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वानप्रस्थ/डॉ. शिप्रा मिश्रा

चले गए
सब चले गए
जाने दो चले गए
अच्छा हुआ चले गए
क्या करना जो चले गए

अब मैं आराम से खाऊँगी
अपने हिस्से की रोटी
पहले तो एक ही रोटी के
हुआ करते थे कई-कई टुकड़े

जाने दो चले गए
बहुत अच्छा है चले गए

उनके पोतड़े धोते- धोते
घिस गईं थीं मेरी ऊँगलियाँ
अब तो इन ऊँगलियों पर
जी भर के करूँगी नाज

चले गए तो चले गए

पूरे बिस्तर पर सोऊंँगी अकेली
अब गीले- सूखे का झंझट न होगा
आराम से पसर कर बदलूँगी
सारी रात सुकून चैन की करवटें

जाने दो जो चले गए

बनाऊँगी ढेर सारी पकौड़ियाँ
और रोज एक नया पकवान
जो खा न पाए थे अब तक
बचते ही न थे थोड़े से भी

चले गए जाने दो

और हाँ..सिला लेंगे एक सुन्दर सी
मखमली जाकिट फूलों वाली
और पैरों के पाजेब भी
छमकती रहेंगे घुंघरू मेरे पाँव में

चले गए जाने दो चले गए

कह देना कभी लौट आएँ तो
इसी चौखट पर काटना है उन्हें भी
अपने हिस्से का वानप्रस्थ
जहाँ वे छोड़ गए हैं अपनी बूढ़ी माँ को

चले गए जाने दो चले गए

इसी चौखट पर नरकंकाल बन
अगोरती रहूँगी अपने पड़पोतों को
मेरी आँखों को तृप्त करने कभी तो आएँगे
उस दिन मेरी एक नहीं कई आँखे होंगी

चले गए तो चले गए

नहीं मिलेंगी तब उनके हिस्से की लकड़ियाँ
ना उन्हें वन मिलेंगे जिसे छोड़ गए
सूखने, मुरझाने, जलने, मरने के लिए
मिलेंगे केवल आच्छादित बरगद की शाखाएँ

चले गए जाने दो चले गए

लेखक

  • डॉ. शिप्रा मिश्रा शिक्षण एवं स्वतंत्र लेखन माता- पिता- डॉ सुशीला ओझा एवं डॉ बलराम मिश्रा राष्ट्रीय एवं अंतर्राष्ट्रीय लगभग 150 से अधिक पत्र- पत्रिकाओं में हिन्दी और भोजपुरी की लगभग 700 से अधिक रचनाओं का निरंतर प्रकाशन लगभग 100 से अधिक गोष्ठियों में शामिल , 3 पुस्तकें प्रकाशित एवं 4 प्रकाशन के क्रम में, साहित्यिक एवं सामाजिक संस्थाओं द्वारा 100 से अधिक सम्मान प्राप्त

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