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राजा-रत्न-सेन-वैकुंठवास-खंड-56 पद्मावत/जायसी

तौ लही साँस पेट महँ अही । जौ लहि दसा जीउ कै रही ॥
काल आइ देखराई साँटी । उठी जिउ चला छोड़िं कै माटी ॥
काकर लोग, कुटुँब, घर बारू । काकर अरथ दरब संसारू ॥
ओही घरी सब भएउ परावा । आपन सोइ जो परसा, खावा ॥
अहे जे हितू साथ के नेगी । सबै लाग काढै तेहि बेगी ॥
हाथ झारि जस चलै जुवारी । तजा राज, होइ चला भिखारी ॥
जब हुत जीउ, रतन सब कहा । भा बिनु जीउ, न कौडी लहा ॥

गढ़ सौंपा बादल कहँ गए टिकठि बसि देव ।
छोड़ी राम अजोध्या, जो भावै सो लेव ॥1॥

(साँटी=छड़ी, आपन सोइ…खावा=अपना वही हुआ जो खाया
और दूसरे को खिलाया, नेगी=पानेवाले, हुत=था, टिकठि=टिकठी,
अरथी जिसपर मुरदा ले जाते हैं, देव=राजा, जो भावै सो लेव=
जो चाहे सो ले)

लेखक

  • मलिक मुहम्मद जायसी हिन्दी साहित्य के भक्ति काल की निर्गुण प्रेमाश्रयी धारा के कवि हैं । वे अत्यंत उच्चकोटि के सरल और उदार सूफ़ी महात्मा थे। उनका जन्म सन १५०० के आसपास माना जाता है। वे उत्तर प्रदेश के जायस नामक स्थान के रहनेवाले थे। उनके नाम में जायसी शब्द का प्रयोग, उनके उपनाम की भांति, किया जाता है। उनके पिता का नाम मलिक राजे अशरफ़ बताया जाता है और वे मामूली ज़मींदार थे और खेती करते थे। स्वयं जायसी का भी खेती करके जीविका-निर्वाह करना प्रसिद्ध है। सैयद अशरफ़ उनके गुरु थे और अमेठी नरेश उनके संरक्षक थे। उनकी २१ रचनाओं के उल्लेख मिलते हैं जिसमें पद्मावत, अखरावट, आख़िरी कलाम, कहरनामा, चित्ररेखा आदि प्रमुख हैं। पर उनकी ख्याति का आधार पद्मावत ग्रंथ ही है। इसकी भाषा अवधी है और इसकी रचना-शैली पर आदिकाल के जैन कवियों की दोहा चौपाई पद्धति का प्रभाव पड़ा है।

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