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भारत-भारती/मैथिलीशरण गुप्त

श्री रामः
प्रिय पाठकगण,
आज जन्माष्टमी है, आज का दिन भारत के लिए गौरव का दिन है। आज ही हम भारतवासियों को यहाँ तक कहने का अवसर मिला था। कि-
जय जय स्वर्गागार-सम भारत-कारागार।
पुरुष पुरातन का जहाँ हुआ नया अवतार।।

जब तक संसार में भारत वर्ष का अस्तित्व रहेगा, तब तक यह दिन उसकी महिमा का महान दिन समझा जायेगा, इसमें कुछ भी सन्देह नहीं। आज भगवान ने उन वचनों की सार्थकता दिखाई थी, जिन्हें आपने कुरुक्षेत्र में अर्जुन को गीता का उपदेश करते हुए, प्रकट किया था-
“यदा यदा हि धर्मस्य ग्लानिर्भवति भारत !
अभ्युत्थानमधर्मस्य तदात्मानं सृजाम्यहम्।”

भला मेरे लिए इससे शुभ और कौन-सा दिन होता कि मैं प्रस्तुत पुस्तक आप लोगों के सम्मुख उपस्थित करने के लिए पूर्ण करूँ।
यह बात मानी हुई है कि भारत की पूर्व और वर्तमान दशा में बड़ा भारी अन्तर है। अन्तर न कहकर इसे वैपरीत्य कहना चाहिए। एक वह समय था कि यह देश विद्या, कला कौशल और सभ्यता में संसार का शिरोमणि था और एक समय है कि इन्हीं बातों का इसमें शोचनीय अभाव हो गया है। जो आर्य जाति कभी सारे संसार को शिक्षा देती थी वही आज पराया मुँह ताक रही है ! ठीक है, जिसका जैसा उत्थान, उसका वैसा ही पतन !
परन्तु क्या हम लोग सदा अवनति में ही पड़े रहेंगे ? हमारे देखते-देखते जंगली जातियाँ तक उठकर हमसे आगे बढ़ जायें और हम वैसे ही पड़े रहें, इससे अधिक दुर्भाग्य की बात और क्या हो सकती है ? क्या हम लोग अपने मार्ग से यहाँ तक हट गये हैं कि अब उसे पा ही नहीं सकते ? क्या हमारी सामाजिक अवस्था इतनी बिगड़ गई है कि वह सुधारी ही नहीं जा सकती ? क्या सचमुच हमारी यह निद्रा चिरनिद्रा है ? क्या हमारा रोग ऐसा असाध्य हो गया है कि उसकी कोई चिकित्सा ही नहीं ?
संसार में ऐसा कोई भी काम नहीं जो सचमुच उद्योग से सिद्ध न हो सके। परन्तु उद्योग के लिए उत्साह की आवश्यकता है। बिना उत्साह के उद्योग नहीं हो सकता। इसी उत्साह को, इसी मानसिक वेग को उत्तेजित करने के लिए कविता एक उत्तम साधन है। परन्तु बड़े खेद की बात है कि हम लोगों के लिए हिन्दी में अभी तक इस ढंग की कोई कविता पुस्तक नहीं लिखी गई जिसमें हमारी प्राचीन उन्नति और अर्वाचीन अवनति का वर्णन भी हो और भविष्य के लिए प्रोत्साहन भी। इस अभाव की पूर्ति के लिए जहाँ तक मैं जानता हूं, कोई यथोचित प्रयत्न नहीं किया गया। परन्तु देशवत्सल सज्जनों को यह त्रुटि बहुत खटक रही है। ऐसे ही महानुभावों में कुर्रीसुदौली के अधिपति माननीय श्रीमान् राजा रामपालसिंह जी के. सी. आई. ई. महोदय हैं।
कोई दो वर्ष हुए, मैंने ‘पूर्व दर्शन’ नाम की एक तुकबन्दी लिखी थी। उस समय चित्त में आया था कि हो सका तो कभी इसे पल्लवित करने की चेष्टा भी करूँगा। इसके कुछ ही दिन बाद उक्त राजा साहब का एक कृपापत्र मुझे मिला, जिसमें श्रीमान् ने मौलाना हाली के मुसद्दस को लक्ष्य करके इस ढंग की एक कविता पुस्तक हिन्दुओं के लिए लिखने का मुझसे अनुग्रहपूर्वक अनुरोध किया। राजा साहब की ऐसी अभिरुचि देखकर मुझे हर्ष तो बहुत हुआ, पर साथ ही अपनी अयोग्यता के विचार से संकोच भी कम न हुआ। तथापि यह सोचकर कि बिलकुल ही न होने की अपेक्षा कुछ होना ही अच्छा है, मैंने इस पुस्तक के लिखने का साहस किया। श्रीरामनवमी सं. 1968 से आरम्भ करके भगवान् की कृपा से आज मैं इसे समाप्त कर सका हूँ। बीच-बीच में कई कारणों से महीनों इसका काम रुका रहा। इसी से इसके समाप्त होने में इतना विलम्ब हुआ। मैं नहीं जानता कि मैं अपने पूज्यवर श्रीमान् पण्डित महावीरप्रसाद द्विवेदी जी महाराज और माननीय श्रीयुक्त “वार्हस्पत्य” जी महोदय के निकट, उनकी उन अमूल्य सम्मतियों के लिए, जिन्होंने मुझे इस विषय में कृतार्थ किया है, किस प्रकार अपनी कृतज्ञता प्रकट करूँ। सुहृद्वर श्रीयुक्त पण्डित पद्मसिंह जी शर्मा, राय कृष्णदास जी और ठाकुर तिलकसिंह जी का भी मैं विशेष कृतज्ञ हूँ, जिन्होंने मेरा उत्साह बढ़ाकर मुझे सहायता दी है। हाली और कैफी के मुसद्दसों भी मैंने लाभ उठाया है, इसलिए उनके प्रति भी मैं हार्दिक कृतज्ञता प्रकट करता हूँ। जिन पुस्तकों और लेखों से इस पुस्तक में नोट उद्घृत किये गये हैं, उनके लेखकों के निकट भी मैं विशेष उपकृत हूँ।
मुझे दुख है कि इस पुस्तक में कहीं-कहीं मुझे कुछ कड़ी बातें लिखनी पड़ी हैं, परन्तु मैंने किसी की निन्दा करने के विचार से कोई बात नहीं लिखी। अपनी सामाजिक दुरावस्था ने वैसा लिखने के लिए मुझे विवश किया है। जिन दोषों ने हमारी यह दुर्गति की है, जिनके कारण दूसरे लोग हम पर हँस रहे हैं, क्या उनका वर्णन कड़े शब्दों में किया जाना अनुचित है ? मेरा विश्वास है कि जब तक हमारी बुराइयों की तीव्र आलोचना न होगी तब तक हमारा ध्यान उनको दूर करने की ओर समुचित रीति से आकृष्ट न होगा। फिर भी यदि भूल से, कोई बात अनुचित लिख गई हो तो उसके लिए मैं नम्रतापूर्वक क्षमाप्रार्थी हूँ।
मैं जानता हूँ कि इस पुस्तक को लिखकर मैंने अनाधिकार चेष्टा की है। मैं इस काम के लिए सर्वथा अयोग्य था। परन्तु जब तक हमारे विद्वान और प्रतिभाशाली कवि इस ओर ध्यान न दें और इस ढंग की दूसरी कोई अच्छी पुस्तक न निकले, तब तक, आशा है, उदार पाठक मेरी धृष्टता को क्षमा करेंगे।
– मैथिलीशरण गुप्त

अतीत खण्ड : भारतभारती

  1. मंगलाचरण

मानस भवन में आर्य्जन जिसकी उतारें आरती-

भगवान् ! भारतवर्ष में गूँजे हमारी भारती।

हो भद्रभावोद्भाविनी वह भारती हे भवगते !

सीतापते। सीतापते !! गीतामते! गीतामते !!॥१॥

  1. उपक्रमणिका

हाँ, लेखनी ! हृत्पत्र पर लिखनी तुझे है यह कथा,

दृक्कालिमा में डूबकर तैयार होकर सर्वथा।

स्वच्छन्दता से कर तुझे करने पड़ें प्रस्ताव जो,

जग जायें तेरी नोंक से सोये हुए हों भाव जो॥।२॥

संसार में किसका समय है एक सा रहता सदा,

हैं निशि दिवा सी घूमती सर्वत्र विपदा-सम्पदा।

जो आज एक अनाथ है, नरनाथ कल होता वही;

जो आज उत्सव मग्र है, कल शोक से रोता वही॥३॥

चर्चा हमारी भी कभी संसार में सर्वत्र थी,

वह सद्गुणों की कीर्ति मानो एक और कलत्र थी ।

इस दुर्दशा का स्वप्न में भी क्या हमें कुछ ध्यान था?

क्या इस पतन ही को हमारा वह अतुल उत्थान था?॥४॥

उन्नत रहा होगा कभी जो हो रहा अवनत अभी,

जो हो रहा उन्नत अभी, अवनत रहा होगा कभी ।

हँसते प्रथम जो पद्म हैं, तम-पंक में फँसते वही,

मुरझे पड़े रहते कुमुद जो अन्त में हँसते वही ॥५॥

उन्नति तथा अवनति प्रकृति का नियम एक अखण्ड है,

चढ़ता प्रथम जो व्योम में गिरता वही मार्तण्ड है ।

अतएव अवनति ही हमारी कह रही उन्नति-कला,

उत्थान ही जिसका नहीं उसका पतन ही क्या भला?॥६॥

होता समुन्नति के अनन्तर सोच अवनति का नहीं,

हाँ, सोच तो है जो किसी की फिर न हो उन्नति कहीं ।

चिन्ता नहीं जो व्योम-विस्तृत चन्द्रिका का ह्रास हो,

चिन्ता तभी है जब न उसका फिर नवीन विकास हो॥७॥

है ठीक ऐसी ही दशा हत-भाग्य भारतवर्ष की,

कब से इतिश्री हो चुकी इसके अखिल उत्कर्ष की ।

पर सोच है केवल यही वह नित्य गिरता ही गया,

जब से फिरा है दैव इससे, नित्य फिरता ही गया॥८॥

यह नियम है, उद्यान में पककर गिरे पत्ते जहाँ,

प्रकटित हुए पीछे उन्हीं के लहलहे पल्लव वहाँ ।

पर हाय! इस उद्यान का कुछ दूसरा ही हाल है,

पतझड़ कहें या सूखना, कायापलट या काल है?॥९॥

अनुकूल शोभा-मूल सुरभित फूल वे कुम्हला गए,

फलते कहाँ हैं अब यहाँ वे फल रसाल नये-नये?

बस, इस विशालोद्यान में अब झाड़ या झंखाड़ हैं,

तनु सूखकर काँटा हुआ, बस शेष हैं तो हाड़ हैं॥१०॥

दृढ़-दुःख दावानल इसे सब ओर घेर जला रहा,

तिस पर अदृष्टाकाश उलटा विपद-वज्र चला रहा ।

यद्यपि बुझा सकता हमारा नेत्र-जल इस आग को,

पर धिक्! हमारे स्वार्थमय सूखे हुए अनुराग को॥११॥

सहदय जनों के चित्त निर्मल कुड़क जाकर काँच-से-

होते दया के वश द्रवित हैं तप्त हो इस आँच से ।

चिन्ता कभी भावी दशा की, वर्त्तमान व्यथा कभी-

करती तथा चंचल उन्हें है भूतकाल-कथा कभी॥१२॥

जो इस विषय पर आज कुछ कहने चले हैं हम यहाँ,

क्या कुछ सजग होंगे सखे! उसको सुनेंगे जो जहाँ?

कवि के कठिनतर कर्म की करते नहीं हम धृष्टता,

पर क्या न विषयोत्कृष्टता करती विचारोत्कृष्टता?॥१३॥

हम कौन थे, क्या हो गए हैं और क्या होंगे अभी,

आओ विचारें आज मिलकर ये समस्याएँ सभी ।

यद्यपि हमें इतिहास अपना प्राप्त पूरा है नहीं,

हम कौन थे, इस ज्ञान का, फिर भी अधूरा है नहीं॥१४॥

  1. भारतवर्ष की श्रेष्ठता

भू-लोक का गौरव प्रकृति का पुण्य लीला-स्थल कहाँ ?

फैला मनोहर गिरी हिमालय और गंगाजल जहाँ ।

सम्पूर्ण देशों से अधिक किस देश का उत्कर्ष है,

उसका कि जो ऋषिभूमि है, वह कौन ? भारत वर्ष है॥१५॥

हाँ, वृद्ध भारतवर्ष ही संसार का सिरमौर है,

ऐसा पुरातन देश कोई विश्व में क्या और है ?

भगवान की भव-भूतियों का यह प्रथम भण्डार है,

विधि ने किया नर-सृष्टि का पहले यहीं विस्तार है॥१६॥

यह पुण्य भूमि प्रसिद्ध है, इसके निवासी ‘आर्य्य’ हैं;

विद्या, कला-कौशल्य सबके, जो प्रथम आचार्य्य हैं ।

संतान उनकी आज यद्यपि, हम अधोगति में पड़े;

पर चिन्ह उनकी उच्चता के, आज भी कुछ हैं खड़े॥१७॥

  1. हमारा उद्भव

शुभ शान्तिमय शोभा जहाँ भव-बन्धनों को खोलती,

हिल-मिल मृगों से खेल करती सिंहनी थी डोलती!

स्वर्गीय भावों से भरे ऋषि होम करते थे जहाँ,

उन ऋषिगणों से ही हमारा था हुआ उद्भव यहाँ॥१८॥

  1. हमारे पूर्वज

उन पूर्वजों की कीर्ति का वर्णन अतीव अपार है,

गाते नहीं उनके हमीं गुण गा रहा संसार है ।

वे धर्म पर करते निछावर तृण-समान शरीर थे,

उनसे वही गम्भीर थे, वरवीर थे, ध्रुव धीर थे॥१९॥

उनके अलौकिक दर्शनों से दूर होता पाप था,

अति पुण्य मिलता था तथा मिटता हृदय का ताप था ।

उपदेश उनके शान्तिकारक थे निवारक शोक के,

सब लोक उनका भक्त था, वे थे हितैषी लोक के॥२०॥

लखते न अघ की ओर थे वे, अघ न लखता था उन्हें,

वे धर्म्म को रखते सदा थे, धर्म्म रखता था उन्हें !

वे कर्म्म से ही कर्म्म का थे नाश करना जानते,

करते वही थे वे जिसे कर्त्तव्य थे वे मानते॥२१॥

वे सजग रहते थे सदा दुख-पूर्ण तृष्णा-भ्रान्ति से ।

जीवन बिताते थे सदा सन्तोष-पूर्वक शान्ति से ।

इस लोक में उस लोक से वे अल्प सुख पाते न थे,

हँसते हुए आते न थे, रोते हुए जाते न थे॥२२॥

जिनकी अपूर्व सुगन्धि से इन्द्रिय-मधुपगण थे हिले,

सद्भाव सरसिज वर जहाँ पर नित्य रहते थे खिले ।

लहरें उठाने में जहाँ व्यवहार-मारुत लग्न था,

उन्मत्त आत्मा-हंस उनके मानसों में मग्न था॥२३॥

वे ईश-नियमों की कभी अवहेलना करते न थे,

सन्मार्ग में चलते हुए वे विघ्न से डरते न थे ।

अपने लिए वे दूसरों का हित कभी हरते न थे,

चिन्ता-प्रपूर्ण अशान्तिपूर्वक वे कभी मरते न थे॥२४॥

वे मोह-बन्धन-मुक्त थे, स्वच्छन्द थे, स्वाधीन थे;

सम्पूर्ण सुख-संयुक्त थे, वे शान्ति-शिखरासीन थे ।

मन से, वचन से, कर्म्म से वे प्रभु-भजन में लीन थे,

विख्यात ब्रह्मानन्द – नद के वे मनोहर मीन थे॥२५॥

उनके चतुर्दिक-कीर्ति-पट को है असम्भव नापना,

की दूर देशों में उन्होंने उपनिवेश-स्थापना ।

पहुँचे जहाँ वे अज्ञता का द्वार जानो रुक गया,

वे झुक गये जिस ओर को संसार मानो झुक गया॥२६॥

वर्णन उन्होंने जिस विषय का है किया, पूरा किया;

मानो प्रकृति ने ही स्वयं साहित्य उनका रच दिया ।

चाहे समय की गति कभी अनुकूल उनके हो नहीं,

हैं किन्तु निश्चल एक-से सिद्धान्त उनके सब कहीं॥२७॥

वे मेदिनी-तल में सुकृत के बीज बोते थे सदा,

परदुःख देख दयालुता से द्रवित होते थे सदा ।

वे सत्वगुण-शुभ्रांशु से तम-ताप खोते थे सदा,

निश्चिन्त विघ्न-विहीन सुख की नींद सोते थे सदा॥२८॥

वे आर्य ही थे जो कभी अपने लिए जीते न थे;

वे स्वार्थ-रत हो मोह की मदिरा कभी पीते न थे ।

संसार के उपकार-हित जब जन्म लेते थे सभी,

निश्चेष्ट होकर किस तरह वे बैठ सकते थे कभी?॥२९॥

  1. आदर्श

आदर्श जन संसार में इतने कहाँ पर हैं हुए ?

सत्कार्य्य-भूषण आर्य्यगण जितने यहाँ पर हैं हुए ।

हैं रह गये यद्यपि हमारे गीत आज रहे सहे ।

पर दूसरों के भी वचन साक्षी हमारे हो रहे॥३०॥

गौतम, वशिष्ट-ममान मुनिवर ज्ञान-दायक थे यहाँ,

मनु, याज्ञवल्कय-समान सत्तम विधि- विधायक थे यहाँ ।

वाल्मीकि-वेदव्यास-से गुण-गान-गायक ये यहाँ,

पृथु, पुरु, भरत, रघु-से अलौकिक लोक-नायक थे यहाँ ॥३१॥

लक्ष्मी नहीं, सर्वस्व जावे, सत्य छोड़ेंगे नहीं;

अन्धे बने पर सत्य से सम्बन्ध तोड़ेंगे नहीं।

निज सुत-मरण स्वीकार है पर बचन की रक्षा रहे,

है कौन जो उन पूर्वजों के शील की सीमा कहे?॥३२॥

सर्वस्व करके दान जो चालीस दिन भूखे रहे,

अपने अतिथि-सत्कार में फिर भी न जो रूखे रहे !

पर-तृप्ति कर निज तृप्ति मानी रन्तिदेव नरेश ने,

ऐसे अतिथि-सन्तोष-कर पैदा किये किस देश ने ?॥३३॥

आमिष दिया अपना जिन्होंने श्येन-भक्षण के लिए,

जो बिक गये चाण्डाल के घर सत्य-रक्षण के लिए !

दे दीं जिन्होंने अस्थियाँ परमार्थ-हित जानी जहाँ,

शिवि, हरिश्चन्द्र, दधीचि-से होते रहे दानी यहाँ॥३४॥

सत्पुत्र पुरु-से थे जिन्होंने तात-हित सब कुछ सहा,

भाई भरत-से थे जिन्होंने राज्य भी त्यागा अहा !

जो धीरता के, वीरता के प्रौढ़तम पालक हुए,

प्रहलाद, ध्रुव, कुश, लब तथा अभिमन्यु-सम बालक हुए ॥३५॥

वह भीष्म का इन्द्रिय-दमन, उनकी धरा-सी धीरता,

वह शील उनका और उनकी वीरता, गम्भीरता,

उनकी सरलता और उनकी वह विशाल विवेकता,

है एक जन के अनुकरण में सब गुणों की एकता॥३६॥

वर वीरता में भी सरसता वास करती थी यहाँ,

पर साथ ही वह आत्म-संयम था यहाँ का-सा कहाँ ?

आकर करे रति-याचना जो उर्वशी-सी भामिनी,

फिर कौन ऐसा है, कहे जो, “मत कहो यों कामिनी”॥३७॥

यदि भूलकर अनुचित किसी ने काम का डाला कभी,

तो वह स्वयं नृप के निकट दण्डार्थ जाता था तभी ।

अब भी ‘लिखित मुनि’ का चरित वह लिखित है इतिहास में,

अनुपम सुजनता सिद्ध है जिसके अमल आभास में॥३८॥

  1. आर्यस्त्रियाँ

केवल पुरुष ही थे न वे जिनका जगत को गर्व था,

गृह-देवियाँ भी थीं हमारी देवियाँ ही सर्वथा ।

था अत्रि-अनुसूया-सदृश गार्हस्थ्य दुर्लभ स्वर्ग में,

दाम्पत्य में वह सौख्य था जो सौख्य था अपवर्ग में॥३९॥

निज स्वामियों के कार्य में सम भाग जो लेती न वे,

अनुरागपूर्वक योग जो उसमें सदा देती न वे ।

तो फिर कहातीं किस तरह ‘अर्द्धांगिनी’ सुकुमारियाँ ?

तात्पर्य यह-अनुरूप ही थीं नरवरों के नारियाँ॥४०॥

हारे मनोहत पुत्र को फिर बल जिन्होंने था दिया,

रहते जिन्होंने नववधू के सुत-विरह स्वीकृत किया ।

द्विज-पुत्र-रक्षा-हित जिन्होंने सुत-मरण सोचा नहीं,

विदुला, सुमित्रा और कुन्तो-तुल्य माताएँ रहीं॥४१॥

बदली न जा, अल्पायु वर भी वर लिया सो वर लिया;

मुनि को सता कर भूल से, जिसने उचित प्रतिफल दिया ।

सेवार्थ जिसने रोगियों के था विराम लिया नहीं,

थीं धन्य सावित्री, सुकन्या और अंशुमती  यहीं॥४२॥

मूँदे रही दोनों नयन आमरण ‘गान्धारी जहाँ,

पति-संग ‘दमयन्ती’ स्वयं बन बन फिरीं मारी जहाँ ।

यों ही जहाँ की नारियों ने धर्म्म का पालन किया,

आश्चरर्य क्या फिर ईश ने जो दिव्य-बल उनको दिया॥४३॥

अबला जनों का आत्म-बल संसार में  था वह नया,

चाहा उन्होंने तो अधिक क्या, रवि-उदय भी रुक गया !

जिस क्षुब्ध मुनि की दृष्टि से जलकर विहग भू पर गिरा,

वह र्भो सती के तेज-सम्मुख रह गया निष्प्रभ निरा !॥४४॥

  1. हमारी सभ्यता

शैशव-दशा में देश प्राय: जिस समय सब व्याप्त थे,

निःशेष विषयों में तभी हम प्रौढ़ता को प्राप्त थे ।

संसार को पहले हमीं ने ज्ञान-भिक्षा दान की,

आचार की, व्यवहार की, व्यापार की, विज्ञान की॥४५॥

‘हाँ’ और ‘ना’ भी अन्य जन करना न जब थे जानते,

थे ईश के आदेश तब हम वेदमंत्र बखानते ।

जब थे दिगम्बर रूप में वे जंगलों में घूमते,

प्रासाद-केतन-पट हमारे चन्द्र को थे चूसते॥४६॥

जब मांस-भक्षण पर वनों में अन्य जन थे जी रहे,

कृषिकी कार्य्य करके आर्य्य तब शुचि सोमरस थे पी रहे ।

मिलता न यह सात्त्विक सु-भोजन यदि शुभाविष्कार का,

तो पार क्या रहता जगत में उस विकृत व्यापार का ?॥४७॥

था गर्व नित्य निजस्व का पर दम्भ से हम दूर थे,

थे धर्म्म-भीरु परन्तु हम सब काल सच्चे शूर थे ।

सब लोकसुख हम भोगते थे बान्धवों के साथ में,

पर पारलौकिक-सिद्धि भी रखते सदा थे हाथ में॥४८॥

थे ज्यों समुन्नति के सुखद उत्तुंग शृंगों पर चढ़े,

त्यों ही विशुद्ध विनीतता में हम सभी से थे बढ़े ।

भव-सिन्धु तरने के लिए आत्मावलम्बी धीर ज्यों,

परमार्थ-साध्य-हेतु थे आतुर परन्तु गम्भीर त्यों॥४९॥

यद्यपि सदा परमार्थ ही में स्वार्थ थे हम मानते,

पर कर्म्म से फल-कामना करना न हम थे जानते ।

विख्यात जीवन-व्रत हमारा लोक-हित एकान्त था,

‘आत्मा अमर है, देह नश्वर,’ यह अटल सिद्धान्त था॥५०॥

हम दूसरों के दुःख को थे दुःख अपना मानते,

हम मानते कैसे नहीं, जब थे सदा यह जानते-

‘जो ईश कर्त्ता है हमारा दूसरों का भी वही,

है कर्म्म भिन्न परन्तु सबमें तत्व-समता हो रही’॥५१॥

बिकते गुलाम न थे यहाँ हममें न ऐसी रीति थो,

सेवक-जनों पर भी हमारी नित्य रहती प्रीति थी ।

वह नीति ऐसी थी कि चाहे हम कभी भूखे रहें,

पर बात क्या, जीते हमारे जो कभी वे दुख सहें?॥५२॥

अपने लिए भी आज हम क्यों जी न सकते हों यहाँ,

पर दूसरों के ही लिए जीते जहाँ थे हम जहाँ;

यद्यपि जगत् में हम स्वयं विख्यात जीवन- मुक्त थे,

करते तदपि जीवन्मृतों को दिव्य जीवन-युक्त थे ॥५३॥

थी दूसरों की आपदा हरणार्थ अपनी सम्पदा,

कहते नहीं थे किन्तु हम करके दिखाते थे सदा।

नीचे गिरे को प्रेम से ऊंचा चढ़ाते थे हमीं,

पीछे रहे को घूमकर आगे बढ़ाते थे हमीं ॥५४॥

संयम-नियम-पूर्वक प्रथम बल और विद्या प्राप्त की,

होकर गृही फिर लोक की कर्त्तव्य-रीति समाप्त की।

हम अन्त में भव-बन्धनों को थे सदा को तोड़ते,

आदर्श भावी सृष्टिहित थे मुक्ति-पथ में छोड़ते ॥५५॥

हमको विदित थे तत्त्व सारे नाश और विकास के,

कोई रहस्य छिपे न थे पृथ्वी तथा आकाश के।

थे जो हजारों वर्ष पहले जिस तरह हमने कहे,

विज्ञान-वेत्ता अब वही सिद्धान्त निश्चित का रहे ॥५६॥

“है हानिकारक नीति निश्चिय निकट कुल में ब्याह की,

है लाभकारक रीति शव के गाड़ने से दाह की ।”

यूरोप के विद्वान भी अब इस तरह कहने लगे,

देखो कि उलटे स्रोत सीधे किस तरह बहने लगे ! ॥५७॥

निज कार्य प्रभु की प्रेरणा ही थे नहीं हम जानते,

प्रत्युत उसे प्रभु का किया ही थे सदा हम मानते।

भय था हमें तो बस उसी का और हम किससे डरे?

हाँ, जब मरे हम तब उसी के पेम से विह्वल मरे ॥५८॥

था कौन ईश्वर के सिवा जिसको हमारा सिर झुके ?

हाँ, कौन ऐसा स्थान था जिसमें हमारी गति रुके ?

सारी धरा तो थी धरा ही, सिन्धु भी बँधवा दिया;

आकाश में भी आत्म-बल से सहज ही विचरण किया’ ॥५९॥

हम बाह्य उन्नति पर कभी मरते न थे संसार में,

बस मग्न थे अन्तर्जगत के अमृत-पारावार में।

जड़ से हमें क्या, जब कि हम थे नित्य चेतन से मिले,

हैं दीप उनके निकट क्या जो पद्म दिनकर से खिले ? ॥६०॥

रौंदी हुई है सब हमारी भूमि इस संसार की,

फैला दिया व्यापार, कर दी धूम धर्म-प्रचार की ।

कप्तान ‘कोलम्बस’ कहाँ था उस समय, कोई कहे?

जब के सुचिन्ह अमेरिका में हैं हमारे मिल रहे ॥६१॥

हम देखते फिरता हुआ जोड़ा न जो दिन-रात का-

करते कहो वर्णन भला फिर किस तरह इस बात का?

हम वर-वधू की भाँवरों से साम्य उसका कर चुके;

अब खोजने जाकर जिसे कितने विदेशी मर चुके ! ॥६२॥

आरम्भ जब जो कुछ किया, हमने उसे पूरा किया,

था जो असम्भव भी उसे सम्भव हुआ दिखला दिया।

कहना हमारा बस यही था विध्न और विराम से-

करके हटेंगे हम कि अब मरके हटेंगे काम से ॥६३॥

यह ठीक है, पश्चिम बहुत ही कर रहा उत्कर्ष है,

पर पूर्व-गुरु उसका यही पुरु वृद्ध भारतवर्ष है।

जाकर विवेकानन्द-सम कुछ साधु जन इस देश से-

करते उसे कृतकृत्य हैं अब भी अतुल उपदेश से ॥६४॥

वे जातियाँ जो आज उन्नति-मार्ग में हैं बढ़ रही,

सांसारिकी स्वाधीनता की सीढ़ियों पर चढ़ रही।

यह तो कहें, यह शक्ति उनको प्राप्त कब, कैसे हुई?

यह भी कहें वे, दार्शनिक चर्चा वहाँ ऐसे हुई ॥६५॥

यूनान ही कह दे कि वह ज्ञानी-गुणी कब था हुआ ?

कहना न होगा, हिन्दुओं का शिष्य वह जब था हुआ।

हमसे अलौकिक ज्ञान का आलोक यदि पाता नहीं,

तो वह अरब यूरोप का शिक्षक कहा जाता नहीं ॥६६॥

संसार भर में आज जिसका छा रहा आतंक है,

नीचा दिखाकर रूस को भी जो हुआ निःशंक है,

जयपाणि जो वर्द्धक हुआ है एशिया के हर्ष का,

है शिष्य वह जापान भी इस वृद्ध भारतवर्ष का ॥६७॥

यूरोप भी जो बन रहा है आज कल मार्म्मिकमना,

यह तो कहे उसके खुदा का पुत्र कब धार्म्मिक बना?

था हिन्दुओं का शिष्य ईसा, यह पता भी है चला,

ईसाइयों का धर्म्म भी है बौद्ध साँचे में ढला ॥६८॥

संसार में जो कुछ जहाँ फैला प्रकाश-विकास है,

इस जाति की ही ज्योति का उसमें प्रधानाभास है।

करते न उन्नति-पथ परिष्कृत आर्य्य जो पहले कहीं,

सन्देह है, तो विश्व में विज्ञान बढ़ता या नहीं ॥६९॥

अनमोल आविष्कार यद्यपि हैं अनेकों कर चुके,

निज नीति, शिक्षा, सभ्यता की सिद्धि का दम भर चुके,

पर पीटते हैं सिर विदेशी आज भी जिस शान्ति को,

थे हम कभी फैला चुके उसकी अलौकिक कान्ति को ॥७०॥

है आज पश्चिम में प्रभा जो पूर्व से ही है गई,

हरते अँधेरा यदि न हम, होती न खोज नई नई।

इस बात की साक्षी प्रकृति भी है अभी तक सब कहीं,

होता प्रभाकर पूर्व से ही उदित पश्चिम से नहीं ॥७१॥

अन्तिम प्रभा का है हमारा विक्रमी संवत्‌ यहाँ,

है किन्तु औरों का उदय इतना पुराना भी कहाँ?

ईसा, मुहम्मद आदि का जग में न था तब भी पता,

कब की हमारी सभ्यता है, कौन सकता है बता ॥७२॥

सर्वत्र अनुपम एकता का इस प्रकार प्रभाव था,

थी एक भाषा, एक मन था, एक सबका भाव था।

सम्पूर्ण भारतवर्ष मानो एक नगरी थी बड़ी,

पुर और ग्राम-समूह-संस्था थी मुहल्लों की लड़ी ॥७३॥

हैं वायुमण्डल में हमारे गीत अब भी गुँजते,

निर्झर, नदी, सागर, नगर, गिरि, बन सभी हैं कूजते।

देखो, हमारा विश्व में कोई नहीं उपमान था,

नर-देव थे हम, और भारत ? देव-लोक समान था ॥७४॥

  1. हमारी विद्याबुद्धि

पाण्डित्य का इस देश में सब ओर पूर्ण विकास था,

बस, दुर्गुणों के ग्रहण में ही अज्ञता का वास था।

सब लोग तत्त्व-ज्ञान में संलग्न रहते थे यहाँ-

हां, व्याध भी वेदान्त के सिद्धान्त कहते थे यहाँ ! ॥७५॥

जिसकी प्रभा के सामने रवि-तेज भी फीका पड़ा,

अध्यात्म-विद्या का यहाँ आलोक फैला था बड़ा !

