पाठक! सुना सुना कर निज कथा-
तुमको देना नहीं चाहता मैं व्यथा।
बस तुम रोको मुझे न रोने से अहो!
करके इतनी कृपा सदा सुख से रहो ॥2॥
हा! मैं रोऊँ जो न आज तो क्या करूँ?
इस ज्वाला में धैर्य और कैसे धरूँ?
दो बूँदें भी दग्ध हृदय को दूँ न मैं?
मानव ही हूँ, शिला-खण्ड तो हूँ न मैं! ॥3॥
रोऊँ किसके निकट? उन्हीं भगवान के-
दाता जो सुख और दुःख के दान के।
क्या इससे भी हानि किसी की है कहीं?
यदि है तो वह मनुज नहीं, पशु भी नहीं ॥4॥
प्रकृत कथा, पर कहाँ? प्रकृतपन खो गया,
अनहोनी का यहाँ आक्रमण हो गया!
दुख में सुख का योग सर्वदा को गया,
गया न परिकर सहित हाय! क्यों जो गया? ॥5॥
कुलवन्ती ने कहा-“भाग्य में था यही,
अनहोनी भी इसी लिए होकर रही।
जाते हम भी वहीं गये हैं वे जहाँ,
कौन हमारे कर्म भोगता फिर यहाँ? ॥6॥
हमको उनके बिना भले ही गति न हो,
पर जीने में उन्हें कौन सुख था अहो!
सौख्य न भी हो, मिटे मरण से कष्ट ही,
तो यों उनका कष्ट हुआ है नष्ट ही ॥7॥
‘कुछ दिन से क्यों भूख हमारी मर रही’?
खाते थे अधपेट सदा कह कर यही।
यह मिस था इस लिए कि हम अफरे रहें,
ईश्वर! ऐसे कष्ट न वैरी भी सहें ॥” ॥8॥
हाय! हमारे लिए पिता भूखों मरे,
इसी लिए उत्पन्न हुआ था मैं हरे!
जननी! जननी! स्नेहमयी जननी! हहा।
इसीलिए था प्रसव-कष्ट तू ने सहा? ॥9॥
सब होना चाहते पुत्र से हैं सुखी,
पर तुम उलटे हुए हाय! मुझ से दुखी!
और दुखी ऐसे कि विवश मरना पड़ा,
सह सकता था कष्ट कौन ऐसा कड़ा! ॥10॥
जाओ, तब हे जननि! जनक! जाओ वहाँ-
शान्त हो सके घोर जगज्ज्वाला जहाँ।
सबकी सबके साथ जहाँ ममता रहे,
कभी विषमता न हो, सदा समता रहे ॥11॥
कुलवन्ती ने कहा कि-“अब धीरज धरो,
जिसमें यह संसार चले ऐसा करो।
और किसे अब यहाँ हमारा ध्यान है?
ऊपर नीचे वही एक भगवान है ॥12॥
हुआ सामना आज सही, मँझधार का,
पता नहीं है किसी ओर भी पार का।
फिर भी आओ, बने जहाँ तक हम तरें,
प्रभु चाहें तो पार हमें अब भी करें ॥3॥
मन को रोको, शोक सहन होगा तभी,
उद्यत हो, यह भार वहन होगा तभी।
अपनी चिन्ता नहीं, मिला जो था दिया,
पर क्या देंगे उन्हें कि जिन से है लिया?” ॥14॥
हैं बस मेरे प्राण, जिसे अब चाह हो,
जमींदार ही हो कि महाजन साह हो।
यों कह कर मैं मौन हो गया आप ही,
वह भी बोली नहीं, रही चुप चाप ही ॥15॥
किन्तु उसी का कथन सर्वथा ठीक था,
मेरा यह आक्षेप नितान्त अलीक था।
कुछ भी हो, संसार आप चलता नहीं,
मर जाओ, पर प्रकृति-नियम टलता नहीं ॥16॥
जलता है यदि हृदय तुम्हारा तो जले,
खलता है यदि खान-पान भी तो खले।
करना होगा काम छटपटाते हुए,
डूबो भी तो हाथ फटफटाते हुए! ॥17॥
लेकर गाड़ी-बैल खेत पर मैं गया,
हुआ हृदय का शोक वहाँ से फिर नया।
कण कण में था पिता-स्मरण ही उग रहा,
उसे सींचता हुआ नेत्र-जल फिर बहा! ॥18॥
लगा लोटने शून्य देख सब ओर मैं
सहकर भी यों शोक मरा न कठोर मैं।
मरता कैसे, अभी और भी भोग था,
मृत्यु दूर थी और मानसिक रोग था! 19॥
पानी था कुछ बरस गया इस बीच में,
पर वह हमको और फँसाने कीच में।
घर में था जो अन्न उसे भी खो दिया,
गया बीज वह व्यर्थ कि जो था बो दिया! ॥20॥
एक बार ही बरस पयोद चले गये
विधि से भी हम दीन किसान छले गये!
