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Month: सितम्बर 2023

योजनाएं क्यों बनीं/डॉ. राकेश जोशी

                  आपने गिरवी रखे जो खेत वो बंजर तो दें और फ़सलों का हमें इक ख़्वाब ही सुंदर तो दें ऑनलाइन ज़िंदगी है हर किसी की आजकल ऑनलाइन ही सही पर बेघरों को घर तो दें ख़ूब चिड़ियों को डराएं, ख़ूब फेंकें जाल भी  पर, उन्हें भी […]

छुपाते हम कहाँ पर आँसुओं को/डॉ. राकेश जोशी

तेरी दावत में गर खाना नहीं था तुझे तंबू भी लगवाना नहीं था मेरा कुरता पुराना हो गया है मुझे महफ़िल में यूं आना नहीं था इमारत में लगा लेता उसे मैं मुझे पत्थर से टकराना नहीं था ये मेरा था सफ़र, मैंने चुना था मुझे काँटों से घबराना नहीं था समझ लेता मैं ख़ुद […]

हमारे गाँव सुंदर कब बनेंगे/डॉ. राकेश जोशी

इन ग़रीबों के लिए घर कब बनेंगे तोड़ दें शीशे, वो पत्थर कब बनेंगे कब बनेंगे ख़्वाब जो सच हो सकें और चिड़ियों के लिए पर कब बनेंगे लो, बन गए सुंदर हमारे शहर सब पर, हमारे गाँव सुंदर कब बनेंगे शर्म से झुकते हुए सर हैं हज़ारों गर्व से उठते हुए सर कब बनेंगे […]

अपने घर के दरवाज़े की तख़्ती पर/डॉ. राकेश जोशी

दीवारों से कान लगाकर बैठे हो पहरे पर दरबान लगाकर बैठे हो इससे ज़्यादा क्या बेचोगे दुनिया को सारा तो सामान लगाकर बैठे हो दुःख में डूबी आवाज़ें न सुन पाए ऐसा भी क्या ध्यान लगाकर बैठे हो बेच रहा हूँ मैं तो अपने कुछ सपने तुम तो संविधान लगाकर बैठे हो हमने तो गिन […]

क़लम का कारख़ाना क्यों/डॉ. राकेश जोशी

अगर लिखना मना है तो क़लम का कारख़ाना क्यों अगर पढ़ना मना है तो यहाँ काग़ज़ बनाना क्यों इसी दुनिया में बेहतर इक नई दुनिया बसाने को यहाँ तक आ गए हैं तो यहाँ से लौट जाना क्यों वहाँ लेकर ही क्यों आया जहाँ फिसलन ही फिसलन है ये जनता है, नहीं समझी, तू राजा […]

कम हो गया है/देवेंद्र जेठवानी

दफ़्तर वाला काम मेरे पास, आजकल कम हो गया है, मेरा यश, मेरा नाम, आजकल कम हो गया है, मेरी जेब में रूपया-पैसा, आजकल कम हो गया है, यार, दोस्तों से बोलचाल, आजकल कम हो गया है, विजेताओं में मेरा नाम, आजकल कम हो गया है, मिलने वाला मान-सम्मान, आजकल कम हो गया है, मेरी […]

है वो फूल जैसी कोमल/देवेंद्र जेठवानी

है वो फूल जैसी कोमल, बेहद ख़ूबसूरत और महकदाऱ, कि, हम तो सोच भी नहीं सकते, कि यहाँ तो हजारों कतार में हैं, हम जैसे हैं कई, जो हैं उनकी क़ातिल अदाओं से घायल, लेकिन फ़िर भी उनके दीदार-ए-हुस्न के इंतज़ार में हैं, इक अरसे से लगे हैं जितने भी, हैं वो पूरी शिद्दत लिये […]

चिंगारी बन गई है आग/देवेंद्र जेठवानी

चिंगारी बन गई है आग, फ़िर भी कहीं कोई धुँआ ही नहीं है, लगी है ये आग कैसी कि, उठा कहीं कोई धुँआ ही नहीं है, जलकर खाक हो गई मिल्क़ियत सारी, बचा कुछ भी नहीं, फ़िर भी कुछ रायचंदों की मानें तो ख़ास कुछ हुआ ही नहीं है पानी की प्यास बुझाने को तो, […]

मेरी माँ/देवेंद्र जेठवानी

वो लगाकर मुझको गले, मेरी सारी नज़र उतार देती थी, दुनिया के बाकी सारे रिश्ते थे मतलबी, माँ बस इक तू ही तो निस्वार्थ प्यार देती थी, वो चूमकर मेरा माथा, मेरी सोई हुई किस्मत सुधार देती थी, वो दुनिया भर की असीम खुशियाँ, मुझपर वार देती थी, जब भी कभी मायूस होता था कभी, […]

हिसाब से/जेवेंद्र जेठवानी

आज का ज़माना तो बदल ही रहा है, अपने हिसाब से, लेकिन लोगों के भाव बदल रहे हैं, वक़्त के हिसाब से, दोस्त, नातेदार, भाई, सब के सब रिश्ते हैं बस नाम के, अबके जो बनायें रिश्ते, बहुत सोच समझकर हिसाब से, आजकल के लोग अगर किसी से बात भी करते हैं तो, वो भी […]

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