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Month: सितम्बर 2023

सुभागी/मुंशी प्रेमचंद

1 और लोगों के यहाँ चाहे जो होता हो, तुलसी महतो अपनी लड़की सुभागी को लड़के रामू से जौ-भर भी कम प्यार न करते थे। रामू जवान होकर भी काठ का उल्लू था। सुभागी ग्यारह साल की बालिका होकर भी घर के काम में इतनी चतुर, और खेती-बारी के काम में इतनी निपुण थी कि […]

दो बैलों की कथा/मुंशी प्रेमचंद

जानवरों में गधा सबसे ज्यादा बुद्धिमान समझा जाता है। हम जब किसी आदमी को पहले दर्जे का बेवकूफ कहना चाहते हैं, तो उसे गधा कहते हैं। गधा सचमुच बेवकूफ है या उसके सीधेपन, उसकी निरापद सहिष्णुता ने उसे यह पदवी दे दी है, इसका निश्चय नहीं किया जा सकता। गायें सींग मारती हैं, ब्याही हुई […]

नादान दोस्त/मुंशी प्रेमचंद

केशव के घर में कार्निस के ऊपर एक चिड़िया ने अण्डे दिए थे। केशव और उसकी बहन श्यामा दोनों बड़े ध्यान से चिड़ियों को वहां आते-जाते देखा करते । सवेरे दोनों आंखे मलते कार्निस के सामने पहुँच जाते और चिड़ा या चिड़िया दोनों को वहां बैठा पातें। उनको देखने में दोनों बच्चों को न मालूम […]

नमक का दारोगा/मुंशी प्रेमचंद

जब नमक का नया विभाग बना और ईश्वरप्रदत्त वस्तु के व्यवहार करने का निषेध हो गया तो लोग चोरी-छिपे इसका व्यापार करने लगे। अनेक प्रकार के छल-प्रपंचों का सूत्रपात हुआ, कोई घूस से काम निकालता था, कोई चालाकी से। अधिकारियों के पौ-बारह थे। पटवारीगिरी का सर्वसम्मानित पद छोड-छोडकर लोग इस विभाग की बरकंदाजी करते थे। […]

दुनिया का सबसे अनमोल रतन/मुंशी प्रेमचंद

दिलफिगार एक कँटीले पेड़ के नीचे दामन चाक किये बैठा हुआ खून के आँसू बहा रहा था। वह सौन्दर्य की देवी यानी मलका दिलफरेब का सच्चा और जान-देनेवाला प्रेमी था। उन प्रेमियों में वही जो इत्र-फुलेल में बसकर और शानदार कपड़ों से सजकर आशिक के वेग में माशूकियत का दम भरते हैं। बल्कि उन सीधे-सादे […]

कितना लगान बाक़ी है/डॉ. राकेश जोशी  

मंज़िलों का निशान बाक़ी है और इक इम्तहान बाक़ी है एक पूरा जहान पाया है एक पूरा जहान बाक़ी है आसमां, तुम रहो ज़रा बचकर अब भी उसकी उड़ान बाक़ी है तन तो सारा निचोड़ आया हूँ मन की सारी थकान बाक़ी है खेत बंजर कभी नहीं होगा एक भी गर किसान बाक़ी है खंडहर […]

हो शहर में कोई एक ऐसी नदी/डॉ. राकेश जोशी  

आदमी के लिए ज़िंदगानी तो लिख धूप कोई कभी आसमानी तो लिख छुट्टियों में भला, जाएं बच्चे कहाँ हर किसी के लिए एक नानी तो लिख हो शहर में कोई एक ऐसी नदी जिससे सबको मिले थोड़ा पानी तो लिख आज फिर बैठकर कोई कविता सुना और जनता हुई है सयानी तो लिख ये ज़मीं, […]

कुछ बुझे चूल्हे बताते रह गए/डॉ. राकेश जोशी  

या मकानों का सफ़र अच्छा रहा या ख़ज़ानों का सफ़र अच्छा रहा जो ज़बां लेकर चले थे, मिट गए बे-ज़बानों का सफ़र अच्छा रहा भूख के किस्से ग़रीबों ने सुने दास्तानों का सफ़र अच्छा रहा झुग्गियों में पल रही है सभ्यता आसमानों का सफ़र अच्छा रहा कुछ बुझे चूल्हे बताते रह गए कारख़ानों का सफ़र […]

जिस क़दर लोगों की थीं मजबूरियां कुछ/डॉ. राकेश जोशी  

कल ज़मीं पर आज-से दंगल नहीं थे आज जो भी हैं सफ़र में, कल नहीं थे देखकर ये खुश हुआ मन, क्यारियों में ढेर-सारी सब्ज़ियाँ थीं, फल नहीं थे आज बस्ती में कहीं पानी नहीं है कल तो पानी था मगर कल नल नहीं थे थी सड़क चौड़ी बहुत, पर रास्ते में वो पुराने पेड़, […]

खेतों में हल लेकर निकलो/डॉ. राकेश जोशी  

ख़ंजर को ख़ंजर कहना है ऐसा अब अक्सर कहना है सहमे-सहमे, डरे हुए हो डर को भी अब डर कहना है शीशों के इस शहर में आकर पत्थर को पत्थर कहना है खेतों में हल लेकर निकलो बंजर को बंजर कहना है जंगल में तुम सबको जाकर बंदर को बंदर कहना है सर्दी के ही […]

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