मानस-कमल सबके यहाँ दिन-रात रहते थे खिले,

मानो सभी जन ईश की ज्योतिश्छटा में थे मिले ॥७६॥

समझा प्रथम किसने जगत में गूढ़ सृष्टि-महत्त्व को ?

जाना कहो किसने प्रथम जीवन-मरण के तत्त्व को ?

आभास ईश्वर-जीव का कैवल्य तक किसने दिया ?

सुन लो, प्रतिध्वनि हो रही, यह कार्य्य आर्य्योँ ने किया ॥७७॥

हम वेद, वाकोवाक्य-विद्या, ब्रह्मविद्या-विज्ञ थे,

नक्षत्र-विद्या, क्षत्र-विद्या, भूत-विद्याऽभिज्ञ थे।

निधि-नीति-विद्या, राशि-विद्या, पित्र्य-विद्या में बढ़े,

सर्पादि-विद्या, देव-विद्या, दैव-विद्या थे पढ़े ॥७८॥

आये नहीं थे स्वप्न में भी जो किसी के ध्यान में,

वे प्रश्न पहले हल हुए थे एक हिन्दुस्तान में !

सिद्धान्त मानव-जाति के जो विश्व में वितरित हुए,

बस, भारतीय तपोबनों में थे प्रथम निश्चित हुए ॥७९॥

थे योग-बल से वश हमारे नित्य पांचों तत्त्व भी,

मर्त्यत्व में वह शक्ति थी रखता न जो अमरत्व भी।

संसार-पथ में वह हमारी गति कहीं रुकती न थी,

विस्तृत हमारी आयु वह चिर्काल तक चुकती न थी ॥८०॥

जो श्रम उठाकर यत्न से की जाय खोज जहाँ तहाँ,

विश्वास है, तो आज भी योगी मिलें ऐसे यहाँ-

जो शून्य में संस्थित रहें भोजन बिना न कभी मरे;

अविचल समाधिस्थित रहें, द्रुत देह परिवर्तित करें ॥८१॥

हाँ, वह मन:साक्षित्व-विद्या की विलक्षण साधना;

वह मेस्मरेजिम की महत्ता, प्रेत-चक्राराधना।

आश्चर्यकारक और भी वे आधुनिक बहु वृद्धियाँ,

कहना वृथा है, हैं हमारे योग की लघु सिद्धियाँ ॥८२॥

  1. हमारा साहित्य

साहित्य का विस्तार अब भी है हमारा कम नहीं;

प्राचीन किन्तु नवीनता में अन्य उसके सम नहीं।

इस क्षेत्र से ही विश्व के साहित्य-उपवन हैं बने ;

इसको उजाड़ा काल ने आघात कर यद्यपि घने ॥८३॥

वेद

फैला यहीं से ज्ञान का अलोक सब संसार में,

जागी यहीं थी जग रही जो ज्योति अब संसार में ।

इंजील और कुरान आदिक थे न तव संसार में-

हमको मिला था दिव्य वैदिक बोध जब संसार में ॥८४॥

जिनकी महत्ता का न कोई पा सका है भेद ही,

संसार में प्राचीन सब से हैं हमारे वेद ही ।

प्रभु ने दिया यह ज्ञान हमको सृष्टि के आरम्भ में,

है मूल चित्र पवित्रता का सभ्यता के स्तम्भ में ॥८५॥

विख्यात चारों वेद् मानों चार सुख के सार हैं,

चारों दिशाओं के हमारे वे जय-ध्वज चार हैं ।

वे ज्ञान-गरिमाऽयार हैं, विज्ञान के भाण्डार हैं;

वे पुण्य-पारावार हैं, आचार के आधार हैं ॥८६॥

उपनिषद्

जो मृत्यु के उपरान्त भी सबके लिए शान्ति-प्रदा-

है उपनिषद्विद्या हमारी एक अनुपम सम्पदा ।

इस लोक को परलोक से करती वही एकत्र है,

हम क्या कहें, उसकी प्रतिष्ठा हो रही सर्वत्र है ॥८७॥

सूत्रग्रन्थ

उन सूत्र-ग्रन्थों का अहा ! कैसा अपूर्व महत्त्व है,

अत्यल्प शब्दों में वहाँ सम्पूर्ण शिक्षा-तत्त्व है।

उन ऋषि-गणों ने सूक्ष्मता से काम कितना है लिया,

आश्चर्य है, घट में उन्होंने सिन्धु को है भर दिया ! ॥८८॥

दर्शन

उस दिव्य दर्शनशास्त्र में है कौन हमसे अग्रणी ?

यूनान, यूरुप, अरब आदिक हैं हमारे ही ऋणी।

पाये प्रथम जिनसे जगत् ने दार्शनिक संवाद हैं-

गोतम, कपिल, जैमिन, पतंजलि, व्यास और कणाद हैं ॥८९॥

दृष्टान्त दर्शन ही हमारी उच्चता के हैं बड़े,

हैं कह रहे सबसे वही संसार में होकर खड़े-

“हे विश्व ! भारत के विषय में फिर कुशंकाएँ करो-

हम दर्शनों का साम्य पहले आज भी आगे धरो”॥९०॥

गीता

यह क्या हुआ कि अभी अभी तो रो रहे थे ताप से,

हैं और अब हँसने लगे वे आप अपने आप से।

ऐं क्या कहा, निज चेतना पर आ गई उनको हँसी,

गीता-श्रवण के पूर्व थी जो मोह माया में फँसी ॥९१॥

धर्मशास्त्र

रचते कहीं मन्वादि ऋषि वे धर्मशास्त्र न जो यहाँ,

कानून ताजीरात जैसे आज वे बनते कहाँ ?

उन संहिताओं के विमल वे विधि-निषेध विधान हैं-

या लोक में, परलोक में, वे शान्ति के सोपान हैं ॥९२॥

नीति

निज नीति-विद्या का हमें रहता यहाँ तक गर्व था-

हम आप जिस पथ पर चलें सत्पथ वही है सर्वथा।

सामान्य नीति समेत ऐसे राजनैतिक ग्रन्थ हैं-

संसार के हित जो प्रथम पुण्याचरण के पन्थ हैं ॥९३॥

चाणक्य-से नीतिज्ञ थे हम और निश्चल निश्चयी,

जिनके विपक्षी राजकुल की भी इतिश्री हो गई।

है विष्णुशर्मा ने घड़े में सिन्धु सचमुच भर दिया-

कहकर कहानी ही जड़ों को पूर्ण पण्डित कर दिया ! ॥९४॥

ज्योतिष

वृत्तान्त पहले व्योम का प्रकटित हमी ने था किया,

वह क्रान्तिमण्डल था हमीं से अन्य देशों ने लिया।

थे आर्यभट, आचार्य भास्कर-तुल्य ज्योतिर्विद यहाँ,

अब भी हमारे ‘मानमंदिर’ वर्णनीय नहीं कहाँ ? ॥९५॥

अंकगणित

जिस अंक-विद्या के विषय में वाद का मुँह बन्द है,

वह भी यहाँ के ज्ञान-रवि की रश्मि एक अमन्द है।

डर कर कठोर कलंक से, वा सत्य के आतंक से-

कहते अरब वाले अभी तक “हिन्दसा” ही अंक से ॥९६॥

रेखागणित

उन “सुल्व-सूत्रों” के जगत् में जन्मदाता हैं हमीं,

रेखागणित के आदि ज्ञाता या विधाता हैं हमीं।

हमको हमारी वेदियाँ पहले इसे दिखला चुकीं-

निज रम्य-रचना हेतु वे रेखागणित सिखला चुकीं ॥९७॥

सामुद्रिक और फलित ज्योतिष

आकार देख प्रकार थे हम जान जाते आप ही,

वे शास्त्र ‘सामुद्रिक’ सरीखे थे बनाते आप ही।

विज्ञान से भी ‘फलित ज्योतिष’ हो रहा अब सिद्ध है,

यद्यपि अविज्ञों से हुआ वह निन्दय और निषिद्ध है ॥९८॥

भाषा और व्याकरण

प्राचीन ही जो है न, जिससे अन्य भाषाएँ बनीं ;

भाषा हमारी देववाणी श्रुति-सुधा से है सनी।

है कौन भाषा यों अमर व्युत्पत्ति रूपी प्राण से ?

हैं अन्य भाषा शब्द उसके सामने म्रियमाण से ॥९९॥

निकला जहाँ से आधुनिक वह भिन्न-भाषा-तत्त्व है,

रखती न भाषा एक भी संस्कृत-समान महत्त्व है।

पाणिनि-सदृश वैयाकरण संसार भर में कौन है ?

इस प्रश्न का सर्वत्र उत्तर उत्तरोत्तर मौन है ॥१००॥

वैद्यक

उस वैद्यविद्या के विषय में अधिक कहना व्यर्थ है,

सुश्रुत, चरक रहते हुए संदेह रहना व्यर्थ है।

अनुवादकर्ता आज भी उपहार उनके पा रहे,

हैं आर्य-आयुर्वेद के सब देश सद्गुण गा रहे ॥१०१॥

थे हार जाते अन्य देशी वैद्यवर जिस रोग से-

हम भस्म करते थे उसे बस भस्म के ही योग से।

थे दूर देशों के नृपति हमको बुलाकर मानते’,

इतिहास साक्षी है, हमें सब थे जगद्गुरु जानते ॥१०२॥

है आजकल की डाक्टरी जिससे महा महिमामयी,

वह ‘आसुरी’ नामक चिकित्सा है यहीं से ली गई।

नाड़ी-नियम-युत रोग के निश्चित निदान हुए यहाँ

सब औषधों के गुण समझ कर रस-विधान हुए यहाँ ॥१०३॥

कवि और काव्य

कविवर्य शेक्सपियर तथा होमर सदा सम्मान्य हैं,

विख्यात फिरदौसी-सदृश कवि और भी अन्यान्य हैं।

पर कौन उनमें मनुज-मन को मुग्ध इतना कर सके-

वाल्मीकि, वेदव्यास, कालीदास जितना कर सके ॥१०४॥

  1. इतिहास

संसार भर के ग्रन्थ-गिरि पर चित्त से पहले चढ़ो,

उपरान्त रामायण तथा गीता-ग्रथित भारत पढ़ो।

कोई बता दो फिर हमें, ध्वनि सुन पड़ी ऐसी कहाँ ?

हे हरि ! सुनें केवल यही ध्वनि अन्त में हम हों जहाँ ॥१०५॥

यद्यपि अतुल, अगणित हमारे ग्रन्थ-रत्न नये नये –

बहु बार अत्याचारियों से नष्ट-भ्रष्ट किये गये।

पर हाय ! आज रही सही भी पोथियाँ यों कह रहीं-

क्या तुम वही हो ! आज तो पहचान तक पड़ते नहीं ॥१०६॥

  1. कलाकौशल

अब लुप्त-सी जो हो गई रक्षित न रहने से यहाँ,

सोचो तनिक, कौशल्य की इतनी कलाएँ थीं कहाँ?

लिपि-बद्ध चौंसठ नाम उनके आज भी हैं दीखते,

दस-चार विद्या-विज्ञ होकर हम जिन्हें थे सीखते ॥१०७॥

शिल्प

हाँ, शिल्प-विद्या वृद्धि में तो थी यहाँ यों अति हुई-

होकर महाभारत इसी से देश की दुर्गति हुई !

मय-कृत भवन में यदि सुयोधन थल न जल को जानता-

तो पाण्डवों के हास्य पर यों शत्रुता क्यों ठानता? ॥१०८॥

प्रस्तर -विनिर्मित पुर यहाँ थे और दुर्ग बड़े-बड़े,

अब भी हमारे शिल्प-गुण के चिह्न कुछ कुछ हैं खड़े।

भू-गर्भ से जब तब निकलती वस्तुएँ ऐसी यहाँ-

जो पूछ उठती हैं कि ऐसी थी हुई उन्नति कहाँ ? ॥१०९॥

वह सिन्धु-सेतु बचा अभी तक, दक्षिणी मन्दिर बचे,

कब और किसने, विश्व में, यों शिल्प-चित्र कहाँ रचे?

वह उच्च यमुनास्तम्भ लोहस्तम्भ-युक्त निहार लो’,

प्राचीन भारत की कला-कौशल्य-सिद्धि विचार लो ॥११०॥

बहु अभ्रभेदी स्तूप अब भी उच्च होकर कह रहे-

संसार के किस शिल्प ने जल-पात इतने हैं सहे?

शत शत गुहाएँ साथ ही गुंजार करके कह रहीं-

प्राचीन ही वा शिल्प इतना कौन है? कोई नहीं ॥१११॥

हैं जो यवन राजत्व के वे कीर्ति-चिह्न बढ़े चढ़े-

वे भी अधिकतर हैं हमारे शिल्पियों के ही गढ़े।

अन्यत्र भी तो है यवन-कुल की विपुल कारीगरी,

है किन्तु भारत के सदृश क्या वह मनोहरता भरी ॥११२॥

चित्रकारी

निज चित्रकारी के विषय में क्या कहें, क्या क्रम रहा;

प्रत्यक्ष है या चित्र है, यों दर्शकों को भ्रम रहा।

इतिहास, काव्य, पुराण, नाटक, ग्रन्थ जितने दीखते ;

सबसे विदित है, चित्र-रचना थे यहाँ सब सीखते ॥११३॥

होती न यदि वह चित्र-विद्या आदि से इस देश में-

तो धैर्य धरते किस तरह प्रेमी विरह के क्लेश में?

अब तक मिलेगा सूक्ष्म वर्णन चित्र के प्रति भाग का,

साहिय में भी चित्र-दर्शन हेतु है अनुराग का ॥११४||

थीं चित्रकार यहाँ स्त्रियाँ भी चित्ररेखा-सी कभी,

अंकन कुशल नायक हमारे नाटकों में हैं सभी।

लिखते कहीं दुष्यन्त हैं.भोली प्रिया की छवि भली,

करती कहीं प्रिय-चित्र-रचना प्रेम से रत्नावली ॥११५॥

अब चित्रशालाएँ हमारी नाम-शेष हुई यहाँ,

पर आज भी आदर्श उनके हैं अनेक जहाँ तहाँ।

अब भी अजन्ता की गुफाएँ चित्त को हैं मोहती ;

निज दर्शकों के धन्य रव से गूंज कर हैं सोहती ॥११६॥

मूर्तिनिर्माण

होता न मूर्ति-विधान यदि साधन हमारे देश का-

पूजन न षोडश-विधि यहाँ होता सगुण सर्वेश का।

अनुभव न होता एक सीमा में असीमाधार का,

होता निदर्शन भी न उस हृदयस्थ रूपोद्गार का ॥११७॥

निज रूप से भी दूसरे जन जिस समय अज्ञान थे-

हम उस समय प्रभु मूर्ति का प्रत्यक्ष करते ध्यान थे।

ऐसा न करते तो भला हम भक्ति प्रकटाते कहाँ ?

दर्शन-विलम्बाकुल दृगों को हाय ! ले जाते कहाँ? ॥११८॥

अब तक पुराने खंडहरों में, मन्दिरों में भी कहीं,

बहु मूर्तियाँ अपनी कला का पूर्ण परिचय दे रहीं।

प्रकटा रही हैं भग्न भी सौन्दर्य की परिपुष्टता,

दिखला रही हैं साथ ही दुष्कर्मियों की दुष्टता ॥११९॥

संगीत

लोकोक्ति है ‘गाना तथा रोना किसे आता नहीं’

पर गान जो शास्त्रीय है उत्पत्ति उसकी है यहीं।

आकर भयंकर भाव जिस संगीत में अब हैं भरे,

हरि को रिझाकर हम उसी से साम गान किया करे ॥१२०॥

आती सु-चेतनता जिन्हें सुनकर जड़ों में भी अहो!

आई कहाँ से गान में वे राग-रागिनियाँ कहो?

हैं सब हमारी ही कलाएँ ललित और मनोहरी,

थी कौतुकों में भी हमारे ऐन्द्रजालिकता भरी ॥१२१॥

अभिनय

अभिनय-कला के सूत्रधर भी आदि से ही आर्य हैं-

प्रकटे भरत मुनि-से यहाँ इस शास्त्र के आचार्य हैं।

संसार में अब भी हमारी है अपूर्व शकुन्तला’,

है अन्य नाटक कौन उसका साम्य कर सकता भला ॥१२२॥

  1. हमारी वीरता

थे कर्मवीर कि मृत्यु का भी ध्यान कुछ धरते न थे,

थे युद्धवीर कि काल से भी हम कभी डरते न थे।

थे दानवीर कि देह का भी लोभ हम करते न थे,

थे धर्मवीर कि प्राण के भी मोह पर मरते न थे ॥१२३॥

वे सूर्यवंशी चन्द्रवंशी वीर थे कैसे बली,

जो थे अकेले ही मचाते शत्रु-दल में खलबली।

होते न वे यदि चक्रवर्ती भूप दिग्विजयी यहाँ-

होते भला फिर ‘अश्वमेध’ कि ‘राजसूय’ कहो कहाँ? ॥१२४॥

थे भीम-तुल्य महाबली, अर्जुन-समान महारथी,

श्रीकृष्ण लीलामय हुए थे आप जिनके सारथी।

उपदेश गीता का हमारा युद्ध का ही गीत है,

जीवन-समर में भी जनों को जो दिलाता जीत है ॥१२५॥

हम थे धनुर्वेदज्ञ जैसे और वैसा कौन था?

जो शब्द-वेधी बाण छोड़े शूर ऐसा कौन था?

हाँ, मत्स्य जैसे लक्ष्य-वेधक धीर-धन्वी थे यहाँ,

रिपु को गिराकर अस्त्र पीछे लौट आते थे कहाँ ?॥१२६॥

थी चञ्चला की-सी चमक या शीघ्रता सन्धान की,

कृतहस्तता ऐसी कि गति थी हाथ में ही बाण की ।

मुँह खोल कुत्ता भूँकने में बन्द फिर जब तक करे-

भर जाय मुख तूणीर-सा, पर बात क्या जो वह मरे !॥१२७॥

जिसके समक्ष न एक भी विजयी सिकन्दर की चली-

वह चन्द्रगुप्त महीप था कैसा अपूर्व महाबली ?

जिससे कि सिल्यूकस समर में हार तो था ले गया,

कान्धार आदिक देश देकर निज सुता था दे गया !॥१२८॥

जो एक सौ सौ से लड़े ऐसे यहाँ पर वीर थे,

सम्मुख समर में शैल-सम रहते सदा हम धीर थे।

शङ्का न थी, जब जब समर का साज भारत ने सजा-

जावा, सुमात्रा, चीन, लङ्का सब कहीं डंका बजा ॥१२९॥

मोहे विदेशी वीर भी जिस वीरता के गान से,

जिस पर बने हैं ग्रन्थ ‘रासो’ और ‘राजस्थान’-से ।

थी उष्णता वह उस हमारे शेष शोणित की अहा !

जो था महाभारत-समर में नष्ट होते बच रहा ॥१३०॥

रक्षक यवन साम्राज्य के भी राजपूत रहे यहाँ,

पड़ती कठिनता थी जहाँ जाते वही तो थे वहाँ ।

नृप मान-कृत काबुल-विजय की बात सबको ज्ञात है,

दृढ़ता शिवाजी के निकट जयसिंह की विख्यात है ॥१३१॥

क्षत्राणियाँ भी शत्रुओं से हैं यहाँ निर्भय लड़ीं,

इतिहास में जिनकी कथायें हैं अनेक भरी पड़ीं ।

देकर विदा युद्धार्थ पति को प्रेमवल्ली-सी खिली,

यदि फिर न भेंट हुई यहाँ तो स्वर्ग में झट जा मिलीं ॥१३२॥

वह सामरिक सिद्धान्त भी औदार्य-पूर्ण पवित्र था-

थी युद्ध में ही शत्रुता, अन्यत्र बैरी मित्र था !

जय-लोभ में भी छल-कपट आने न पाता पास था,

प्रतिपक्षियों को भी हमारे सत्य का विश्वास था ॥१३३॥

पाते न थे जय युद्ध में ही हम सुयश के साथ में,

इन्द्रिय तथा मन भी निरन्तर थे हमारे हाथ में ।

हम धर्म्म-धनु से भक्ति-शर भी छोड़ने में सिद्ध थे,

अतएव अक्षर-लक्ष्य भी करते निरन्तर विद्ध थे ॥१३४॥

यद्यपि रहे हम वीर ऐसे-विश्व को जय कर सकें,

ऐसे नहीं थे जो समर में शक को भी डर सकें।

परराज्य को तो थे सदा हम तुच्छ तृण-सा मानते,

लाचार होकर ही कभी लङ्का-सदृश रण ठानते ॥१३५॥

  1. शक्ति का उपयोग

अन्याय-अत्याचार करना तो किसी पर दूर है,

जिसका किया हमने किया उपकार ही भरपूर है ।

पर पीड़ितों का त्राण कर जो दुःख हम खोते नहीं-

तो आज हिन्दुस्तान में ये पारसी होते नहीं ॥१३६॥

जाकर कहाँ हमने जलाई आग युद्ध-अशान्ति की ?

थे घूमते सर्वत्र पर हमने कहाँ पर क्रान्ति की ?

करते वही थे हम कि जिससे शान्ति सुख पावें सभी,

स्वार्थान्ध होकर, पर-हित-व्रत छोड़ सकते थे कभी ? ॥१३७॥

भूले हुओं को पथ दिखाना यह हमारा कार्य था,

राजत्व क्या है, जगत हमको मानता आचार्य था।

आतङ्क से पाया हुआ भी मान कोई मान है ?

खिंच जाय जिस पर मन स्वयं सच्चा वही बलवान है ॥१३८॥

  1. राजत्व और शासन

हम भूप होकर भी कभी होते न भोगाऽसक्त थे,

रह कर विरक्त विदेह जैसे आत्मयोगाऽसक्त थे ।

कर्तव्य के अनुरोध से ही कार्य करते थे सभी,

राजत्व में भी फिर भला हम भूल सकते थे कभी ? ॥१३९॥

हाँ मेदिनी-पति भी यहाँ के भक्त और विरक्त थे,

होते प्रजा के अर्थ ही वे राज्यकार्य्यासक्त थे।

सुत-तुल्य ही वे सौम्य उसको मानते थे सर्वदा,

होता प्रजा का अर्थ ही ‘सन्तान’ संस्कृत में सदा ॥ १४० ॥

देते प्रजा-हित ही बढ़ा कर प्राप्त कर वे सर्वथा,

ले भूमि से जल रवि उसे देता सहस्र गुना यथा ।

बन कर मृत-स्थानीय भी हरते प्रजा का सोच थे,

करते तदर्थ न पुत्र के भी त्याग में सङ्कोच थे॥१४१॥

“हैं मद्यपी कायर न मेरे राज्य में तस्कर कहीं,

व्यभिचारिणी तो फिर कहाँ जब एक व्यभिचारी नहीं ।”

यों सत्यवादी नृप बिना संकोच कहते थे यहाँ,

कोई बतादे विश्व में शासक हुए ऐसे कहाँ ? ॥१४२॥

  1. प्राचीन भारत की एक झलक

समयावरण से पार करके ऐतिहासिक दृष्टि को,

जो देखते हैं आज भी हम पूर्वकालिक सृष्टि को ।

तो दीखता है दृश्य ऐसा भारतीय-विकास का,

प्रतिविम्ब एक सजीव है जो स्वर्ग या आकाश का ॥१४३॥

भारतभूमि

ब्राह्मी-स्वरूपा, जन्मदात्री, ज्ञान-गौरव-शालिनी,

प्रत्यक्ष लक्ष्मीरूपिणी, धन-धान्य-पूर्णा,पालिनी ।

दुद्धर्ष रुद्राणी स्वरूपा शत्रु -सृष्टि-लयङ्करी,

वह भूमि भारतवर्ष की है भूरि भावों से भरी ॥१४४॥

वे ही नगर, वन, शैल, नदियाँ जो कि पहले थीं यहाँ-

हैं आज भी, पर आज वैसी जान पड़ती हैं कहाँ ?

कारण कदाचित है यही–बदले स्वयं हम आज हैं,

अनुरूप ही अपनी दशा के दीखते सब साज हैं ॥१४५॥

भवन

चित्रित घनों से होड़ कर जो व्योम में फहरा रहे-

वे केतु उन्नत मन्दिरों के किस तरह लहरा रहे !

इन मन्दिरों में से अधिक अब भूमि-तल में दब गये,

अवशिष्ट ऐसे दीखते हैं-अबी गये या तब गये ! ॥१४६॥

जलवायु

पीयूष-सम पीकर जिसे होता प्रसन्न शरीर है,

आलस्य-नाशक, बल-विकाशक उस समय का नीर है।

है आज भी वह, किन्तु अब पड़ता न पूर्व प्रभाव है,

यह कौन जाने नीर बदला या शरीर-स्वभाव है ? ॥१४७॥

उत्साहपूर्वक दे रहा जो स्वास्थ्य वा दीर्घायु है,

कैसे कहें, कैसा मनोरम उस समय का वायु है ।

भगवान जानें, आज कल वह वायु चलता ही नहीं,

अथवा हमारे पास होकर वह निकलता ही नहीं ?॥१४८॥

प्रभात

क्या ही पुनीत प्रभात है, कैसी चमकती है मही;

अनुरागिणी ऊषा सभी को कर्म में रत कर रही ।

यद्यपि जगाती है हमें भी देर तक प्रति दिन वही,

पर हम अविध निद्रा-निकट सुनते कहाँ उसकी कही ?॥१४९॥

गङ्गादि नदियों के किनारे भीड़ छवि पाने लगी,

मिल कर जल-ध्वनि में गल-ध्वनि अमृत बरसाने लगी।

सस्वर इधर श्रुति-मन्त्र लहरी, उधर जल-लहरी अहा !

तिस पर उमङ्गों की तरङ्गे, स्वर्ग में अब क्या रहा ?॥१५०॥

दान

सुस्नान के पीछे यथाक्रम दान की बारी हुई,

सर्वस्व तक के त्याग की सानन्द तैयारी हुई !

दानी बहुत हैं किन्तु याचक अल्प हैं उस काल में,

ऐसा नहीं जैसी कि अब प्रतिकूलता है हाल में ॥१५१॥

दिनकर द्विजों से अर्घ्य पाकर उठ चला आकाश में,

सब भूमि शोभित हो उठी अब स्वर्ण-वर्ण प्रकाश में।

वह आन्तरिक आलोक इस आलोक में ही मिल गया,

रवि का मुकुट धारण किया, स्वाधीन भारत खिल गया ॥१५२॥

गोपालन

जो अन्य धात्री के सदृश सबको पिलाती दुग्ध हैं,

(है जो अमृत इस लोक का, जिस पर अमर भी मुग्ध हैं।)

वे धेनुएँ प्रत्येक गृह में हैं दुही जाने लगीं-

या शक्ति की नदियाँ वहाँ सर्वत्र लहराने लगीं ॥१५३॥

घृत आदि के आधिक्य से बल-वीर्य का सु-विकास है,

क्या आजकल का-सा कहीं भी व्याधियों का वास है?

है उस समय गो-वंश पलता, इस समय मरता वही !

क्या एक हो सकती कभी यह और वह भारत मही? ॥१५४||

होमाग्नि

निर्मल पवन जिसकी शिखा को तनिक चंचल कर उठी-

होमाग्नि जल कर द्विज-गृहों में पुण्य-परिमल भर उठी।

प्राची दिशा के साथ भारत-भूमि जगमग जग उठी,

आलस्य में उत्साह की-सी आग देखो, लग उठी ॥१५५॥

देवालय

नर-नारियों का मन्दिरों में आगमन होने लगा,

दर्शन, श्रवण, कीर्तन, मनन से मग्न मन होने लगा।

ले ईश-चरणामृत मुदित राजा-प्रजा अति चाव से-

कर्तव्य दृढ़ता की विनय करने लगे समभाव से ॥१५६॥

श्रद्धा सहित किस भाँति हरि का पुण्य पूजन हो रहा,

वर वेद-मन्त्रों में मनोहर कीर्ति-कूजन हो रहा।

अखिलेश की उस आर्तिहरिणी आरती को देख लो,

असमर्थ, मूक-समान, मुखरा भारती को देख लो ॥१५७॥

अतिथिसत्कार

अपने अतिथियों से वचन जाकर गृहस्थों ने कहे-

“सम्मान्य ! आप यहाँ निशा में कुशल-पूर्वक तो रहे।

हमसे हुई हो चूक जो कृपया क्षमा कर दीजिए-

अनुचित न हो तो, आज भी यह गेह पावन कीजिए” ॥१५८॥

पुरुष

पुरूष-प्रवर उस काल के कैसे सदाशय हैं अहा !

संसार को उनका सुयश कैसा समुज्ज्वल कर रहा !

तन में अलौकिक कान्ति है, मन में महा सुख-शान्ति है,

देखो न, उनको देखकर होती सुरों की भ्रान्ति है ! ॥१५९॥

मस्तिष्क उनका ज्ञान का, विज्ञान का भाण्डार है,

है सूक्ष्म बुद्धि-विचार उनका, विपुल बल-विस्तार है,

नव-नव कलाओं का कभी लोकार्थ आविष्कार है,

अध्यात्म तत्त्वों का कभी उद्गार और प्रचार है ॥१६०॥

स्त्रियाँ

पूजन किया पति का स्त्रियों ने भक्ति-पूर्ण विधान से,

अंचल पसार प्रणाम कर फिर की विनय भगवान् से-

“विश्वेश ! हम अबला जनों के बल तुम्हीं हो सर्वदा,

पतिदेव में मति, गति तथा दृढ़ हो हमारी रति सदा” ॥१६१॥

हैं प्रीति और पवित्रता की मूर्ति-सी वे नारियाँ,

हैं गेह में वे शक्तिरूपा, देह में सुकुमारियाँ।

गृहिणी तथा मन्त्री स्वपति की शिक्षिता हैं वे सती,

 ऐसी नहीं हैं वे कि जैसी आजकल की श्रीमती ॥१६२॥

घर का हिसाब-किताब सारा है उन्हीं के हाथ में,

व्यवहार उनके हैं दयामय सब किसी के साथ में।

पाक-शास्त्र वे विशारदा हैं और वैद्यक जानती,

सबको सदा सन्तुष्ट रखना धर्म अपना मानतीं ॥१६३॥

आलस्य में अवकाश को वे व्यर्थ ही खोती नहीं,

दिन क्या, निशा में भी कभी पति से प्रथम सोती नहीं,

सीना, पिरोना, चित्रकारी जानती हैं वे सभी-

संगीत भी, पर गीत गन्दे वे नहीं गाती कभी ॥१६४||

संसार-यात्रा में स्वपति की वे अटल अश्रान्ति हैं,

हैं दुःख में वे धीरता, सुख में सदा वे शान्ति हैं।

शुभ सान्त्वना हैं शोक में वे, और औषधि रोग में,

संयोग में सम्पत्ति हैं, बस हैं विपत्ति वियोग में ॥१६५॥

सन्तान

जब हैं स्त्रियाँ यों देवियाँ, सन्तान क्यों उत्तम न हो?

उन बालकों के सरल, सुन्दर भाव तो देखो अहो !

ऊषाऽगमन से जाग वे भी ईश-गुण गाने लगे-

या कुंज फूले देख बन्दी भृंग उड़ जाने लगे ! ॥१६६॥

हैं हृष्ट-पुष्ट शरीर से, माँ-बाप के वे प्राण हैं-

जो सर्वदा करते दृगों की भाँति उनका त्राण हैं।

वे जायँ जब तक गुरुकुलों में, ज्ञान का घर है जहाँ-

तब तक उन्हें कुछ कुछ पढ़ाती आप माताएँ यहाँ ॥१६७||

है ठीक पुत्रों के सदृश ही पुत्रियों का मान भी,

क्या आज की-सी है दशा, जो हो न उनका ध्यान भी!

