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Year: 2023

लेकर हाथ तिरंगा/डॉ. बिपिन पाण्डेय

लेकर हाथ तिरंगा। रैली,धरना,हड़तालों में होता है अब दंगा। नहीं बोलने की आज़ादी, लोग लगाते नारे। रोक सड़क की आवाजाही, बैठें पैर पसारे। लोकतंत्र की देखो खूबी, करे झूठ को नंगा। सारे मंचों से जो पढ़ते , जनता का चालीसा। झूठे वादों की चक्की में, सबने उसको पीसा। कोई रोता बदहाली पर, कोई कहता चंगा। […]

बिना आग के हुक्का बैठा/डॉ. बिपिन पाण्डेय

सूनी-सूनी लगती है अब, संबंधों की मंडी। राजमार्ग पर सभी दौड़ते, छोड़-छाड़ पगडंडी। आँगन में भावों की आओ, तुलसी एक लगा दें।। गाँवों की पगडंडी राजमार्ग से प्रश्न कर रही, गाँवों की पगडंडी। कब पहुँचेगा मेरे द्वारे, यह विकास पाखंडी। बूढ़े गाँवों में दिखता है, सुविधाओं का टोटा। बच्चे मार रहे तख्ती पर, अब तक […]

यादों का परजीवी बनकर/डॉ. बिपिन पाण्डेय

करवट लेती यादें रोम रोम में पड़ी सलवटें, करवट लेती यादें। जब तक आग चिलम में बाकी, हुक्का पीना होगा। यादों का परजीवी बनकर, हमको जीना होगा। उर से लिपटी रोतीं रातें, कैसे उन्हें भगा दें? पाट नहीं सकते हम दूरी, बीच दिलों के आई। नौ दिन चले मगर पहुँचे हैं, केवल कोस अढ़ाई। अहम् […]

गीत अभी तक ज़िंदा है/डॉ. बिपिन पाण्डेय

गीत अभी तक ज़िंदा है कैसे अलग करोगे बोलो साँसों का बाशिंदा है, सतयुग त्रेता द्वापर बीते गीत अभी तक ज़िंदा है। लाख यत्न सब करके हारे चलती हैं इसकी साँसें, रोक न पाई दुनिया इसको भले लगाईं पग फाँसें। वधिक पाश में कभी न फँसता ये आज़ाद परिंदा है।। गीत अभी तक ज़िंदा है। […]

आगरा बाजार/हबीब तनवीर

(नज़ीर अकबराबादी 18 वीं सदी के भारतीय शायर थे, जिन्हें नज्म का पिता कहा जाता है। उनकी सबसे प्रसिद्ध व्यंग्यात्मक गजल ‘बंजारानामा’ है। वे धर्म-निरपेक्ष व्यक्ति थे। हबीब तनवीर ने ‘नज़ीर अकबराबादी’ को प्रतिष्ठित करने के लिए ही आगरा बाजार नाटक लिखा था। आगरा बाजार’ नाटक का रचना काल 1954 है। स्थान आगरा के ‘किनारी […]

कारतूस/हबीब तनवीर

(बच्चों का नाटक, वज़ीर अली माज़ूल शाहे अवध पर) पात्र 1. कर्नल 2. लेफ्टिनेंट 3. सिपाही (गोरा) 4. सवार समय : 1799 रात दृश्य : लड़ाई का खेमा (गोरखपुर के जंगल में कर्नल कॉलिंस के खेमे का अंदरूनी हिस्सा, कर्नल एक अंग्रेज़ लेफ्टिनेंट के साथ बैठे बातें कर रहा है । खेमे के बाहर चाँदनी […]

चाँदी का चमचा/हबीब तनवीर

पात्र 1. दुकानदार 2. पड़ोसिन 3. मित्र 4. कुछ पड़ोसी 5. टोनी समय : प्रातः काल खेल की अवधि : दस मिनट स्थान : सड़क के किनारे बंबई शहर का एक तिमंजिला मकान काल : वर्तमान (मंच ऐसा हो मानो एक सड़क है जो दाएँ से बाएँ जाती है। इस सड़क पर चलने वालों के […]

उसने कहा था/चन्द्रधर शर्मा ‘गुलेरी’

बड़े-बडे़ शहरों के इक्के-गाड़ी वालों की जबान के कोड़ों से जिनकी पीठ छिल गई है और कान पक गए हैं, उनसे हमारी प्रार्थना है कि अमृतसर के बम्बू कार्ट वालों की बोली का मरहम लगावे। जबकि बड़े शहरों की चौड़ी सड़को पर घोड़े की पीठ को चाबुक से धुनते हुए इक्के वाले कभी घोड़े की […]

बुद्धु का काँटा/चन्द्रधर शर्मा ‘गुलेरी’

1 रघुनाथ प् प् प्रसाद त् त् त्रिवेदी – या रुग्‍नात् पर्शाद तिर्वेदी – यह क्‍या? क्‍या करें, दुविधा में जान हैं। एक ओर तो हिंदी का यह गौरवपूर्ण दावा है कि इसमें जैसा बोला जाता है वैसा लिखा जाता है और जैसा लिखा जाता है वैसा ही बोला जाता है। दूसरी ओर हिंदी के […]

घंटाघर/चन्द्रधर शर्मा ‘गुलेरी’

एक मनुष्य को कहीं जाना था। उसने अपने पैरों से उपजाऊ भूमि को बंध्या करके पगडंडी काटी और वह वहाँ पर पहला पहुँचने वाला हुआ। दूसरे, तीसरे और चौथे ने वास्तव में उस पगडंडी को चौड़ी किया और कुछ वर्षों तक यों ही लगातार जाते रहने से वह पगडंडी चौड़ा राजमार्ग बन गई, उस पर […]

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