वर्षा में ही हुआ शरद का वास था,
करता मानों धवल चन्द्र उपहास था! ॥21॥
आशांकुर भी गये काल-पशु से चरे,
पीले पड़ने लगे खेत जो थे हरे।
दृग न सूखना देख सके, बरसे सही,
किन्तु धरा की गोद रीत कर ही रही! ॥22॥
जहाँ कुएँ थे वहाँ परोहे भी चले,
पर सौ में दो चार खेत फले-फले।
मैं क्या करता? प्राण छटपटाने लगे,
नहरों वाले गाँव याद आने लगे! ॥23॥
यह दुकाल था, देश हुआ उत्सन्न-सा,
भुस-चारा भी चढ़ा तुला पर अन्न-सा!
ऋण-दाता भी और न धीरज धर सके,
बहुत दया की थी, न और फिर कर सके! ॥24॥
साह, महाजन, जमींदार तीनों ठने,
वात, पित्त, कफ सन्निपात जैसे बने!
पन्द्रह दूनी तीस साह ने भी किये,
मौके पर थे दिये पुलिस-प्रभु के लिए! ॥25॥
सन्ध्या थी उस समय तामसिक याम था,
आया “कुड़क अमीन,” मुझी से काम था।
बस, मेरापन आत्म-भाव खोने लगा,
जो कुछ था वह सभी कुर्क होने लगा! ॥26॥
अविकृत-सा मैं बना घोर गम्भीर था,
मन जड़-सा था और अकम्प शरीर था।
सभी ओर से बद्ध हुआ-सा मैं रहा,
मानो शोणित भी न नाड़ियों में बहा! ॥27॥
कुलवन्ती से कहा गया-“गहने कहाँ”?
थी चाँदी की एक मात्र हँसली वहाँ।
जब तक उसे अमीन छीनने को कहे-
उसने आप उतार दिया, ऋण क्यों रहे ॥28॥
हुआ काम भी और रहा कानून भी,
नजराने में क्या न जमेगी दून भी!
दल-बल-सहित अमीन गया सानन्द ही,
मैं कुलवन्ती-सहित रहा निस्पन्द ही ॥29॥
आँगन में यम-मूर्ति यामिनी आ गयी,
घर के भीतर अटल अँधेरी छा गयी।
लाख लाख नक्षत्र-नयन नभ खोल कर-
हमें देखने लगा न कुछ भी बोल कर ॥30॥
देख, दैव! तू देख, हमारे नाश को,
देखा मैंने एक बार आकाश को।
तत्क्षण मुँह पर दिया थपेड़ा वायु ने,
साथ न छोड़ा किन्तु अभागी आयु ने! ॥31॥
कुलवन्ती भी उठी निकट आयी तथा,
बोली-“अब” बस, कह न सकी फिर कुछ कथा।
लिपट गयी वह फूट फूट कर रो उठी,
मैं भी रोया, विषम वेदना हो उठी ॥32॥
ऐसे निर्दय भाव भरे हैं वित्त में!
एक वार ही लगी आग-सी चित्त में।
बोला मैं-अब हैं स्वतन्त्र दोनों जने-
मैं शिव हूँ, तू शक्ति, देश मरघट बने ॥33॥
नहीं, नहीं, शिव नहीं, बनूँगा रुद्र मैं,
जानेंगे सब लोग नहीं हूँ क्षुद्र मैं।
पुलिस मुझे थी व्यर्थ लुटेरा कह रही,
देखे अब वह शीघ्र कि हाँ, मैं हूँ वही ॥34॥
आप लुटेरे, और बनाते हैं हमें,
लुटवाते हैं आप, सताते हैं हमें।
करते हैं बदनाम सभ्य सरकार को,
करती है जो दूर सदा अविचार को ॥35॥
जमादार वह कहाँ? आज पकड़े मुझे,
आवे, आकर यहाँ आज जकड़े मुझे।
जिन पन्द्रह के तीस मुझे देने पड़े-
खटकेंगे आ-मरण कलेजे में अड़े ॥36॥
यदि मैं डाकू बनूँ, मुझे क्या दोष है?