हैं उस समय के जन न अब-से जो उन्हें समझें बला,

होंगे न दोनों नेत्र किसको एक-से प्यारे भला? ॥१६८॥

देखो, अहा ! वे पुत्रियाँ हैं या विभव की वृद्धियाँ,

अवतीर्ण मानो हैं हुई प्रत्यक्ष उनके ऋद्धियाँ,

हा ! अब उन्हीं के जन्म से हम डूबते हैं शोक में,

पर हो न उनका जन्म तो हों पुत्र कैसे लोक में? ॥१६९॥

तपोवन

मृग और सिंह तपोवनों में साथ ही फिरने लगे,

शुचि होम-धूप उठे कि सुन्दर सुरभि-घन घिरने लगे।

ऋषि-मुनि मुदित मन से यथा-विधि हवन क्या करने लगे-

उपकार मूलक पुण्य के भाण्डार-से भरने लगे ॥१७०।।

वे सौम्य ऋषि-मुनि आजकल के साधुओं जैसे नहीं,

कोई विषय जिनसे छिपा हो विज्ञ वे ऐसे नहीं।

हस्तामलक जैसे उन्हें प्रत्यक्ष तीनों काल हैं,

शिवरूप हैं, तोड़े उन्होंने बन्धनों के जाल हैं ॥१७१॥

वे ग्रन्थ जो सर्वत्र ही गुरुमान से मण्डित हुए-

पढ़कर जिन्हें संसार के तत्त्वज्ञ-जन पण्डित हुए।

जो आज भी थोड़े बहुत हैं नष्ट होने से बचे,

हैं वे उन्हीं तप के धनी ऋषि और मुनियों के रचे ॥१७२।।

कुशपाणि पाकर भी उन्हें डरता स्वयं वज्री सदा।

है तुच्छ उनके निकट यद्यपि उस सुरप की सम्पदा।

यद्यपि उटजवासी तदपि वह तत्त्व उनके पास है,

आकर अलेक्जेंडर-सदृश सम्राट् बनता दास है ! ॥१७३॥

गुरुकुल

विद्यार्थियों ने जागकर गुरुदेव का वन्दन किया,

निज नित्यकृत्य समाप्त करके अध्ययन में मन दिया।

जिस ब्रह्मचर्य-व्रत बिना हैं आज हम सब रो रहे-

उसके सहित वे धीर होकर वीर भी हैं हो रहे ॥१७४॥

पाठ

आधार आर्यों के अटल जातीय-जीवन-प्राण का-

है पाठ कैसा हो रहा श्रुति, शास्त्र और पुराण का।

हे राम ! हिन्दू जाति का सब कुछ भले ही नष्ट हो-

पर यह सरस संगीत उसका फिर यहाँ सु-स्पष्ट हो ॥१७५॥

फीस

पढ़ते सहस्त्रों शिष्य हैं पर फीस ली जाती नहीं,

वह उच्च शिक्षा तुच्छ धन पर बेच दी जाती नहीं।

दे वस्त्र-भोजन भी स्वयं कुलपति पढ़ाते हैं उन्हें,

बस, भक्ति से सन्तुष्ट हो दिन दिन बढ़ाते हैं उन्हें ॥१७६।।

भिक्षा

वे ब्रह्मचारी जिस समय गुरुदेव के आदेश से-

पहुँचे नहीं भिक्षार्थ पुर में बालरूप महेश-से,

ले सात्त्विकी भिक्षा प्रथम ही गृहिणियाँ हर्षित बड़ी-

करने लगीं उनकी प्रतीक्षा द्वार पर होकर खड़ी ॥१७७॥

है आजकल की भाँति वह भिक्षा नहीं अपमान की,

है प्रार्थनीय गृही जनों को यह व्यवस्था दान की।

वे ब्रह्मचारी भिक्षुवर ऐसे प्रतिष्ठित व्यक्ति हैं-

भूपाल भी पथ छोड़कर उनपर दिखाते भक्ति हैं ॥१७८॥

राजा

देखो, महीपति उस समय के हैं प्रजा-पालक सभी,

रहते हुए उनके किसी को कष्ट हो सकता कभी?

किस भाँति पावें कर, न यदि वे न्याय से शासन करें,

जो वे अनीति करें कहीं तो वेन की गति से मरें ॥१७९॥

अनिवार्य शिक्षा

हैं खोजने से भी कहीं द्विज मूर्ख मिल सकते नहीं,

अनिवार्य शिक्षा के नियम हैं जो कि हिल सकते नहीं।

यदि गाँव में द्विज एक भी विद्या न विधिपूर्वक पढ़े-

तो दण्ड दे उसको नृपति, फिर क्यों न यों शिक्षा बढ़े? ॥१८०॥

है नित्य विप्रों के यहाँ बस, ज्ञान-चर्चा दीखती,

शुक-सारिकाएँ भी जहाँ शास्त्रार्थ करना सीखतीं।

कोई जगत् को सत्य, कोई स्वप्न-मात्र बता रहा,

कोई शकुनि उनमें वहाँ मध्यस्थ भाव जता रहा ॥१८१॥

चारित्र्य

देखो कि सबके साथ सबका निष्कपट बर्ताव है,

सबमें परस्पर दीख पड़ता प्रेम का सद्भाव है।

कैसे फले-फूलें भला वे जो न हिलमिल कर रहें?

वे आर्य ही क्या, यदि कभी परिवाद निज मुख से कहें ॥१८२॥

ठग और चोर कहीं नहीं हैं, धर्म का अति ध्यान है,

देखे न देखे और कोई, देखता भगवान् है।

सूना पड़ा हो माल कोई, किन्तु जा सकता नहीं,

कोई प्रलोभन शान्त मन को है भुला सकता नहीं ॥१८३।।

यदि झूठ कहने पर किसी का टिक रहा सर्वस्व भी-

तो भी कहेगा सत्य ही वह क्योंकि मरना है कभी।

पंचायतों में समय पर, दृष्टान्त ऐसे दीखते,

हैं धर्म का सब पाठ मानो गर्भ में ही सीखते ॥१८४॥

हैं भाव सबके आननों पर ईश्वरीय प्रसाद के,

इस लोक में उनके हृदय आधार हैं आह्लाद के।

मरते नहीं वह मौत वे जो फिर उन्हें मरना पड़े,

करते नहीं वह काम उनको नाम जो धरना पड़े ॥१८५॥

बस, विश्वपति में नित्य सबकी वृत्तियाँ हैं लग रही,

अन्त:करण में ज्ञान-मणि की ज्योतियाँ हैं जग रही।

कर्तव्य का ही ध्यान उनको है सदा व्यवहार में,

वे ‘पद्मपत्रमिवाम्भसा’ रहते सुखी संसार में ॥१८६।।

  1. विचार

वह भद्र भारत सर्वदा भू-लोक-नेता सिद्ध है,

संसार में सबसे अधिक स्वाधीन-चेता सिद्ध है।

उन्मादिनी माया स्वयं उसको भुला पाती नहीं,

पुनरागमन की बन्धता भी है उसे भाती नहीं ॥१८७॥

है लक्ष्य केवल मुक्ति ही उसके अतुल उद्देश का,

है दास भी तो वह उसी वैकुण्ठपति विश्वेश का।

साक्षी स्वयं इस बात के उसके वही सु-विचार हैं-

संसार के साहित्य के जो सार हैं, आधार हैं ॥१८८॥

  1. महत्ता

जो पूर्व में हमको अशिक्षित या असभ्य बता रहे-

वे लोग या तो अज्ञ हैं या पक्षपात जता रहे।

यदि हम अशिक्षित थे, कहें तो, सभ्य वे कैसे हुए?

वे आप ऐसे भी नहीं थे, आज हम जैसे हुए ॥१८९॥

ज्यों ज्यों प्रचुर प्राचीनता की खोज बढ़ती जायगी,

त्यों त्यों हमारी उच्चता पर ओप चढ़ती जायगी।

जिस ओर देखेंगे हमारे चिह्न दर्शक पायेंगे,

हमको गया बतलाएँगे, जब जो जहाँ तक जायेंगे ॥१९०॥

पाये हमीं से तो प्रथम सबने अखिल उपदेश हैं,

हमने उजड़कर भी बसाये दूसरे बहु देश हैं।

यद्यपि महाभारत-समर था मरण भारत के लिये,

यूनान-जैसे देश फिर भी सभ्य हमने कर दिये ।।१९१ ।।

हमने बिगड़ कर भी बनाए जन्म  के बिगड़े हुए;

मरते हुए भी हैं जगाये मृतक-तुल्य पड़े हुए।

गिरते हुए भी दूसरों को हम चढ़ाते ही रहे,

घटते हुए भी दूसरों को हम बढ़ाते ही रहे ।।१९२।।

कल जो हमारी सभ्यता पर थे हंसे अज्ञान से-

वे आज लज्जित हो रहे हैं अधिक अनुसन्धान से ।

जो आज प्रेमी हैं हमारे भक्त कल होंगे वही,

जो आज व्यर्थ विरक्त हैं अनुरक्त कल होंगे वही ।। १९३।।

सब देश विद्याप्राप्ति को सन्तत यहाँ आते रहे,

सुरलोक में भी गीत ऐसे देव-गण गाते रहे–

“हैं धन्य भारतवर्ष-वासी, धन्य भारतवर्ष है;

सुरलोक से भी सर्वथा उसका अधिक उत्कर्ष है1″।। १९४।।

(1–गायन्ति देवाः किल गीतकानि धन्यास्तु ये भारतभूमिभागे ।

स्वर्गापवर्गस्य  च हेतुभूते भवन्ति भूयः पुरुषासुरत्वात् ।।

विष्णुपुराण ।

अर्थात देवता भी ऐसे गीत गाया करते हैं कि

वे पुरुष धन्य हैं जो कि स्वर्ग और अपवर्ग के

हेतुभूत भारतवर्ष में जन्म लेते हैं, वे हमसे

भी श्रेष्ट हैं )

  1. अवनति का आरम्भ

इस भाँति जब जग में हमारी पूर्ण उन्नति हो चुकी,

पाया जहाँ तक पथ वहाँ तक प्रगति की गति हो चुकी।

तब और क्या होता? हमारे चक्र नीचे को फिरे,

जैसे उठे थे, अन्त में हम ठीक वैसे ही गिरे ! ॥१९५॥

उत्थान के पीछे पतन सम्भव सदा है सर्वथा,

प्रौढ़त्व के पीछे स्वयं वृद्धत्व होता है यथा।

हा ! किन्तु अवनति भी हमारी है समुन्नति-सी बड़ी,

जैसी बढ़ी थी पूर्णिमा वैसी अमावस्या पड़ी ! ॥१९६।।

पैदा हुआ अभिमान पहले चित्त में निज शक्ति का,

जिससे रुका वह स्त्रोत सत्वर शील, श्रद्धा, भक्ति का।

अविनीतता बढ़ने लगी, अनुदारता आने लगी,

पर-बुद्धि जागी, प्रीति भागी, कुमति बल पाने लगी ॥१९७।।

फिर स्वार्थ-ईर्ष्या-द्वेष का विष-बीज जो बोने लगा,

दुर्भावना के वारि से उग वह बड़ा होने लगा।

वे फूट के फल अन्त में यों फूलकर फलने लगे-

खाकर जिन्हें, जीते हुए ही, हम यहाँ जलने लगे ॥१९८॥

  1. महाभारत

क्या देर लगती है बिगड़ते, जब बिगड़ने पर हुए।

फिर क्या, परस्पर बन्धु ही तैयार लड़ने पर हुए !

आखिर महाभारत-समर का साज सज ही तो गया,

डंका हमारे नाश का बेरोक बज ही तो गया !॥१९९॥

हाँ सोचनीय, परन्तु ऐसा कलह भी होगा नहीं,

तू ही बता हे काल ! ऐसा हाल देखा है कहीं?

हा ! बन्धुओं के ही करों से बन्धु कितने कट मरे,

यह भव्य-भारत अन्त में बन ही गया मरघट हरे ! ॥२००॥

इस सर्वनाशी युद्ध का वह दृश्य कैसा घोर था,

उस ओर था यदि पुत्र तो लड़ता पिता इस ओर था।

सन्तान ही के रक्त में यह मातृभूमि सनी यहाँ,

उस स्वर्ग की-सी वाटिका की हाय ! राख बनी यहाँ ! ॥२०१॥

  1. अनार्यों का आक्रमण

इस भाँति जब बलहीन होकर देश ऊजड़ हो गया,

फिर वह हुआ जिससे कि अब सर्वस्व अपना खो गया।

घुसकर शकादि अनार्य-गण निर्भय यहाँ बढ़ने लगे,

निःशक्त देख, श्रृगाल घायल सिंह पर चढ़ने लगे ॥२०२॥

  1. अवतार

हिंसा बढ़ी ऐसी कि मानव दानवों से बढ़ गये; .

भू से न भार सहा गया, अविचार ऊपर चढ़ गये।

सहसा हमारा यह पतन देखा न प्रभु से भी गया,

तब शाक्य मुनि के रूप में प्रकटी दयामय की दया ॥२०३॥

  1. बौद्ध काल

भारत-गगन में उस समय फिर एक वह झण्डा उड़ा-

जिसके तले, आनन्द से, आधा जगत आकर जुड़ा ।

वह बौद्धकालिक सभ्यता है विश्व भर में छा रही,

अब भी जिसे अवलोकने को भूमि खोदी जा रही ! ।। २०४।।

वर्णन विदेशी यात्रियों ने उस समय का जो दिया,

पढ़कर तथा सुन कर उसे किसने नहीं विस्मय किया ?

बनते न विद्या प्राप्त कर ही वे यहाँ बुधवर्य्य थे-

श्री भी यहाँ की देख कर करते महा आश्चर्य थे ।।२०५||

तब भी कला-कौशल यहाँ का था जगत के हित नया,

 है फ़ाहियान विलोक जिसको मुग्ध होकर कह गया-

“यह काम देवों का किया है, मनुज कर सकते नहीं–

दृग देखकर जिसको कभी श्रम मान कर थकते नहीं !”।। २०६।।

  1. अशोक और गुप्तवंश

था सार्वभौम अशोक का कैसा ताप बढ़ा चढ़ा,

विस्तार जिसके राज्य का था अन्य देशों तक बढ़ा ।

थे गुप्तवंशी नृप, न धर्म-द्वेष जिनको इष्ट था;

तात्पर्य्य , तब भी भूमि पर भारत बहुत उत्कृष्ट था ।।२०७।।

  1. जैनमत

प्रकटित हुई थी बुद्ध विभु के चित्त में जो भावना-

पर-रूप में अन्यत्र भी प्रकटी वही प्रस्तावना ।

फैला अहिंसा-बुद्धि-वर्द्धक जैन-पन्थ-समाज भी,

जिसके विपुल साहित्य की विस्तीर्णता हैआज भी ।।२०८।।

श्रुति-संहिताओं से निकल ध्रुव धर्म-चिन्ता-ह्रादिनी ,

हो बौद्ध-जैनमयी त्रिपथगा बह चली कलनादिनी ।

शतश: प्रवाहों में उसे अब देखते हैं हम सभी,

फिर एक होकर ब्रह्म-सागर में मिलेगी वह कभी ? ।।२०९।।

  1. मतभेद

इस भाँति भारतवर्ष ने गौरव दिखाया फिर नया,

पर हाय ! वैदिक-धर्म-रवि था बौद्ध-घन से घिर गया।

जैनादिकों से भी परस्पर भेद बढ़ता ही गया,

उस फूट के फल की प्रबल विष और चढ़ता ही गया ! ।।२१०।।

  1. हिन्दू धर्म

ऐसे विरोधी काल में भी जो कि सब विध वाम था-

अक्षुण्ण रहना एक हिन्दू धर्म का ही काम था।

अथवा किसी के मेटने से सत्य मिट सकता कहीं?

घन घेर लें पर सूर्य का अस्तित्व खो सकता नहीं ॥२११॥

  1. हिन्दू

इस काल में भी हिन्दुओं में धीरता कुछ शेष थी।

निज पूर्वजों की वीरता, गम्भीरता कुछ शेष थी।

फैली विशेष विलासिता थी किन्तु थी कुछ भक्ति भी,

हम घट चले थे किन्तु फिर भी शेष थी कुछ शक्ति भी ॥२१२॥

विक्रमादित्य

विक्रम कि जिनका आज भी संवत् यहाँ है चल रहा-

ध्रुव-धर्म को ऐसे नृपों का उस समय भी बल रहा।

जिनसे अनेकों देश-हित कर पुण्य कार्य किये गये,

जो शक यहाँ शासक बने थे सब निकाल दिये गये ॥२१३॥

नर-रूप-रत्नों से सजी थी वीर विक्रम की सभा,

अब भी जगत् में जागती है जगमगी जिनकी प्रभा।

जाकर सुनो, उज्जैन मानो आज भी यह कह रही-

“मैं मिट गई पर कीर्ति मेरी तब मिटेगी जब मही” ॥२१४॥

भोज

विद्यानुरागी भोज भी कैसा सदाशय भूप था-

विख्यात कवियों के लिए जो कल्पवृक्ष-स्वरूप था।

साहित्य के उद्यान में वह पुण्यकाल वसन्त है,

वे वे प्रसून खिले कि अब भी सुरभि-पूर्ण दिगन्त है ॥२१५॥

  1. विकास में ह्रास

पर ठीक वैसा ही हमारा यह प्रसिद्ध विकास है-

जैसा कि बुझने के प्रथम बढ़ता प्रदीप-प्रकाश है।

हो बौद्ध लक्ष्य-भ्रष्ट सहसा घोर नास्तिक ही रहे,

सँभले न फिर हम आर्य भी, इस भाँति विषयों में बहे ॥२१६॥

यद्यपि सनातन धर्म की ही अन्त में जय जय रही,

भगवान् शंकर ने भगा दी बौद्ध-भ्रान्ति भयावही।

पर हाय ! हम चेते नहीं फँसकर कलह के जाल में,

क्या फूट की जड़ फैलती है फूटकर पाताल में ! ॥२१७।।

बढ़ने लगा विग्रह परस्पर क्रान्तियाँ होने लगीं,

अनुदारतामय स्वार्थ के वश भ्रान्तियाँ होने लगीं;

जिसमें हुआ कुछ बल वही अधिकार पर मरने लगा,

सौभाग्य भय खाकर भगा, दुर्भाग्य जय पाकर जगा ॥२१८॥

बहु तुच्छ रजवाड़े बने, साम्राज्य सब कट छंट गया ;

यों भूरि भागों में हमारा दीन भारत बँट गया !

जो एक अनुपम रत्न था परिणत कणों में हो गया,

वह मूल्य और प्रकाश सारा टूटते ही खो गया ।।२१९॥

आचार और विचार तक ही यह विभेद बढ़ा नहीं,

बहु भिन्न भाषाएँ हुईं , फैली विषमता सब कहीं।

आलाप करना भी परस्पर क्लेश हमको हो गया,

निज देश में ही हा विधे ! परदेश हमको हो गया ।।२२०।।

  1. मुसलमानों का प्रवेश

देखी न होगी ऐक्य की ऐसी किसी ने छिन्नता,

बढ़ कर महा मत-भिन्नता फैली भयङ्कर खिन्नता ।।

आखिर, अहले इसलाम-दल को हम बुला कर ही रहे,

स्वातन्त्र्य को, मानों सदा को, हम सुला कर ही रहे ।।२२१।।

जयचन्द्र और पृथ्वीराज

क्या थे यवन, पारों ने प्रश्रय यदि अधम जयचन्द से ?

जयशील पृथ्वीराज हारे अन्त में छल-छन्द से ।

हा ! देश का दीपक बुझा, भीषण अँधेरा छा गया;

निज कर्म्म के फल-भोग का वह काल आगे आ गया ।।२२२।।

क्या पा लिया जयचन्द ने निज देश का हित हार के ?

हैं कह रहें कन्नौज के वे सौध-धुस्स पुकार के–

“जर्जर हुए भी आज तक हम इस लिए हैं जी रहे-

अब भी सजग हो जायें वे विद्वेष-विष जो पी रहे” ।।२२३।।

  1. यवनराजत्व

जो हम कभी फूले-फले थे राम-राज्य-वसन्त में,

हा ! देखनी हमको पड़ी औरङ्गजेबी अन्त में !

है कर्म्म का ही दोष अथवा सब समय की बात है,

होता कभी दिन है, कभी होती अँधेरी रात है ।।२२४।।

है विश्व में सबसे बली सर्वान्तकारी काल ही,

होता अहो अपना पराया काल के वश हाल ही ।

बनता कुतुबमीनार यमुनास्तम्भ  का निर्वाद है,

उस तीर्थराज प्रयाग का बनता इलाहाबाद है ! ।।२२५।।

अत्याचार

जो हो, हमारी दुर्दशा का और अन्त नहीं रहा,

हा ! क्या कहें; कितना हमारा रक्त पानी-सा बहा !

हो कर सनुज, कृमि-कीट से भी तुल्य हम लेखे गये;

दृष्टान्त ऐसे बहुत ही कम विश्व में देखे गये ।।२२६।।

रहते यवन थे रक्त-रंजित  तीक्ष्ण असि ताने खड़े,

चोटी, नहीं तो हाय ! हमको शीश कटवाने पड़े !

जीते हुए दीवार में हम लोग चुनवाये गये,

बल से असंख्यक आर्य्य इसलाम में लाये गये !! ॥२२७॥

हा स्वार्थ-वश हमको अनेकों घोर कष्ट दिये गये,

कितने अवश अबला जनों के धर्म नष्ट किये गये,

घर में सुता के जन्म से होती बड़ों को थी व्यथा,

कुल-मान रखने को चली थी बालिका-वध की प्रथा ! ।।२२८।।

हा ! निष्ठुरों के हाथ से सुर-मूर्तियाँ खण्डित हुईं,

बहु मन्दिरों  की वस्तुओं से मसजिदें मण्डित हुईं।

जजिया-सरीखे कर लगे, यह बात सिद्ध हुई सही-

जो प्राप्त हो परतन्त्रता में दुःख थोड़ा है वही ।। २२९ ।।

प्रशंसा

इससे न यह समझो कि यों ही वह समय बीता सभी,

ऐसा नहीं है, उन दिनों भी था सु-काल कभी कभी ।

निज शत्रु तक के गुण हमें कहना उचित है सब कहीं,

सच के छिपाने के बराबर पाप कोई है नहीं ।। २३० ।।

ऐसा नहीं होता कि सारी जाति कोई क्रूर हो,

सम्भव नहीं कि समाज भर से ही सदयता दूर हो ।

अतएव ऐसे भी यवन-सम्राट कुछ हैं हो गए।

जातीय-पङ्क-कलङ्क को जो कीर्ति-जल से धो गये ।। २३१ ।।

अकबर

कम कीर्ति अकबर की नहीं सत्शासकों की ख्याति में,

शासक ने उसके सम सभी होंगे किसी भी जाति में ।

हों हिन्दुओं के अर्थ हिन्दु, यवन यवनों के लिये,

हठ, पक्षपात तथा दुराग्रह दूर उसने थे किये ।। २३२ ।।

निज राज्य में सुख-शान्ति का विस्तार वह करता रहा,

अन्याय, अत्याचार को सब भाँति वह हरता रहा ।

निज शत्रुओं के भी गुणों का मान उसने था किया,

विश्वासपूर्वक हिन्दुओं को सचिव तक का पद दिया ।।२३३।।

भाषा और कवि

उस काल भाषा भी हमारी उच्च पद पाती रही,

हाँ, फारसी-फरमान तक पर वह लिखी जाती रही ।

श्री सूर, तुलसी, देव, केशव, कवि विहारी-सम हुए,

जिनके अतुल ग्रंथाकरों से भाव-रत्नोद्गम हुए ॥२३४॥

औरंगज़ेब

यदि पूर्वजों की नीति को औरंगज़ेब न भूलता-

होती यवन राजत्व पर विधि की न यों प्रतिकूलता।

गो-वध मिटाने को कहाँ वह पूर्वजों की घोषणा-

सोचो, कहाँ यह हिन्दुओं के धर्म-धन की शोषणा ॥२३५॥

अन्याय ऐसे, पुरुष होकर हाय ! हम सहते रहे,

करके न कुछ उद्योग विधि की बात ही कहते रहे।

हम चाहते तो एक होकर क्या न कर सकते भला?

पर ऐक्य का तो नाम लेते ही यहाँ घुटता गला !! ॥२३६॥

  1. आत्माभिमान

निश्चय यवन राजत्व में ही हम पतित थे हो चुके,

बल और वैभव आदि अपना थे सभी कुछ खो चुके ।

पर यह दिखाने को कि भारत पूर्व में ऐसा न था,

आत्मावलम्बी भी हुए कुछ लोग हममें सर्वथा ।। २३७ ।।

महाराना प्रतापसिंह

राना प्रताप-समान तब भी शूरवीर यहाँ हुए,

स्वाधीनता के भक्त ऐसे श्रेष्ठ और कहाँ हुए ?

सुख मान कर बरसों  भयङ्कर सर्व दुःखों को सहा,

पर व्रत न छोड़ा, शाह को बस तुर्क ही मुख से कहा ।।२३८।।

जौहर

चितौर चम्पक ही रहा यद्यपि यवन अलि हो गये,

धर्म्मार्थ हल्दीघाट में कितने सुभट बलि हो गये ।

“कुल-मान जब तक प्राण तब तक, यह नहीं तो वह नहीं,”

मेवाड़ भर में वक्तृताएँ गूंजती ऐसी रहीं !! ।। २३९ ।।

विख्यात वे जौहर1 यहाँ के अज भी हैं लोक में,

हम मग्न हैं उन पद्मिनी-सी देवियों के शोक में !

आर्य्या-स्त्रियां  निज धर्म पर मरती हुईं डरती नहीं,

साद्यन्त सर्व सतीत्व-शिक्षा विश्व में मिलती यहीं  !! ।।२४०।।

(1-राजपूताने में, सतीत्व धर्म की रक्षा के लिए

हज़ारों स्त्रियां जीते जी चिताओं में जल गईं ।

इसको जौहर व्रत कहते हैं ।)

शिवाजी

फिर भी दिखाई देश में जिसने महाराष्ट्रच्छटा-

दुर्दान्त आलमगीर का भी गर्व जिससे था घटा।

उस छत्रपति शिवराज का है नाम ही लेना अलम्,

है सिंह परिचय के लिए बस ‘सिंह’ कह देना अलम् ॥२४१॥

  1. यवन राजत्व का अन्त

दौरात्म्य यवनों का यहाँ जब बढ़ गया अत्यन्त ही,

सँभले न, उनका भी हुआ बस अन्त में फिर अन्त ही।

था द्वार जो निज नाश का औरंगजेब बना गया,

खुलकर पलासी में दिखाया दृश्य ही उसने नया ! ॥२४२॥

  1. ब्रिटिश राज्य

अन्यायियों का राज्य भी क्या अचल रह सकता कभी?

आखिर हुए अँगरेज शासक, राज्य है जिनका अभी।

सम्प्रति समुन्नति की सभी हैं प्राप्त सुविधाएँ यहाँ,

सब पथ खुले हैं, भय नहीं विचरो जहाँ चाहो वहाँ ॥२४३।।

अन्याय यवनों का हमें निज दोष से सहना पड़ा,

है किन्तु नारायण अहा ! न्यायी तथा सकरुण बड़ा !

देते हुए भी कर्म-फल हम पर हुई उसकी दया,

भेजा प्रसिद्ध उदार उसने ब्रिटिश राज्य यहाँ नया ॥२४४॥

शासन किसी पर-जाति का चाहे विवेक-विशिष्ट हो,

सम्भव नहीं है किन्तु जो सर्वांश में वह इष्ट हो ।

यह सत्य है, तो भी ब्रिटिश-शासन हमें समान्य है,

वह सु-व्यवस्थित है तथा अशा-प्रपूर्ण, वदान्य है ।। २४५ ॥

सम्प्रति सभी साधन हमें हैं सुलभ आत्मविकास के,

पथ, रेल, तार मिटा रहे हैं सब प्रयास प्रवास के ।

प्राय: चिकित्सालय, मदरसे, डाकघर हैं सब कहीं,

बस, पास पैसा चाहिए फिर कुछ असुविधा है नहीं ।। २४६ ।।

सचमुच ब्रिटिश साम्राज्य ने हमके बहुत कुछ है दिया,

विज्ञान का वैभव दिखाया समय से परिचित किया ।

उससे हमारी कीर्ति का भी हो रहा उपकार है,

बहु पूर्व-चिन्हों का हुआ वा हो रहा उद्धार है ।।२४७ ।।

  1. हमारी दशा

पर हाय ! अब भी तो नहीं निद्रा हमारी टूटती,

कैसी कुटेवें हैं कि जो अब भी नहीं हैं छूटती ।।

बेसुध अभी तक हैं, न जाने कौन ऐसा रस पिया ?

देखा बहुत कुछ किन्तु हमने सब बिना देखा किया ! ।।२४८।।

हैं घट गये सम्प्रति हमारे चरित ऐसे सर्वथा,

कवि-कल्पना-सा जान पड़ती पूर्वजों की वह कथा !

आश्चर्य क्या जो फिर हमें वह युक्ति-युक्त जंचे  नहीं,

छोटे दिलों में भी बड़ी बातें समा सकती कहीं ! ।। २४९ ।।

गायक मदन शिशु जो कहीं होता पुरातन काल में,

होते कहीं ये भीमकर्मा राममूर्ति न हाल में,

लेते न सम्प्रति जन्म जो वे आधुनिक अर्जुन कई,

इनकी कथा भी कल्पना की दौड़ कहलाती नई ॥ २५० ।।

सारे जगत में जब परा-विद्या प्रमुखता पायगी-

उत्पत्ति भारत में तथा उसकी बताई जायगी ।

तब भी कदाचित् मुंह बना कर कह उठेंगे हम यही-

क्यों जो, हमारे पूर्वजों की यह कथा क्या है सही ?।।२५१।।

संसार रूप शरीर में जो प्राण रूप प्रसिद्ध था,

सब सिद्धियों में जो कभी सम्पूर्णता से सिद्ध था ।

हा हन्त ! जीते जी वही अब हो रहा म्रियमाण है,

अब लोक-रूप-मयङ्क में भारत कलङ्क-समान है ! ।।२५२।।

हा देव ! अब वे दिन कहाँ हैं और वे रातें कहाँ ?

हैं काल की घातें कि कल की आज हैं बातें कहाँ ?

क्या थे तथा अब क्या हुए हम, जानता बस काल है;

भगवान जाने, काल की कैसी निराली चाल है !!!।।२५३।।

वर्तमान खण्ड : भारतभारती

 प्रवेश

जिस लेखनी ने है लिखा उत्कर्ष भारतवर्ष का,

लिखने चली अब हाल वह उसके अमित अपकर्ष का ।

जो कोकिला नन्दन – विपिन में प्रेम से गाती रही ,,

दावाग्नि-दग्धारण्य में रोने चली है अब वही !!! ॥ १ ॥

 वर्तमान भारत

यद्यपि हताहत गात में कुछ साँस अब भी आ रही,

पर सोच पूर्वापर दशा मुंह से निकलता है यही-

जिसकी अलौकिक कीर्ति से उज्ज्वल हुई सारी मही,

था जो जगत का मुकुट, है क्या हाय ! यह भारत वही ॥ २ ॥

भारत, कहो  तो आज तुम क्या हो वही भारत अहो !

हे पुण्यभूमि ! कहाँ गई है वह तुम्हारी श्री कहो ?

अब कमल क्या, जल तक नहीं, सर-मध्य केवल पङ्क है;

वह राजराज कुबेर अबी  हा ! रङ्क का भी रङ्क है ! ॥ ३ ॥

 प्राचीन चिन्ह

प्राचीनता के चिन्ह भी क्या अब तुम्हारे रह गये ?

