वह दौर मुँहनोचवा का दौर था। मुँहनोचवा किसी के लिये एक दैवीय शक्ति तो किसी के लिये अफ़वाह किसी के लिये साज़िश और किसी के लिये आतंकवादी आक्रमण जैसा था। हर दिन किसी न किसी गाँव में कोई घटना घटित हो रही थी। गाँव में सन्नाटा फैल गया । चूल्हे का धुँआ खपड़ैल से टकराकर मैदान में बिखर रहा था। दुआर पर गाय-भैंस के सिवा एक आदमी नहीं दिख रहा था। दिखे भी कैसे, रात में होहल्ला जो करनी थी। ऐसी बात फैल रही थी कि मुँहनोचवा कोई देवी या देवता है जो गाँव की भलाई और न्याय करने के लिए आया है।
शाम होते ही दूर -दूर से आवाजें सुनाने लगती ‘उहे जात ह’….. ‘उहे जात ह,,,,ए ए,,,,कुदल…’आय माई कटलेस रे”….मार-मार,,,,मार’, ये आवाजें उस समय रात में हर तरफ़ सुनाई देतीं थी। उस समय गाँव में बिजली केवल नाम की आती थी। गाँव के अंधेरे में तो मुँहनोचवा का ही राज था। मुँहनोचवा के बारे में जो धारणा थी वह प्रत्येक घटना के साथ बदल जाती थी। अपने गाँव में भले मुँहनोचवा किसी को भी नहीं काटा हो लेकिन रात से पहले दस गाँव दूर की कोई घटना गाँव में ऐसे फैलती की मानों आज हमारे गाँव में ही मुँहनोचवा का आक्रमण होगा। मुँहनोचवा बिना फ़ौज का सिपाही था। बिल्कुल आसमानी योद्धा जिसके विपत्ति को गाँव के डीह- बीर बाबा भी नहीं रोक सके। अशुभ सूचना देने वाले कुत्ते भी आजकल रो नहीं रहे थे क्योंकि लोग रात में कुत्तों से भी भयावह आवाज में रोते थे। सियार गाँव से दूर गाँव में गूँजते हुए आवाज को सुनकर हैरान था कि आदमी लोग ये कौन सा नया जीव पाल लिये हैं जो मुझसे भी तेज आवाज में चिल्ला रहा है। भीषण गर्मी में बिना लाइट बत्ती के लोग रात भर बेना डोलाकर जागते थे। सुबह चाचा जी बाजार से आये और उन्होंने बताया कि ढिबरी और लालटेन का प्रकाश जहाँ जल रहा है वहाँ मुँहनोचवा ज्यादे काट रहा है। तभी चाचा को बड़े ताऊ जी डाँटेते हुए बोले तुम क्या जानों, मुँहनोचवा तो रात के अंधेरे में उल्लू से भी तेज देखता है। कोई कहता उसको दो कान है, वह हरा दिखता है, पिला दिखता है, क्या बात कर रहे हैं कल रात में ही मुझे लाल रंग का दिखा। ऐसी बातें हर चौराहे पर हो रही थीं। विपत्ति के उस समय में एक बात यह भी फैली कि गाँव की सभी महिलाएं अगर चौरा माई को धार चढायें तो मुँहनोचवा का प्रकोप उस गाँव में नहीं पड़ेगा। अगले दिन सुबह गाँव की महिलाएं चौरा माई के मंदिर में सामूहिक रूप से धार चढ़ा कर आयीं लेकिन रात में जब मुँहनोचवा फिर दिखा तो पता चला कि गाँव के सरपंच की पत्नी धार चढ़ाने नहीं गयी थी, इसलिए देवी संतुष्ट न होकर और रुष्ट हो गयी। फरसा, कुदाल,भाला, हँसुआ और कुल्हाड़ी जो भी जिसके पास था वह रात में उसे लेकर मुस्तैद रहता था।
इस विकट परिस्थिति में अगर सबसे ज्यादे नुकसान किसी का हुआ तो कल्लू बनिया की बेटी कुसुम और बहादुर सेठ के बेटे बुझारत का! हो भी क्यों न, कहा जाता है कि क़यामत के दिन में मोहब्बत सबसे पहले परवान चढ़ता है। बेचारी कुसुम! बाप की इकलौती बेटी उम्र बीस वर्ष दिखने में सुंदर और शान्त लड़की थी। वहीं गाँव का पहला ग्रेजुएट बुझारत पच्चीस वर्ष का गबरू जवान लड़का था। इन दोनों की प्रेम के चर्चे उस समय गाँव में कनफुसवा खबर थी। गाँव से दूर शहर में बुझारत एक स्कूल में पढ़ता था। जब भी वह गाँव आता कुसुम से आधी रात को मिलता था। मुँहनोचवा की वजह से दोनों आशिक़ रात को मिल नहीं पा रहे थे। मिलते भी कैसे गाँव की पूरी जनता रात भर गिद्ध की तरह टकटकी लगा कर जोर-जोर से चिल्लाती… ‘उहे जात ह!, इहे जात ह!’ बेचारा बुझारत इस बात से परेशान नहीं था कि उसे मुँहनोचवा नहीं दिखाई पड़ रहा है बल्कि इस बात से परेशान था कि अपने कुसुम को वो एक महीने से ठीक से देख नहीं पाया था। वही कुसुम जो उसकी बाहों में बाहें डाल कर अंधेरे में मीठे आवाज से गुनगुनाती ‘यहीं जीना भी है मुझको और मरना भी यही हैं’ और जब रात में कुसुम को डर लगता था तो बुझारत उसे प्यार से गा कर सुनाता ‘डरने की क्या बात है जब साथ में है दिलबर’।
