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Month: नवम्बर 2023

सच में शक्ति अकूत/डॉ. बिपिन पाण्डेय

कैसे दें दुनिया को बोलो, पक्के ठोस सबूत, सच में शक्ति अकूत! चौखट पर जाने वाले को, धमकाता कानून? होकर बरी घूमते दोषी, होता सच का खून। लथपथ बेबस बना हुआ है जग में सत्य अछूत। अनुल्लंघ्य लगते हैं सच को, सुन्दर से मेहराब। गली-गली में भटक देखता, निज प्रसार के ख्वाब। नहीं टूटते कभी […]

समय ने करवट/डॉ. बिपिन पाण्डेय

जिसके हिस्से में रहती थी हर पग पर दुश्वारी, स्वप्नों के बटुवे में उसके आई दुनिया सारी। शिक्षा के झोंके ने उलटा परंपरा का घूँघट। रही दिखाती आदिकाल से जो अपनी मुस्तैदी, चूल्हे-चौके तक हो सीमित बनी घरों में कैदी। साथ सड़क के दौड़ लगाती, रोजाना अब सरपट। अबला समझ दिखाया सबने अपना रूप घिनौना, […]

बदल गए है सब प्रतिमान/डॉ. बिपिन पाण्डेय

बदल गए है सब प्रतिमान अस्ताचल में सच का सूरज हुआ झूठ का नवल विहान, त्याज्य हुआ पंचामृत पोषक मैला लगता गंगा नीर, तीर्थाटन है सैर-सपाटा घूम-घूम खींचें तस्वीर। नागफनी की पूजा होती तुलसी झेल रही अपमान। हाय-बाय पर हम आ पहुँचे बंद नमस्ते और प्रणाम, सिसक रहा है दौर दुखी हो फैशन के कारण […]

द्रुपद सुता की साड़ी खींचें/डॉ. बिपिन पाण्डेय

सज्जनता के जेवर रास नहीं आते दुनिया को सज्जनता के जेवर। फिकरा कसती रहती राहें अपने कहते बुजदिल, खून जोंक-सा चूसा करती रोज अनोखी मुश्किल। धूर्त भेड़िए दिखलाते हैं अपने तीखे तेवर। पूज्य तिरस्कृत जब होता है निंदित जाता पूजा, बाज बना वह भरे उड़ाने सच में होता चूजा। सुरसा जैसा दुर्जनता का बदला दिखे […]

बँधी हुई खूँटे से नावें/डॉ. बिपिन पाण्डेय

बहरे हैं चलने वाले साथ सभी जब अंधे, गूँगे, बहरे हैं, कैसे पूरे होंगे जो भी देखे स्वप्न सुनहरे हैं। बँधी हुई खूँटे से नावें खाती हैं तट पर हिचकोले, उत्ताल तरंगें ले जाएँगी उस पार नहीं ऐसे भोले। कैसे साथ चले परछाईं जब हम बैठे ठहरे हैं। दुर्दमनीय हुई है पीड़ा दम साधे बैठी […]

मक्कारी की रोटी खाता/डॉ. बिपिन पाण्डेय

समय बड़ा अलबेला है ता – ता थैया खूब नचाए, समय बड़ा अलबेला है। कहीं जेब में बोझिल बटुआ, कहीं न कौड़ी – धेला है। कहीं दौड़ता चीते – सा वह कहीं हाथ पर बंद घड़ी। धमा-चौकड़ी कहीं हो रही, और कहीं है हाथ छड़ी। इस दुनिया में अरमानों का, कैसा अजब झमेला है। भागम-भाग […]

लेकर हाथ तिरंगा/डॉ. बिपिन पाण्डेय

लेकर हाथ तिरंगा। रैली,धरना,हड़तालों में होता है अब दंगा। नहीं बोलने की आज़ादी, लोग लगाते नारे। रोक सड़क की आवाजाही, बैठें पैर पसारे। लोकतंत्र की देखो खूबी, करे झूठ को नंगा। सारे मंचों से जो पढ़ते , जनता का चालीसा। झूठे वादों की चक्की में, सबने उसको पीसा। कोई रोता बदहाली पर, कोई कहता चंगा। […]

बिना आग के हुक्का बैठा/डॉ. बिपिन पाण्डेय

सूनी-सूनी लगती है अब, संबंधों की मंडी। राजमार्ग पर सभी दौड़ते, छोड़-छाड़ पगडंडी। आँगन में भावों की आओ, तुलसी एक लगा दें।। गाँवों की पगडंडी राजमार्ग से प्रश्न कर रही, गाँवों की पगडंडी। कब पहुँचेगा मेरे द्वारे, यह विकास पाखंडी। बूढ़े गाँवों में दिखता है, सुविधाओं का टोटा। बच्चे मार रहे तख्ती पर, अब तक […]

यादों का परजीवी बनकर/डॉ. बिपिन पाण्डेय

करवट लेती यादें रोम रोम में पड़ी सलवटें, करवट लेती यादें। जब तक आग चिलम में बाकी, हुक्का पीना होगा। यादों का परजीवी बनकर, हमको जीना होगा। उर से लिपटी रोतीं रातें, कैसे उन्हें भगा दें? पाट नहीं सकते हम दूरी, बीच दिलों के आई। नौ दिन चले मगर पहुँचे हैं, केवल कोस अढ़ाई। अहम् […]

गीत अभी तक ज़िंदा है/डॉ. बिपिन पाण्डेय

गीत अभी तक ज़िंदा है कैसे अलग करोगे बोलो साँसों का बाशिंदा है, सतयुग त्रेता द्वापर बीते गीत अभी तक ज़िंदा है। लाख यत्न सब करके हारे चलती हैं इसकी साँसें, रोक न पाई दुनिया इसको भले लगाईं पग फाँसें। वधिक पाश में कभी न फँसता ये आज़ाद परिंदा है।। गीत अभी तक ज़िंदा है। […]

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