खंडहर खड़े हैं कुछ सही, पर आज वे भी हैं नये ।

सुनते यही हैं हाय ! हम जा पहुँचते हैं जब वहाँ-

“कोई हमें वे मत कहो, देखो न, अब हम वे कहाँ !” ॥४॥

उन मन्दिरों के ढेर ऊँचे, आद्रि-रूप, उजाड़ हैं;

हा पूर्वजों की बैठकों पर दीखते अब झाड़ हैं ।

वे झाड़ मर्मर-मिस पवन में भर रहे थे शब्द हैं-

“जो थे यहाँ उनको हुए बीते अनेकों अब्द हैं !” ॥५॥

जिन श्रेष्ठ सौंधों में सुगायक श्रुति-सुधा थे घोलते,

निशि-मध्य टीलों पर उन्हीं के आज उल्लू, बोलते ।

“सोते रहो हे हिन्दुओ ! हम मौज करते हैं यहाँ”,

प्राचीन चिन्ह विनष्ट यों किस जाति के होंगे कहाँ ?॥६॥

श्रुति, शास्त्र और पुराण का होता जहाँ प्रिय-पाठ था,

सुन्दर, सुखद, शुचि सत्त्व गुण का एक अद्भुत ठाठ था ।

जम्बुक अचानक अब वहाँ की शान्ति करते भङ्ग हैं,

आकाश के बहु रङ्ग-जैसे भूमि के भी ढङ्ग हैं ॥७॥

आमोद बरसाती जहाँ थी यज्ञ-धूममयी घटा,

यश-तुल्य जिस अमोद की थी स्वर्ग में छाई छटा ।

अब प्लेग-जैसी व्याधियों की है वहाँ फैली हवा,

चलती नहीं जिस पर धुरन्धर डाक्टरों की भी दवा ! ॥८॥

 दारिद्रय

रहता प्रयोजन से प्रचुर पूरित जहाँ धन-धान्य था,

जो ‘स्वर्ण-भारत’ नाम से संसार में सम्मान्य था !

दारिद्रय  दुर्द्धर अब वहाँ करता निरन्तर नृत्य है,

आजीविका-अवलम्ब बहुधा भृत्य का ही कृत्य है !! ॥ ९ ॥

देखो जिधर अब बस उधर ही है उदासी छा रही,

काली निराशा की निशा सब ओर से है आ रही ।

चिन्ता-तरङ्गें  चित्त को बेचैन रखती हैं सदा,

अब नित्य ही आती यहाँ पर एक नूतन आपदा ॥१०॥

 दुर्भिक्ष

दुर्भिक्ष मानों देह धर के घूमता सब ओर है,

हा ! अन्न ! हा ! हा ! अन्न का रव गूंजता घनघोर है ?

सब विश्व में सौ वर्ष में, रण में मरे जितने हरे !

जन चौगुने उनसे यहाँ दस वर्ष में भूखों मरे !! ॥११॥

उड़ते प्रभञ्जन से यथा तप-मध्य सूखे पत्र हैं,

लाखों यहाँ भूखे भिखारी घूमते सर्वत्र हैं।

है एक चिथड़ा ही कमर में और खप्पर हाथ में,

नङ्गे तथा रोते हुए बालक विकल हैं साथ में ॥१२॥

आवास या विश्राम उनका एक तरुतल मात्र है,

बहु कष्ट सहने से सदा काला तथा कृश गात्र है !

हेमन्त उनको है कंपाता , तप तपाता है तथा-

है झेलनी पड़ती उन्हें सिर पर विषम वर्षा-व्यथा !॥१३॥

वह पेट उनका पीठ से मिल कर हुआ क्या एक है ?

मानों निकलने को परस्पर हड्ड्यिों में टेक है !

निकले हुए हैं दाँत बाहर, नेत्र भीतर हैं धंसे से;

किन शुष्क आँतों में न जाने प्राण उनके हैं फँसे ! ॥१४॥

अविराम आँखों से बरसता आँसुओं का मेह है,

है लटपटाती चाल उनकी, छटपटाती देह है !

गिर कर कभी उठते यहाँ, उठ कर कभी गिरते वहाँ;

घायल हुए-से घूमते हैं वे अनाथ जहाँ तहाँ ॥१५॥

हैं एक मुट्ठी अन्न को वे द्वार द्वार पुकारते,

कहते हुए कातर वचन  सब ओर हाथ पसारते-

“दाता ! तुम्हारी जय रहे, हमको दया कर दीजियो,

माता ! मरे हा ! हा ! हमारी शीघ्र ही सुध लीजियो”॥१६॥

कृमि, कीट, खग, मृग आदि भी भूखे नहीं सोते कभी,

पर वे भिखारी स्वप्न में भी भूख से रोते सभी !

वे सुप्त हैं या मृत कि मूर्च्छित , कुछ समझ पड़ता नहीं;

मूर्च्छा कि मृत्यु अवश्य है, यह नींद की जड़ता नहीं॥१७॥

है काँखता कोई कहीं, कोई कहीं रोता पड़ा;

कोई विलाप-प्रलाप करता, ताप है कैसा कड़ा?

हैं मत्यु-रमणी पर प्रणयि-सम वे अभागे मर रहे,

जब से बुभुक्षा कुट्टनी ने उस प्रिया के गुण कहे !॥१८॥

नारी-जनों की दुर्दशा हमसे कही जाती नहीं,

लज्जा बचाने को अहो ! जो वस्त्र भी पाती नहीं।

जननी पड़ी है और शिशु उसके हृदय पर मुख धरे,

देखा गया है, किन्तु वे मां-पुत्र दोनों हैं मरे ! ॥१९ ॥

जो कूलवती हैं भीख भी वे मांग सकती हैं नहीं,

मर जायें चाहे किन्तु झोली टांग सकती हैं नहीं !

सन्तान ने आकर कहा-‘माँ ! रात तो होने लगी,

भूखे रहा जाता नहीं माँ !’ सुन जननि रोने लगी॥२०॥

है खोलती सरकार यद्यपि काम शीघ्र अकाल के,

होती सभाएँ, और खुलते सत्र आटे दाल के।

पूरा नहीं पड़ता तदपि, वह त्राहि कम होती नहीं;

कैसी विषमता है कि कुछ भी हाय! सम होती नहीं ॥ २१ ॥

प्रायः सदा दुर्भिक्ष ऐसा है बना रहता जहाँ,

आश्चर्य, क्या यदि फिर निरन्तर नीचता फैले वहाँ ।

करता नहीं क्या पाप भूखा ? पेट हो तेरा बुरा,

हा ! छोड़ती सुत तक नहीं उरगी क्षुधा से आतुरा !॥ २२ ॥

शासक यहाँ जो दोषियों को साँकलों से कस रहे,

जो अण्डमान समान टापू हैं यहाँ से बस रहे।

फिर भी दिनोंदिन बढ़ रहा जो घोर घटना-जाल है,

है हेतु इसका और क्या, दुर्भिक्ष या दुष्काल है ॥ २३ ॥

कुल जाति-पाँति न चाहिए, यह सब रहे या जाय रे,

बस एक मुट्ठी अन्न हमको चाहिए अब हाय रे !

इस पेट पापी के लिए ही हम विधर्मी बन रहे;

निज धर्म-मानस से निकल अघ-पंक में हैं सन रहे ॥ २४ ॥

जिन दूर देशों में हमारे धर्म के झण्डे उड़ें-

आकर स्वयं जिनके तले दिन दिन वहाँ के जन जुड़ें,

तजना पड़े हमको वहीं के धर्म पर निज धर्म को;

हा ! हा ! बुभुक्षा राक्षसी क्या देखती दुष्कर्म को !॥ २५॥

हे धर्म और स्वदेश ! तुमको बार बार प्रणाम है,

हा! हम अभागों का हुआ क्या आज यह परिणाम है !

हमको क्षमा करियो, क्षुधावश हम तुम्हें हैं खो रहे,

होकर विधर्मी हाय ! अब हम हैं विदेशी हो रहे” ॥ २६ ॥

आनन्द-नद में मग्न थे जिस देश के वासी सभी,

सुर भी तरसते थे जहाँ पर जन्म लेने को कभी।

हा! आज उसकी यह दशा, सन्ताप छाया सब कहीं।

सुर क्या, असुर भी अब यहाँ का जन्म चाहेंगे नहीं ॥ २७ ॥

 कृषि और कृषक

अब पूर्व की-सी अन्न की होती नहीं उत्पत्ति है,

पर क्या इसीसे अब हमारी घट रही सम्पत्ति है ?

यदि अन्य देशों को यहाँ से अन्न जाना बन्द हो-

तो देश फिर सम्पन्न हो, क्रन्दन रुके, अनन्द ही ॥ २८ ॥

वह उर्वरापन भूमि का कम हो गया है, क्यों न हो ?

होता नहीं कुछ यत्न उसका, यत्न कैसे हो, कहो ?

करते नहीं कर्षक परिश्रम, और वे कैसे करें ?

कर-वृद्धि है जब साथ तब क्यों वे वृथा श्रम कर मरें? ॥ २९॥

सौ में पचासी जन यहाँ निर्वाह कृषि पर कर रहे,

पाकर करोड़ों अर्द्ध भोजन सर्द आहें भर रहे।

जब पेट की ही पड़ रही फिर और की क्या बात है,

‘होती नहीं है भक्ति भूखे’ उक्ति यह विख्यात है ॥ ३०॥

कृषि-कर्म की उत्कर्षता सर्वत्र विश्रुत है सही,

पर देख अपने कर्षकों को चित्त में आता यही-

हा दैव ! क्या जीते हुए आजन्म मरना था उन्हें ?

भिक्षुक बनाते, पर विधे ! कर्षक न करना था उन्हें ॥ ३१ ॥

कृषि में अपेक्षा वृष्टि की रहती हमें अब है सदा,

होता जहाँ वैषम्य उसमें क्या कहें फिर अपदा।

रहता अवर्षण से अहो! अब जो हमारा हाल है,

दृष्टान्त उसका इन दिनों गुजरात का दुष्काल है॥३२॥

था एक ऐसा भी समय पड़ता अकाल न था यहाँ,

हो या न हो वर्षा जलाशय थे यथेष्ट जहाँ तहाँ।

भारत पढ़ो, देवर्षि ने है क्या युधिष्ठिर से कहा—

“कृषि-कार्य्यावर्षा की अपेक्षा के बिना तो हो रहा है?”॥३३॥

केवल अवर्षण ही नहीं, अति वृष्टि का भी कष्ट है;

बढ़ कर प्रलय-सम प्रबल जल सर्वस्व करता नष्ट है !

“दैवोऽपि दुर्बलघातक:” अथवा अभाग्य कहें इसे ?

किंवा कहो, निज कर्म का मिलता नहीं है फल किसे ? ॥३४॥

अब ऋतु-विपर्यय तो यहाँ आवास ही-सा है किये,

होती प्रकृति में भी विकृति हा ! भाग्यहीनों के लिए।

हेमन्त में बहुधा घनों में पूर्ण रहता व्योम है,

पावस-निशाओं में तथा हँसता शरद का सोम है ! ॥ ३५॥

हो जाय अन्छी भी फ़सल पर लाभ कृषकों  को कहाँ ?

खाते, स्ववाई, बीज-ऋण से हैं रंगे  रक्खे यहाँ ।

आता महाजन के यहाँ वह अन्न सारा अन्त में,

अधपेट रह कर फिर उन्हें है काम्पना हेमन्त में ! ॥ ३६ ॥

पानी बना कर रक्त का, कृषि कृषक करते हैं यहाँ,

फिर भी अभागे भूख से दिन रात मरते हैं यहाँ ।

सब बेचना पड़ता उन्हें निज अन्न वह निरुपाय है,

बस चार पैसे से अधिक पड़ती न दौनिक आय है ! ॥ ३७ ॥

जब अन्य देशों के कृषक सम्पत्ति में भरपूर हैं-

लाते कि जिनसे आठ रुपया रोज के मज़दूर हैं।

तब चार पैसे रोज़ ही पाते यहाँ कृर्षक अहो !

कैसे चले संसार उनका, किस तरह निर्वाह हो ? ॥ ३८॥

बीता नहीं बहु काल उस औरङ्गजेबी को अभी –

करके स्मरण जिसका कि हिन्दू काँप उठते हैं सभी।

उस दुःसमय का चावलों का आठ मन का भाव है,

पर आठ सेर नहीं रहा अब, क्या अपूर्व अभाव है ! ॥ ३९॥

होती नहीं है कृषि यहाँ पूरी तरह से अब कभी,

यद्यपि शुभाशा चित्त में होती हमें हैं जब कभी ।

पाला कहीं, ओले कहीं, लगता कहीं कुछ रोग है,

पहले शुभाशा, फिर निराशा, दैव ! कैसा योग है ? ॥४०॥

बरसा रहा है रवि अनल, भूतल तवा-सा जल रहा,

है चल रहा सनसन पवन, तन से पसीना ढल रहा !

देखा, कृषक शोणित सुखा कर हल तथापि चला रहे,

किस लेाभ से इस आंच में वे निज शरीर जला रहे ! ॥४१॥

मध्याह्न है, उनकी स्त्रियाँ ले रेटियों पहुंची वहीं,

हैं रोटियां रूखी, खबर है शाक की हमको नहीं !

सन्तेाष से खाकर उन्हें वे, काम में फिर लग गये,

भर पेट भोजन पा गये तो भाग्य माने जग गये ! ॥ ४२ ॥

उन कृषक-वधुओं की दशा पर नित्य रोती है दया,

हिम-ताप-वृष्टि-सहिष्णु जिनका रंग काला पड़ गया।

नारी-सुलभ-सुकुमारता उनमें नहीं है नाम को,

वे कर्कशांगी क्यों न हों, देखो न उनके काम को !! ॥४३॥

गोबर उठाती, थापती हैं, भोगती आयास वे,

कृषि काटतीं, लेतीं परोहे, खोदती हैं घास वे।

गृह-कार्य जितने और हैं करती वही सम्पन्न हैं,

तो भी कदाचित् ही कभी भर पेट पाती अन्न हैं ॥४४॥

कुछ रात रहते जागकर चक्की चलाने बैठतीं,

हम सच कहेंगे, उस समय वे गीत गाने बैठतीं।

पर क्या कहें, उस गीत से क्या लाभ पाने बैठतीं,

वे सुख बुलाने बैठती, या दुख भुलाने बैठतीं ! ॥४५॥

घनघोर वर्षा हो रही है, गगन गर्जन कर रहा,

घर से निकलने को कड़क कर वज्र वर्जन कर रहा।

तो भी कृषक मैदान में करते निरन्तर काम हैं,

किस लोभ से वे आज भी लेते नहीं विश्राम हैं ? ॥४६॥

बाहर निकलना मौत है, आधी अँधेरी रात है,

आ: शीत कैसा पड़ रहा है, थरथराता गात है।

तो भी कृषक ईंधन जलाकर खेत पर हैं जागते,

वह लाभ कैसा है न जिसका लोभ अब भी त्यागते ! ॥४७॥

यह अन्न तो लेंगे विदेशी, लाभ क्या उनको कहो ?

मिलता उन्हें जो अर्द्ध भोजन विघ्न उसमें भी न हो !

कहते इसी से हैं कि क्या आजन्म मरना था उन्हें,

भिक्षुक बनाते पर विधे! कर्षक न करना था उन्हें ! ॥४८॥

हैं वे असभ्य तथा अशिक्षित, भाव उनके भ्रष्ट हैं ;

दुख-भार से सुविचार मानो हो गये सब नष्ट हैं !

अपनी समुन्नति के उन्हें कोई उपाय न सूझते,

अपना हिताहित भी न कुछ वे हैं समझते बूझते ॥४९॥

सज्ञान कैसे हों, उन्हें संयोग ही मिलता नहीं,

विख्यात कमलालय कमल भी दिन बिना खिलता नहीं !

है पेट से ही पेट की पड़ती उन्हें, वे क्या करें !

वे ग्वाल हो जीते रहें, या छात्र बन भूखों मरें? ॥ ५० ॥

सम्प्रति कहाँ क्या हो रहा है, कुछ न उनको ज्ञान है,

है वायु कैसा चल रहा, इसका न कुछ भी ध्यान है !

मानो भुवन से भिन्न उनका दूसरा ही लोक है,

शशि-सूर्य्य हैं, फिर भी कहीं उसमें नहीं आलोक है! ॥ ५१ ॥

भरपेट भोजन ही चरम सुख वे अकिंचन मानते,

पर, साथ ही दुर्भाग्य-वश दुर्लभ उसे हैं जानते !

दिन दुःख के हैं भर रहे करते हुए सन्तोष वे,

लाचार हैं, निज भाग्य को ही दे रहे हैं दोष वे ! ॥ ५२ ॥

उनको निरन्तर दुःख ने अब कर दिया यों दीन है-

सुख-कल्पना तक से हुआ उनका हृदय अब हीन है।

आलोक का अनुभव कभी जन्मान्ध कर सकते नहीं,

मरु-जन्तु सहसा सुरसरी का ध्यान धर सकते नहीं ॥ ५३ ॥

ग्रामीण गीत यदा कदा वे गान करते हैं सही,

है फाग उनका राग बहुधा और उत्सव भी वही।

पर चित्त को वे दीन जन किस भाँति बहलाया करें?

क्या आँसुओं से ही उसे वे नित्य नहलाया करें ? ॥ ५४ ॥

तुम सभ्य हो, ‘मार्केट’ जिनका सात सागर पार है,

पर ग्राम की वह हाट ही उनका ‘बड़ा बाजार’ है।

तुम हो विदेशों से मँगाते माल लाखों का यहाँ,

पर वे अकिंचन नमक-गुड़ ही मोल लेते हैं वहाँ ॥ ५५ ॥

करते सहर्ष प्रदर्शिनी की सैर तुम कौतुक भरी,

(क्या लाभ उससे हो उठाते, बात है यह दूसरी।)

वे हो सका तो ग्राम्य मेले देखकर ही धन्य हैं,

मनिहार की दूकान से जिनमें सुदृश्य न अन्य हैं ॥ ५६ ॥

तुम दार्शनिक हो, ईश का अस्तित्व सत्य न मानते,

हैं भूत-प्रेतों से अधिक वे भी न उसको जानते।

हा दैव ! इस ऋषि-भूमि का यह आज कैसा हाल है !

तू काल ! सचमुच काल ही है, क्रूर और कराल है ॥ ५७ ॥

पाठक ! न यह कह बैठना-छेड़ा कहाँ का राग है,

यह फूल कैसा है कि इसमें गन्ध है न पराग है?

है यह कथा नीरस तदपि इसमें हमारा भाग है,

निकले बिना बाहर नहीं रहती हृदय की आग है ॥ ५८ ॥

 गो वध

है कृषि-प्रधान प्रसिद्ध मारत और कृषि की यह दशा !

होकर रसा यह नीरसा अब हो गई है कर्कशा ।

अच्छी उपज होती नहीं है, भूमि बहु परती पड़ी;

गो-वंश का वध ही यहाँ है याद आता हर घड़ी ! ॥ ५९ ॥

यूरोप में कल के हलों से काम होता है सही,

जुत क्यों न जाती हो अरब में ऊँट के हल से मही ।

गो-वंश पर ही किन्तु है यह देश अवलंबित सदा,

पर दीन भारत ! हाय रे भाग्य में है क्या बदा ! ॥ ६० ॥

है भूमि बन्ध्या हो रही, वृष-जाति दिन दिन घद रही;

घी-दूध दुर्लभ हो रहा, बल-वीर्य की जड़ कट रही ।

गो-वंश के उपकार की सब ओर आज पुकार है;

तो भी यहाँ इसका निरन्तर हो रहा संहार है ! ॥ ६१ ॥

वह भी समय था एक, जो अब स्वप्न जा सकता कहा,

घी तीस सेर विशुद्ध रुपये में हमें मिलता रहा !

देहात में भी सेर भर से अब अधिक मिलता नहीं !

दुर्बल हुए हम आज यों, तनु भार भी झिलता नहीं ॥६२॥

दाँतों तले तृण दाबकर हैं दीन गायें कह रहीं-

“हम पशु तथा तुम हो मनुज, पर योग्य क्या तुमको यही?

हमने तुम्हें माँ की तरह है दूध पीने को दिया,

देकर कसाई को हमें तुमने हमारा वध किया ॥६३॥

“जो जन हमारे मांस से निज देह-पुष्टि विचार के-

उदरस्थ हमको कर रहे हैं, क्रूरता से मार के।

मालूम होता है सदा, धारे रहेंगे देह वे-

या साथ ही ले जायँगे उसको बिना सन्देह वे ! ॥६४||

“हा ! दूध पीकर भी हमारा पुष्ट होते हो नहीं,

दधि, घृत तथा तक्रादि से भी तुष्ट होते हो नहीं।

तुम खून पीना चाहते हो, तो यथेष्ट वही सही,

नर-योनि हो, तुम धन्य हो, तुम जो करो थोड़ा वही ! ॥६५॥

“क्या वश हमारा है भला, हम दीन हैं, बलहीन हैं,

मारो कि पालो, कुछ करो तुम, हम सदैव अधीन हैं।

प्रभु के यहाँ से भी कदाचित् आज हम असहाय हैं,

इससे अधिक अब क्या कहें, हा ! हम तुम्हारी गाय हैं ॥६६॥

“बच्चे हमारे भूख से रहते समक्ष अधीर हैं,

करके न उनका सोच कुछ देती तुम्हें हम क्षीर हैं।

चरकर विपिन में घास फिर आती तुम्हारे पास हैं,

होकर बड़े वे वत्स भी बनते तुम्हारे दास हैं ॥६७॥

“जारी रहा क्रम यदि यहाँ यों ही हमारे नाश का-

तो अस्त समझो सूर्य्य भारत-भाग्य के आकाश का।

जो तनिक हरियाली रही वह भी न रहने पायगी,

यह स्वर्ण-भारत-भूमि बस मरघट-मही बन जायगी ॥६८॥

“बहुधा हमारे हेतु ही विग्रह यहाँ होता खड़ा,

सहवासियों में वैर का जो बीज बोता है बड़ा।

जो हे मुसलमानो ! हमें कुर्बान करना धर्म है-

तो देश की यों हानि करना क्या नहीं दुष्कर्म है? ॥६९॥

“बीती अनेक शताब्दियाँ जिस देश में रहते तुम्हें,

क्या लाज आवेगी उसे अपना ‘वतन’ कहते तुम्हें ?

तुम लोग भारत को कभी समझो अरब से कम नहीं?

यद्यपि जगत् में और कोई देश इसके सम नहीं ॥७०॥

“जिस देश के वर-वायु से सकुटुम्ब तुम हो जी रहे,

मिष्टान्न जिसका खा रहे, पीयूष-सा जल पी रहे।

जो अन्त में तनु को तुम्हारे ठौर देगा गोद में,

कर्तव्य क्या तुमको नहीं रखना उसे आमोद में? ॥७१॥

“जिसमें बुजुर्गों के तुम्हारे हैं शरीर मिले हुए,

जिसने उगाये हैं वहाँ छायार्थ वृक्ष खिले हुए।

क्या मान्य ‘मगरिब’ की तरह तुमको न होगी वह धरा?

अजमेर की दरगाह का कर ध्यान सोचो तो जरा ॥७२॥

“हिन्दू हमें जब पालते हैं धर्म अपना मान के,

रक्षा करो तब तुम हमारी देशहित ही जान के।

यदि तुम कहो—अब हम कलों से काम ले लेंगे सभी,

तो पूछती हैं हम कि क्या वे दूध भी देंगी कभी? ॥७३॥

“हिन्दू तथा तुम सब चढ़े हो एक नौका पर यहाँ,

जो एक का होगा अहित तो दूसरे का हित कहाँ।

सप्रेम हिलमिल कर चलो, यात्रा सुखद होगी तभी ;

पीछे हुआ सो हो गया, अब सामने देखो सभी” ॥७४॥

हा ! शोचनीय किसे नहीं गो-वंश का यह ह्रास है?

इस पाप से ही बढ़ रहा क्या अब हमारा त्रास है?

घृत और दुग्धाभाव से दुर्बल हुए हम रो रहे,

होकर अशक्त, अकाल में ही काल-कवलित हो रहे ॥७५॥

जो नित्य नूतन व्याधियाँ करती यहाँ आखेट हैं,

क्या दीन-दुर्बल ही अधिक होते न उनको भेंट हैं?

‘दैवोऽपि दुर्बलघातकः’ फिर याद आता है यहाँ,

‘छिद्रेष्वनर्था’ वाक्य पर भी ध्यान जाता है यहाँ ॥७६॥

 व्याधियाँ

बेमौत अपने आप यों ही हम अभागे मर रहे,

हा ! प्लेग जैसे रोग तिस पर हैं चढ़ाई कर रहे।

उच्छिन्न होकर अर्द्धमृत-सा छटपटाता देश है ;

सब ओर क्रन्दन हो रहा है ; क्लेश को भी क्लेश है ॥७७॥

गौरांगगण भी तो अहो ! थोड़े यहाँ रहते नहीं,

आश्चर्य किन्तु नहीं कि वे दुखदाह से दहते नहीं।

वे स्वस्थ क्यों न रहें, उन्हें कब और कौन अभाव है?

बस, दुःख में ही दुःख होता घाव में ही घाव है ॥७८॥

भारत न ऐसा है कि अब वह और भी दुख सह सके,

इसकी बुरी गति भारती ही कह सके तो कह सके।

कृश हो गया सहसा सरोवर, छटपटाते मीन हैं,

तप-तप्त तरुवर शुष्क हैं, द्विज दीन हैं, गति हीन हैं ॥७९॥

 व्यापार

इस रत्नगर्भा भूमि पर हा दैव ! ऐसी दीनता,

है शोच्य कृषि से कम नहीं व्यापार की भी हीनता।

जिस देश के वाणिज्य की सर्वत्र धूम मची रही-

क्या पर-मुखापेक्षी नहीं है आज पद पद पर वही? ॥८०॥

अब रख नहीं सकते स्वयं हम लाज भी अपनी अहो !

रखते विदेशी वस्त्र उसको, सभ्य हैं हम, क्यों न हो !

करती अपेक्षा आप अपनी पूर्ण जो जितनी जहाँ–

वह जाति उतनी ही समुन्नति प्राप्त करती है वहाँ ॥ ८१ ॥

जो वस्तु देखो, “मेडइन’ इंगलैंड, इटली, जर्मनी,

जापान, फ्रांस, अमेरिका वा अन्य देशों की बनी ।

होकर सजीव मनुष्य हम निर्जीव-से हैं हो रहे,

घर में लगा कर आग अपने बेखबर हैं सो रहे ! ॥ ८२ ॥

कुल-नारियाँ जिनको हमारी हैं करों में धारतीं –

सौभाग्य का शुभ-चिन्ह जिनके हैं सदैव विचारतीं ।

वे चूड़ियाँ तक हैं विदेशी देखलो, बस हो चुका;

भारत स्वकीय सुहाग भी परकीय करके खो चुका ! ॥ ८३ ॥

वे तुच्छ सुइयाँ  भी विदेशी जो न हमको मिल सकें-

तो फिर पहनने के हमारे वस्त्र भी क्या सिल सकें ?

माचिस विदेशी जो न लें तो हम अंधेरे में रहें,

हैं क्षुद्र छड़ियाँ तक विदेशी और आगे क्या कहें ? ॥ ८४ ॥

केवल विदेशी वस्तु ही क्यों, अब स्वदेशी है कहाँ ?

वह वेष-भूषा और भाषा, सब विदेशी है यहाँ !

गुण मात्र छोड़ विदेशियों के हम उन्हीं में सन गये,

कैसी नकल की, वाह ! हम नक़्क़ाल पूरे बन गये ! ॥ ८५॥

गर्दभ बना था सिंह उसकी खाल को पाकर कभी,

पर सिह के-से गुण कहाँ ? हंसने लगे उसको सभी ।

इस भाँति के नरपुङ्गवों की क्या यहाँ बढ़ती नहीं ?

पर हाय ! काले भाल पर लाली कभी चढ़ती नहीं ॥ ८६ ॥

सम्प्रति स्वदेशी की हमें है गन्ध भी भाती नहीं,

खस, केकड़ा, बेला, चमेली चित्त में आती नहीं ।

मस्तक न ‘लेवेंडर’ बिना अब मस्त होता है अहो !

बस शौक़ पूरा हो हमारा, देश ऊजड़ क्यों न हो ! ॥ ८७ ॥

सब स्वाभिमान डुबा चुकेजो पूर्व-पारावार में-

आश्चर्य है, हम आज भी हैं जी रहे संसार में !

किंवा इसे जीना कहें तो फिर कहें मरना किसे ?

जीता कहाँ है वह नहीं है ध्यान कुछ अपना जिसे ! ॥ ८८ ॥

आती विदेशों से यहाँ सब वस्तुएँ व्यवहार की,

धन-धान्य जाता है यहाँ से, यह दशा व्यापार की ?

कैसे न फैले दीनता, कैसे न हम भूखों मरें ?

ऐसी दशा में देश की भगवान ही रक्षा करें ॥ ८९ ॥

जिस वस्तु को हम दूसरों को बेचते हैं ‘एक’ में,

लेते उसी को ‘बीस’ में हैं डूब कर अविवेक में !

जो देश कच्चा  माल ही उत्पन्न करके शान्त है,

उसका पतन एकान्त है, सिद्धान्त यह निभ्रांत है ॥ ९० ॥

रालीब्रदर इत्यादि को हम बेचते जो माल हैं,

लेते वही पन्द्रह गुने तक मूल्य में तत्काल हैं !

आता विलायत से यहाँ वह माल नाना रूप में,

आश्चर्य क्या फिर हम पड़े हैं जो अँधेरे कूप में ॥ ९१ ॥

हम दूसरों को पाँच सौ की बेचते हैं जब रुई,

सानन्द कहते हैं कि हमको आय क्या अच्छी हुई ।

पर दूसरे कहते कि ठहरो, वस्त्र जब हम लायँगे —

तब और  पैंतालीस लेकर तुम्हीं से जायँगे ॥ ९२ ॥

हा ! आप आगे दौड़ कर हम दीनता को ले रहे,

लेकर खिलौने, काँच आदिक अन्न-धन हैं दे रहे !

आवश्यकीय पदार्थ अपने यदि बनाते हम यहीं ,

तो हानि होकर यों  हमारी दुर्दशा होती नहीं ॥ ९३ ॥

लेकर विदेशी टीन हम सानन्द चाँदी दे रहे,

देकर तथा सोना निरन्तर हैं गिलट हम ले रहे ।

इस कांच लेकर दूसरों को दे रहे हीरे खरे,

निज रक्त के बदले मदोदक ले रहे हैं हा हरे ! ॥ ९४ ॥

क्या इस पुरातन देश में था समय ऐसा भी कभी —

अपनी प्रयेाजन-पूर्ती जब करते स्वयं थे हम सभी ?

हाँ, यह न होता तो कभी का नाश हो जाता यहाँ,

इसका अभी तक चिन्ह भी क्या दृष्टि में आता यहाँ ॥९५॥

जो दिव्य दर्शन शास्त्र की विख्यात है जन्मस्थली,

पहले जहाँ पर अंकुरित हो सभ्यता फूली-फली ।

संगीत, कविता, शिल्प की जननी  वही भारत मही,

होगी किसे स्पर्धा कहे जो पर-मुखापेक्षी रही ॥ ९६ ॥

इतिहास में इस देश की वाणिज्य-वृद्धि प्रसिद्ध है,

अन्यान्य देशों से वहाँ सम्बन्ध इसका सिद्ध है ।

बन कर यहाँ वर वस्तुएँ सर्वत्र ही जाती रहीं,

नर-रचित कहलाती न थी, सुर-रचित कहलाती रहीं ॥९७॥

हिन्दू-कला-कौशल्य पर संसार मुग्ध बना रहा,

जग में बिना सङ्कोच सबने अद्वितीय उसे कहा ।

‘हारुंरशीद’ तथा प्रतापी ‘शार्लमेंगन’ की सभा,

है हो चुकी विस्मित निरख कर भारतीय-पट-प्रभा ॥ ९८ ॥

सब वस्तुएँ उपहार के ही योग्य बनती थीं यहाँ,

संसार में होती उन्हीं की माँग थी देखो जहाँ ।

तब तो अतुल वैभव रहा, त्रुटि थी न कोई आय में;

सच है कि रमती है रमा वाणिज्य में, व्यवसाय में ॥ ९९॥

हैं आज कश्मीरे विदेशी नाम पर जिनके चले,

बनते दुशले हाय ! थे कश्मीर में कैसे भले !

