माँ/रचना निर्मल
1.माँ माँ गंगा सी निश्छल जिसके दो किनारे समाज और संस्कार समेट लेती है जो सबके गम और भर देती है नई उमंग बच्चों संग अठखेलियां करती है तो शांत हो जाती बड़ों में जानती है झूठ और सच पर बनी रहती है अंजान लगी रहती है धोने अपनों के मन में जमी फरेब की […]