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साकेत प्रथम सर्ग/मैथिलीशरण गुप्त

अयि दयामयि देवि, सुखदे, सारदे, इधर भी निज वरद-पाणि पसारदे। दास की यह देह-तंत्री तार दे, रोम-तारों में नई झंकार दे। बैठ मानस-हंस पर कि सनाथ हो, भार-वाही कंठ-केकी साथ हो। चल अयोध्या के लिए सज साज तू, मां, मुझे कृतकृत्य कर दे आज तू। स्वर्ग से भी आज भूतल बढ़ गया, भाग्यभास्कर उदयगिरि पर […]

साकेत द्वितीय सर्ग/मैथिलीशरण गुप्त

लेखनी, अब किस लिए विलम्ब? बोल,-जय भारति, जय जगदम्ब। प्रकट जिसका यों हुआ प्रभात, देख अब तू उस दिन की रात। धरा पर धर्मादर्श-निकेत, धन्य है स्वर्ग-सदृश साकेत। बढ़े क्यों आज न हर्षोद्रेक? राम का कल होगा अभिषेक। दशों दिक्पालों के गुणकेन्द्र, धन्य हैं दशरथ मही-महेन्द्र। त्रिवेणी-तुल्य रानियाँ तीन, बहाती सुखप्रवाह नवीन। मोद का आज […]

साकेत तृतीय सर्ग/मैथिलीशरण गुप्त

जहाँ अभिषेक-अम्बुद छा रहे थे, मयूरों-से सभी मुद पा रहे थे, वहाँ परिणाम में पत्थर पड़े यों, खड़े ही रह गये सब थे खड़े ज्यों। करें कब क्या, इसे बस राम जानें, वही अपने अलौकिक काम जानें। कहाँ है कल्पने! तू देख आकर, स्वयं ही सत्य हो यह गीत गाकर। बिदा होकर प्रिया से वीर […]

साकेत चतुर्थ सर्ग/मैथिलीशरण गुप्त

करुणा-कंजारण्य रवे! गुण-रत्नाकर, आदि-कवे! कविता-पितः! कृपा वर दो, भाव राशि मुझ में भर दो। चढ़ कर मंजु मनोरथ में, आकर रम्य राज-पथ में, दर्शन करूँ तपोवन का, इष्ट यही है इस जन का। सुख से सद्यः स्नान किये, पीताम्बर परिधान किये, पवित्रता में पगी हुई, देवार्चन में लगी हुई, मूर्तिमयी ममता-माया, कौशल्या कोमल-काया, थीं अतिशय […]

साकेत पंचम सर्ग/मैथिलीशरण गुप्त

वनदेवीगण, आज कौन सा पर्व है, जिस पर इतना हर्ष और यह गर्व है? जाना, जाना, आज राम वन आ रहे; इसी लिए सुख-साज सजाये जा रहे। तपस्वियों के योग्य वस्तुओं से सजा, फहराये निज भानु-मूर्तिवाली ध्वजा, मुख्य राजरथ देख समागत सामने, गुरु को पुनः प्रणाम किया श्रीराम ने। प्रभु-मस्तक से गये जहाँ गुरु-पद छुए, […]

साकेत षष्ठ सर्ग/मैथिलीशरण गुप्त

तुलसी, यह दास कृतार्थ तभी- मुँह में हो चाहे स्वर्ण न भी, पर एक तुम्हारा पत्र रहे, जो निज मानस-कवि-कथा कहे। उपमे, यह है साकेत यहाँ, पर सौख्य, शान्ति, सौभाग्य कहाँ? इसके वे तीनों चले गये, अनुगामी पुरजन छले गये। पुरदेवी-सी यह कौन पड़ी? उर्मिला मूर्च्छिता मौन पड़ी। किन तीक्ष्ण करों से छिन्न हुई- यह […]

साकेत सप्तम सर्ग/मैथिलीशरण गुप्त

’स्वप्न’ किसका देखकर सविलास कर रही है कवि-कला कल-हास? और ’प्रतिमा’ भेट किसकी भास, भर रही है वह करुण-निःश्वास? छिन्न भी है, भिन्न भी है, हाय! क्यों न रोवे लेखनी निरुपाय? क्यों न भर आँसू बहावे नित्य? सींच करुणे, सरस रख साहित्य! जान कर क्या शून्य निज साकेत, लौट आये राम अनुज-समेत? या उन्हीं के […]

साकेत अष्ठम सर्ग/मैथिलीशरण गुप्त

चल, चपल कलम, निज चित्रकूट चल देखें, प्रभु-चरण-चिन्ह पर सफल भाल-लिपि लेखें। सम्प्रति साकेत-समाज वहीं है सारा, सर्वत्र हमारे संग स्वदेश हमारा। तरु-तले विराजे हुए,-शिला के ऊपर, कुछ टिके,-घनुष की कोटि टेक कर भू पर, निज लक्ष-सिद्धि-सी, तनिक घूमकर तिरछे, जो सींच रहीं थी पर्णकुटी के बिरछे, उन सीता को, निज मूर्तिमती माया को, प्रणयप्राणा […]

साकेत नवम सर्ग/मैथिलीशरण गुप्त

दो वंशों में प्रकट करके पावनी लोक-लीला, सौ पुत्रों से अधिक जिनकी पुत्रियाँ पूतशीला; त्यागी भी हैं शरण जिनके, जो अनासक्त गेही, राजा-योगी जय जनक वे पुण्यदेही, विदेही। विफल जीवन व्यर्थ बहा, बहा, सरस दो पद भी न हुए हहा! कठिन है कविते, तव-भूमि ही। पर यहाँ श्रम भी सुख-सा रहा। करुणे, क्यों रोती है? […]

साकेत दशम सर्ग/मैथिलीशरण गुप्त

चिरकाल रसाल ही रहा जिस भावज्ञ कवीन्द्र का कहा, जय हो उस कालिदास की- कविता-केलि-कला-विलास की! रजनी! उस पार कोक है; हत कोकी इस पार, शोक है! शत सारव वीचियाँ वहाँ मिलते हा-रव बीच में जहाँ! लहरें उठतीं, लथेड़तीं, धर नीचे कितना थपेड़तीं, पर ऊपर, एक चाल से, स्थित नक्षत्र अदृष्ट-जाल-से! तम में क्षिति-लोक लुप्त […]

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