दोषी है तो पुलिस, उसी पर रोष है।
जमींदार भी कु-फल किये का पायगा,
झूठे रुक्के फिर न कभी लिखवायगा ॥37॥
और महाजन? कर्ज लिया उससे सही,
किन्तु व्याज की लूट नहीं जाती सही।
मुझ से मेरे बन्धु न लुटने पायँगे,
वही लुटेंगे जो कि लूटने जायँगे ॥38॥
मैं क्या क्या कह गया न जाने, रोष से,
गूंज उठा घर घोर घटा-से घोष से।
मन में आया, आग लगा दूँ मैं अभी,
इसी गेह से भभक उठे भारत सभी! ॥39॥
कुलवन्ती डर गयी, कष्ट पाती हुई-
बोली कातर गिरा गिड़गिड़ाती हुई-
“हाहा खाती हूँ, न हाय! तुम यों कहो,
शान्त रहो, दुर्भाग्य जान कर सब सहो ॥40॥
न लो लूट का नाम, पाप है पाप ही,
फल पावेंगे सभी किये का आप ही।
छोड़ो बुरे विचार पाप-प्रतिकार के,
न्यायालय हैं खुले हुए सरकार के ॥41॥
कोई हो, जब दोष सिद्ध हो जायगा,
दण्ड पायगा, कभी न बचने पायगा।
प्रभु के घर भी न्याय और सु-विचार है,
भला, दण्ड का हमें कौन अधिकार है? ॥42॥
पर न रहो अब यहाँ, ठौर भी है कहाँ;
चलो, चलें, ले जाय भाग्य अपना जहाँ।
सास-ससुर के फूल तीर्थ में छोड़ कर-
माँगूंगी मैं क्षमा वहाँ कर जोड़ कर ॥43॥
गंगा मैया दया करेगी अन्त में,
सारे दुख-सन्ताप हरेगी अन्त में।
भाग्य हमारे बुरे, किसी ने क्या किया?
हरि ने भी वनवास एक दिन था लिया! ॥44॥
आग लगे क्यों, और देश भी क्यों जले;
सुखी रहे वह और सदा फूले-फले।
भूमि बहुत है, कहीं ठौर पा जायेंगे,
प्रभु देंगे तो कभी सु-दिन भी पायेंगे ॥45॥
तुम मेरे सर्वस्व, मुझे मत छोड़ियो,
विचलित हो कर नियम न कोई तोड़ियो।”
यों कह कर वह मुझे पकड़ कर रह गयी,
गद्गद होती हुई जकड़ कर रह गयी! ॥46॥
कुलवन्ती! हे प्रिये! शान्त हो, शान्त हो,
चलो जहाँ पर मनुज न हों, एकान्त हो।
तू ही मेरी एक मात्र है सम्पदा,
दीप-शिखा-सी मार्ग दिखाती रह सदा ॥47॥
था मैं भी सावेग उसे पकड़े खड़ा,
इसी समय कुछ शब्द द्वार पर सुन पड़ा।
साँकल खटकी और सिपाही ने कहा-
बेगारी चाहिए, निकल, क्या कर रहा! ॥48॥
बेगारी? क्या नहीं आज भी मुक्ति है?
बचने की अब यहाँ कौन सी युक्ति है?
छूटे अब तो पिण्ड, देश हम छोड़ते,
सब से निज सम्बन्ध सदा को तोड़ते! ॥49॥
यम के रहते हुए हाय! ऐसी व्यथा?
पूरी हो क्या यहीं अधूरी यह कथा?
दयानिधे; क्या दया तुम्हारी चुक गयी?
और अधिक क्या कहूँ, गिरा भी रुक गयी! ॥50॥
- देशत्याग
एक जन ने यों त्रिवेणी-तीर पर मुझ से कहा-
“तरस मुझको आ रहा है देख कर तुमको अहा!
तुम दुखी-से दीखते हो, क्या तुम्हें कुछ कष्ट है?
कठिन है निर्वाह भी, यह देश ऐसा नष्ट है! ॥1॥
“यह अवस्था और सूखे फूल-सा यह मुख हुआ,
जान पड़ता है, कभी तुम को नहीं कुछ सुख हुआ!
किन्तु अब चिन्ता नहीं, तुम पर हुई प्रभु की दया,
जान लो, बस, आज से ही दिन फिरे, दुख मिट गया! ॥2॥
“शीघ्र मैं साहब बहादुर से मिलाऊँगा तुम्हें,
नौकरी-पर मालिकी-सी मैं दिलाऊँगा तुम्हें।
वस्त्र-भोजन और पन्द्रह का महीना, धाम भी,
काम भी ऐसा कि जिसमें नाम भी, आराम भी ॥3॥
“सैर सागर की करोगे दृश्य देख नये नये,
जानते हो तुम पुरी को? द्वारिका भी हो गये?
यह बहू है? ठीक है बस, भाग्य ने अवसर दिया,
याद मुझको भी करोगे, या किसी ने हित किया”! ॥4॥
मैं चकित सा रह गया, यह मनुज है या देवता;
पर लगा पीछे मुझे उस “आरकाटी” का पता!
सावधान! स्वदेशवासी, हा! तुम्हारे देश में-
घूमते हैं दुष्ट दानव मानवों के वेश में! ॥5॥
सजग रहना, सत्य-वेशी झूठ है छलता यहाँ,
देव-वेशी दस्यु-दल की बढ़ रही खलता यहाँ।
प्रकृत पापी भी यहाँ पर साधु फिरते हैं बने,
देखना, सर्वत्र उन के जाल फैले हैं घने! ॥6॥
रात तक हमको फँसा कर वह “डिपो” में ले गया,
घेर कोई ढोर कांजीहौस में ज्यों दे गया!
