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 राघव-चेतन-दिल्ली-गमन-खंड-39 पद्मावत/जायसी

राघव चेतन कीन्ह पयाना । दिल्ली नगर जाइ नियराना ॥
आइ साह के बार पहूँचा । देखा राज जगत पर ऊँचा ॥
छत्तिस लाख तुरुक असवारा । तीस सहस हस्ती दरबारा ॥
जहँ लगि तपै जगत पर भानू । तहँ लगि राज करै सुलतानू ॥
चहूँ खँड के राजा आवहिं । ठाढ़ झुराहिं, जोहार न पावहिं ॥
मन तेवान कै राघव झूरा । नाहिं उवार, जीउ-डर पूरा ॥
जहँ झुराहिं दीन्हें सिर छाता । तहँ हमार को चालै बाता? ॥

वार पार नहिं सूझै, लाखन उमर अमीर ।
अब खुर-खेह जाहुँ मिलि, आइ परेउँ एहि भीर ॥1॥

(बार=द्वार, ठाढ़ झुराहिं=खड़े खड़े सूखते हैं, जोहार=
सलाम, तेवान=चिंता, सोच, झूरा=व्याकुल होता है,
सूखता है, नाहिं उबार=यहाँ गुजर नहीं, दीन्हें सिर
छाता=छत्रपति राजा लोग, उमर=उमरा,सरदार,
खुर-खेह=घोड़ों की टापों से उठी धूल में)

बादशाह सब जाना बूझा । सरग पतार हिये महँ सूझा ॥
जौ राजा अस सजग न होई । काकर राज, कहाँ, कर कोई ॥
जगत-भार उन्ह एक सँभारा । तौ थिर रहै सकल संसारा ॥
औ अस ओहिक सिंघासन ऊँचा । सब काहू पर दिस्टि पहूँचा ॥
सब दिन राजकाज सुख-भोगी । रैनि फिरै घर घर होइ जोगी ॥
राव रंक जावत सब जाती । सब कै चाह लेइ दिन राती ॥
पंथी परदेसी जत आवहिं । सब कै चाह दूत पहुँचावहिं ॥

एहू वात तहँ पहुँची, सदा छत्र सुख-छाहँ!
बाम्हन एक बार है, कँकन जराऊ बाहँ ॥2॥

(सजग=होशियार, रैनि फिरै….जोगी को जोगी के
भेस में प्रजा की दशा देखने को घूमता है, चाह=खबर)

मया साह मन सुनत भिखारी । परदेसी को? पूछु हँकारी ॥
हम्ह पुनि जाना है परदेसा । कौन पंथ, गवनब केहि भेसा?॥
दिल्ली राज चिंत मन गाढ़ी । यह जग जैस दूध कै साढ़ी ॥
सैंति बिलोव कीन्ह बहु फेरा । मथि कै लीन्ह घीउ महि केरा ॥
एहि दहि लेइ का रहै ढिलाई । साढ़ी काढ़ु दही जब ताईं ॥
एहि दहि लेइ कित होइ होइ गए । कै कै गरब खेह मिलि गए ॥
रावन लंक जारि सब तापा । रहा न जोबन, आव बुढ़ापा ॥

भीख भिखारी दीजिए, का बाम्हन का भाँट ।
अज्ञा भइ हँकारहु, धरती धरै लिलाट ॥3॥

(मया साह मन=बादशाह के मन में दया हुई, सैति=
संचित करके, बिलोव कीन्ह=मथा, महि=पृथ्वी;मही,
मट्ठा, दहि लेइ=दिल्ली में;दही लेकर, खेह=धूल,मिट्टी)

राघव चेतन हुत जो निरासा । ततखन बेगि बोलावा पासा ॥
सीस नाइ कै दीन्ह असीसा । चमकत नग कंकन कर दीसा ॥
अज्ञा भइ पुनि राघव पाहाँ । तू मंगन, कंकन का बाहाँ?॥
राघव फेरि सीस भुइँ धरा । जुग जुग राज भानु कै करा ॥
पदमिनि सिंघलदीप क रानी । रतनसेन चितउरगढ़ आनी ॥
कँवल न सरि पूजै तेहि बासा । रूप न पूजै चंद अकासा ॥
जहाँ कँवल ससि सूर न पूजा । केहि सरि देउँ, और को दूजा? ॥

