राघव चेतन कीन्ह पयाना । दिल्ली नगर जाइ नियराना ॥
आइ साह के बार पहूँचा । देखा राज जगत पर ऊँचा ॥
छत्तिस लाख तुरुक असवारा । तीस सहस हस्ती दरबारा ॥
जहँ लगि तपै जगत पर भानू । तहँ लगि राज करै सुलतानू ॥
चहूँ खँड के राजा आवहिं । ठाढ़ झुराहिं, जोहार न पावहिं ॥
मन तेवान कै राघव झूरा । नाहिं उवार, जीउ-डर पूरा ॥
जहँ झुराहिं दीन्हें सिर छाता । तहँ हमार को चालै बाता? ॥
वार पार नहिं सूझै, लाखन उमर अमीर ।
अब खुर-खेह जाहुँ मिलि, आइ परेउँ एहि भीर ॥1॥
(बार=द्वार, ठाढ़ झुराहिं=खड़े खड़े सूखते हैं, जोहार=
सलाम, तेवान=चिंता, सोच, झूरा=व्याकुल होता है,
सूखता है, नाहिं उबार=यहाँ गुजर नहीं, दीन्हें सिर
छाता=छत्रपति राजा लोग, उमर=उमरा,सरदार,
खुर-खेह=घोड़ों की टापों से उठी धूल में)
बादशाह सब जाना बूझा । सरग पतार हिये महँ सूझा ॥
जौ राजा अस सजग न होई । काकर राज, कहाँ, कर कोई ॥
जगत-भार उन्ह एक सँभारा । तौ थिर रहै सकल संसारा ॥
औ अस ओहिक सिंघासन ऊँचा । सब काहू पर दिस्टि पहूँचा ॥
सब दिन राजकाज सुख-भोगी । रैनि फिरै घर घर होइ जोगी ॥
राव रंक जावत सब जाती । सब कै चाह लेइ दिन राती ॥
पंथी परदेसी जत आवहिं । सब कै चाह दूत पहुँचावहिं ॥
एहू वात तहँ पहुँची, सदा छत्र सुख-छाहँ!
बाम्हन एक बार है, कँकन जराऊ बाहँ ॥2॥
(सजग=होशियार, रैनि फिरै….जोगी को जोगी के
भेस में प्रजा की दशा देखने को घूमता है, चाह=खबर)
मया साह मन सुनत भिखारी । परदेसी को? पूछु हँकारी ॥
हम्ह पुनि जाना है परदेसा । कौन पंथ, गवनब केहि भेसा?॥
दिल्ली राज चिंत मन गाढ़ी । यह जग जैस दूध कै साढ़ी ॥
सैंति बिलोव कीन्ह बहु फेरा । मथि कै लीन्ह घीउ महि केरा ॥
एहि दहि लेइ का रहै ढिलाई । साढ़ी काढ़ु दही जब ताईं ॥
एहि दहि लेइ कित होइ होइ गए । कै कै गरब खेह मिलि गए ॥
रावन लंक जारि सब तापा । रहा न जोबन, आव बुढ़ापा ॥
भीख भिखारी दीजिए, का बाम्हन का भाँट ।
अज्ञा भइ हँकारहु, धरती धरै लिलाट ॥3॥
(मया साह मन=बादशाह के मन में दया हुई, सैति=
संचित करके, बिलोव कीन्ह=मथा, महि=पृथ्वी;मही,
मट्ठा, दहि लेइ=दिल्ली में;दही लेकर, खेह=धूल,मिट्टी)
राघव चेतन हुत जो निरासा । ततखन बेगि बोलावा पासा ॥
सीस नाइ कै दीन्ह असीसा । चमकत नग कंकन कर दीसा ॥
अज्ञा भइ पुनि राघव पाहाँ । तू मंगन, कंकन का बाहाँ?॥
राघव फेरि सीस भुइँ धरा । जुग जुग राज भानु कै करा ॥
पदमिनि सिंघलदीप क रानी । रतनसेन चितउरगढ़ आनी ॥
कँवल न सरि पूजै तेहि बासा । रूप न पूजै चंद अकासा ॥
जहाँ कँवल ससि सूर न पूजा । केहि सरि देउँ, और को दूजा? ॥
सोइ रानी संसार-मनि दछिना कंकन दीन्ह ।
अछरी-रूप देखाइ कै जीउ झरोखे लीन्ह ॥4॥
(हुत=था, संसार मनि=जगत में मणि के समान)
सुनि कै उतर साहि मन हँसा । जानहु बीजु चमकि परगसा ॥
काँच-जोग जेहि कंचन पावा । मंगन ताहि सुमेरु चढ़ावा ॥
नावँ भिखारि जीभ मुख बाँची । अबहुँ सँभारि बात कहु साँची ॥
कहँ अस नारि जगत उपराहीं । जेहि के सूरुज ससि नाहीं?॥
जो पदमिनि सो मंदिर मोरे । सातौ दीप जहाँ कर जोरे ॥
सात दीप महँ चुनि चुनि आनी । सो मोरे सोरह सै रानी ॥
जौ उन्ह कै देखसि एक दासी । देखि लोन होइ लोन बिलासी ॥
चहूँ खंड हौं चक्कवै, जस रबि तपै अकास ।
जौ पदमिनि तौ मोरे, अछरी तौ कबिलास ॥5॥
(जेहि कंचन पावा=जिससे सोना पाया, नावँ भिखारि…बाँची=
भिखारी के नाम पर अर्थात् भिखारी समझकर तेरे मुँह में
जीभ बची हुई है,खींच नहीं ली गई, लोन=लावण्य,सौंदर्य,
होइ लोन बिलासीं=तू नमक की तरह गल जाय, चक्कवै=
चक्रवर्ती)
तुम बड राज छत्रपति भारी । अनु बाम्हन मैं अहौं भिखारी ॥
चारउ खंड भीख कहँ बाजा । उदय अस्त तुम्ह ऐस न राजा ॥
धरमराज औ सत कलि माहाँ । झूठ जो कहै जीभ केहि पाहाँ?॥
किछु जो चारि सब किछु उपराहीं । ते एहि जंबू दीपहि नाहीं ॥
पदमिनि, अमृत, हंस, सदूरू । सिंघलदीप मिलहिं पै मूरू ॥
सातौं दीप देखि हौं आवा । तब राघव चेतन कहवावा ॥
अज्ञा होइ, न राखौं धोखा । कहौं सबै नारिन्ह गुन-दोषा ॥
इहाँ हस्तिनी, संखिनी औ चित्रिनि बहु बास ।
कहाँ पदमिनी पदुम सरि, भँवर फिरै जेहि पास?॥6॥
(अनु=और,फिर, भीख कहँ=भिक्षा के लिए, बाजा=पहुँचता है,
डटता है, उदय-अस्त=उदयाचल से अस्ताचल तक, किछि जो
चारि…उपराहीं=जो चार चीजें सबसे ऊपर हैं, मूरू=मूल,असल,
बहुबास=बहुत सी रहती हैं)