और भी पशु-सम वहाँ कितने अभागे थे घिरे,
हाय! दलदल से निकलकर हम अनल में जा गिरे! ॥7॥
उस नरक के द्वार को ही देख कुलवन्ती डरी,
डूब कर ही क्या रहेगी अन्त में जीवन-तरी।
जानता था मैं कि मैंने दुःख भोग लिए सभी,
किन्तु दुःख अपार हैं, पूरे नहीं होते कभी! ॥8॥
हो चुके सर्वस्व खो कर दीन से भी दीन थे,
किन्तु फिर भी हम अभी तक सर्वथा स्वाधीन थे।
आज मुक्त समीर में वह साँस लेना भी चला,
हो गया संकीर्ण नभ, घुटने लगा मानों गला! ॥9॥
किन्तु क्या करते, विवश थे, हम वचन थे दे चुके,
आप ही थे आपदा का भार सिर पर ले चुके।
कौन फँसता है निकलने के लिए दृढ़ जाल में?
दैव ने यह भी लिखा था इस कठोर कपाल में! ॥10॥
शीघ्र ही ‘साहब बहादुर’ ने हमें दर्शन दिये,
और झट ‘हाँ’ भी कराली ‘फिजी’ जाने के लिये!
जानते थे हम न तब भी यह कि केवल एक ‘हाँ’
पाँच बरसों के लिए रौरव नरक देती यहाँ! ॥11॥
देख लो, अब वह अतल जल सामने लहरा रहा,
काल का-सा केतु वह जलयान पर फहरा रहा।
यह हमारी सिन्धु-यात्रा हो महायात्रा कहीं,
फेर दे तो क्यों न हम पर सिन्धु तू पानी यहीं! ॥12॥
हाय रे भारत! तुझे इतना हमारा भार है-
जो हमारा अन्त भी तुझको नहीं स्वीकार है!
मृत्यु हित भी सात सागर पार जाना है हमें,
स्वर्ग के बदले वहाँ भी नरक पाना है हमें! ॥13॥
पूछने पर यह कि “कैसे है हुआ आना यहाँ,”
आर्यभूमि! हमें बता दे, क्या कहेंगे हम वहाँ?
बोल, यह कह दें कि तेरी कीर्ति करने के लिए,
या यही कह दें कि अपनी मौत मरने के लिए! ॥14॥
हड्डियाँ घोली तथा शोणित सुखाया है सदा,
उर्वरा करके तुझे दी है हमी ने सम्पदा।
और भारतभूमि! तुझ से हा! हमी वंचित रहे,
याद तो कर तू कि हमने कष्ट कितने हैं सहे ॥15॥
अन्नपूर्णारूपिणी माँ! तू हमें है छोड़ती,
हाय! माँ होकर सुतों से तू स्वयं मुँह मोड़ती!
तो बिदा दे अब हमें, तू भोगती रह सुख सभी,
हम सदा तेरे, न चाहे तू हमारी हो कभी! ॥16॥
बस, जहाज! चले चलो, अब डगमगाना छोड़ दो,
पवन! तुम भी सिन्धु में लागें लगाना छोड़ दो।
देखने को सभ्ययुग के दृश्य हम हैं जा रहे,
किन्तु भीतर और बाहर क्यों हिलोरे आ रहे! ॥17॥
हम कुली थे और काले, गगन से मानों गिरे,
पशु-समान जहाज में थोड़ी जगह में थे घिरे!
भंगियों का काम भी परवश हमें करना पड़ा।
और कुत्तों की तरह पापी उदर भरना पड़ा! ॥18॥
मृत्यु का मुख-सा हमारे अर्थ रहता था खुला,
रोटियाँ पाते गिनी हम और पानी भी तुला!
बहुत हो तो गालियाँ खावें तथा आँसू पियें,
पूछता था कौन फिर चाहे मरें चाहे जियें! ॥19॥
बहुत लोग जहाज में ही कष्ट पा कर मर गये,
धन्य थे वे शीघ्र ही जो सब दुखों से तर गये!
