आहों के सिलसिले मेरे सीने में गाड़ कर
वो ले गया है जिस्म से दिल को उखाड़ कर
ख़ुशबू तेरे बदन की निकाली न जा सकी
हर चंद फेंक दी तेरी यादों को फ़ाड़ कर
मैं हूं बुरा तो क्या सभी अच्छों में हैं शुमार
हर तंज़ को मैं रखता हूं अक्सर पछाड़ कर
रहने दे मुज़्तरिब मुझे इश्क़ ए ज़लील में
रातें तवील कर सभी दिन को पहाड़ कर
इक बोसा सब्त करने का एलान कर दिया
होंटों का जिस ने रख दिया हुलिया बिगाड़ कर
अब ख़ाक हो न जाएं तमन्नाएं वस्ल की
जिस्मों के दरमियां नहीं इतनी दराड़ कर
रातों को पूछती है तलब मुझ से ये सवाल
क्यों हिज़्र ने रखा मेरे घर को उजाड़ कर
पत्थर के जिस्म में नहीं अख़्तर बचा है कुछ
क्या फ़ायदा है जिस्म को अब छेड़ छाड़ कर
मो. शकील अख़्तर
मुझे इश्क़ ए ज़लील में/मो. शकील अख़्तर