है विदित बङ्गाली किनारी धोतियों की आज भी,

पर है विदेशी आज वह, आती न हमको लाज भी ! ॥ १००॥

ढाके, चंदेरी आदि की कारीगरी अब है कहाँ ?

हा ! आज हिन्दू-नारियों की कुशलता सब है कहाँ ?

थी वह कला या क्या, कि ऐसी सूक्ष्म थी, अनमोल थी,

सौ हाथ लम्बे सूत की बस एक रत्ती तोल थी ॥१०१॥

रक्खा नली में बाँस की जो थान कपड़े का नया,

आश्चर्य ! अम्बारी सहित हाथी उसी से ढक गया।

वे वस्त्र कितने सूक्ष्म थे, कर लो कई जिनकी तहें-

शहजादियों के अंग फिर भी झलकते जिनमें रहें ! ॥१०२॥

थे मुग्ध वस्त्रों पर हमारे अन्य देशी सर्वथा,

यूरोप के ही साहबों की हम सुनाते हैं कथा।

वे लोग वस्त्रों को यहाँ के थे सदैव सराहते,

निज देश के पट मुफ्त में भी थे न लेना चाहते ॥१०३॥

जिस भाँति भारतवर्ष का व्यापार नष्ट किया गया,

कर से तथा प्रतिरोध से जिस भाँति भ्रष्ट किया गया।

वर्णन वृथा है उस विषय का, सोचना अब है यही-

किस भाँति उसकी वृद्धि हो, जैसी कि पहले थी रही ॥१०४॥

यदि हम विदेशी माल से मुँह मोड़ सकते हैं नहीं-

तो हाय ! उसका मोह भी क्या छोड़ सकते हैं नहीं?

क्या बन्धुओं के हित तनिक भी त्याग कर सकते नहीं?

निज देश पर क्या अल्प भी अनुराग कर सकते नहीं? ॥१०५॥

 रईस

है दीन, पर क्या देश की ऐसी अवस्था भी नहीं-

आवश्यकीय पदार्थ जो बनने लगे क्रम से यहीं?

कल-कारखाने खोल दें ऐसे धनी भी हैं हमी,

पर कौन झगड़े में पड़े, हमको भला है क्या कमी ॥१०६।।

तुम मर रहे हो तो मरो, तुमसे हमें क्या काम है?

हमको किसी की क्या पड़ी है, नाम है, धन-धाम है।

तुम कौन हो, जिनके लिए हमको यहाँ अवकाश हो ;

सुख भोगते हैं हम, हमें क्या जो किसी का नाश हो ॥१०७॥

राजा-रईसों की यहाँ है आज ऐसी ही दशा,

अन्धा बना देता अहो ! करके बधिर मद का नशा।

बस भोग और विलास ही उनके निकट सब सार है,

संसार में है और जो कुछ वह भयंकर भार है ! ॥१०८॥

दो पैर जो पैदल चले जाता अमीर नहीं गिना,

होती न सैर प्रदर्शिनी की भी यहाँ वाहन बिना ।

इंगलैंड का युवराज तो सीखे कुली का काम भी,

पर काम क्या, आता नहीं लिखना यहाँ निज नाम भी ! ॥१०९॥

“हो आध सेर कबाब मुझको, एक सेर शराब हो,

नूरजहाँ की सल्तनत है, .खूब हो कि खराब हो।”

कहना मुगल-सम्राट का यह ठीक है अब भी यहाँ,

राजा-रईसों को प्रजा की है भला परवा कहाँ ? ॥११०॥

जातीयता क्या वस्तु है, निज देश कहते हैं किसे;

क्या अर्थ आत्म-त्याग का, वे जानते हैं क्या इसे ?

सुख-दुःख जो कुछ है यहीं है, धर्म-कर्म अलीक है।

खाओ-पियो, मौजें करो, खेलो-हँसो, सो ठीक है !||१११॥

क्या सीख कर लिखना उन्हें, बनना मुहरिर है कहीं,

पण्डित पढ़ें, पढ़ कर कहीं उनको कथा कहनी नहीं।

कीड़े-मकोड़ों की तरह हैं काटते अक्षर उन्हें,

है प्रेम उपवर के सदृश अपनी अविद्या पर उन्हें ! ॥११२॥

हैं शत्रु यद्यपि सिद्ध वे श्रीमान विद्या के सदा,

पर कौन गुण उनमें नहीं जिनके यहाँ है सम्पदा ?

हा सम्पदे ! सत्ता तुम्हारी है चराचरगामिनी,

संसार में सारे गुणों की बस तुम्हीं हो स्वामिनी !॥११३||

ऐसा नहीं कि रईस अपने हैं नहीं कुछ जानते,

वे कुछ न जानें किन्तु ये दो तत्त्व हैं पहचानते-

त्रुटि कौन-सी उनकी सभा में है सजावट की पड़ी,

है ‘जानकीबाई’ कि ‘गौहरजान’ गाने में बड़ी ! ॥११४॥

दुर्विध प्रजा का द्रव्य हरकर फूंकते हैं व्यर्थ वे,

सत्कार्य करने के लिए हैं संर्वथा असमर्थ वे !

चाहे अपव्यय में उड़ें लाखों-करोड़ों भी अभी,

पर देश-हित में वे न देंगे एक कौड़ी भी कभी !! ॥११५॥

दुर्भिक्ष आदिक दुःख से यदि देश जाता है मरा,

तो हैं प्रसन्न कि धाम उनका अन्न-धन से है भरा।

दुर्भाग्य से यदि देश-भाई आपदा में फँस रहे-

तो नाच-मुजरे में विराजे आप सुख से हँस रहे ॥११६॥

उनकी सभा “इन्दर-सभा” है, इन्द्र उनको लेख लो,

वह पूर्ण परियों का अखाड़ा भाग्य हो तो देख लो।

विख्यात बोतल की दवा क्या है अमृत से कम कभी !

लेखक अधम कैसे लिखे उस स्वर्ग का वर्णन सभी॥११७।।

मन हाथ में उनके नहीं, वे इन्द्रियों के दास हैं,

कल-कण्ठियाँ गुजारती उनके अतुल आवास हैं।

वे नेत्र-बाणों से बिंधे हैं, बाल-व्यालों से डसे,

कैसे बचेंगे वे, विषय के बन्धनों से हैं कसे ॥११८॥

हाँ. नाच, भोग-विलास-हित उनका भरा भाण्डार है,

धिक् धिक् पुकार मृदंग भी देता उन्हें धिक्कार है।

वे जागते हैं रात भर, दिन भर पड़े सोवें न क्यों?

है काम से ही काम उनको, दूसरे रोवें न क्यों ॥११९॥

बस भाँड़, भँडुवे, मसखरे उनकी सभा के रत्न हैं,

करते रिझाने को उन्हें अच्छे-बुरे सब यत्न हैं।

धारा वचन की, कौन जो उनके सुखार्थ न बह उठे?

है कौन उनकी बात पर जो ‘हाँ हुजूर’ न कह उठे ? ॥१२०॥

देशी नरेशों को जरा भी ध्यान होता देश का,

होते न विषयाधीन यदि वे त्याग कर उद्देश का,

तो दूसरा ही दृश्य होता आज भारतवर्ष का,

दिन देखना पड़ता हमें क्यों आज यह अपकर्ष का? ॥१२१॥

है अन्य धनियों की दशा भी ठीक ऐसी ही यहाँ,

देखें दशा जो देश की अवकाश है उनको कहाँ ?

रक्खें मितव्यय तो बड़ों में व्यर्थ उनका नाम है,

है इत्र मिल सकता जहाँ तक तेल का क्या काम है ! ॥१२२॥

 रईसों के सपूत

जब याद आती है बड़ों के उन सपूतों की कथा,

उनके सखा, संगी, विदूषक और दूतों की कथा।

तब निकल पड़ते हैं हृदय से वचन ऐसे दुख भरे-

होवें न ऐसे पुत्र चाहे हो कुल-क्षय हे हरे ! ॥१२३।।

यों तो सभी का बीतता है बाल्यकाल विनोद में,

वे किन्तु सोते-जागते रहते सदा हैं गोद में।

इस भाँति पल कर प्यार में जब वे सपूत बड़े हुए,

उत्पात उनके साथ ही घर में अनेक खड़े हुए ! ॥१२४॥

श्रीमान शिक्षा दें उन्हें तो श्रीमती कहती वहीं-

“घेरो न लल्ला को हमारे, नौकरी करनी नहीं!”

शिक्षे ! तुम्हारा नाश हो, तुम नौकरी के हित बनी;

लो मूर्खते ! जीती रहो, रक्षक तुम्हारे हैं धनी !!! ॥१२५।।

तीतर, लवे, मेंढ़े, पतंगें  वे लड़ाते हैं कभी,

वे दूसरों के व्यर्थ झगड़े मोल लाते हैं कभी।

दस, बीस उनके दुर्व्यसन हों तो गिने भी जा सकें,

पथ या विपथ है कौन ऐसा वे न जिस पर आ सकें॥१२६॥

निकले कि फिर दस पाँच चिड़ियाँ मार लाना है उन्हें,

बन्दूक ले, वन-जन्तुओं पर बल दिखाना है उन्हें ।

घातक ! तुम्हारी तो सहज ही शाम की यह सैर है,

पर उन अभागों से कहो, किस जन्म का, यह बैर है ? ॥१२७॥

आया जहाँ यौवन उन्हें बस भूत मानों चढ़ गया,

जीवन सफल करणार्थ अब उनमें अपव्यय बढ़ गया !

सौन्दर्य के शशि-लोक में सब ओर उनके चर उड़े,

गुंडे, “पसीने की जगह लोहू” बहाने को जुड़े ! ॥१२८॥

सङ्गीत के मर्मज्ञ उनसे आज वे ही दीखते,

हैं आप भी उनमें बहुत गाना-बजाना सीखते ।

यदि रंडियों के साथ वे ठेका लगाते हैं कभी-

तो क्या हुआ ? अपनी प्रिया पर प्रेम रखते हैं सभी ! ॥१२९॥

रहती उन्हीं के ठाठ की है धूम मेलों में सदा,

आगे मिलेंगे वे थियेटर और खेलों में सदा ।

वे नाच-मुजरे और जल्से हैं उन्हीं से लग रहे,

हैं यार लोगों के उन्हीं से भाग्य जग में जग रहे ॥१३०॥

यों कुछ दिनों घर फूंक कौतुक देख कर नङ्गे हुए।

फिर क्या हुआ ? “सरकार” थे जो दीन भिखमङ्गे हुए

हँसने लगा संसार उनको यार छोड़ गये सभी,

लुच्चे-लफङ्गे भी किसी के मीत होते हैं कभी ? ॥१३१॥

आशा भविष्यत् की हमारी क्या इन्हीं पर लग रही ?

क्या पुन्नरक से अन्त में हमको उबारेंगे यही ?

बेड़ा इन्हीं से पार होगा क्या स्वदेश-समाज का ?

होगा सु-दृढ़ फिर राज्य किसके हाथ से कलिराज का ॥१३२॥

 अविद्या

ये सब अ-शिक्षा के कुफल हैं, बास है जिसका यहाँ;

अध्यात्म विद्या का भवन हा ! आज वह भारत कहाँ ?

धिक्कार है, हम खो चुके हैं आज अपना ज्ञान भी;

खोकर सभी कुछ अन्त में खोया महाधन मान्य भी ! ॥१३३॥

हा ! सैंकड़े पीछे यहाँ दस भी सुशिक्षित जन नहीं !

हाँ, चाह कुलियों की कहीं हो, तो मिलेंगे सब कहीं !!

हतभाग्य भारत ! जो कभी गुरुभाव से पूजित रही-

करती भुवन में भृत्यता सन्तान अब तेरी वही !!! ||१३४||

छाई अविद्या की निशा है, हम निशाचर बन रहे;

हा ! आज ज्ञानाऽभाव से वीभत्स रस में सन रहे !

हे राम ! इस ऋषि-भूमि का उद्धार क्या होगा नहीं ?

हम पर कृपा कर आपका अवतार क्या होगा नहीं ॥१३५।।

विद्या विना अब देख लो, हम दुर्गुणों के दास हैं;

हैं तो मनुज हम, किन्तु रहते दनुजता के पास हैं।

दायें तथा बायें सदा सहचर हमारे चार हैं-

अविचार, अन्धाचार हैं, व्यभिचार, अत्याचार हैं !॥१३६।।

हा ! गाढ़तर तमसावरण से आज हम आच्छन्न हैं,

ऐसे विपन्न हुए कि अब सब भाँति मरणासन्न हैं !

हम ठोकरें खाते हुए भी होश में आते नहीं,

जड़ हो गये ऐसे कि कुछ भी जोश में आते नहीं ! ॥१३७॥

 शिक्षा की अवस्था

हा ! आज शिक्षा-मार्ग भी सङ्कीर्ण होकर क्लिष्ट है,

कुलपति-सहित उन गुरुकुलों का ध्यान ही अवशिष्ट है।

बिकने लगी विद्या यहाँ अब, शक्ति हो तो क्रय करो,

यदि शुल्क आदि न दे सको तो मूर्ख रह कर ही मरो!॥१३८॥

ऐसी अमुविधा में कहो वे दीन कैसे पढ़ सके ?

इस ओर वे लाखों अकिञ्चन किस तरह से बढ़ सके ?

अधपेट रह कर काटते हैं मास के दिन तीस वे,

पावें कहाँ से पुस्तकें, लावें कहाँ से फीस वे ? ॥१३९।।

वह आधुनिक शिक्षा किसी विध प्राप्त भी कुछ कर सको-

तो लाभ क्या, बस क्लर्क बन कर पेट अपना भर सको !

लिखते रहो जो सिर झुका सुन अफसरों की गालियाँ !

तो दे सकेगी रात को दो रोटियाँ घरवालियाँ ! ॥१४०॥

अब नौकरो ही के लिए विद्या पढ़ी जाती यहाँ,

बी० ए० न हों  हम तो भला डिप्टीगरी रक्खी कहाँ ?

किस स्वर्ग का सोपान है तू हाय री, डिप्टीगरी!

सीमा समुन्नति की हमारी, चित्त में तू ही भरी !! ॥१४१।।

शिक्षार्थ क्षात्र विदेश भी जाते अवश्य कभी कभी,

पर वक्तृता ही झाड़ते हैं लौट कर प्राय: सभी !

है काम कितनों का यही पहले यहाँ मिस्टर बने,

इंगलैंड जाकर फिर वहाँ वान्वीर वारिस्टर बने ॥१४२॥

वे वीर हाय ! स्वदेश का करते यही उपकार हैं-

दो भाइयों के युद्ध में होते वही आधार हैं !

उनके भरोसे पर यहाँ अभियोग चलते हैं बड़े,

हारें कि जीतें  आप, उनके किन्तु पौबारह पड़े ! ॥१४३॥

जाकर विदेश अनेक अब तक युवक अपने आ चुके,

पर देश के वाणिज्य-हित की ओर कितने हैं झुके ?

हैं कारखाने कौन-से उनके प्रयत्नों से चले ?

क्या क्या सु-फल निज देश में उनसे अभी तक हैं फले?॥१४४।।

अमरीकनों के पात्र जूठे साफ कर पण्डित हुए,

सच्चे स्वदेशी मान से फिर भी नहीं मण्डित हुए!

दृष्टान्त बनते हैं अधिक वे इस कहावत के लिए-

“बारह बरस दिल्ली रहे पर भाड़ ही झोंका किये ! ॥१४५॥

दासत्व के परिणाम वाली आज है शिक्षा यहाँ,

हैं मुख्य दो ही जीविकाएँ-मृत्यता, भिक्षा यहाँ!

या तो कहीं बन कर मुहरिर पेट का पालन करो,

या मिल सके तो भीख माँगो, अन्यथा भूखों मरो !॥१४५॥

बिगड़े हमारे अब सभी स्वाधीन वे व्यवसाय हैं,

भिक्षा तथा बस मृत्यता ही आज शेष उपाय हैं।

पर हाय ! दुर्लभ हो रही है प्राप्ति इनकी भी यहाँ,

यह कौन जाने इस पतन का अन्त अब होगा कहाँ !॥१४७।।

वह साम्प्रतिक शिक्षा हमारे सर्वथा प्रतिकूल है,

हममें, हमारे देश के प्रति, द्वेष-मति की मूल है।

हममें विदेशी-भाव भर के वह भुलाती है हमें,

सब स्वास्थ्य का संहार करके वह रुलाती है हमें !! ||१४८||

होती नहीं उससे हमें निज धर्म में अनुरक्ति है,

होने न देती पूर्वजों पर वह हमारी भक्ति है ।

उसमें विदेशी मान का ही मोह-पूर्ण महत्व है,

फल अन्त में उसका वही दासत्व है, दासत्व है !॥१४९।।

हम मूर्ख और असभ्य थे, उससे विदित होता यही,

इस मर्म को कि हमी जगद्गुरु थे, छिपाती है वही ।

“फ्री थाट” हो वह वेद के बदले रटाती है हमें,

देखो, हटा कर असलियत से वह घटाती है हमें ॥१५०||

क्या लाभ है उन हिस्ट्रियों को कण्ठ करने से भला-

रटते हुए जिनको हमारा बैठ जाता है गला ?

हा ! स्वेद बन कर व्यर्थ ही बहता हमारा रक्त है,

सन्-संवतों के फेर में बरवाद होता वक्त है ! ॥१५१॥

दुर्भाग्य से अब एक तो वह ब्रह्मचर्याश्रम नहीं,

तिस पर परिश्रम व्यर्थ यह पड़ता हमें कुछ कम नहीं !

फिर शीघ्र ही चश्मा हमारे चक्षु चाहें क्यों नहीं ?

हम रुग्ण होकर आमरण दुख से कराहें क्यों नहीं ? ॥१५२॥

है व्यर्थ वह शिक्षा कि जिससे देश की उन्नति न हो,

जापान के विद्यार्थियों की सूक्ति है कैसी अहो !-

“साहब ! हमें यूरोपियन हिस्ट्री न अब दिखलाइए,

बेलून की रचना हमें करके कृपा सिखलाइए” ॥१५३।।

करके सु-शिक्षा की उपेक्षा यों पतित हम हो रहे,

हो प्राप्त पशुता को स्वयं मनुजत्व अपना खो रहे।

आहार, निद्रा आदि में नर और पशु क्या सम नहीं ?

है ज्ञान का बस भेद सो भूले उसे क्या हम नहीं ?॥१५४॥

धर्मोपदेशक विश्व में जाते जहाँ से थे सदा,

शिक्षार्थ आते थे जहाँ संसार के जन सर्वदा ।

अज्ञान के अनुचर वहाँ अब फिर रहे फूले हुए,

हम आज अपने आपको भी हैं स्वयं भूले हुए॥१५५॥

अपमान हाय ! सरस्वती का कर रहे हम लोग हैं,

पर साथ ही इस धृष्टता का पा रहे फल-भोग हैं !

निज देवता के कोप में कल्याण किसका है भला,

हम मोह-मुग्ध फँसा रहे हैं आप ही अपना गला ॥१५६॥

 साहित्य

उस साम्प्रतिक साहित्य पर भी ध्यान देना चाहिए,

उसकी अवस्था भी हमें कुछ जान लेना चाहिए।

मृत हो कि जीवित, जाति का साहित्य जीवन-चित्र है,

वह भ्रष्ट है तो सिद्ध फिर वह जाति भी अपवित्र है॥१५७॥

जिस जाति का साहित्य था स्वर्गीय भावों से भरा-

करने लगा अब बस विषय के विष-विटप को वह हरा!

श्रुति, शास्त्र, सूत्र पुराण, रामायण, महाभारत हटे,

वे नायिकाभेदादि उनके स्थान में हैं आ डटे !! ॥१५८॥

हम तो हुए ही पतित पर दुर्भाव जो भरते गये-

सुकुमार भावी सृष्टि को भी वे पतित करते गये !

हा ! उच्च भावों का वही क्रम आज भी है खो रहा,

अश्लील ग्रन्थों से हमारा शील चौपट हो रहा !॥१५९॥

अब सिद्ध हिन्दी ही यहाँ की राष्ट्र-भाषा हो रही,

पर है वही सबसे अधिक साहित्य के हित रो रही !

रीते पड़े अब तक अहो ! उसके अखिल भाण्डार हैं,

तुलसी तथा सूरादि के कुछ रत्न ही आधार हैं !!॥१६०॥

कविता

उद्देश कविता का प्रमुख शृङ्गार रस ही हो गया,

उन्मत्त होकर मन हमारा अब उसी में खो गया !

कवि-कर्म कामुकता बढ़ाना रह गया देखो जहाँ,

वह वीर रस भी स्मर-समर में हो गया परिणत यहाँ ॥१६१॥

सोचा, हमारे अर्थ है यह बात कैसे शोक की-

श्रीकृष्ण की हम आड़ लेकर हानि करते लोक की।

भगवान को साक्षी बना कर यह अनङ्गोपासना !

है धन्य ऐसे कविवरों को, धन्य उनकी वासना !!॥१६२॥

उपन्यास

है और औपन्यासिकों का एक नृतन दल यहाँ,

फैला रहा है जो निरन्तर और भी हलचल यहाँ!

दौरात्म्य ही अब लोक-रुचि पर हो रहा है सब कहीं,

हा स्वार्थ ! तेरी जय, अरे, तू क्या करा सकता नहीं? ॥१६३॥

ये रुचि-विघातक ग्रन्थ ज्यों ही सैर करने को छुए,

स्वीया हुईं कुलटा बहुत, अनुकूल बहुधा शठ हुए !

ये भाव हम गिरते हुओं पर और पत्थर-से गिरे,

दब कर हृदय जिनसे हमारे हो गये जर्जर निरे !!॥१६४।।

जो उपन्यास यहाँ सु-शिक्षा-प्रद कहा कर बिक रहे-

उनमें अधिक अविचार की ही नींव पर हैं टिक रहे ।

उनके कु-पात्रों में नरक की आग ऐसी जागती-

अपनी सु-रुचि भी पाठकों की दूर जिससे मागती ! ॥१६५।।

साद्यन्त उनमें असम्भवता घन-घटा सी छा रही,

दुर्भाव की दुर्गन्धि उनसे अन्त तक है आ रही ।

आई कहानी भी न कहनी और हम इतना बके,

‘जीवन-प्रभात’ न ‘चन्द्रशेखर’ एक भी हम लिख सके ! ॥१६६।।

लिक्खाड़ ऐसे ही यहाँ साहित्य-रत्न कहा रहे,

वे वीर वैतरणी नदी का हैं प्रवाह बहा रहे ।

वे हैं नरक के दूत किंवा सूत हैं कलिराज के !

वे मित्ररूपी शत्रु ही हैं देश और समाज के ॥१६७।।

क्या मुँह दिखानेंगे भला परलोक में वे ही कहें ?

जो कुछ नहीं आता उन्हें तो मौन ही फिर वे रहें !

पर मौन वे कैसे रहें, निरुपाय क्या भूखों मरें  ?

मर जाय क्यों न समाज सारा, पाकटें उनकी भरें !!॥१६८||

पत्र

हैं पत्र भी प्रायः परस्पर द्वेष-भाव न छोड़ते,

दलबन्दियाँ करते हुए जी के फफोले फोड़ते।

बीड़ा लिये जो देश-हित का पथ हमें दिखला रहे-

हठ, पक्षपात तथा हमें कुत्सा वही सिखला रहे !॥ १६९॥

 सङ्गीत

है पण्डितों की राय यह- “सङ्गीत भी साहित्य है,”

श्रुति-मार्ग से मन को सुधा-रस वह पिलाता नित्य है।

विष किन्तु उसमें भी यहाँ हमने मिला कर रख दिया,

हतभाग्य घुल घुल कर मरा जिसने कि यह रस चख लिया ॥१७०।।

जो मञ्जु मानस में तरङ्ग था उठाता भक्ति की-

अब आग भड़काता वही सङ्गीत विषयासक्ति की।

हमने बने को भी विगाड़ा, याद रखना है इसे,

लो, रम्व रस में विष मिलाना और कहते हैं किसे ? ।। १७१ ।।

सङ्गीत में जब से मदन की मूर्ति अङ्कित हो गई-

वह भावुकों की भक्ति-वाणी भी कलङ्कित हो गई !

करते प्रकट थे हाय ! वे जिससे अनन्योपासना,

बढ़ने लगी देखो, उसीसे अब विषय की वासना!॥ १७२।।

गिर जाय कुछ गङ्गाम्बु भी अस्पृश्य नाली में कभी,

तो फिर उसे अपवित्र ही बतलायँगे निश्चय सभी।

यों भक्तिरस भी सन गया अश्लीलता के नील में,

गुड़ भी बनेगा नमक यदि पड़ जाय सांभर झील में ॥ १७३ ॥

कविता तथा सङ्गीत ने हमको गिराया और भी,

सच पूछिए तो अब कहीं हमको नहीं है ठौर भी।

हा ! जो कलाएँ थीं कभी अत्युच्च भावोद्गारिणी-

विपरीतता देखो कि अब वे हैं अधोगतिकारिणी !॥ १७४ ।।

 सभाएँ

दिनदिन सभाएँ भी भयङ्कर भेद-भाव बढ़ा रहीं,

प्रस्ताव करके ही हमें कर्तव्य-पाठ पढ़ा रहीं।

पारस्परिक रण-रङ्ग से अवकाश उनको है कहाँ ?

“मत-भिन्नता’ का ‘शत्रुता’ ही अर्थ कर लीजे यहाँ ! ॥१७५ ।।

चन्दे विना उनका घड़ी भर काम कुछ चलता नहीं,

पर शोक है, तो भी यहाँ समुचित सु-फल फलता नहीं।

वीर ऐसे भी बहुत जो देश-हित के व्याज से-

अपने लिए हैं प्राप्त करते दान-मान समाज से ! ॥ १७६ ।।

 उपदेशक

सम्मान्य बनने को यहाँ वक्तृत्व अच्छी युक्ति है,

अगुआ हमारा है वही जिसके गले में उक्ति है।

उपदेशकों में आज कितने लोग ऐसे हैं, कहें,

उपदेश के अनुसार जो वे आप भी चलते रहें ? ॥ १७७॥

उनकी गल-ध्वनि कर्ण में ही कठिनता से पैठती,

अन्तःकरण की बात ही अन्तःकरण में बैठती ।

कहना तथा करना परस्पर एक-सा जिनका नहीं-

उनके कथन का भी भला कुछ मूल्य होता है कहीं ? ॥१७८॥

है वेष तक उनका विदेशी और यह उपदेश है-

“त्यागो विदेशी वस्तुएँ पहला यही उद्देश है।”

लो, पीट दो सब तालियाँ उपदेश है कैसा खरा,

उपदेशको ! पर आप अपनी ओर तो देखो ज़रा ! ॥१७९ ॥

 धर्म की दशा

था धर्म्म-प्राण प्रसिद्ध भारत, बन रहा अब भी वही;

पर प्राण के बदले गले में आज धार्मिकता रहा !

धर्मोपदेश सभा-भवन की भित्ति में टकरा रहा,

आडम्बरों को देख कर आकाश भी चकरा रहा ! ॥१८०॥

बस कागज़ी घुड़दौड़ में है आज इति कर्तव्यता,

भीतर मलिनता ही भले हो किन्तु बाहर भव्यता।

धनवान ही धार्मिक बने यद्यपि अधर्मासक्त हैं,

हैं लाख में दो चार सुहृदय शेष बगुला भक्त हैं !।। १८१ ॥

अनुकूल जो अपने हुए वेही यहाँ सद्ग्रन्थ हैं;

जितने पुरुप अब हैं यहां उतने समझ लो पन्थ हैं।

यों फूट की जड़ जम गई, अज्ञान आकर अड़ गया,

हो छिन्न-भिन्न समाज सारा दीन-दुर्बल पड़ गया॥१८२।।

श्रुति क्यों न हो, प्रतिकूल हैं जो स्थल वही प्रक्षिप्त हैं,

विक्षिप्त से हम दम्भ में आपाद-मस्तक लिप्त हैं!

आक्षेप करना दूसरों पर धर्मनिष्ठा है यहाँ,

पाखण्डियों ही की अधिकतर अब प्रतिष्ठा है यहाँ ! ॥१८३॥

हम आड़ लेकर धर्म को अब लीन हैं विद्रोह में,

मत ही हमारा धर्म्म है, हम पड़ रहे हैं मोह में !

है धर्म बस निःस्वार्थता ही, प्रेम जिसका मूल है;

भूले हुए हैं हम इसे, कैसी हमारी भूल है ? ॥१८४॥

जिसके लिए संसार अपना सर्वकाल ऋणी रहा,

उस धर्म की भी दुर्दशा हमने उठा रक्खी न हा!

जो धर्म सुख का हेतु है, भव-सिन्धु का जो सेतु है,

देखो, उसे हमने बनाया अब कलह का केतु है !! ॥१८५।।

उद्देश है बस एक, यद्यपि पथ अनेक प्रमाण हैं-

रुचि-भिन्नतार्थ किये गये जो ज्ञान से निर्माण हैं।

पर अब पथों को ही यहाँ पर धर्म्म हैं हम मानते !

करके परस्पर घोर निन्दा व्यर्थ ही हठ ठानते ॥१८६।।

प्रभु एक किन्तु असंख्य उसके नाम और चरित्र हैं,

तुम शैव, हम वैष्णव, इसीसे हा अभाग्य ! अमित्र हैं।

तुम ईश को निर्गुण समझते, हम सगुण भी जानते,

हा ! अब इसीसे हम परस्पर शत्रुता हैं मानते ! ॥१८७॥

हिन्दू सनातन धर्म के ऐसे पवित्र विधान हैं-

संसार में सबके लिए जो मान्य एक समान हैं।

धृति, शान्ति, शौच, दया, क्षमा, शम, दम, अहिंसा, सत्यता;

पर हाय ! इनमें से किसी का आज हममें है पता ? ॥ १८८॥

विख्यात हिन्दू धर्म ही सच्चा सनातन धर्म है,

वह धर्म ही धारण क्रिया का नित्य कर्ता-कर्म है ।

परमार्थ की-संसार की भी-सिद्धि का वह धाम है,

पर वाद और विवाद में ही आज उसका नाम है ! ॥१८९ ।।

 तीर्थ और तीर्थपण्डे

आरम्भ से ही जो हमारे मुख्य धर्म-क्षेत्र हैं-

अब देख कर उनकी दशा आँसू बहाते  नेत्र हैं।

हा ! गूढ़ तत्त्वों का पता ऋषि-मुनि लगाते थे जहाँ-

सबसे अधिक अविचार का विस्तार है सम्प्रति वहाँ ॥१९०।।

वे तोर्थ जो प्रभु की प्रभा से पूर्ण हो पूजित हुए-

राजर्षि-युत ब्रह्मर्षियों के कण्ठ से कूजित हुए,

अब तीर्थ-गुरु ही हैं अधिक उनको कलङ्कित  कर रहे,

हा ! स्वर्ग के सु-स्थान में हम नरक अङ्कित कर रहे !॥ १९१ ।।

वे तीर्थ-पण्डे, है जिन्होंने स्वर्ग का ठेका लिया;

है निन्द्य कर्म न एक ऐसा हो न जो उनका किया !

वे हैं अविद्या के पुरोहित, अविधि के आचार्य हैं,

लड़ना-झगड़ना और अड़ना मुख्य उनके कार्य हैं ॥ १९२॥

वे आप तो हैं ही पतित, कामी, कु-पथगामी बड़े-

पर पाप के भागी हमें भी हैं बनाने को खड़े ।

हम-भस्म में घृत के सदृश-देते उन्हें जो दान हैं-

बस वे उसी से दुर्व्यसन के जोड़ते सामान हैं ॥ १९३॥

 मन्दिर और महन्त

कैसी भयङ्कर अब हमारी तीर्थ-यात्रा हो रही,

उन मन्दिरों में ही विकृति की पूर्ण मात्रा हो रही!

अड्डे-अखाड़े बन रहे हैं ईश के आवास भी,

आती नहीं है लोक-लजा अब हमारे पास भी ।। १९४ ॥

हा ! पुण्य के भाण्डार में हैं भर रहीं अघ-राशियाँ,

हैं देव आप महन्तजी ही, देवियाँ हैं दासियाँ !