जो मरा फेंका गया तृण-तुल्य सागर-नीर में,
हड्डियां भर पा सके जलचर विनष्ट शरीर में! ॥20॥
दूर चारों ओर मानों सिन्धु नभ में था धंसा,
बीच में गतिशील भी, जलयान मानों था फँसा।
ज्ञात होता था यही-अब निकलना सम्भव नहीं,
मर मिटेंगे बीच में हम सब यहीं दब कर कहीं! ॥21॥
त्योरियाँ अधिकारियों की बरछियाँ-सी हूलती,
दृष्टियाँ तलवार-सी सिर पर सदा थी झूलती।
वध्य पशु-सम अर्द्धमृत हम तीन मास सड़ा किये।
तब कहीं जा कर फिजी ने सामने दर्शन दिये! ॥22॥
कैदियों-सा पुलिस ने आकर हमें घेरा वहाँ,
काल की-सी कोठड़ी में फिर मिला डेरा वहाँ।
नींद भी डर से न सहसा कर सकी फेरा वहाँ,
दीखता था बस हमें अन्धेर-अन्धेरा वहाँ! ॥23॥
दैव! ला पटका कहाँ, हा! हम कहाँ भारत कहाँ;
जन्म पाया था वहाँ, आये तथा मरने यहाँ।
सो गया जब तक न मैं यों ही व्यथा होती रही,
किन्तु कुलवन्ती न सोई, रात भर रोती रही! ॥24॥
- फिजी
अधम आरकाटी कहता था फिजी स्वर्ग है भूपर;
नभ के नीचे रह कर भी वह पहुँच गया है ऊपर।
मैं कहता हूँ फिजी स्वर्ग है तो फिर नरक कहाँ है,
नरक कहीं हो किन्तु नरक से बढ़कर दशा यहाँ है ॥
दया भले ही न हो नरक में न्याय किया जाता है,
आता है हतभाग्य यहाँ जो दण्ड मात्र पाता है।
यम के दूत निरपराधों पर कब प्रहार करते हैं,
यहाँ निष्ठुरों के हाथों हम बिना मौत मरते हैं ॥2॥
ढोर कसाई खाने में बस भूख प्यास सहते हैं,
जोते कभी नहीं जाते हैं बँधे मात्र रहते हैं।
नियमबद्ध हम अधपेटों को खेत गोड़ने पड़ते,
अवधि पूर्ण होने के पहले प्राण छोड़ने पड़ते ॥3॥
गीध मरी लोथें खाते हैं ओवरसियर निरन्तर,
हाथ चलाते यहाँ हमारी जीती अबलाओं पर।
भारतीय कुलियों का मानों फिजी श्मशान हुआ है
हाय! मनुजता का मनुजों से यह अपमान हुआ है ॥4॥
भूमि राम जाने किसकी है, श्रम है यहाँ हमारा,
किन्तु विदेशी व्यापारी ही लाभ उठाते सारा।
जड़ यन्त्रों को भी तैलादिक भक्ष्य दिया जाता है,
अर्द्धाशन में हम से दूना काम लिया जाता है ॥5॥
हाथों में फोले पड़ जावें पर धरती को गोड़ो,
रोगी रहो, किन्तु जीते जी कार्य अपूर्ण न छोड़ो।
ये गन्नों के खेत खड़े हैं इनसे खाँड़ बनेगी,
उससे तुम्हीं भारतीयों की मीठी भंग छनेगी ॥6॥
भारतवासी बन्धु हमारे! तुम यह खाँड़ न लेना,
लज्जा से यदि न हो घृणा से इसे न मुँह में देना।
हम स्वदेशियों के शोणित में यह शर्करा सनी है,
हाय! हड्डियाँ पिसी हमारी तब यह यहाँ बनी है ॥7॥
वह देखो, किसकी ठोकर से किसकी तिल्ली टूटी,
धरती लाल हुई शोणित से हाय! खोपड़ी फूटी।
अपनी फाँसी आप कौन वह लगा रहा है देखो,
जीवन रहते विवश मृत्यु को जगा रहा है देखो ॥8॥
देखो, दूर खेत में है वह कौन दुःखिनी नारी,
पड़ी पापियों के पाले है वह अबला बेचारी।
देखो, कौन दौड़ कर सहसा कूद पड़ी वह जल में,
पाप जगत से पिण्ड छुड़ा कर डूबी आप अतल में ॥9॥
न्यायदेवता के मन्दिर में देखो, वह अभियोगी,
हो उलटा अभियुक्त आप ही हुआ दण्ड का भोगी।
प्रतिवादी वादी बन बैठा, वह ठहरा अधिकारी,
साक्षी कहाँ, कहाँ है साक्षी, है पूरी लाचारी ॥10॥
डूबे हुए पसीने में वे कौन आ रहे देखो,
आँखों में भी स्वेद बिन्दु या अश्रु छा रहे देखो।
परवश होकर दस दस घण्टे हैं वे खेत निराते,
साँझ हुए पर गिरते पड़ते डेरे पर हैं आते ॥11॥
दस नर पीछे तीन नारियाँ थकी और शंकित-सी,
देखो, लौट रही हैं कैसी पत्थर में अंकित-सी।
बुझे हुए दीपक-से मन हैं, नहीं निकलती वाणी;
हा भगवान! मनुज हैं ये भी अथवा गूंगे प्राणी ॥12॥
सुनो, फिजीवासी असभ्य वे हम से क्या कहते हैं-
क्या तुम जैसे ही जघन्य जन भारत में रहते हैं?
