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सरगम/कीर्ति श्रीवास्तव

झरोखे से देखती
रिमझिम बारिश की बूंदों को

सावन की वो पहली बारिश
भीगो गई मेरे मन को
और याद दिला गई
उस सावन को
जब साजन के आने की
राह ताकती थी मैं

पीहर के द्वार पर
छोड़ गए थे जो
उदर में पल रहे
एक बीज के साथ
चंद नोटों की खातिर
कुछ निर्जीव वस्तुओं के लिए

छीन लिए मेरे सभी सपने
तोड़ गए
मेरे मन के तारों को
पर आज उदास नही हूँ
न ही मायूस हूँ
क्योंकि

वह बीज सरगम बन
मेरे जीवन के
सात सुरों को छेड़ रही है
और
गा रही है
सावन का गीत
जिसमें साजन तो नहीं
पर मेरी उम्मीदें
मेरी आशाएँ
मेरे सपने
सब समाए हुए हैं।

कीर्ति श्रीवास्तव

लेखक

  • कीर्ति श्रीवास्तव, जन्म स्थान-भोपाल, भारत के विभिन्न पत्र पत्रिकाओं में रचनाएं प्रकाशित, साहित्य समीर 'दस्तक' मासिक पत्रिका का संपादन व विभोर प्रकाशन का संचालन

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