फिर क़हक़हा उठा है उसी गुलसितान से
इक बद नसीब जाएगा फिर अपनी जान से
मैं तेरी ज़िन्दगी में उस दाग़ की तरह
हटता नहीं जो ज़िन्दगी के दरमियान से
रिश्ता है मेरा मुझ से क्या मुझ को ख़बर नहीं
पूछूंगा अपनी ज़ात के हर तरजुमान से
मैं ने वफ़ा का इश्क़ में सौदा नहीं किया
अहले वफ़ा तो उठ गए वैसे जहान से
मिलते हैं ख़ाक में जो, मेरे हौसले नहीं
कम्बख़्त वो हैं आंसुओं के ख़ानदान से
नाकामियों से और बढ़ी हौसलों की ताब
गुज़रा हूं जब कभी मैं किसी इम्तिहान से
वो इश्क़ क्या जो दे नहीं रुसवाईयों का दर्द
वो हुस्न क्या जो फिर नहीं सकता ज़बान से
परवाज़े रूह तक ही मरासिम की क़ैद है
फिर वास्ता क्या जिस्म के ख़ाली मकान से
माथे पे दर्ज कर के मेरे ऐन शीन क़ाफ़
अख़्तर मेरा जनाज़ा उठा लेना शान से
मो. शकील अख़्तर
इश्क़ में सौदा नहीं किया/मो. शकील अख़्तर