धिक् है उसको जिसके सुत यों घोर अनादर पावें,
पुरुष कहा कर पशुओं से भी बढ़कर समझे जावें ॥3॥
हे भारत के वीर वकीलो, हम क्या उत्तर देवें,
अथवा यह अपमान देश का चुप रह कर सह लेवें
अब भी गाँधी जैसे सुत की जननी भारतमाता,
तुझ से यह दुर्दृश्य निरन्तर कैसे देखा जाता ॥14॥
दे कर अन्न दूसरों का भी माँ, तू पालन करती,
पर तेरी सन्तति उसके हित परदेशों में मरती।
मरना ही है तो हे जननी! घर में ही न मरें क्यों,
परवश हो कर यहाँ आप ही अपना घात करें क्यों ॥15॥
रख न सके हम पुत्रों को ही होकर भी जो धरणी,
भरण न जो कर सके हमारा हो कर भी भवभरणी।
तो भगवान, भारतीयों की तनिक तुम्हीं सुध लीजो,
वहीं नरक है, मरने को ही जग में जन्म न दीजो ॥16॥
इसके आगे और क्या कहूँ जो कुछ मुझ पर बीती,
सब सह कर भी मुझे देखकर कुलवन्ती थी जीती।
मैं भी उसे देख जीता था मिथ्या है यह कहना,
ऐसा होता तो स्मृति-दंशन क्यों पड़ता यह सहना? ॥17॥
बस यह बात समाप्त करूँगा वही हाल कह कर मैं,
खोद रहा था खेत एक दिन ज्वराक्रान्त रह कर मैं।
गेंती का उठना गिरना थी गिनती मेरी साँसें,
हाथों में लिखती जाती थी उसे बेंट की आँसें ॥18॥
दिनकर सिर माथे पर थे जो मुझे निहार रहे थे,
रोम रोम से पाद्य प्राप्त कर स्वपद पखार रहे थे।
बड़ी दूर सुन पड़ा अचानक मुझको कुछ चिल्लाना,
चिर-परिचित कुलवन्ती का स्वर कानों ने पहचाना ॥19॥
हृदय धड़कने लगा वेग से शेष रहा बस फटना,
याद आ गयी वह भारत की नदी तीर की घटना।
जिसे तेंदुवे के पंजे से उस दिन बचा लिया था,
बचा सकोगे आज न उसको कहता यही हिया था ॥20॥
शीघ्र दौड़ कर जा कर मैंने कुलवन्ती को देखा,
भूपर पड़ी हुई थी मेरे नभ की हिमकर लेखा।
मुँह से बहते हुए रुधिर से अंचल लाल हुआ था,
हा! स्वधर्म रखने में उसका ऐसा हाल हुआ था ॥21॥
पूछा मैंने-“यह क्या है” वह बोली “अन्त समय है,
किन्तु आ गये तुम अब मुझको नहीं मृत्यु का भय है।
तुम्हें देख कर काल रूप वह ओवरसियर गया है,
यह चिर शान्ति आ रही है अब यह भी दैव दया है ॥22॥
प्रकटित करके पाप-वासना वह दुःशील सुरापी,
लोभ और भय दे कर मुझको लगा छेड़ने पापी,
किन्तु विफल होकर फिर उसने यह दुर्गति की मेरी,
सुखी रहो तुम सदा सर्वदा, मुझे नहीं अब देरी ॥23॥
यही शोक है, दे न सकी मैं अंक मयंक तुम्हारा,
रहा पेट ही में वह मेरे चला नहीं कुछ चारा।
लो बस अब मैं चली सदा को मन में मत घबराना,
मेरे फूल जा सको तुम तो, भारत को ले जाना” ॥24॥
हाय! आज भी उन बातों से फटती यह छाती है,
कुलवन्ती, कुलवन्ती मुझको छोड़ कहाँ जाती है।
तनिक ठहर, मैं भी चलता हूँ, चली न जाना तौलों,
तेरे पीड़क के शोणित से प्यास बुझा लूँ जौलों ॥25॥
बड़े कष्ट से फिर वह बोली-“नादानी रहने दो,
मेरा ही शोणित नृशंस के आस पास बहने दो।
डूब जायगा वह उसमें ही तैर नहीं पावेगा,
सती गर्भिणी अबला का वध वृथा नहीं जावेगा ॥26॥
यही नहीं यह कुली-प्रथा भी उसमें बह जावेगी,
भावी भारत में बस इसकी स्मृति ही रह जावेगी।
रहे न वह अपमान स्मृति भी प्रभु से यही विनय है,
पूर्व निरादर भी मानी को बन जाता विषमय है ॥27॥
शासक जब इन सब बातों का पूर्ण पता पा लेंगे,
तब अपना कर्त्तव्य आप ही वे अवश्य पा लेंगे।
मेरा मन कहता है कोई काम तुम्हें है करना,
है मेरी सौगन्ध तुम्हें तुम इस प्रकार मत मरना ॥28॥
हे भगवान! तुम्हारे सब दुख मैं ही लेती जाऊँ,
और जन्म-जन्मान्तर में भी तुम को ही फिर पाऊँ।”
इसके बाद याद है, मैंने राम राम सुन पाया,
उसी नाम को गिरते गिरते मैंने फिर दुहराया ॥29॥
- प्रत्यावर्तन
कुलवन्ती! तू भी छोड़ गयी क्या मुझको?