तन, मन तथा धन भक्तजन अर्पण किया करते जहाँ-

वे भण्ड साधु सु-कर्म का तर्पण किया करते वहाँ ! !॥१९५।।

अब मन्दिरों में रामजनियों के विना चलता नहीं,

अश्लील गीतों के विना वह भक्ति-फल फलता नहीं।

वे चीरहरणादिक वहाँ प्रत्यक्ष लीला-जाल हैं,

भक्त-स्त्रियाँ है गोपियाँ, गोस्वामि ही गोपाल हैं !!!॥ १९६॥

 साधुसन्त

वे भूरि संख्यक साधु जिनके पन्थ-भेद अनन्त हैं-

अवधूत, यति, नागा, उदासी, सन्त और महन्त हैं।

हा! वे गृहस्थों से अधिक हैं आज रागी दीखते,

अत्यल्प हो सच्चे विरागी और त्यागी दीखते॥१९७ ॥

जो कामिनी-काश्चन न छूटा फिर विराग रहा कहाँ ?

पर चिन्ह तो वैराग्य का अब है जटाओं में यहाँ !

भूखों मरे कि जटा रखा कर साधु कहलाने लगे,

चिमटा लिया, ‘भस्मी’ रमाई, माँगने-खाने लगे !! ।। १९८।।

संख्या अनुद्योगी जनों की ही न उनसे बढ़ रही-

शुचि साधुता पर भी कुयश की कालिमा है चढ़ रही।

है भस्म-लेपन से कहीं मन की मलिनता छूटती ?

हा ! साधु-मर्यादा हमारी अब दिनोंदिन टूटती ! । १९९ ।।

यदि ये हमारे साधु ही कर्तव्य अपना पालते-

तो देश का बेड़ा कभी का पार ये कर डालते ।

पर हाय ! इनमें ज्ञान तो बस राम का ही नाम है,

दम की चिलम में लौ उठाना मुख्य इनका काम है ! ।।२००।।

 ब्राह्मण

उन अग्रजन्मा ब्राह्मणों की हीनता तो देख लो,

भू-देव थे जो आज उनकी दीनता तो देख लो,

थे ब्रह्म-मूर्ति यथार्थ जो अब मुग्ध जड़ता पर हुए,

जो पीर थे देखा, वही भिश्ती, बबर्ची, खर हुए !!! ।। २०१ ।।

वह वेद का पढ़ना-पढ़ाना अब न उनमें दीखता,

वह यज्ञ का करना-कराना कौन उनमें सीखता ?

बस पेट को ही आज उनमें दान देना रह गया,

है कर्म उनमें एक ही अब दान लेना रह गया !।। २०२ ॥

कुछ ‘शीघ्र-बोध’ रटा कि फिर वे गणक-पुङ्गव बन गये,

पश्चाङ्ग पकड़ा और बस सर्वज्ञता में सन गये !

सङ्कल्प तक भी शुद्ध वे साद्यन्त कह सकते नहीं,

व पखरवाये पाद-पङ्कज किन्तु रह सकते नहीं ।। २०३ ॥

सन्देह है, जप के समय क्या मन्त्र जपते मौन वे,

हैं ‘ॐ नमः’ वा ‘हा ! निमन्त्रण’ पाठ करते कौन वे !

निश्चय नहीं दृग बन्द कर वे लीन ही भगवान में-

या दक्षिणा की मंजु-मुद्रा देखते हैं ध्यान में ! ॥२०४॥

जिन ब्राह्मणों ने लोभ को सन्तत तिरस्कृत था किया-

देखा, उन्हीं के वंशजों को आज उसने ग्रस लिया।

अब आप उनकी दक्षिणा पहले नियत कर दीजिये-

फिर निन्द्य से भी निन्द्य उनसे काम करवा लीजिये ! ॥२०५।।

आचार उनका आज केवल रह गया ‘असनान’ में,

जप, तप तथा वह तेज अब है शेष बाह्य-विधान में !

वे भ्रष्ट यद्यपि हो रहे हैं डूब कर अज्ञान में,

जाते मरे हैं किन्तु फिर भी वंश के अभिमान में !॥ २०६॥

था हाय ! जिनके पूर्वजों ने धन्य धरणीतल किया,

इस लोक की, परलोक की, प्रश्नावली को हल किया।

सर्वत्र देखो, आज वे कैसे तिरस्कृत हो रहे,

खोकर तपोबल, ज्ञान-धन, जीते हुए मृत हो रहे ॥ २०७।।

 क्षत्रिय

है ब्राह्मणों की यह दशा अब क्षत्रियों को लीजिए,

उनके पतन का भी भयंकर चित्र-दर्शन कीजिए।

अविवेक तिमिराच्छन्न अब वे अंध जैसे हो रहे,

हा! सूर्यवंशी, चन्द्रवंशी वीर कैसे हो रहे? ॥२०८।।

विश्वेश के बाहुज अत: कर्त्तव्य के जो केन्द्र थे,

जो छत्र थे निज देश के, मूर्द्धाऽभिषिक्त नरेन्द्र थे। ।

आलस्य में पड़कर वही अब शव-सदृश हैं सो रहे ;

कुल, मान, मर्यादा-सहित सर्वस्व अपना खो रहे! ॥२०९॥

वीरत्व हिंसा में रहा जो मूल उनके लक्ष्य का,

कुछ भी विचार उन्हें नहीं है आज भक्ष्याभक्ष्य का!

केवल पतंग विहंगमों में, जलचरों में नाव ही,

बस भोजनार्थ चतुष्पदों में चारपाई बच रही! ॥२१०॥

जिनसे कभी उपदेश लेने विप्र भी आते रहे,

विख्यात ब्रह्म-ज्ञान का जो मार्ग दिखलाते रहे।

देखो, उन्हीं में पड़ गई है अब अविद्या की प्रथा,

है स्वप्न आज विदेह, कोशल और काशी की कथा! ॥२११॥

जो हैं अधीश्वर, बस प्रजा पर कर लगाना जानते,

निर्द्रव्य, डाका डालना भी धर्म अपना मानते!

जो स्वामि-सम रक्षक रहे वे आज भक्षक बन रहे,

जो हार थे मन्दार के वे आज तक्षक बन रहे! ॥२१२।।

जो देश के प्रहरी रहे घर फूंकने वाले बने,

जो वीरवर विख्यात थे वे स्त्रैणता में हैं सने।

सुर-कार्य-साधक जो रहे अब दुर्व्यसन में लीन हैं,

जो थे सहज स्वाधीन वे ही आज विषयाधीन हैं! ॥२१३॥

छाया बनी थी धीरता सर्वत्र जिनके साथ की,

वे आज कठपुतली बने हैं मत्त मन के हाथ की।

मार्तण्ड थे जो अब वही हिम-खण्ड होकर बह रहे,

वे आप कुछ न कहें भले ही, कर्म उनके कह रहे ॥२१४॥

जो शत्रु के हृत्पट्ट पर लिखते रहे जय शेल-से-

वर वीरता का कार्य जिनके पक्ष में थे खेल-से।

रहने लगी, देखो, उन्हीं पर अब चढ़ाई काम की!

नैया डुबोई है उन्होंने पूर्वजों के नाम की ॥२१५॥

 वैश्य

जो ईश के ऊरुज अत: जिन पर स्वदेश-स्थिति रही?

व्यापार, कृषि, गो-रूप में दुहते रहे जो सब मही।

वे वैश्य भी अब पतित होकर नीच पद पाने लगे-

बनिये कहाकर वैश्य से ‘बक्काल’ कहलाने लगे ॥२१६।।

वह लिपि कि जिसमें सेठ को ‘सठ’ ही लिखेंगे सब कहीं-

सीखी उन्होंने और उनकी हो चुकी शिक्षा वहीं!

हा! वेद के अधिकारियों में आज ऐसी मूढ़ता,

है शेष उनके ‘गुप्त’ पद में किन गुणों की गूढ़ता? ॥२१७।।

कौशल्य उनका अब यहाँ बस तोलने में रह गया,

उद्यम तथा साहस दिवाला खोलने में रह गया!

करने लगे हैं होड़ उनके वचन कच्चे सूत से,

करते दिवाली पर परीक्षा भाग्य की वे द्यूत से! ॥२१८॥

वाणिज्य या व्यवसाय का होता शऊर उन्हें कहीं-

तो देश का धन यों कभी जाता विदेशों को नहीं।

है अर्थ सट्टा-फाटका उनके निकट व्यापार का?

कुछ पार है देखो भला उनके महा अविचार का? ॥२१९।।

बस हाय पैसा! हाय पैसा!! कर रहे हैं वे सभी,

पर गुण बिना पैसा भला क्या प्राप्त होता है कभी?

सबसे गये बीते नहीं क्या आज वे हैं दीखते,

वे देख सुनकर भी सभी कुछ क्या कभी कुछ सीखते? ॥२२०॥

बस अब विदेशों से मँगाकर बेचते हैं माल वे,

मानो विदेशी वाणिजों के हैं यहाँ दल्लाल वे!

वेतन सदृश कुछ लाभ पर वे देश का धन खो रहे,

निर्द्रव्य कारीगर यहाँ के हैं उन्हीं को रो रहे ॥२२१॥

उनका द्विजत्व विनष्ट है, है किन्तु उनको खेद क्या?

संस्कार-हीन जघन्यजों में और उनमें भेद क्या?

उपवीत पहने देख उनको धर्म-भाग्य सराहिए,

पर तालियों के बाँधने को रज्जु भी तो चाहिए! ॥२२२॥

चन्दा किसी शुभ कार्य में दो चार सौ जो है दिया-

तो यज्ञ मानो विश्वजित ही है उन्होंने कर लिया।

बनवा चुके मन्दिर, कुआँ या धर्मशाला जो कहीं,

हा स्वार्थ! तो उनके सदृश सुर भी सुयशभागी नहीं!! ॥२२३||

औदार्या उनका दीखता है एक मात्र विवाह में,

बह जाय चाहे वित्त सारा नाच-रंग-प्रवाह में!

वे वृद्ध होकर भी पता रखते विषय की थाह का,

शायद मरे भी जी उठें वे नाम सुनकर ब्याह का ॥२२४।।

उद्योग-बल से देश का भाण्डार जो भरते रहे-

फिर यज्ञ आदि सुकर्म में जो व्यय उसे करते रहे,

वे आज अपने आप ही अपघात अपना कर रहे,

निज द्रव्य खोकर घोर अघ के घट निरन्तर भर रहे ॥२२५।।

 शूद्र

जब मुख्य-वर्ण द्विजातियों का हाल ऐसा है यहाँ,

तब क्या कहें, उस शूद्र-कुल का हाल कैसा है यहाँ ?

देखो जहाँ हा! अब भयंकर तिमिर-पूरित गर्त है,

यह दीन देश अध:पतन का बन गया आनर्त है ॥२२६॥

 स्त्रियाँ

होगी यहाँ तक कर्कशा क्या लेखनी तू परवशा-

गृह-देवियों की जो हमारी लिख सके तू दुर्दशा?

किस भाँति देखोगे यहाँ, दर्शक! दृगों को मींच लो,

यह दृश्य है क्या देखने का, दृष्टि अपनी खींच लो ॥२२७।।

अनुकूल आद्याशक्ति की सुखदायिनी जो स्फूर्ति है,

सद्धर्म की जो मूर्ति और पवित्रता की पूर्ति है।

नर-जाति की जननी तथा शुभ शान्ति की स्त्रोतस्वती,

हा दैव! नारी-जाति की कैसी यहाँ है दुर्गती ॥२२८।।

होती रहीं गार्गी अनेकों और मैत्रेयी जहाँ,

अब हैं अविद्या-मूर्ति-सी कुल नारियाँ होती वहाँ!

क्या दोष उनका किन्तु जो उनमें गुणों की है कमी?

हा! क्या करें वे जबकि उनको मूर्ख रखते हैं हमीं! ॥२२९॥

बी० ए० गृहस्वामी विदित हैं किन्तु क्या हैं स्वामिनी?

कैसे कहें, हा! हैं अशिक्षारूपिणी वे भामिनी।

अत्युक्ति क्या, दिन-रात का-सा भेद जो इसको कहें ;

दाम्पत्य भाव भला हमारे धाम में कैसे रहें? ॥२३०॥

बहु कुशलता-सूचक कलाएँ जानती थीं जो कभी,

अब कलह-कुशला हैं हमारी गृहिणियाँ प्राय: सभी ।

हा! बन रहे हैं गृह हमारे विग्रह-स्थल से यहाँ,

दो नारियाँ भी हैं जहाँ वाग्बाण बरसेंगे वहाँ ॥२३१॥

रखतीं यही गुण वे कि गन्दे गीत गाना जानतीं,

कुल, शील, लज्जा उस समय कुछ भी नहीं वे मानतीं।

हँसते हुए हम भी अहो ! वे गीत सुनते सब कहीं,

रोदन करो हे भाइयो ! यह बात हँसने की नहीं ॥२३२॥

है ध्यान पति से भी अधिक आभूषणों का अब उन्हें;

तब तुष्ट हों तो हों कि मढ़ दो मण्डनों से जब उन्हें।

है यह उचित ही, क्योंकि जब अज्ञान से हैं दूषिता-

क्या फिर भला आभूषणों से भी न हों वे भूषिता? ॥२३३।।

अत्यल्प भी अपराध पर डंडे उन्हें हम मारते,

पर हेतु उनकी मूर्खता का सोचते न विचारते।

हैं हाय ! दोषी तो स्वयं देते उन्हें हम दण्ड हैं,

आश्चर्य क्या फिर पा रहे जो दु:ख आज अखण्ड हैं ॥२३४||

ऐसी उपेक्षा नारियों की जब स्वयं हम कर रहे,

अपना किया अपराध उनके शीश पर हैं धर रहे।

भागें न क्यों हमसे भला फिर दूर सारी सिद्धियाँ,

पाती स्त्रियाँ आदर जहाँ रहतीं वहीं सब ऋद्धियाँ ॥२३५॥

हम डूबते हैं आप तो अघ के अँधेरे कूप में-

हैं किन्तु रखना चाहते उनको सती के रूप में।

निज दक्षिणांग पुरीष से रखते सदा हम लिप्त हैं,

वामांग में चन्दन चढ़ाना चाहते, विक्षिप्त हैं ! ॥२३६॥

क्या कर नहीं सकतीं भला यदि शिक्षित हों नारियों ?

रण-रङ्ग, राज्य, सु-धर्म-रक्षा, कर चुकीं  सुकुमारियाँ ।

लक्ष्मी, अहल्या, बायजाबाई, भवानी, पद्मिनी,

ऐसी अनके देवियाँ हैं आज जा सकती गिनी ॥ २३७ ॥

सोचो नरों से नारियाँ किस बात में हैं कम हुईं  ?

मध्यस्थ वे शास्त्रार्थ में हैं भारती के सम हुईं।

हैं धन्य श्वेरी-तुल्य गाथा-कर्त्रियाँ वे सर्वथा,

कवि हो चुकी हैं विज्जका, विजया, मधुरवाणी यथा ।।२३८॥

निज नारियों के साथ यदि कर्त्तव्य अपना पालते,

अज्ञान के गहरे गढ़े में जो न उनको डालते,

तो आज नर यों मूर्ख होकर पतित क्यों होते यहाँ ?

होती जहाँ जैसी स्त्रियाँ वैसे पुरुष होते वहाँ ॥२३९॥

पाले हुए पशु-पक्षियों का ध्यान तो रखते सभी,

पर नारियों की दुर्दशा क्या देखते हैं हम कभी?

हमने स्वयं पशु-वृत्ति का साधन बना डाला उन्हें,

सन्तान-जनने मात्र को वसनान्न दे पाला उन्हें ॥२४०।।

 सन्तान

सन्तान कैसी है हमारी, सो हमी से जान लो,

मुख देखकर ही बुद्धि से मन को स्वयं पहचान लो।

बस बीज के अनुरूप ही अंकुर प्रकट होते सदा,

हम रख सके रक्षित न हा! सन्तान-सी भी सम्पदा ! ॥२४१॥

हैं आप बच्चे बाप जिनके पुष्ट हों वे क्यों भला?

आश्चर्य है, अब भी हमारा वंश जाता है चला !

दुर्भाग्य ने दुर्बोध करके है हमें कैसा छला,

हा! रह गई है शेष अब तो एक ही शशि की कला ! ॥२४२।।

कितना अनिष्ट किया हमारा हाय ! बाल्य-विवाह ने,

अन्धा बनाया है हमें उस नातियों की चाह ने !

हा ! ग्रस लिया है वीर्य-बल को मोहरूपी ग्राह ने,

सारे गुणों को है बहाया इस कुरीति-प्रवाह ने ॥२४३॥

अल्पायु में हैं हम सुतों का ब्याह करते किसलिए?

गार्हस्थ्य का सुख शीघ्र ही पाने लगें वे, इसलिए?

वात्सल्य है या वैर है यह, हाय ! कैसा कष्ट है?

परिपुष्टता के पूर्व ही बल-वीर्य्य होता नष्ट है ! ॥२४४||

उस ब्रह्मचर्याश्रम-नियम का ध्यान जब से हट गया-

सम्पूर्ण शारीरिक तथा वह मानसिक बल घट गया !

हैं हाय ! काहे के पुरुष हम, जब कि पौरुष ही नहीं?

निःशक्त पुतले भी भला पौरुष दिखा सकते कहीं ! ॥२४५।।

यदि ब्रह्मचर्याश्रम मिटाकर शक्ति को खोते नहीं-

तो आज दिन मृत जातियों में गण्य हम होते नहीं।

करते नवाविष्कार जैसे दूसरे हैं कर रहे-

भरते यशोभाण्डार जैसे दूसरे हैं भर रहे ॥२४६।।

जो हाल ऐसा ही रहा तो देखना, है क्या अभी,

होंगे यहाँ तक क्षीण हम विस्मय बढ़ावेंगे कभी।

सिद्धान्त अपना उलट देंगे डारविन साहब यहाँ-

हो क्षुद्रकाय अबोध नर बन्दर बनेंगे जब यहाँ ! ॥२४७||

 समाज

हिन्दू समाज कुरीतियों का केन्द्र जा सकता कहा,

ध्रुव धर्म-पथ में कु-प्रथा का जाल-सा है बिछ रहा।

सु-विचार के साम्राज्य में कु-विचार की अब क्रान्ति है,

सर्वत्र पद पद पर हमारी प्रकट होती भ्रान्ति है ।।२४८।।

बेजोड़ विवाह

प्रति वर्ष विधवा-वृन्द की संख्या निरन्तर बढ़ रही,

रोता कभी आकाश है, फटती कभी हिलकर मही।

हा ! देख सकता कौन ऐसे दग्धकारी दाह को?

फिर भी नहीं हम छोड़ते हैं बाल्य-वृद्ध-विवाह को ॥२४९॥

अन्धपरम्परा

सब अंग दूषित हो चुके हैं अब समाज-शरीर के,

संसार में कहला रहे हैं हम फकीर लकीर के !

क्या बाप-दादों के समय की रीतियाँ हम तोड़ दें?

वे रुग्ण हों तो क्यों न हम भी स्वस्थ रहना छोड़ दें ! ॥२५०।।

वरकन्याविक्रय

बिकता कहीं वर है यहाँ, बिकती तथा कन्या कहीं,

क्या अर्थ के आगे हमें अब इष्ट आत्मा भी नहीं !

हा ! अर्थ, तेरे अर्थ हम करते अनेक अनर्थ हैं-

धिक्कार, फिर भी तो नहीं सम्पन्न और समर्थ हैं? ॥२५१||

क्या पाप का धन भी किसी का दूर करता कष्ट है?

उस प्राप्तकर्ता के सहित वह शीघ्र होता नष्ट है।

आश्चर्य क्या है, जो दशा फिर हो हमारी भी वही,

पर लोभ में पड़कर हमारी बुद्धि अब जाती रही ! ॥२५२।।

धनोपार्जन

हैं धन कमाने के हमारे और ही साधन यहाँ,

होंगे कमाऊ और उद्यमशील ऐसे जन कहाँ ?

हमको बुराई कुछ नहीं कोई कहे जो ठग हमें,

अत्यन्त हीन-चरित्र अब तो जानता है जग हमें ॥२५३॥

निज स्वत्व, पर-सम्पत्ति पर कोई जमाता है यहाँ,

कोई शकुनि का अनुकरण कर धन कमाता है यहाँ।

कहने चले फिर लाज क्या, रसने, परन्तु हरे ! हरे !

ठग, चोर, वंचक और कितने घूसखोर यहाँ भरे !! ॥२५४॥

सच हो कि झूठ, किसी किसी का साक्ष्य पर ही लक्ष्य है,

परलोक में कुछ हो, यहाँ तो लाभ ही प्रत्यक्ष है !

सत्कार जामाता-सदृश आहार में, उपहार में,

सोचो, भला है लाभ ऐसा और किस व्यापार में? ॥२५५॥

करके मिलावट ही विदेशी खाँड़ में गुड़ की यथा,

हरते बहुत हैं देश के धन-धर्म दोनों सर्वथा।

यों ही स्वदेशी में विदेशी माल बिकता है यहाँ,

होगा कहो स्वार्थाग्नि में यों सत्य का स्वाहा कहाँ ? ॥२५६॥

अब विज्ञ व्यवसायी जनों की ओर भी तो कुछ बढ़ो,

उन चारु चित्र-विचित्र वर विज्ञापनों को तो पढ़ो।

मानो वहाँ वैकुण्ठ का ही चमत्कार भरा पड़ा,

हा ! वञ्चना का बाह्य-दर्शन है मनोमोहक बड़ा ॥२५७।।

कोई सुधा देकर हमें देता अमरता है वहाँ,

दे यन्त्र-मन्त्र, अभीष्ट कोई सिद्ध करता है वहाँ !

कुछ लाभ हो कि न हो हमें पर यह अवश्य यथार्थ है-

उन ‘सत्यवक्ता’ सज्जनों का सिद्ध होता स्वार्थ है ॥२५८॥

अपकार-कर्ता धूर्त वे उपकारियों के वेश में-

हा ! लूटपाट मचा रहे हैं दिन-दहाड़े देश में।

उनके विकृत विज्ञापनों से पूर्ण रहते पत्र हैं,

एजेन्ट जेन्टलमैन बनकर घूमते सर्वत्र हैं ॥२५९॥

माँगनाखाना

कर-युक्त भी क्या कार्य करना चाहते हैं हम कभी?

क्या हम कुलीन कुली बनें, होगा न हमसे श्रम कभी।

है मान रक्खा काम हमने माँगना आराम का,

जीते यहाँ पर हैं बहुत खाकर सदैव हराम का ! ॥२६०॥

हम नीच को ऊँचा बनाते भीख के पीछे कभी,

बनते कभी हम आप योगी और सन्तादिक सभी।

कोई गिने, कितने यहाँ पर माँगने के ढंग हैं,

नट-तुल्य पल पल में बदलते हम अनेकों रंग हैं ! ॥२६१॥

दासत्व

दासत्व करना भी हमें आया न अच्छी रीति से,

करते उसे भी हम अधम हैं अब अधर्म-अनीति से।

वह स्वामि-कार्य बने कि बिगड़े किन्तु अपना काम हो,

इस नीचता की नीचता का अब कहो, क्या नाम हो? ॥२६२।।

अधिकार

इम योग भी पाकर उसे उपयोग में लाते नहीं,

सामर्थ्य  पाकर भी किसी को लाभ पहुँचाते नहीं ?

जैसे बुने हम दूसरों की हानि ही करते सदा,

अधिकार पाकर और भी अघ के घड़े भरते सदा ! ।। २६३ ।।

न्यायालयों में भी निरन्तर घूंस खाते हैं हमीं,

रक्षक पुलिस को भी यहाँ भक्षक बनाते हैं हमीं ।

कर्तृत्व का फल हम प्रजा पर बल दिखाना जानते,

हस दीन-दुखियों के रुदन को गान-सम हैं मानते ! ।।२६४।।

अभियोग

हा ! हिंस्र पशुओं के सदृश हममें भरी हैं क्रूरता,

करके कलह अब हम इसी में समझते हैं शूरता ।

खोजो हमें यदि जब कि हम घर में न सोते हों पड़े-

होंगे वकीलों के अड़े अथवा अदालत में खड़े ! ।। २६५ ।।

न्यायालयों में नित्य ही सर्वस्व खोते सैंकड़ों,

प्रति वार,पग पग पर, वहां हैं खर्च होते सैंकड़ों ।

फिर भी नहीं हम चेतते हैं दौड़ कर जाते वहीं,

लघु बात भी हम पाँच मिल कर आप निपटाते नहीं।।२६६।।

विपथ

देखो जहाँ विपरीत पथ ही हाय ! हमने है लिया,

श्रीराम के रहते हुए आदर्श रावण को किया !

हम हैं सुयोधन के अनुग तजकर युधिष्ठिर को अहो !

सोचो भला, तब फिर हमारा पतन दिन दिन क्यों न हो ॥२६७||

नशेबाज़ी

हम मत्त हैं, हम पर चढ़ा कितने नशों का रंग है-

चंडू, चरस, गाँजा, मदक, अहिफेन, मदिरा, भंग है।

सुन लो जरा हममें यहाँ कैसी कहावत है चली-

“पीता न गाँजे की कली उस मर्द से औरत भली!” ॥२६८॥

क्या मर्द हैं हम वाहवा ! मुख-नेत्र पीले पड़ गये;

तनु सूखकर काँटा हुआ, सब अंग ढीले पड़ गये।

मर्दानगी फिर भी हमारी देख लीजे कम नहीं-

ये भिनभिनाती मक्खियाँ क्या मारते हैं हम नहीं ! ॥२६९।।

अँगरेज वणिकों ने नशे की लौ लगाई है हमें,

हम दोष देते हैं कि तब यह मौत आई है हमें।

पर व्यर्थ है यह दोष देना; हैं हमी दोषी बड़े ;

हम लोग कहने से किसी के क्यों कुएँ में गिर पड़े? ॥२७०॥

जो मस्त होकर “तत्त्वमसि’ का गान करते थे सदा-

स्वच्छन्द ब्रह्मानन्द-रस का पान करते थे सदा।

मद्यादि पादक वस्तुओं से मत्त हैं अब हम वही,

करते सदैव  प्रलाप हैं, सुध बुध सभी जाती रही ! ॥२७१॥

दो चार आने रोज के भी जो कुली मजदूर हैं–

सन्धमा समय वे भी नशे में दीख पड़ते चूर हैं।

मर जायें चाहे बाल-बच्चे भूख के मारे सभी,

पर छोड़ सकते हैं नहीं उस दुर्व्यसन को वे कभी! ॥२७२।।

शुचिता विदित जिनकी वही हम आज कैसे भ्रष्ट हैं,

किस भाँति दोनों लोक अपने कर रहे हम नष्ट हैं।

हम आर्य हैं, पर अब हमारे चरित कैसे गिर गये,

हम दुर्गुणों से घिर गये हैं, सद्गुणों से फिर गये! ॥२७३।।

आत्मविस्मृति

हम आज क्या से क्या हुए, भूले हुए हैं हम इसे;

है ध्यान अपने मान का हममें बताओ अब किसे?

पूर्वज हमारे कौन थे, हमको नहीं यह ज्ञान भी,

है भार उनके नाम पर दो अंजली जल-दान भी! ॥२७४।।

होकर नितान्त परावलम्बी पशु-सदृश हम जी रहे,

हा! कालकूट सभी परस्पर फूट का हैं पी रहे!

हम देखते सुनते हुए भी देखते सुनते नहीं,

पढ़ना सभी है व्यर्थ उनका जो कभी गुनते नहीं ॥२७५।।

मात्सर्य्य

अब एक हममें दूसरे को देख सकता है नहीं,

वैरी समझना बन्धु को भी, है समझ ऐसी यहीं!

कुत्ते परस्पर देखकर हैं दूर से ही भूंकते,

पर दूसरे को एक हम कब काटने से चूकते? ॥२७६।।

हों एक माँ के सुत कई व्यवहार सबके भिन्न हों,

सम्भव नहीं यह किन्तु जो सम्बन्ध-बन्धन छिन्न हों ।

पर यह असम्भव भी यहाँ प्रत्यक्ष सम्भव हो रहा,

राष्ट्रीय भाव-समूह मानों सर्वदा को सो रहा ! ।। २७७ ।।

अनुदारता

यदि एक अद्भुत बात कोई ज्ञात मुझको हो गई–

तो हाय ! मेरे साथ ही संसार से वह खो गई ।

उसको छिपा रक्खूँ न मैं तो कौन पूछेगा मुझे;

कितने प्रयोग-प्रदीप इस अनुदारता से हैं बुझे ! ।। २७८ ।।

गृहकलह

इस गृह-कलह के अर्थ भारत-भूमि रणचण्डी बनी,

जीवन अशान्ति-पूर्ण सब के, दीन हो अथवा धनी !

जब यह दशा है गेह की, क्या बात बाहर की कहें ?

है कौन सहृदय जन न जिसके अब यहाँ आँसू बहें ? ।।२७९।।

उद्दंड उग्र अनैक्य ने क्षय कर दिया है क्षेम का,

विष ने पद हर लिया है आज पावन प्रेम का।

ईर्ष्या हमारे चित्त से क्षण मात्र भी हटती नहीं,

दो भाइयों में भी परस्पर अब यहाँ पटती नहीं ! ।। २८० ।।

इस गृह-कलह से ही, कि जिसकी नींव है अविचार की-

निन्दित कदाचित् है प्रथा अब सुम्मिलित परिवार की ।

पारस्परिक सौहार्द अपना अन्यथा अश्रान्त था,

हाँ, सु-“वसुधैव कुटुम्बकम”, सिद्धान्त यह एकान्त था ।।२८१।।

व्यभिचार

व्यभिचार ऐसा बढ़ रहा है, देख लो, चाहे जहाँ;

जैसा शहर, अनुरूप उसके एक ‘चकला’ है वहाँ ?

जाकर जहाँ हम धर्म्म खोते सदैव सहर्ष हैं,

होते पतित, कङ्गाल, रोगी सैकड़ों प्रतिवर्ष हैं ।।२८२।।

वह कौन धन है, दुर्व्यसन में हम जिसे खोते नहीं ?

उत्सव हमारे बारवधुओं के विना होते नहीं !

सर्वत्र डोंडी पिट रही है अब उन्हीं के नाम की,

मानो  अधिष्ठात्री वही हैं अब यहाँ शुभ-काम की !! ॥२८३॥

था शेष लिखने के लिए क्या इस अभागे को यही ?

भगवान् ! भारतवर्ष की कैसी अधोगति हो रही है !

यदि अन्त हो जाता हमारा त्यागते ही शील के ,

तो आज टीके तो न लगते आर्य्याकुल को नील के ।।२८४।।

हा ! वे तपोधन ऋषि कहाँ, सन्तान हम उनकी कहाँ ?

थी पुण्यभूमि प्रसिद्ध जो हा ! आज ऐसा अघ वहाँ !

बस दीप से कज्जल सदृश निज पूर्वजों से हम हुए,

वे लोक में आलोक थे पर हम निविड़तर तम हुए !! ।।२८५।।

आडम्बर

यद्यपि उड़ा बैठे कमाई बाप-दादों की सभी,

पर ऐंठ वह अपनी भला हम छोड़ सकते हैं कभी ?

भूषण विके, ऋण मी बढे, पर धन्य सब कोई कहे;

होली जले भीतर न क्यों, बाहर दिवाली ही रहे !!! ।।२८६।।

गुण, ज्ञान, गौरव, मान, धन यद्यपि सभी कुछ खो चुके,

गजमुक्त शून्य कपित्थ-सम नि:सार अब हम हो चुके ।

पर हैं दबाते दीनता श्वेताम्बरों  में भूल से !

सम्भव कभी है अग्नि को भी दाब रखना तूल से ? ।।२८७।।

दबती कहीं आडम्बरों से बहुत दिन तक दीनता ?