सोइ रानी संसार-मनि दछिना कंकन दीन्ह ।
अछरी-रूप देखाइ कै जीउ झरोखे लीन्ह ॥4॥

(हुत=था, संसार मनि=जगत में मणि के समान)

सुनि कै उतर साहि मन हँसा । जानहु बीजु चमकि परगसा ॥
काँच-जोग जेहि कंचन पावा । मंगन ताहि सुमेरु चढ़ावा ॥
नावँ भिखारि जीभ मुख बाँची । अबहुँ सँभारि बात कहु साँची ॥
कहँ अस नारि जगत उपराहीं । जेहि के सूरुज ससि नाहीं?॥
जो पदमिनि सो मंदिर मोरे । सातौ दीप जहाँ कर जोरे ॥
सात दीप महँ चुनि चुनि आनी । सो मोरे सोरह सै रानी ॥
जौ उन्ह कै देखसि एक दासी । देखि लोन होइ लोन बिलासी ॥

चहूँ खंड हौं चक्कवै, जस रबि तपै अकास ।
जौ पदमिनि तौ मोरे, अछरी तौ कबिलास ॥5॥

(जेहि कंचन पावा=जिससे सोना पाया, नावँ भिखारि…बाँची=
भिखारी के नाम पर अर्थात् भिखारी समझकर तेरे मुँह में
जीभ बची हुई है,खींच नहीं ली गई, लोन=लावण्य,सौंदर्य,
होइ लोन बिलासीं=तू नमक की तरह गल जाय, चक्कवै=
चक्रवर्ती)

तुम बड राज छत्रपति भारी । अनु बाम्हन मैं अहौं भिखारी ॥
चारउ खंड भीख कहँ बाजा । उदय अस्त तुम्ह ऐस न राजा ॥
धरमराज औ सत कलि माहाँ । झूठ जो कहै जीभ केहि पाहाँ?॥
किछु जो चारि सब किछु उपराहीं । ते एहि जंबू दीपहि नाहीं ॥
पदमिनि, अमृत, हंस, सदूरू । सिंघलदीप मिलहिं पै मूरू ॥
सातौं दीप देखि हौं आवा । तब राघव चेतन कहवावा ॥
अज्ञा होइ, न राखौं धोखा । कहौं सबै नारिन्ह गुन-दोषा ॥

इहाँ हस्तिनी, संखिनी औ चित्रिनि बहु बास ।
कहाँ पदमिनी पदुम सरि, भँवर फिरै जेहि पास?॥6॥

(अनु=और,फिर, भीख कहँ=भिक्षा के लिए, बाजा=पहुँचता है,
डटता है, उदय-अस्त=उदयाचल से अस्ताचल तक, किछि जो
चारि…उपराहीं=जो चार चीजें सबसे ऊपर हैं, मूरू=मूल,असल,
बहुबास=बहुत सी रहती हैं)

लेखक

  • मलिक मुहम्मद जायसी हिन्दी साहित्य के भक्ति काल की निर्गुण प्रेमाश्रयी धारा के कवि हैं । वे अत्यंत उच्चकोटि के सरल और उदार सूफ़ी महात्मा थे। उनका जन्म सन १५०० के आसपास माना जाता है। वे उत्तर प्रदेश के जायस नामक स्थान के रहनेवाले थे। उनके नाम में जायसी शब्द का प्रयोग, उनके उपनाम की भांति, किया जाता है। उनके पिता का नाम मलिक राजे अशरफ़ बताया जाता है और वे मामूली ज़मींदार थे और खेती करते थे। स्वयं जायसी का भी खेती करके जीविका-निर्वाह करना प्रसिद्ध है। सैयद अशरफ़ उनके गुरु थे और अमेठी नरेश उनके संरक्षक थे। उनकी २१ रचनाओं के उल्लेख मिलते हैं जिसमें पद्मावत, अखरावट, आख़िरी कलाम, कहरनामा, चित्ररेखा आदि प्रमुख हैं। पर उनकी ख्याति का आधार पद्मावत ग्रंथ ही है। इसकी भाषा अवधी है और इसकी रचना-शैली पर आदिकाल के जैन कवियों की दोहा चौपाई पद्धति का प्रभाव पड़ा है।

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