‘उफ्फ, प्लेटफॉम पर भीड़ असीमित और गर्मी जानलेवा । पता नहीं क्या सोच कर मैं ने ट्रेन से जाने का निर्णय लिया था? क्या कुछ बचत करने के चक्कर में फंस गया । उफ्फ! मूर्खता की भी हद होती है’ । शेखर अपने आप में बड़बड़ाता गाड़ी आने के क्षण गिन रहा था । भीषण गर्मी से सर फटा जा रहा था । प्लेटफॉर्म में पाँव रखने की भी जगह नहीं थी । दरअसल उसने कई हाथ पांव मारे थे सीतापुर’ जाने के वास्ते । सीतापुर’ गुजरात और मध्यप्रदेश का सीमा-प्रांत । किसी बहुत बडी कृषि आधारित कंपनी की मशीनों की मरम्मत का अल्प-कालिक ठेका लिया था और उसी सिलसिले में काम पहली बार देखने संभालने के लिए वहाँ जाना जरूरी था । बाद में वह अपने किसी भी कर्मचारी को भेज सकता था । मशीन अभियंता था शेखर और दस साल से इसी व्यवसाय में उसने अच्छी जगह बनाई थी । हमेशा वायुयान से ही सफर रहा आज इस तरह ट्रेन से जाना दुश्वार लग रहा था । ऐसा नहीं था कि कभी टृएन से सफर ही न किया हो, कई बार किया था पर अब वह आदत छूट गई थी और अब समय भी कहाँ है किसी के पास । मशीनी युग तेज गति का युग जो ठहरा । इतना समय कहाँ मिलता है ? लेकिन हाँ ट्रेन की यात्रा हमेशा कुछ न कुछ यादें छोड जाअती है । प्लेन में सब एक कृत्रिम औपचारिकता ओढ़े उकडे से सिकुडे से बैठे रहते है । हर कोई अपनी दुनिया में मस्त । हाँ को न हो , दूसरे की जिन्दगी में अनावश्यक दखलंदाजी असभ्यता की निशानी भी हो है , लेकिन यहाँ टृएन में , सब भेद-भाव हट जाते है । सब बहुत जल्दी हिल मिल जाते है । ,हाँ पहले जब चढ़ते है तो सभी को अपनी अपनी सीट और सीट के नीचे सामान रखनए की जगह पर अपना स्वामित्व जताने में अपना विशेषाधिकार का प्रयोग करते है । आरक्षण का हवाला देते हुए कुछ पलो के लिए ही सही , ऐसा मानकर चलते है जैसे सीट और नीचे की जगह उन्होंने खरीद ही ली हो । हाँ खरीद भी ली है कुछ समय के लिए ही सही । किसी का बैग थोडा सा भी इधर आया, तेज तरार शब्दों में अति विनम्रता के साथ उसे निकाल देने की हिदायत , फिर उसका सामान धकेल कर अपना रखने की जल्दबाजी, रखने के बाद पूरे सामानो को गिन कर चेन से बाँध कर सुरक्षित कर लेने की आतुरता , और सब प्रक्रिया पूरी होने के बाद फिर भी कुछ न कुछ एक आध बेग जब बच जाता है तो बगल वाले को देखकर अति आत्मीय मुस्कान के साथ उसकी जगह में घुसेड देना, धीरे- धीरे वातावरण को सहज बनाने की असंभव कोशिश , बड़ा मजेदार लग रहा था । शेखर सबकी मुख-मुद्राओ और इन कलात्मक चेष्टाओं को देखकर मन ही मन मुस्कुराने लगा । किताबे ही नहीं लोगों को पढ़ना भी बड़ा मनोरंजक होता है या यूँ कहे तो किताबो से भी अधिक तो गलत नहीं । सब अपनी अपनी जगह पर अब आराम से बैटः गए थे । पहले जितनी हडबडी नहीं थी । धीरे धीरे एक दूसरे को जानने का उपक्रम भी शुरु हो गया था । शेखर बहुत इन्टृओवर्ट था । किसी से मिलना जुलना तो टःईक लेकिन अधिक निकट नहीं जा सकता था । बहुत संभाल कर बोलता और उतना ही बोलता जितनी जरूरत हो । इसीलिए शायद उसके करीबी दोस्त बहुत कम थे । उंगलियों पर गिने जा सकते थे । बस सबसे हाय हेलो और खत्म ।
सामने की सीटॉ पर