मिलता नहीं फिर क़र्ज़  भी, होती यहाँ तक हीनता ।

उद्योग तो हम क्या करेंगे जो अपव्यय कर रहे,

पर हाँ, हमारे हाथ से हैं दीन-दुर्बल मर रहे ।।२८८।।

अब आय तो है घट गई, पर व्यय हमारा बढ़ गया,

तिस पर विदेशी सभ्यता का भूत हम पर चढ़ गया।

ऋण-भार दिन दिन बढ़ रहा है दब रहे हैं हम यहाँ,

देता जिन्हें हो, कुछ नहीं भी पास उनके है कहाँ ? ।।२८९।।

मतिभ्रंश

निज पूर्वजों का हास्य करना है हमारा खेल-सा,

लगता हृदय में मेल हमको अति भयङ्कर शेल-सा ।

कोई कहे हित की उसे हमें शत्रु, समझेंगे वहीं,

मधु मय अपथ्य अभीष्ट है, कटु पथ्य हमको प्रिय नहीं ।।२९०।।

रहते गुणों से तो सदा हम लोग कोसों दूर हैं,

पर लोक में अपनी प्रशंसा चाहते भरपूर हैं !

हम तेल ढुलका कर दिये को हैं जलाना चाहते,

काटे हुए तरु में मनोहर फल फलाना चाहते ! ।।२९१।।

गुणों की स्थिति

बस भाग्य को ही भावना में रह गया उद्योग है,

आजीविका है नौकरी  में, इन्द्रियों में भोग है ।

परतन्त्रता में अभयता, भय राजदण्ड-विधान में,

व्यवसाय है वैरिस्टरी चा डाक्टरी दूकान में ! ।।२९२।।

है चाटुकारी में चतुरता, कुशलता छल-छ्द्म में,

पाण्डित्य पर-निन्दा-विषय में, शूरता है सद्म में !

बस मौन में गंभीरता है, है बड़प्पन वेश में,

जो बात और कहीं नहीं वह हैं हमारे देश में ! ।।२९३।।

कारीगरी है शेष अब साक्षी बनाने में यहाँ,

हैं सत्य या विश्वास केवल कसम खाने में यहाँ ।

है धैर्य्य तर्क-वितर्क में, अभियोग में ही तत्व है !

अवशिष्ट दारोगागरी  में सत्व और महत्व है ! ।।२९४॥

निज अर्थ-साधन में हमारी रह गई अब भक्ति है,

है कर्म्म बस दासत्व में, अब स्वर्ण में ही शक्ति है ।

गौरव जताने में यहाँ उत्साह कर लगता पता,

बस बाद में हैं वाग्मिता, पर-अनुकरण में सभ्यता ॥२९५।।

निज धर्म के बलिदान ही में आज यज्ञ-विधान है,

है ज्ञान नास्तिक-भाव में, अब नींद में ही ध्यान है ।

है योग पाशव-वृत्ति में ही, हाय ! कैसी व्याधि है,

बस मृत्यु में ही रह गई अब भारतीय समाधि है ! ।।२९६॥

स्वाधीनता निज धर्म्म-बन्धन तोड़ देने में रही,

आस्वाद आमिष में, सुरा में सरलता जाती कही !

सङ्गीत विषयालाप में, पर-दुःख में परिहास है,

अश्लील वर्णन मात्र में ही अब कवित्व-निवास है ! ।।२९७।।

बहु  वर्ण रूप उपाधियों में रह गया अब मान है;

बहुधा अपव्यय में यहाँ अब दीख पड़ता दान है ।

बस व्यसन और विवाह में अवशिष्ट अब औदार्य है।

हा दैव  ! हिन्दू जाति का क्या अन्त अब अनिवार्य है।।२९८।।

है शील प्रायः पूर्वजों में, एकता अभियान में,

उपकार-जन्य कृतज्ञता है धन्यवाद-प्रदान में ।

पोशाक में शुचिता रही, बस क्रोध में ही कान्ति है;

अति दीनता में नम्रता है, स्वन में सुख-शान्ति है ! ।।२९९।।

दुर्गण

अब है यहाँ क्या ? दम्भ है, दौर्बल्य है, दृढ़-द्रोह है,

आलस्य, ईर्ष्या, द्वेष है, मालिन्य है, मद, मोह है।

है और क्या ? दुर्बल जनों का सब तरह सिर काटना,

पर साथ ही बलवान का है श्वान-सम पग चाटना ॥३००॥

अपने लिए यदि दूसरों को दुःख देना धर्म हो,

यदि ईश-नियमों का निरादर न्याय से सत्कर्म हो।

निश्चेष्ट होकर बैठने में हो न पुण्यों की कमीं-

तो मुक्ति के भागी हमीं हैं, मुक्ति के भागी हमीं !॥३०१॥

अभाव

कर हैं हमारे किन्तु अब कर्तृत्व हममें है नहीं,

हैं भारतीय परन्तु हम बनते विदेशी सब कहीं !

रखते हृदय हैं किन्तु हम रखते न सहृदयता वहाँ,

हम हैं मनुज पर हाय ! अब मनुजत्व हममें है कहाँ ? ॥३०२॥

मन में नहीं है बल हमारे, तेज चेष्टा में नहीं,

उद्योग में साहस नहीं, अपमान में न घृणा कहीं।

दासत्व में न यहाँ अरुचि है, प्रेम में प्रियता नहीं;

हो अन्त में आशा कहाँ ? कर्तव्य में क्रियता नहीं !॥३०३।।

उत्साह उन्नति का नहीं है, खेद अवनति का नहीं,

है स्वल्प-सा भी ध्यान हमको समय की गति का नहीं।

हम भीरुता के भक्त हैं, अति विदित विषयासक्त हैं,

श्रम से सदैव विरक्त हैं, आलस्य में अनुरक्त हैं ।। ३०४ ॥

विकृति

हिन्दू-समाज सभी गुणों से आज कैसा हीन है,

वह क्षीण और मलीन, आलस्य में ही लीन है।

परतन्त्र पद पद पर विपद में पड़ रहा वह दीन है,

जीवन-मरण उसका यहाँ अब एक दैवाधीन है॥३०५॥

हा ! आर्य-सन्तति आज कैसी अन्य और अशक्त है,

पानी हुआ क्या अब हमारी नाड़ियों का रक्त है ?

संसार में हमने किया बस एक ही यह काम है-

निज पूर्वजों का सब तरह हमने डुबोया नाम है !॥३०६॥

दुःशीलता दासी हमारी, मूर्खता महिषी सदा,

है स्वार्थ सिंहासन हमारा मोह मन्त्री सर्वदा ।

यों पाप-पुर में राज-पद हा ! कौन पाना चाहता ?

चढ़ कर गधे पर कौन जन बैकुण्ठ जाना चाहता ? ॥ ३०७ ॥

भारत ! तुम्हारा आज यह कैसा भयङ्कर वेष है ?

है और सब निःशेष केवल नाम ही अब शेष है !

ब्रह्मत्व, राजन्यत्व युत वैश्यत्व भी सब नष्ट है,

शूद्रत्व और पशुत्व ही अवशिष्ट है, हा ! कष्ट है ॥ ३०८ ।।

हा दीनबन्धो ! क्या हमारा नाम ही मिट जायगा,

अब फिर कृपा-कण भी न क्या भारत तुम्हारा पायगा ?

हा राम ! हा ! हा कृष्ण ! हा! हा नाथ ! हा ! रक्षा करो।

मनुजत्व दो हमको दयामय ! दुःख-दुर्बलता हरो ॥ ३०९ ॥

भविष्यत् खंड : भारतभारती

 उद्बोधन

हतभाग्य हिन्द-जाति ! तेरा पर्व-दर्शन है कहाँ ?

वह शील, शुद्धाचार, वैभव देख, अब क्या है यहाँ ?

क्या जान पड़ती वह कथा अब स्वप्न की-सी है नहीं ?

हम हों वहीं, पर पूर्व-दर्शन दृष्टि आते हैं कहीं? ॥१॥

बीती अनेक शताब्दियाँ पर हाय ! तू जागी नहीं;

यह कुम्भकर्णी नींद तूने तनिक भी त्यागी नहीं !

देखें कहीं पूर्वज हमारे स्वर्ग से आकर हमें-

आँसू बहावें शोक से, इस वेश में पाकर हमें !! ॥ २ ॥

अब भी समय है जागने का देख आँखें खोल के,

सब जग जगाता है तुझे, जगकर स्वयं जय बोल के।

निःशक्त यद्यपि हो चुकी है किन्तु तू न मरी अभी,

अब भी पुनर्जीवन-प्रदायक साज हैं सम्मुख सभी ॥ ३ ॥

हम कौन थे, क्या हो गए हैं, जान लो इसका पता,

जो थे कभी गुरु, है न उनमें शिष्य की भी योग्यता !

जो थे सभी से अग्रगामी, आज पीछे भी नहीं,

है दीखती संसार में विपरीतता ऐसी कहीं? ॥ ४ ॥

दुर्दैव-पीड़ित जो पुराने चिह्न कुछ कुछ रह गए,

देखो, न जाने भाव कितने व्यक्त करते हैं नए।

हा ! क्या कहें आरम्भ ही में रुंध रहा है जब गला,

भगवान् ! क्या से क्या हुए हम, कुछ ठिकाना है भला ! ॥ ५ ॥

कुछ काल में ये जीर्ण पहले चिह्न भी मिट जायँगे,

फिर खोजने से भी न हम सब मार्ग अपना पायेंगे।

जातीय जीवन-दीप अब भी स्नेह पायगा नहीं,

तो फिर अँधेरे में हमें कुछ हाथ आवेगा नहीं ॥६॥

अब भी सुधारेंगे न हम दुर्दैव-वश अपनी दशा,

तो नाम-शेष हमें करेगा काल ले कर्कश कशा !

बस टिमटिमाता दीख पड़ता आज जीवन-दीप है,

हा दैव ! क्या रक्षा न होगी, सर्वनाश समीप है ? ॥७॥

निज पूर्वजों का वह अलौकिक सत्य, शील निहार लो,

फिर ध्यान से अपनी दशा भी एक बार विचार लो।

जो आज अपने आपको यों भूल हम जाते नहीं,

तो यों कभी सन्ताप-मूलक शूल हम पाते नहीं ॥ ८ ॥

निज पूर्वजों के सद्गुणों को यत्न से मन में धरो,

सब आत्म-परिभव-भाव तज निज रूप का चिन्तन करो।

निज पूर्वजों के सद्गुणों का गर्व जो रखती नहीं,

वह जाति जीवित जातियों में रह नहीं सकती कहीं ॥९॥

किस भाँति जीना चाहिए, किस भाँति मरना चाहिए;

सो सब हमें निज पूर्वजों से याद करना चाहिए।

पद-चिह्न उनके यत्न-पूर्वक खोज लेना चाहिए,

निज पूर्व-गौरव-दीप को बुझने न देना चाहिए ॥ १० ॥

हम हिन्दुओं के सामने आदर्श जैसे प्राप्त हैं-

संसार में किस जाति को, किस ठौर वैसे प्राप्त हैं ?

भव-सिन्धु में निज पूर्वजों की रीति से ही हम तरें,

यदि हो सकें वैसे न हम तो अनुकरण तो भी करें ॥११॥

क्या कार्य्य दुष्कर है भला यदि इष्ट हो हमको कहीं,

उस सृष्टिकर्ता ईश का ईशत्व क्या हममें नहीं ?

यदि हम किसी भी कार्य को करते हुए असमर्थ हैं-

तो उस अखिल-कर्ता पिता के पुत्र ही हम व्यर्थ हैं ॥ १२ ॥

अपनी प्रयोजन-पूर्ति क्या हम आप कर सकते नहीं ?

क्या तीस कोटि मनुष्य अपना ताप हर सकते नहीं ?

क्या हम सभी मानव नहीं किंवा हमारे कर नहीं ?

रो भी उठे हम तो बने क्या अन्य रत्नाकर नहीं? ॥ १३ ॥

हे भाइयो ! सोए बहुत, अब तो उठो, जागो अहो !

देखो जरा अपनी दशा, आलस्य को त्यागो अहो !

कुछ पार है, क्या-क्या समय के उलट-फेर न हो चुके !

अब भी सजग होगे न क्या ? सर्वस्व तो हो खो चुके ॥ १४ ॥

विष-पूर्ण ईर्ष्या-द्वेष पहले शीघ्रता से छोड़ दो,

घर फूंकनेवाली फुटैली फूट का सिर फोड़ दो।

मालिन्य से मुँह मोड़कर मद-मोह के पद तोड़ दो,

टूटे हुए वे प्रेम-बन्धन फिर परस्पर जोड़ दो ॥ १५ ॥

भागो अलग अविचार से, त्यागो कुसंग कुरीति का;

आगे बढ़ो निर्भीकता से, काम है क्या भीति का-

चिन्ता न विघ्नों की करो, पाणिग्रहण कर नीति का।

सुर-तुल्य अजरामर बनो, पीयूष पीकर प्रीति का ॥ १६॥

संसार की समरस्थली में धीरता धारण करो,

चलते हुए निज इष्ट पथ में संकटों से मत डरो।

जीते हुए भी मृतक-सम रहकर न केवल दिन भरो,

वर वीर बनकर आप अपनी विघ्न-बाधाएँ हरो ॥ १७ ॥

है ज्ञात क्या तुमको नहीं, तुम लोग तीस करोड़ हो,

यदि ऐक्य हो तो फिर तुम्हारा कौन जग में जोड़ हो ?

उत्साह-जल से सींचकर हित का अखाड़ा गोड़ दो,

गर्दन अमित्र अधःपतन की ताल ठोंक मरोड़ दो ॥ १८ ॥

बैठे हुए हो व्यर्थ क्यों ? आगे बढ़ो, ऊँचे चढ़ो;

है भाग्य की क्या भावना ? अब पाठ पौरुष का पढ़ो।

है सामने का ग्रास भी मुख में स्वयं जाता नहीं !

हा ! ध्यान उद्यम का तुम्हें तो भी कभी आता नहीं! ॥ १९ ॥

जो लोग पीछे थे तुम्हारे, बढ़ गए, हैं बढ़ रहे,

पीछे पड़े तुम दैव के सिर दोष अपना मढ़ रहे !

पर कर्म-तैल बिना कभी विधि-दीप जल सकता नहीं,

है दैव क्या ? साँचे बिना कुछ आप ढल सकता नहीं ॥ २० ॥

आओ, मिलें सब देश-बान्धव हार बनकर देश के,

साधक बनें सब प्रेम से सुख-शान्तिमय उद्देश के।

क्या साम्प्रदायिक भेद से है ऐक्य मिट सकता अहो !

बनती नहीं क्या एक माला विविध सुमनों की कहो ? ॥ २१ ॥

रक्खो परस्पर मेल मन से छोड़कर अविवेकता,

मन का मिलन ही मिलन है, होती उसी से एकता।

तन मात्र के ही मेल से है मन भला मिलता कहीं,

है बाह्य बातों से कभी अन्तःकरण खिलता नहीं ॥ २२ ॥

सब वैर और विरोध का बल-बोध से वारण करो,

है भिन्नता में खिन्नता ही, एकता धारण करो।

है एकता ही मुक्ति ईश्वर-जीव के सम्बन्ध में,

वर्णैकता ही अर्थ देती इस निकृष्ट निबन्ध में ॥ २३ ॥

है कार्य्य ऐसा कौन-सा साधे न जिसको एकता ?

देती नहीं अद्भुत अलौकिक शक्ति किसको एकता ?

दो-एक एकादश हुए, किसने नहीं देखे सुने ?

हाँ, शून्य के भी योग से हैं अंक होते दस गुने ॥ २४ ॥

प्रत्येक जन प्रत्येक जन को बन्धु अपना जान लो,

सुख-दुःख अपने बन्धुओं का आप अपना मान लो।

सब दुःख यों बँटकर घटेगा सौख्य पावेंगे सभी,

हाँ, शोक में भी सान्त्वना के गीत गावेंगे सभी ॥ २५ ॥

साहाय्य दे सकते मनुज को मनुज ही, खग-मृग नहीं,

वे भी न दें तो सब मनुजता व्यर्थ है उनकी वहीं।

निज बन्धुओं की ही न हम यदि पा सके प्रियता यहाँ ?

तो उस परम प्रभु की कृपा-प्रियता हमें रक्खी कहाँ ॥ २६ ॥

अपने सहायक आप हो, होगा सहायक प्रभु तभी,

बस चाहने से ही किसी को सुख नहीं मिलता कभी।

कर, पद, हृदय, दृग, कर्ण तुमको ईश ने सब कुछ दिया,

है कौन ऐसा काम जो तुमसे न जा सकता किया ? ॥ २७ ॥

आने न दो अपने निकट औदास्यमय उत्ताप को,

आत्मावलम्बी हो, न समझो तुच्छ अपने आपको।

है भिन्न परमात्मा तुम्हारे अमर आत्मा से नहीं,

एकत्व वारि-तरंग का भी भंग हो सकता कहीं? ॥ २८ ॥

अति धीरता के साथ अपने कार्य में तत्पर रहो,

आपत्तियों के वार सारे वीरवर बनकर सहो।

सब विघ्न-भय मिट जायँगे, होगी सफलता अन्त में,

फिर कीर्ति फैलेगी हमारी एक बार दिगन्त में ॥२९॥

बढ़कर लता, द्रुम, गुल्म भी हैं फूलते फलते यहाँ,

तो भी समुन्नति-मार्ग में हमलोग चलते हैं कहाँ ?

घन घूमकर ही गरजते हैं, बरसते हैं सब कहीं,

हम किन्तु निष्क्रिय हैं तभी तो तरसते हैं सब कहीं ॥ ३० ॥

जड़ दीप तो देकर हमें आलोक जलता आप है,

पर एक हममें दूसरे को दे रहा सन्ताप है।

क्या हम जड़ों से भी जगत् में हैं गए बीते नहीं ?

हे भाइयो ! इस भाँति तो तुम थे कभी जीते नहीं ॥ ३१ ॥

सोचो कि जीने से हमारे लाभ होता है किसे,

है कौन, मरने से हमारे हानि पहुँचेगी जिसे ?

होकर न होने के बराबर हो रहे हैं हम यहाँ,

दुर्लभ मनुज-जीवन वृथा ही खो रहे हैं हम यहाँ ! ॥ ३२ ॥

हो आप, और सभी जनों को नित्य उत्साहित करो,

उत्पन्न तुम जिसमें हुए, निज देश का कुछ हित करो।

नर-जन्म पाकर लोक में कुछ काम करना चाहिए,

अपना नहीं तो पूर्वजों का नाम करना चाहिए ॥ ३३ ॥

अनुदारता-दर्शक हमारे दूर सब अविवेक हों;

जितने अधिक हों तन भले हैं, मन हमारे एक हों।

आचार में कुछ भेद हों, पर प्रेम हो व्यवहार में,

देखें, हमें फिर कौन सुख मिलता नहीं संसार में ? ॥ ३४ ॥

हमको समय को देखकर ही नित्य चलना चाहिए,

बदले हवा जब जिस तरह हमको बदलना चाहिए।

विपरीत विश्व-प्रवाह के निज नाव जा सकती नहीं;

अब पूर्व की बातें सभी प्रस्ताव पा सकतीं नहीं ॥ ३५ ॥

व्यवसाय अपने व्यर्थ हैं अब नव्य यन्त्रों के बिना,

परतन्त्र हैं हम सब कहीं अब भव्य यन्त्रों के बिना।

कल के हलों के सामने अब पूर्व का हल व्यर्थ है,

उस वाष्प-विद्युद्वेग-सम्मुख देह का बल व्यर्थ है ॥ ३६ ॥

है बदलता रहता समय, उसकी सभी घातें नई,

कल काम में आती नहीं हैं आज की बातें कई !

है सिद्धि-मूल यही कि जब जैसा प्रकृति का रंग हो-

तब ठीक वैसा ही हमारी कार्य-कृति का ढंग हो ॥ ३७ ॥

प्राचीन हों कि नवीन छोड़ो रूढ़ियाँ जो हों बुरी,

बनकर विवेकी तुम दिखाओ हंस जैसी चातुरी।

प्राचीन बातें ही भली हैं, यह विचार अलीक है,

जैसी अवस्था हो जहाँ वैसी व्यवस्था ठीक है ॥ ३८ ॥

सर्वत्र एक अपूर्व युग का हो रहा संचार है,

देखो, दिनोंदिन बढ़ रहा विज्ञान का विस्तार है;

अब तो उठो, क्या पड़ रहे हो व्यर्थ सोच-विचार में ?

सुख दूर, जीना भी कठिन है श्रम बिना संसार में ॥ ३९ ॥

पृथ्वी, पवन, नभ, जल, अनल सब लग रहे हैं काम में,

फिर क्यों तुम्हीं खोते समय हो व्यर्थ के विश्राम में ?

बीते हजारों वर्ष तुमको नींद में सोते हुए,

बैठे रहोगे और कब तक भाग्य को रोते हुए ? ॥ ४० ॥

इस नींद में क्या क्या हुआ, वह भी तुम्हें कुछ ज्ञात है ?

कितनी यहाँ लूटें हुईं , कितना हुआ अपघात है !

होकर न टस से मस रहे तुम एक ही करवट लिये,

निज दुर्दशा के दृश्य सारे स्वप्न-सम देखा किये ! ॥४१॥

इस नींद में ही तो यवन अकर यहाँ आदृत हुए,

जागे न हा ! स्वातन्त्र्य खोकर अन्त में तुम धृत हुए।

इस नींद में ही सब तुम्हारे पूर्व-गौरव हृत हुए,

अब और कब तक इस तरह सोते रहोगे मृत हुए ? ॥४२॥

उत्तप्त ऊष्मा के अनन्तर दीख पड़ती वृष्टि है,

बदली न किन्तु दशा तुम्हारी नित्य शनि की दृष्टि है !

है घूमता फिरता समय तुम किन्तु ज्यों के त्यों पड़े,

फिर भी अभी तक जी रहे हो, वीर ही निश्चय बड़े ! ॥४३॥

पशु और पक्षी आदि भी अपना हिताहित जानते,

पर हाय ! क्या तुम अब उसे भी हो नहीं पहचानते ?

निश्चेष्टता मानों हमारी नष्टता की दृष्टि है,

होती प्रलय के पूर्व जैसे स्तब्ध सारी सृष्टि है ॥ ४४ ॥

सोचो विचारो, तुम कहाँ हो, समय की गति है कहाँ,

वे दिन तुम्हारे आप ही क्या लौट आवेंगे यहाँ ?

ज्यों ज्यों करेंगे देर हम वे और बढ़ते जायेंगे,

यदि बढ़ गये वे और तो फिर हम न उनको पायेंगे ॥४५॥

करके उपेक्षा निज समय को छोड़ बैठे हो तुम्हीं,

दुष्कर्म करके भाग्य को भी फोड़ बैठे हो तुम्हीं।

बैठे रहोगे हाय ! कब तक और यों ही तुम कहो ?

अपनी नहीं तो पूर्वजों की लाज तो रक्खो अहो ! ॥४६॥

लो मार्ग अपना शीघ्र ही कर्तव्य के मैदान में,

हो बद्धपरिकर दो सहारा देश के उत्थान में ।

डूबे न देखो नाव अपनी है पड़ी मंझधार में,

हो। सहायक कर्म्म का पतवार ही उद्धार में ॥ ४७॥

भूलो न ऋषि-सन्तान हो, अब भी तुम्हें यदि ध्यान हो-

तो विश्व को फिर भी तुम्हारी शक्ति का कुछ ज्ञान हो।

बनकर अहो ! फिर कर्मयोगी वीर बड़भागी बनो,

परमार्थ के पीछे जगत में स्वार्थ के त्यागी बनो ॥ ४८ ॥

होकर निराश कभी न बैठो, नित्य उद्योगी रहो,

सब देश-हितकर कार्य में अन्योन्य सहयोगी रहो।

धम्मार्थि के भोगी रहो बस कर्म के योगी रहो,

रोगी रहो तो प्रेम-रूपी रोग के रोगी रहो ! ॥ ४९ ॥

पुरुषत्व दिखलाओ पुरुष हो, बुद्धि-बल से काम लो,

तब तक न थककर तुम कभी अवकाश या विश्राम लो-

जब तक कि भारत पूर्व के पद पर न पुनरासीन हो,

फिर ज्ञान में, विज्ञान में, जब तक न वह स्वाधीन हो ॥ ५० ॥

निज धर्म का पालन करो, चारों फलों की प्राप्ति हो,

दुख-दाह, आधि-व्याधि सबकी एक साथ समाप्ति हो।

ऊपर कि नीचे एक भी सुर है नहीं ऐसा कहीं-

सत्कर्म में रत देख तुमको जो सहायक हो नहीं ॥ ५१ ॥

देखो, तुम्हें पूर्वज तुम्हारे देखते हैं स्वर्ग से,

करते रहे जो लोक का हित उच्च आत्मोत्सर्ग से।

है दुख उन्हें अब स्वर्ग में भी पतित देख तुम्हें अरे !

सन्तान हो क्या तुम उन्हीं की, राम ! राम ! हरे हरे ! ॥ ५२ ॥

अब तो विदा करो दुर्गुणों को सद्गुणों को स्थान दो,

खोया समय यों ही बहुत अब तो उसे सम्मान दो।

चिरकाल तिमिरावृत रहे, आलोक का भी स्वाद लो,

हो योग्य सन्तति, पूर्वजों से दिव्य आशीर्वाद लो ॥ ५३ ॥

जग को दिखा दो यह कि अब भी हम सजीव, सशक्त हैं,

रखते अभी तक नाड़ियों में पूर्वजों का रक्त हैं।

ऐसा नहीं कि मनुष्यरूपी और कोई जन्तु हैं,

अब भी हमारे मस्तकों में ज्ञान के कुछ तन्तु हैं ॥ ५४ ॥

अब भी सँभल जावें कहीं हम, सुलभ हैं सब साज भी,

बनना, बिगड़ना है हमारे हाथ अपना आज भी।

यूनान, मिस्रादिक मिटे हैं किन्तु हम अब भी बने,

यद्यपि हमारे मेटने को ठाठ कितने ही ठने ॥ ५५ ॥

हे आर्य सन्तानो ! उठो, अवसर निकल जावे नहीं

देखो, बड़ों की बात जग में बिगड़ने पावे नहीं।

जग जान ले कि न आर्य केवल नाम के ही आर्य्य हैं,

वे नाम के अनुरूप ही करते सदा शुभ कार्य हैं ॥ ५६ ॥

ऐसा करो जिसमें तुम्हारे देश का उद्धार हो,

जर्जर तुम्हारी जाति का बेड़ा विपद से पार हो।

ऐसा न हो जो अन्त में, चर्चा करें ऐसी सभी-

थी एक हिन्दू नाम की भी निन्द्य जाति यहाँ कभी ॥ ५७ ॥

समझो न भारत-भक्ति केवल भूमि के ही प्रेम को,

चाहो सदा निज देशवासी बन्धुओं के क्षेम को।

यों तो सभी जड़ जन्तु भी स्वस्थान के अति भक्त हैं;

कृमि, कीट, खग, मृग, मीन भी हमसे अधिक अनुरक्त हैं ॥ ५८ ॥

लाखों हमारे दीन-दुःखी बन्धु भूखों मर रहे,

पर हम व्यसन में डूबकर कितना अपव्यय कर रहे !

क्या देश वत्सलता यही है ? क्या यही सत्कार्य है ?

क्या लक्ष्य जीवन का यही है ? क्या यही औदार्य है? ॥ ५९॥

मुख से न होकर चित्त से देशानुरागी हो सदा,

हैं सब स्वदेशी बन्धु, उनके दुःखभागी हो सदा।

देकर उन्हें साहाय्य भरसक सब विपत्ति-व्यथा हरो,

निज दुःख से ही दूसरों के दुःख का अनुभव करो ॥ ६० ॥

अन्तःकरण उज्ज्वल करो औदार्य के आलोक से,

निर्मल बनो सन्तप्त होकर दूसरों के शोक से।

आत्मा तुम्हारा और सबका एक निरवच्छेद है,

कुछ भेद बाहर क्यों न हो भीतर भला क्या भेद है? ॥ ६१ ॥

सबसे बड़ा गौरव यही तो है हमारे ज्ञान का,

जानें चराचर विश्व को हम रूप उस भगवान् का।

ईशस्थ सारी सृष्टि हममें और हम सब सृष्टि में,

है दर्शनों में दृष्टि जैसे और दर्शन दृष्टि में ॥ ६२ ॥

सबसे हमारे धर्म का ऊँचा यही तो लक्ष है,

होती असीम अनेकता में एकता प्रत्यक्ष है।

मति की चरमता या परमता है वही अविभिन्नता,

बस छा रही सर्वत्र प्रभु की एक निरवच्छिन्नता ॥ ६३ ॥

भगवान कहते हैं स्वयं ही, भेद-भावों को तजे,

है रूप मेरा ही, मुझे जो सर्व भूतों में भजे।

जो जानता सबमें मुझे, सबको मुझी में जानता;

है मानता मुझको वही, मैं भी उसी को मानता ॥ ६४ ॥

(इस पद्य की रचना श्रीमद्भगवद्गीता के निम्नलिखित

श्लोक के आधार पर की गई है :

यो मां पश्यति सर्वत्र सर्व च मयि पश्यति।

तस्याहं न प्रणश्यामि स च मे न प्रणश्यति ॥

सर्व भूतस्थितं यो मां भजत्येकत्वमास्थितः।

सर्वथा वर्तमानोऽपि स योगी मयि वर्तते ।)

हे भाइयो ! भगवान् के आदेश का पालन करो,

अनुदार भाव-कलंक-रूपी पंक प्रक्षालन करो।

नवनीत-तुल्य दयार्द्र हो सब भाइयों के ताप में,

सबमें समझकर आपको, सबको समझ लो आपमें ॥ ६५ ॥

बस मर्म स्वार्थ-त्याग ही तो है हमारे धर्म का,

है ईश्वरार्पण सर्वदा सब फल हमारे कर्म का।

निष्काम होना ही हमारा निरुपमेय महत्त्व है,

प्रभु का स्वयं श्रीमुख कथित गीता-ग्रथित यह तत्त्व है ॥ ६६ ॥

इतिहास है, हम पूर्व में स्वार्थी कभी होते न थे;

सुख-बीज हम अपने लिए ही विश्व में बोते न थे।

तब तो हमारे अर्थ यह संसार ही सुख-स्वर्ग था;

मानो हमारे हाथ पर रक्खा हुआ अपवर्ग था ॥ ६७ ॥

हम पर-हितार्थ सहर्ष अपने प्राण भी देते रहे,

हाँ, लोक के उपकार-हित ही जन्म हम लेते रहे।

सुर भी परीक्षक हैं हमारे धर्म के अनुराग के,

इतिहास और पुराण हैं साक्षी हमारे त्याग के ॥६८॥

हैं जानते यह तत्व जो जन आज भी वे मान्य हैं,

चाहे विना ही पा रहे वे सब कहीं प्राधान्य हैं।

जग में न उनको प्राप्त हो जो कौन ऐसी सिद्धि है ?

उनके पदों पर लोटती सब ऋद्धियों की वृद्धि है ॥६९॥

करते उपेक्षा यदि न हम उस उच्चतम उद्देश की,

तो आज यह अवनति नहीं होती हमारे देश की।

यदि इस समय भी सजग हों तो भी हमारा भाग्य है,

पर कर्म के तो नाम से ही अब हमें वैराग्य है ! ॥७०॥

सच्चे प्रयत्न कभी हमारे व्यर्थ हो सकते नहीं,

संसार भर के विघ्न भी उनको डुबो सकते नहीं !