क्यों मेरा रहना यहाँ इष्ट था तुझको।
रख कर तेरी सौगन्ध रहूँगा अब मैं;
मरणाधिक दुख आमरण सहूँगा अब मैं ॥1॥
तू जहाँ गयी भय नहीं वहाँ पर कोई;
पर मैंने अपनी आज हृदय-निधि खोई।
मरने का अवसर खोज रहा हूँ अब मैं,
यह तो कह जाती कि पा सकूँगा कब मैं ॥2॥
मिथ्या हो सकती नहीं सती की वाणी,
बड़वाग्नि बुझा सकता न सिन्धु का पानी।
अनुभव करता हूँ परम सत्यता तेरी,
क्या स्वप्न मात्र है प्रिये! कथा वह मेरी? ॥3॥
दो सहृदय साहब यहाँ शीघ्र ही आये;
दुख देख हमारे चार नेत्र भर लाये।
ऐन्ड्रयूज-पियर्सन विदित नाम हैं उनके,
मनुजोचित मंगल मनस्काम हैं उनके ॥4॥
उनकी रिपोर्ट पढ़ दशा हमारी जानों,
फिर मैंने जो कुछ कहा सत्य सब मानों।
पशु कर रक्खें जो मनुज कहीं मनुजों को,
पशु क्यों न कहूँ उन मनुज रूप दनुजों को ॥5॥
अन्यान्य अनेक मनुष्य भाव के मानी,
यों देख सके उसकी न यहाँ पर हानि।
निज दुर्गति सुन चौंकने लगा भारत भी,
हा! ‘भी’ पद पर आसीन जगा भारत भी ॥6॥
समझी भारत सरकार अन्त में बातें,
निज कुली प्रजा के साथ यहाँ की घातें।
थे बड़े लाट हार्डिज-भला हो उनका-
सह सके न लगना न्याय-दण्ड में घुन का ॥7॥
थे यदपि यहाँ के वणिक वर्ण से भाई,
देखा न उन्होंने स्वार्थ, दया दिखलाई।
बस पक्षपात से न्यायशील डरते हैं,
आत्मा का कभी विरोध नहीं करते हैं ॥8॥
क्या किया उन्होंने नहीं जानता हूँ मैं,
पर उन्हें न्याय का रूप मानता हूँ मैं।
थी तीन नरों में जहाँ एक ही नारी,
टूटी आखिर वह कुली प्रथा व्यभिचारी ॥9॥
बिजली ने यह वृत्तान्त यहाँ जब भेजा,
दहला वणिकों का वज्र समान कलेजा।
हम सब के उर में इधर फिरी बिजली-सी,
डीपो वालों पर उधर गिरी बिजली-सी ॥10॥
उन मृगों से कि जो जटिल जाल से छूटे,
पूछो हम ने जो सौख्य उस समय लूटे।
जय जय करके सब सुधा स्वाद लेते थे,
मृत बन्धु जनों को सुसंवाद देते थे॥11॥
उस घृणित प्रथा से मुक्ति देश ने पायी;
फिर हम लोगों के लिए शुभ घड़ी आयी।
भारत को लौटे चले जा रहे हम हैं;
बह गया हुआ स्वातन्त्र्य पा रहे हम हैं॥12॥
कुलवन्ती, तू क्यों आज कुछ नहीं कहती,
तेरे शोणित में कुली-प्रथा है बहती।
लेकर मैं तेरे फूल चला भारत को,
तू एक बार तो देख भला भारत को ॥13॥
भारत! फिर क्यों तू याद आ रहा मुझको,
क्यों दिन दिन अपने निकट ला रहा मुझको।
आता है मेरी ओर आज तू ज्यों ज्यों,
होता है मुझको महामोद क्यों त्यों त्यों ॥14॥
अब अपना कहने योग्य कौन है तुझमें,
जो है तेरा अभिमान, आज भी मुझमें।
तू तो है तुझमें देश! आज भी मेरा,
तुझमें है भाषा-वेश आज भी मेरा ॥15॥
तेरे गीतों में भाव भरा है मेरा,
तेरी चर्चा में चाव भरा है मेरा।
तुझ में पुरुखों का गेह बना है मेरा,
तेरे तत्त्वों से देह बना है मेरा ॥16॥
तुझ में अब भी कुल रीति नीति है मेरी,
इस कारण तुझ पर परा प्रीति है मेरी।
पाता हूँ जग में कहीं न तेरी समता,
होती विदेश में ही स्वदेश की ममता ॥17॥
यद्यपि तुझ में है दुःख निरन्तर पाया,
पर जा सकता तू नहीं कदापि भुलाया।
तू मेरा है यह भाव रहेगा मन में,
जब तक ये मेरे प्राण रहेंगे तन में ॥18॥
देखूं, भारत! मैं तुझे देखता हूँ कब,
इच्छा है केवल एक यही जी में अब।
