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साकेत एकादश सर्ग/मैथिलीशरण गुप्त

जयति कपिध्वज के कृपालु कवि, वेद-पुराण-विधाता व्यास; जिनके अमरगिराश्रित हैं सब धर्म, नीति, दर्शन, इतिहास! बरसें बीत गईं, पर अब भी है साकेत पुरी में रात, तदपि रात चाहै जितनी हो, उसके पीछे एक प्रभात। ग्रास हुआ आकाश, भूमि क्या, बचा कौन अँधियारे से? फूट उसी के तनु से निकले तारे कच्चे पारे-से! विकच व्योम-विटपी […]

साकेत द्वादश सर्ग/मैथिलीशरण गुप्त

ढाल लेखनी, सफल अन्त में मसि भी तेरी, तनिक और हो जाय असित यह निशा अँधेरी। ठहर तमी, कृष्णाभिसारिके, कण्टक, कढ़ जा, बढ़ संजीवनि, आज मृत्यु के गढ़ पर चढ़ जा! झलको, झलमल भाल-रत्न, हम सबके झलको, हे नक्षत्र, सुधार्द्र-बिन्दु तुम, छलको छलको। करो श्वास-संचार वायु, बढ़ चलो निशा में, जीवन का जय-केतु अरुण हो […]

जयद्रथ वध/मैथिलीशरण गुप्त

प्रथम सर्ग वाचक ! प्रथम सर्वत्र ही ‘जय जानकी जीवन’ कहो, फिर पूर्वजों के शील की शिक्षा तरंगों में बहो। दुख, शोक, जब जो आ पड़े, सो धैर्य पूर्वक सब सहो, होगी सफलता क्यों नहीं कर्त्तव्य पथ पर दृढ़ रहो॥ अधिकार खो कर बैठ रहना, यह महा दुष्कर्म है; न्यायार्थ अपने बन्धु को भी दण्ड […]

नहुष/मैथिलीशरण गुप्त

1. मंगलाचरण क्योंकर हो मेरे मन मानिक की रक्षा ओह! मार्ग के लुटेरे-काम, क्रोध, मद, लोभ, मोह । किन्तु मैं बढ़ूँगा राम,- लेकर तुम्हारा नाम । रक्खो बस तात, तुम थोड़ी क्षमा, थोड़ा छोह । 2. शची मणिमय बालुका के तट-पट खोल के, क्या क्या कल वाक्य नैश निर्जन बोल के । श्रान्त सुर-सरिता समीर […]

पंचवटी/मैथिलीशरण गुप्त

पूर्वाभास 1. पूज्य पिता के सहज सत्य पर, वार सुधाम, धरा, धन को, चले राम, सीता भी उनके, पीछे चलीं गहन वन को। उनके पीछे भी लक्ष्मण थे, कहा राम ने कि “तुम कहाँ?” विनत वदन से उत्तर पाया—”तुम मेरे सर्वस्व जहाँ॥” 2. सीता बोलीं कि “ये पिता की, आज्ञा से सब छोड़ चले, पर […]

झंकार/मैथिलीशरण गुप्त

1. निर्बल का बल निर्बल का बल राम है। हृदय ! भय का क्या काम है।। राम वही कि पतित-पावन जो परम दया का धाम है, इस भव-सागर से उद्धारक तारक जिसका नाम है। हृदय, भय का क्या काम है।। तन-बल, मन-बल और किसी को धन-बल से विश्राम है, हमें जानकी-जीवन का बल निशिदिन आठों […]

पत्रावली/मैथिलीशरण गुप्त

महाराज पृथ्वीराज का पत्र (महाराना प्रतापसिंह के प्रति) (महाराना प्रतापसिंह स्वाधीनता की रक्षा के लिए वन वन भटकते रहे पर उन्होंने अकबर की अधीनता स्वीकार नहीं की । एक बार कौटुम्बिक विपत्ति के कारण उनका हृदय विचलित हो गया था । इसी से उन्होंने अकबर के साथ सन्धि करने का निश्चय किया था । किन्तु […]

गुरुकुल/मैथिलीशरण गुप्त

1. गुरु नानक मिल सकता है किसी जाति को आत्मबोध से ही चैतन्य ; नानक-सा उद्बोधक पाकर हुआ पंचनद पुनरपि धन्य । साधे सिख गुरुओं ने अपने दोनों लोक सहज-सज्ञान; वर्त्तमान के साथ सुधी जन करते हैं भावी का ध्यान । हुआ उचित ही वेदीकुल में प्रथम प्रतिष्टित गुरु का वंश; निश्चय नानक में विशेष […]

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