वे तत्वदर्शी ऋषि हमारे कह रहे हैं यह कथा-

“सत्यप्रतिष्ठायां क्रिया (सु) फलाश्रयत्वं” सर्वथा ॥७१॥

आओ, बने शुभ साधना के आज से साधक सभी,

निज धर्म की रक्षा करें, जीवन सफल होगा तभी।

संसार अब देखे कि यदि हम आज हैं पिछड़े पड़े-

तो कल बराबर और परसों विश्व के आगे खड़े ॥७२॥

ब्राह्मण बढ़ावें बोध को, क्षत्रिय बढ़ावें शक्ति को;

सब वैश्य निज वाणिज्य को, त्यों शूद्र भी अनुरक्ति को।

यों एक मन होकर सभी कर्तव्य के पालक बनें –

तो क्या न कीर्ति-वितान चारों ओर भारत के तनें ?॥७३॥

 ब्राह्मण

हे ब्राह्मणो ! फिर पूर्वजों के तुल्य तुम ज्ञानी बनो,

भूलो न अनुपम आत्म-गौरव, धर्म के ध्यानी बनो ।

कर दो चकित फिर विश्व को अपने पवित्र प्रकाश से,

मिट जायँ फिर सब तम तुम्हारे देश के आकाश से ॥७४॥

प्रत्यक्ष था ब्रह्मत्व तुममें यदि उसे खोते नहीं–

तो आज यों सर्वत्र तुम लाञ्छित कभी होते नहीं ।

यह द्वार द्वार न भीख तुमको माँगनी पड़ती कभी,

भू पर तुम्हें सुर जान कर थे मानते मानव सभी ॥ ७५ ॥

 क्षत्रिय

हे क्षत्रियो ! सोचो तनिक, तुम आज कैसे हो रहे;

हम क्या कहें, कह दो तुम्हीं, तुम आज जैसे हो रहे ।

स्वाधीनता सारी तुम्हीं ने है न खोई देश की ?

बन कर विलासी, विग्रही नैया डुबोई देश की !॥ ७६ ॥

निज दुर्दशा पर आज भी क्यों ध्यान तुम देते नहीं ?

अत्यन्त ऊँचे से गिरे हा ! किन्तु तुम चेते नहीं !

अब भी न आँखें खोल कर क्या तुम बिलोकोगे कहो ?

अब भी कुपथ की ओर से मन को न रोकोगे कहो ?॥७७ ॥

वीरो ! उठो, अब तो कुयश की कालिमा को मेट दो,

निज देश को जीवन सहित तन, मन तथा धन भेट दो।

रघु, राम, भीष्म तथा युधिष्ठिर-सम न हो जो ओज से-

तो वीर विक्रम-से बनो, विद्यानुरागी भोज-से॥७८ ॥

 वैश्य

वैश्यो ! सुना, व्यापार सारा मिट चुका है देश का,

सब धन विदेशी हर रहे हैं, पार है क्या क्लेश का ?

अब भी न यदि कर्तव्य का पालन करोगे तुम यहाँ-

तो पास हैं वे दिन कि जब भूखों मरोगे तुम यहाँ !॥७९॥

अब तो उठो, हे बन्धुओ ! निज देश की जय बोल दो;

बनने लगें सब वस्तुएँ, कल-कारखाने खोल दो।

जावे यहाँ से और कच्चा माल अब बाहर नहीं-

हो ‘मेडइन’ के बाद बस अब ‘इंडिया’ ही सब कहीं॥ ८०॥

है आज भी रत्न-प्रसू वसुधा यहाँ की-सी कहाँ ?

पर लाभ उससे अब उठाते हैं विदेशी ही यहाँ!

उद्योग घर में भी अहो ! हमसे किया जाता नहीं,

हम छाल-छिलके चूसते हैं, रस पिया जाता नहीं !!॥८१॥

 शूद्र

शूद्रो ! उठो, तुम मी कि मारत-भूमि डूबी जा रही,

है योगियों को भी अगम जो व्रत तुम्हारा है वही।

जो मातृ-सेवक हो वही सुत श्रेष्ठ जाता है गिना,

कोई बड़ा बनता नहीं लघु और नम्र हुए विना ॥८२॥

रक्खो न व्यर्थ घृणा कभी निज वर्ण से या नाम से,

मत नीच समझो आपको, ऊँचे बनो कुछ काम से ।

उत्पन्न हो तुम प्रभु-पदों से जो सभी को ध्येय हैं,

तुम हो सहोदर सुरसरी के चरित जिसके गेय हैं ॥८३॥

 साधुसन्त

सन्तो ! महन्तो ! स्वामियो ! गौरव तुम्हारा ज्ञान है,

पर क्या कभी इस बात पर जाता तुम्हारा ध्यान है ?

यह वेश चाहे सुगम हो, आवेश अति दुर्गम्य है।

सौरभ-रहित है जो सुमन वह रूप में क्या रम्य है ॥८४॥

हे साधुओ ! सोये बहुत अब ईश्वराराधन करो,

उपदेश-द्वारा देश का कल्याण कुछ साधन करो।

डूबे रहोगे और कब तक हाय ! तुम अज्ञान में ?

चाहो तुम्हीं तो देश की काया पलट दो आन में ॥ ८५ ॥

थे साधु तुलसीदास, नानक, रामदास समर्थ मी,

व्यवहृत यही पद हो रहा है आज उनके अर्थ भी।

पर वे न होकर भी यहाँ उपकार सबका कर रहे,

सद्भाव उनके ग्रन्थ सबके मानसों में भर रहे ॥८६॥

कुछ वेश की भी लाज रक्खो, अज्ञता का अन्त हो;

भर कर न केवल उदर ही तुम लोग सच्चे सन्त हो।

बाधा मिटा दो शीघ्र मन से इन्द्रियों के रोग की,

फैले चमत्कृति फिर यहाँ पर सिद्धि-मूलक योग की ॥८७॥

 तीर्थगुरु

हे तीर्थगुरुओ ! सोच लो, कैसा तुम्हारा नाम है,

यजमान का उद्धार करना ही तुम्हारा काम है ।

पर आज आत्म-सुधार के भी दीखते लक्षण कहाँ ?

चेतो, उठो, फिर तुम हमारे कर्णधार बनो यहाँ ॥८८||

 शिक्षित

हे शिक्षितो ! कुछ कर दिखाओ, ज्ञान का फल है यही,

हो दूसरों को लाभ जिससे श्रेष्ठ विद्या है वही।

संख्या तुम्हारी अल्प है, उसको बढ़ाओ शीघ्र ही,

नीचे पड़े हैं जो उन्हें ऊपर चढ़ाओ शीघ्र ही ॥८९॥

अपने अशिक्षित भाइयों का प्रेमपूर्वक हित करो –

उनकी समुन्नति से उन्हें उत्साह-युत परिचित करो।

झानानुभव से तुम न निज साहित्य को वञ्चित करो-

पाओ जहाँ जो बात अच्छी शीघ्र ही सश्चित करो ॥९०॥

 नेता

हे देशनेताओ ! तुम्हीं पर सब हमारा भार है-

जीते तुम्हारे जीत है, हारे तुम्हारे हार है।

निःस्वार्थ, निर्भय भाव से निज नीति पर निश्चल रहो,

“राष्ट्रेवयं जागृयाम पुरोहिताः स्वाहा” कहो ॥९१॥

 कवि

करते रहोगे पिष्ट-पोषण और कब तक कविवरो!

कच, कुच, कटाक्षों पर अहो ! अब तो न जीते जी मरो।

है बन चुका शुचि अशुचि अब तो कुरुचि को छोड़ो भला,

अब तो दया कर के सुरुचि का तुम न यों घोंटो गला ॥९२॥

आनन्ददात्री शिक्षिका है सिद्ध कविता कामिनी,

है जन्म से ही वह यहाँ श्रीराम की अनुगामिनी ।

पर अब तुम्हारे हाथ से वह कामिनी ही रह गई,

ज्योत्स्ना गई देखो, अंधेरी यामिनी ही रह गई !॥ ९३॥

अब तो विषय की ओर से मन की सुरति का फेर दो,

जिस ओर गति हो समय की उस ओर मति को फेर दो।

गाया बहुत कुछ राग तुमने योग और वियोग का,

सञ्चार कर दो अब यहाँ उत्साह का उद्योग का ॥ ९४ ॥

केवल मनोरंजन न कवि का कर्म होना चाहिए,

उसमें उचित उपदेश का भी मर्म होना चाहिए।

क्यों आज “रामचरित्रमानस” सब कहीं सम्मान्य है?

सत्काव्य-युत उसमें परम आदर्श का प्राधान्य है॥९५॥

धैर्यच्युतों को धैर्य से कवि ही मिलाना जानते,

वे ही नितान्त पराजितों को जय दिलाना जानते ।

होते न पृथ्वीराज तो रहते प्रताप व्रती कहाँ ?

एथेन्स कैसे जीतता होता न यदि सोलन वहाँ ? ॥९६॥

संसार में कविता अनेकों क्रान्तियाँ है कर चुकी,

मुरझे मनों में वेग की विद्युत्प्रभाएँ भर चुकी।

है अन्ध-सा अन्तर्जगत कवि-रूप सविता के विना,

सद्भाव जीवित रह नहीं सकते सु-कविता के विना ॥९७ ॥

मृत जाति को कवि ही जिलाते रस-सुधा के योग से,

पर मारते हो तुम हमें उलटे विषय के रोग से !

कवियो ! उठो, अब तो अहो ! कवि-कर्म्म की रक्षा करो,

बस नीच भावों का हरण कर उच्च भावों को भरो॥९८॥

 नवयुवक

हे नवयुवाओ ! देश भर की दृष्टि तुम पर ही लगी,

है मनुज जीवन की तुम्हीं में ज्योति सब से जगमगी।

दोगे न तुम तो कौन देगा योग देशोद्धार में ?

देखो कहाँ क्या हो रहा है आज कल संसार में ॥९९॥

जो कुछ पढ़ो तुम कार्य में भी साथ ही परिणत करो,

सब भक्तवर प्रह्लाद की निम्नोक्ति को मन में धरो-

“कौमार में ही भागवत धर्माचरण कर लो यहाँ,

नर-जन्म दुर्लभ और वह भी अधिक रहता है कहाँ” ॥१००॥

दो पथ, असंयम और संयम हैं तुम्हें अब सब कहीं,

पहला अशुभ है, दूसरा शुभ है, इसे भूलो नहीं।

पर मन प्रथम की ओर ही तुमको झुकावेगा अभी,

यदि तुम न सँभलोगे अभी तो फिर न सँभलोगे कभी ॥१०१॥

 धनी

धनियो ! भला कब तक व्यसन की बान छोड़ोगे नहीं,

अब और कब तक अज्ञता की आन तोड़ोगे नहीं ?

किंवा कृपण कब तक रहोगे लोभ को पाले हुए,

क्या तुच्छ धनवाले हुए तुम जो न मनवाले हुए ? ॥१०२॥

कमला-विलास विलोल तर चपला-प्रकाश-समान है,

धन-लाभ का साफल्य बस सत्कार्य विषयक दान है।

हा ! देश का उपकार करना अब तुम्हें कब आयगा ?

विद्या, कला-कौशल बढ़ाओ, धन स्वयं बढ़ जायगा ॥१०३॥

लाखों अपव्यय हैं तुम्हारे एक तो सद्व्यय करो,

चाहो न जो तुम कीर्ति तो अपकीर्ति का तो भय करो।

क्या मातृभूमि वृथा तुम्हारी विश्व में जननी बनी ?

देते करोड़ों देश-हित हैं अन्य देशों के धनी ॥१०४॥

हम पुत्र तीस करोड़ जिसके देश वह दुःखी रहे;

अनुचित नहीं है फिर कहीं कोई हमें जो पशु कहे ।

हे भाइयो ! है दीन देखो, मातृ-भू माता मही,

जो बन पड़े जिससे यहाँ है इस समय थोड़ा वही ॥१०५॥

 शिक्षा

सब से प्रथम कर्तव्य है शिक्षा बढ़ाना देश में,

शिक्षा बिना ही पड़ रहे हैं आज हम सब क्लेश में ।

शिक्षा बिनाकोई कभी बनता नहीं सत्पात्र है,

शिक्षा विना कल्याण की आशा दुराशा मात्र है ॥१०६॥

जब तक अविद्या का अँधेरा हम मिटावेंगे नहीं,

जब तक समुज्ज्वल ज्ञान का आलोक पावेंगे नहीं।

तब तक भटकना व्यर्थ है सुखसिद्धि के सन्धान में,

पाये बिना पथ पहुँच सकता कौन इष्ट स्थान में ? ॥१०७॥

वे देश जो हैं आज उन्नत और सब संसार से-

चौंका रहे हैं नित्य सबको नव नवाविष्कार से।

बस ज्ञान के सञ्चार से ही बढ़ सके हैं वे वहाँ,

विज्ञान-बल से ही गगन में चढ़ सके हैं वे वहाँ ॥१०८॥

विद्या मधुर सहकार करती सर्वथा कटु निम्ब को,

विद्या ग्रहण करती कलों से शब्द को, प्रतिविम्ब को !

विद्या जड़ों में भी सहज ही डालती चैतन्य है,

हीरा बनाती कोयले को, धन्य विद्या धन्य है॥१०९॥

विद्या दिनों का पथ पलों में पार है करवा रही,

विद्या विविध वैचित्र्य के भाण्डार है भरवा रही।

गति सिद्धि उसकी हो चुकी आकाश में, पाताल में,

है वह मरों को भी जिलाना चाहती कुछ काल में ! ॥११०॥

पाया हमीं से था कभी जो बीज वर विज्ञान का,

उसको दिया है दूसरों ने रूप रम्योद्यान का।

हम किन्तु खो बैठे उसे भी जो हमारे पास था,

हा ! दूसरों की वृद्धि में ही क्या हमारा ह्रास था ! ॥१११॥

 राष्ट्रभाषा

है राष्ट्रभाषा भी अभी तक देश में कोई नहीं,

हम निज विचार जना सकें जिससे परस्पर सब कहीं।

इस योग्य हिन्दी है तदपि अब तक न निज पद पा सकी,

भाषा बिना भावैकता अब तक न हममें आ सकी? ॥११२॥

यों तो स्वभाषा-सिद्धि के सब प्रान्त हैं साधक यहाँ,

पर एक उर्दूदाँ अधिकतर बन रहे बाधक यहाँ।

भगवान् जाने देश में कब आयगी अब एकता,

हठ छोड़ दो हे भाइयो ! अच्छी नहीं अविवेकता ॥११३॥

 स्त्रीशिक्षा

विद्या हमारी भी न तब तक काम में कुछ आयगी-

अर्धांगियों को भी सु-शिक्षा दी न जब तक जायगी।

सर्वांग के बदले हुई यदि व्याधि पक्षाघात की-

तो भी न क्या दुर्बल तथा व्याकुल रहेगा वातकी? ॥११४॥

 समय की अनुकूलता

सुख-शान्ति मय सरकार का शासन समय है अब यहाँ,

सुविधा समुन्नति के लिए है प्राप्त हमको सब यहाँ।

अब भी न यदि कुछ कर सके हम तो हमारी भूल है,

अनुकूल अवसर की उपेक्षा हूलती फिर शूल है ॥११५॥

है ब्रिटिश शासन की कृपा ही यह कि हम कुछ जग गये,

स्वाधीन हैं हम धर्म में, सब भय हमारे भग गये।

निज रूप को फिर हम सभी कुछ कुछ लगे हैं जानने-

निज देश भारतवर्ष को फिर हम लगे हैं मानने ॥११६॥

 आशा

बीती नहीं यद्यपि अभी तक है निराशा की निशा-

है किन्तु आशा भी कि होगी दीप्त फिर प्राची दिशा।

महिमा तुम्हारी ही जगत् में धन्य आशे ! धन्य है,

देखा नहीं कोई कहीं अवलम्ब तुम-सा अन्य है ॥११७॥

आशे, तुम्हारे ही भरोसे जी रहे हैं हम सभी,

सब कुछ गया पर हाय रे ! तुमको न छोड़ेंगे कभी।

आशे, तुम्हारे ही सहारे टिक रही है यह मही,

धोखा न दीजो अन्त में, बिनती हमारी है यही ॥११८॥

यद्यपि सफलता की अभी तक सरसता चक्खी नहीं,

हम किन्तु जान रहे कि वह श्रम के बिना रक्खी नहीं।

यद्यपि भयंकर भाव से छाई हुई है दीनता-

कुछ कुछ समझने हम लगे हैं किन्तु अपनी हीनता ॥११९॥

यद्यपि अभी तक स्वार्थ का साम्राज्य हम पर है बना-

पर दीखते हैं साहसी भी और कुछ उन्नतमना।

बन कर स्वयंसेवक सभी के जो उचित हित कर रहे,

होकर निछावर देश पर जो जाति पर हैं मर रहे ॥१२०॥

फैला निरुद्यम सब कहीं, हैं किन्तु ऐसे भी अभी-

जिनका उपार्जन भोगते हैं देशवासी जन सभी।

यद्यपि अधिक जन भाग्य को ही कोसते हैं क्लेश में-

उच्चाभिलाषी वीर भी हैं किन्तु कुछ कुछ देश में ॥१२१॥

है हीन शिक्षा की दशा, पर दृष्टि उस पर भी गई;

फैला रहा है धूम हिन्दू-विश्वविद्यालय नई।

श्री मालवीय-समान नेता, भूप मिथिलेश्वर यथा,

देशार्थ भिक्षुक बन रहे हैं, धन्य हैं वे सर्वथा ॥१२२॥

 आदर्श

यद्यपि कृपण कि अपव्ययी ही हैं धनी मानी यहाँ,

सत्कार्य में सर्वस्व के भी किन्तु हैं दानी यहाँ।

देशी नरेशों की दशा यद्यपि अभी बदली नहीं,

पर सर सयाजीराव-सम आदर्श नृप भी हैं यहीं ॥१२३॥

यद्यपि समय के फेर ने वे दिव्य गुण छोड़े नहीं,

हैं किन्तु अब भी देश में आदर्श कुछ थोड़े नहीं।

यदि जन्म लेते थे महात्मा भीष्म-तुल्य कभी यहाँ,

तो जन्मते हैं कुछ दृढ़व्रत लोकमान्य अभी यहाँ ॥१२४॥

श्री राममोहनराय, स्वामी दयानन्द सरस्वती,

उत्पन्न करती है अभी यह मेदिनी ऐसे व्रती !

साफल्य पूर्वक हैं जिन्होंने स्वमत-संस्थाएँ रची,

है धूम सारे देश में जिनके विचारों से मची ॥१२५॥

श्रीरामकृष्णोपम महात्मा, रामतीर्थोपम यती,

ऐसे जनों से आज भी यह भूमि बनती वसुमती।

द्विजवर्य ईश्वरचन्द्र-सम होते दयासागर यहीं,

देवेन्द्रनाथ-समान ऋषि अन्यत्र मिल सकते नहीं ॥१२६॥

राजेन्द्रलाल समान विद्वद्रत्न होते हैं यहाँ,

जगदीश और प्रफुल्ल-सम विज्ञानवेत्ता हैं कहाँ ?

प्राचीन विषयज्ञान में भाण्डारकर से ज्ञात हैं,

गणितज्ञ बापूदेव, बार्हस्पत्य सम विख्यात हैं ॥१२७॥

नीतिज्ञ दिनकर और माधवराव-सम सम्मान्य हैं,

कानून के विद्वान् डाक्टर घोष-तुल्य वदान्य हैं।

श्री गोखले, गाँधी-सदृश नेता महा मतिमान हैं,

वक्ता विजय-घोषक हमारे श्री सुरेन्द्र-समान हैं ॥१२८॥

निज शक्ति भारत-भूमि ने अब भी सभी खोई नहीं,

सत्कवि रवीन्द्र-समान अब भी विश्व में कोई नहीं।

अवनीन्द्र, रविवर्म्मा-सदृश हैं चित्रकार होते यहीं,

प्रख्यात हैं श्री म्हातरे-सम मूर्तिकार सभी कहीं ॥१२९॥

गायक पलुसकर, सत्यबाला-तुल्य होते हैं अभी,

वादन-कला पर मूढ़ पशु भी भूलते सुध-बुध सभी।

खरशस्त्र-धारों पर यहाँ होता अभी तक नृत्य है,

करता विमुग्ध विदेशियों को ललित कौशल कृत्य है ॥१३०॥

दिन दिन नये आदर्श बहु विध हीनता को हर रहे,

हैं माइसोर-समान देशी राज्य उन्नति कर रहे।

सब प्रान्त मिलकर प्रेमपूर्वक योग देते हैं जहाँ,

हैं बन रही देशोपकारक सभ्य-संस्थाएँ यहाँ ॥१३१॥

प्राचीन और नवीन अपनी सब दशा आलोच्य है,

अब भी हमारी अस्ति है यद्यपि अवस्था शोच्य है ।

कर्तव्य करना चाहिए, होगी  न क्या प्रभु की दया,

सुख-दुःख कुछ हो, एक-सा ही सब समय किसका गया?॥१३२॥

 विश्वास

सौ सौं निराशाएँ रहें, विश्वास यह दृढ़ मूल है–

इस आत्म-लीला-भूमि को वह विभु न सकता भूल है ।

अनुकूल अवसर पर दयामय फिर दया दिखलायेंगे,

वे दिन यहाँ फिर आयेंगे, फिर आयेंगे, फिर आयेंगे ॥१३३॥

 विश्राम

री लेखनी ! बस बहुत है, अब और बढ़ना व्यर्थ है,

है यह अनन्त कथा तथा तू सर्वथाअसमर्थ है ?

करती हुई शुभकामना निज वेग सविनय थाम ले,

कहती हुई “जय जानकीजीवन” तनिक विश्राम ले ॥१३४॥

 शुभकामना

सबकी नसों में पूर्वजों का पुण्य रक्तप्रवाह हो,

गुण, शील, साहस, बल तथा सबमें भरा उत्साह हो ।

सबके हृदय में सदा समवेदना का दाह हो,

हमको तुम्हारी चाह हो, तुमको हमारी चाह हो ॥१३५॥

विद्या, कला, कौशल्य में सबका अटल अनुराग हो,

उद्योग का उन्माद हो, आलस्य-अघ का त्याग हो ।

सुख और दुख में एक-सा सब भाइयों का भाग हो,

अन्तःकरण में गूंजता राष्ट्रीयता का राग हो ॥ १३६ ॥

कठिनाइयों के मध्य अध्यवसाय का उन्मेष हो,

जीवन सरल हो, तन सबल हो, मन विमल सविशेष हो।

छूटे कदापि न सत्य-पथ निज देश हो कि विदेश हो,

अखिलेश का आदेश हो जो बस वही उद्देश हो॥१३७॥

आत्मावलम्बन ही हमारी मनुजता का मर्म हो,

षड् रिपुसमर के हित सतत चारित्र्यरूपी वर्म्म हो।

भीतर अलौकिक भाव हो, बाहर जगत का कर्म्म हो,

प्रभु-भक्ति, पर-हित और निश्छल नीति ही ध्रुव धर्म्म हो॥१३८॥

उपलक्ष के पीछे कभी विगलत न जीवन-लक्ष हो,

जब तक रहें  ये प्राण तन में पुण्य का ही पक्ष हो।

कर्तव्य एक न एक पावन नित्य नेत्र-समक्ष हो,

सम्पत्ति और विपत्ति में विचलित कदापि न वक्ष हो॥१३९॥

उस वेद के उपदेश का सर्वत्र ही प्रस्ताव हो,

सौहार्द और मतैक्य हो, अविरुद्ध मन का भाव हो।

सब इष्ट फल पावें परस्पर प्रेम रखकर सर्वथा,

निज यज्ञ-भाग समानता से देव लेते हैं यथा॥१४०॥

तथास्तु

 विनय

( सोहनी )

इस देश को हे दीनबन्धो  ! आप फिर अपनाइए,

भगवान् ! भारतवर्ष को फिर पुण्य-भूमि बनाइए।

जड़-तुल्य जीवन आज इसका विघ्न-बाधा-पूर्ण है,

हे रम्ब ! अब अवलम्ब देकर विघ्नहर कहलाइए ॥

हम मूक किंवा मूढ़ हों, रहते हुए तुझ शक्ति के !

माँ ब्राह्मि, कह दे ब्रह्म से सुख-शान्ति फिर सरसाइए ।

सर्वत्र बाहर और भीतर रिक्त भारत हो चुका,

फिर भाग्य इसका हे विधाता ! पूर्व-सा पलटाइए।

तू अन्नपूर्णा माँ ! रमा है और हम भूखों मरें  !

कह दे जनार्दन से जगाकर दैन्य-दुःख मिटाइए ।

यह सृष्टि-गौरव-गज-ग्रसित है ग्रह-इशा के ग्राह से,

हे भक्तवत्सल ! शुभ सुदर्शन चक्र आप चलाइए॥

माँ शङ्करी ! सन्तान तेरी हाय ! यों निरुपाय हो,

श्रीकण्ठ से कह दे कि हे हर, अब न और सताइए।

शून्य श्मशान-समान भारत हाय ? कब से हो चुका,

आकर कराल विपत्ति-विष से व्योमकेश, बचाइए ॥

सम्पूर्ण गुण-गौरव-रहित हम पतित अवनत हो चुके,

अब छोड़ निर्गुणता विभो, सत्वर सगुण बन जाइए।

सीतापते ! सीतापते ! ! यह पाप-भार निहारिए, ।

अवतीर्ण होकर धर्म का निज राज्य फिर फैलाइए ॥

गोपाल ! अब वह चैन की वंशी बजेगी कब यहाँ ?

आलस्य से अभिभूत हमको कर्मयोग सिखाइए ।

जिस वसुमती पर आपने बहु ललित लीलाएँ रचीं  ,

करुणानिधे ! इस काल उसको आप यों न भुलाइए॥

पशु-तुल्य परवशता मिटे प्रकटे यथार्थ मनुष्यता,

इस कूपमण्डूकत्व से परमेश, पिण्ड-छुड़ाइए।

जीवन गहन वन-सा हुआ है, भटकते हैं हम जहाँ,

प्रभुवर ! सदय होकर हमें सन्मार्ग पर पहुँचाइए॥

वह पूर्व की सम्पन्नता, यह वर्तमान विपन्नता,

अब तो प्रसन्न भविष्य की आशा यहाँ उपजाइए ।

वर मन्त्र जिसका मुक्ति था, परतन्त्र, पीड़ित है वही,

फिर वह परम पुरुषार्थ इसमें शीघ्र ही प्रकटाइए॥

यह पाप-पूर्ण परावलम्बन चूर्ण होकर दूर हो,

फिर स्वावलम्बन का हमें प्रिय पुण्य पाठ पढ़ाइए ।

“व्याकुल न हो, कुछ भय नहीं, तुम सब अमृत-सन्तान हो ।”

यह वेद की वाणी हमें फिर एक वार सुनाइए॥

यह आर्य-भूमि सचेत हो, फिर कार्य-भूमि बने अहा !

वह प्रीति-नीति बढ़े परस्पर, भीति-भाव भगाइए ।

किसके शरण होकर रहें ? अब तुम विना गति कौन है ?

हे देव वह अपनी दया फिर एक बार दिखाइए॥

शुभम्

 

लेखक

  • मैथिलीशरण गुप्त का जन्म चिरगाँव झाँसी जिला स्थित चिरगाँव नामक गांव में 3 अगस्त, सन् 1886 ई0 में हुआ था| इनके पिता का नाम प्रेम गुप्ता तथा माता का नाम काशीबाई गुप्ता था| काव्य-रचना की ओर छोटी अवस्था से ही इनका झुकाव था| आचार्य महावीर प्रसाद द्विवेदी की प्रेरणा से इन्होंने हिन्दी काव्य की नवीन धारा को पुष्ट कर उसमें अपना विशेष स्थान बना लिए थे| इनकी कविताओ में देश भक्ति एवं राष्ट्र प्रेम की प्रमुख विशेषता होने के कारण इन्हें हिंदी-साहित्य ने ‘राष्ट्रकवि’ का सम्मान दिया| राष्ट्रपति ने इन्हें संसद् सदस्य मनोनीत किया| इस महान कवि की मृत्यु 12 दिसम्बर, सन् 1964 ई० मे हो गई| मैथिलीशरण गुप्त का साहित्यिक परिचय​ search मैथिलीशरण गुप्त की रचना-संग्रह विशाल है| इनकी विशेष ख्याति रामचरित पर आधारित महाकाव्य ‘साकेत’ के कारण प्राप्त हुई है| ‘जयद्रथ वध’, ‘द्वापर’, ‘अनघ’, ‘पंचवटी’, ‘सिद्धराज’, ‘भारत-भारती’, ‘यशोधरा’ आदि गुप्तजी की अनेक प्रसिद्ध काव्य कृतियाँ हैं| ‘यशोधरा’ एक चम्पूकाव्य कृति है| जिसमें गुप्त जी ने महान महात्मा बद्ध के चरित्र का वर्णन किया है| मैथिलीशरण गुप्त जी का पहला काव्य-संग्रह ‘भारत-भारती’ था, जिसमें भारत की दुर्दशा एवं भ्रष्टाचार का वर्णन हुआ है| माइकेल मधुसूदन की वीरांगना, मेघनाद-वध, विरहिणी ब्रजांगना, और नवीन चन्द्र के पलाशीर युद्ध का इन्होंने विस्तृत अनुवाद किये हैं| देश कालानुसार बदलती भावनाओं तथा विचारों को भी अपनी रचना में स्थान देने की इनमें क्षमता है| छायावाद के आगमन के साथ गुप्तजी की कविता में भी लाक्षणिक वैचित्र्य और मनोभावों की सूक्ष्मता की मार्मिकता आयी| गीति काव्य की ओर मैथिलीशरण गुप्त का झुकाव रहा है| प्रबन्ध के भीतर ही गीति-काव्य का समावेश करके गुप्तजी ने भाव-सौन्दर्य के मार्मिक स्थलों से परिपूर्ण ‘यशोधरा’ और ‘साकेत’ जैसे उत्कृष्ट काव्य-कृतियों का सृजन किया| गुप्तजी के काव्य की यह प्रमुख विशेषता रही है कि गीति काव्य के तत्त्वों को अपनाने के कारण उसमें सरसता आयी है, पर प्रबन्ध की धारा की भी उपेक्षा नहीं हुई| गुप्तजी के कवित्व के विकास के साथ इनकी भाषा का बहुत परिमार्जन हुआ। उसमें धीरे-धीरे लाक्षणिकता, संगीत और लय के तत्त्वों का प्राधान्य हो गया| देश-प्रेम गुप्त जी की कविता का प्रमुख स्वर है| ‘भारत-भारती’ में प्राचीन भारत के संस्कृति का प्रेरणादायक चित्रण किया है| इस रचना में व्यक्त देश-प्रेम ही इनकी परवर्ती रचनाओं में देश-प्रेम और नवीन राष्ट्रीय भावनाओं में परिपूर्ण हो गया| इनकी कविता में वर्तमान की समस्याओं और विचारों के स्पष्ट दर्शन होते हैं| गाँधीवाद तथा कहीं-कहीं आर्य समाज का प्रभाव भी उन पर पड़ा है| अपने काव्यों की कथावस्तु गुप्तजी ने वर्तमान जीवन से न लेकर प्राचीन इतिहास अथवा पुराणों से ली है| ये अतीत की गौरव-गाथाओं को वर्तमान जीवन के लिए मानवतावादी एवं नैतिक प्रेरणा देने के उद्देश्य से ही अपनाते हैं| मैथिलीशरण गुप्त की चरित्र कल्पना में कहीं भी अलौकिकता शक्तियों के लिए स्थान नहीं है| इनके सारे चरित्र मानव ही होते हैं, उनमें देवता और राक्षस नहीं होते हैं| इनके राम, कृष्ण, गौतम आदि सभी प्राचीन और चिरकाल से हमारे महान पुरुष पात्र हैं, इसीलिए वे जीवन प्रेरणा और स्फूर्ति प्रदान करते हैं। ‘साकेत’ के राम ‘ईश्वर’ होते हुए भी तुलसी की भाँति ‘आराध्य’ नहीं, हमारे ही बीच के एक व्यक्ति हैं| राष्ट्रकवि मैथिलीशरण गुप्त आधुनिक हिन्दी के सर्वाधिक लोकप्रिय थे| खड़ी बोली को काव्य के साँचे में ढालकर परिष्कृत करने का कौशल इन्होंने दिखाया, वह विचारणीय योग्य है| इन्होंने देश प्रेम की एकता को जगाया और उसकी चेतना को वाणी दी है। ये भारतीय संस्कृति के महान एवं परम वैष्णव होते हुए भी विश्व-एकता की भावना से ओत-प्रोत थे| हिंदी साहित्य में यह सच्चे मायने में इस देश के सच्चे राष्ट्रकवि थे।

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भारत-भारती/मैथिलीशरण गुप्त

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