हमको स्वदेश जलयान, शीघ्र पहुँचाओ,
वह स्वप्न दृश्य प्रत्यक्ष सामने लाओ॥19॥
- अन्त
उतर नाव से सिर पर रक्खी सबने भारत की वह धूल,
जिस पर प्रकृति चढ़ा रखती है रंग बिरंगे सुरभित फूल।
किया चिबुक चुम्बन समीर ने देकर हमें सुरभि उपहार,
पल्लव पाणि युक्त विटपों ने किया सहज स्वागत सत्कार ॥1॥
सोच रहा था मैं मन ही मन करूँ कौन सा अब मैं काम,
जिसमें कुलवन्ती की आत्मा पावे शान्ति और विश्राम।
सहसा हुआ विचार कि जिसने हमें नरक से लिया उबार,
पड़ी आज कल रण संकट में वह मेरी उदार सरकार ॥2॥
मेरे लिए यही अवसर है कि मैं करूँ उसका ऋण शोध,
धिक है जो उसके रिपुओं पर अब भी मुझे न आवे क्रोध।
धन यदि नहीं, न हो पर तन तो अब भी मेरा है अवशिष्ट,
उसके रहते हुए राज्य का देखूं मैं किस भाँति अनिष्ट ॥3॥
पर हल और फावड़े तक ही सीमाबद्ध रहे जो हाथ,
चला सकेंगे क्या शस्त्रों को रण में वे कौशल के साथ।
धनुर्वेद की शिक्षा पाकर बनते थे जो विश्रुत बीर,
होकर अब निःशस्त्र वही हम हुए हाय! अत्यन्त अधीर ॥4॥
कुछ हो, किन्तु कुली जीवन से रण का मरण भला है नित्य,
एक शत्रु भी मार सका मैं तो हो जाऊँगा कृतकृत्य।
कहा साथियों से तब मैंने अपना अभिप्राय तत्काल,
और कहा कि भाइयो, आओ, तोड़ें शत्रु जनों के जाल ॥5॥
ब्रिटिश राज्य के उपकारों का बदल चलो, चुका दें आज,
मरें न्याय के लिए समर में रक्खें मनुष्यता की लाज।
पन्ना जैसी माताओं ने देकर भी गोदी के लाल,
यहाँ राजकुल की रक्षा की चली न बनवीरों की चाल ॥6॥
उसी देश में जन्मे हैं हम हुए जहाँ झालापति मान,
भारत का प्रताप रखने को दिये जिन्होंने रण में प्राण।
राजभक्ति सर्वत्र हमारी रही सदा से ही विख्यात,
उसे दिखाने का शुभ अवसर यही मुझे होता है ज्ञात ॥7॥
किया साथियों के सम्मुख जो मैंने यह अपना प्रस्ताव,
जाग उठे बस सब के मन में सहसा श्रद्धा साहस भाव।
हुए सहस्रों की संख्या में सेना में प्रविष्ट हम लोग,
कृषक, कुली फिर सैनिक जीवन देखो, नये नये संयोग ॥8॥
इसी समय सरकार न्याय कर भारतीय वीरों के साथ,
उन्हें अफसरी के परवाने देने लगी बढ़ाकर हाथ।
भारतीय ही थे हम सब की सेना के संचालक वीर,
पाकर यों उत्साह हमारे पुलक पूर्ण हो उठे शरीर ॥9॥
आखिर शुभ मुहूर्त में सब ने रण के लिए किया प्रस्थान
हिलता डुलता गर्व पूर्ण सा चलने लगा प्रबल जलयान।
बीच बीच में सीतावर की करते थे सब जय जयकार,
स्वर में स्वर देकर अनन्त भी करता था उसकी गुंजार ॥10॥
यथा समय टिगरिस के तट पर उतरे हम सब डेरे डाल,
समाचार पत्रों में पढ़ना इस के आगे का सब हाल।
एक रोज अरिदल से आकर मैं अचेत हो हुआ सचेत,
‘विक्टोरिया क्रास’ छाती पर देखा मैंने शान्ति समेत ॥11॥
भारतीय कप्तान हमारे मुझे धैर्य देकर सविशेष,
पूछ रहे हैं घर कहने को अब मेरा अन्तिम सन्देश।
पाठक, क्या कहकर मैं इन से माँगूँ तुमसे बिदा सहर्ष,
और मिलूँ झट कुलवन्ती से पाकर अन्त समय उत्कर्ष ॥12॥
भारतीय मेरे बान्धव हैं, घर है मेरा सारा देश,
बस यह मेरा आत्म चरित ही है मेरा अन्तिम सन्देश।
इससे अधिक और क्या अब मैं कह सकता हूँ हे भगवान,
मेरे साथ देश के सारे दुखों का भी हो अवसान ॥13॥
(फाल्गुनी पूर्णिमा संवत् 1973)