मनहूस मुँहनोचवा! बुझारत व कुसुम के मिलन का सबसे बड़ा रोड़ा था। इंतजार की भी एक हद्द होती है। एकदिन सुबह कल्लू बनिया दुकान पर नहीं थे कुसुम दुकान पर बैठी थी, उधर से बुझारत आये और पांच रुपये का नानखटाई लेते हुए कुसुम के हाँथ में एक कागज का टुकड़ा पकड़ा ही दिया। दुकान से हटकर कुसुम ने जब ख़त पढ़ा तो उसमें लिखा था आज रात दस बजे नक्कू की ओसार में इंतजार करेंगे! कुसुम गुलमोहर की फूल की तरह बैशाख की धूप में भी खिल उठी।
रात आयी वहीं मानों वर्षों के बाद मिलन की रात! पर मुलाकात कैसे हो, परीक्षा की घड़ी थी, शाम को ही कुसुम बुखार का बहाना बना कर कमरे में जल्दी सो गयी, उसे बस इंतजार था कब दस बजे और वो धीरे से ओसार की ओर निकले, उधर टार्च लेकर अंधेरे में बुझारत नक्कू की ओसारी में पहले ही जा बैठा था। हर रोज की तरह आज भी होहल्ला जोरों पर था। कुसुम बचते- बचाते किसी तरह ओसारी में पहुँच गयी। सामने बुझारत खड़ा अपनी प्रेमिका को देख रहा था। आँख का काजल काली कोठरी में मानो सिमट गया हो। उजाले की एक धुँधली छाया भी आज उनको स्पर्श नहीं कर रहा था। तभी अचानक से बुझारत के पैर से दबकर टार्च लुपलाप करने लगा। नक्कू का ओसार गाँव से थोड़ा हट के था और वहाँ रौशनी का कोई सवाल ही नहीं था। अब मनहूस टार्च की रौशनी गाँव के गिद्धों से बच कर निकले भी तो कैसे। होसिला भगत का लड़का नक्कू की ओसार में टार्च जलने की रोशनी को देख लिया। उसने तुरंत आकर गाँव के मुस्तैद जवानों को खबर करता है कि मुँहनोचवा आज रात में नक्कू की ओसार में बैठा है। होना क्या था…भाला, बरछा, डंडा और कुदाल लेकर सिपाही ओसार में धावा बोल देते हैं। यहीं है मुँहनोचवा! घेर लो निकल कर जाने न पाये। आज इसका खात्मा कर ही देते हैं। उसी में एक लोग बोले हमें कुछ नहीं करना चाहिए यह देवी का दूत है। जब सिपाही अंदर टार्च जला कर देखते हैं तो मुँहनोचवा तो उन्हें नहीं दिखाई देता लेकिन दो प्रेमी एक दूसरे से चोंच लड़ाये चिपके हुए जरूर दिखायी पड़ते हैं। दत्त तेरी की! हरामी बुझारत! किसी ने जोर से चिल्लाया। अरे चुप करो रे, यहाँ कोई मुँहनोचवा नहीं कुसुमी और बुझारत यहाँ चिपके पड़े हैं। सरपंच इतने में आते हैं , बुझारत को एक झापड़ मारते हुए कहते हैं, बेशर्म! पूरा गाँव कल सुबह बचने की उम्मीद में जाग रहा है और तूं! यहाँ रंगरलियां मना रहा है। मारो साले को! कोई कह रहा था, इन्हें बांध कर मुँहनोचवा के हवाले कर दो। पर अब क्या? गाँव के इज्जत का भी सवाल था। यह खबर अगर फैल गयी तो मोहल्ले की बड़ी बेइज्जती हो जाती। उस रात मुँहनोचवा किसी को नहीं दिखा और ना ही कोई आवाज गूंज रही थी। गाँव के कुत्तों को लगा शायद इनका मामला शान्त हो गया और वो जोर-जोर से रोने लगे। यह मनहूस आवाज थी जो बता रही थी कि अगले दिन सुबह पंचायत होने वाली है।
अगली सुबह सरपंच के सामने कल्लू बनिया और बहादुर सेठ हाज़िर हुए। कल्लू बनिया रोते हुए बोले प्रधान जी इस नाककटाई से तो अच्छा था मुँहनोचवा हमारा मुहँ नोच लिया होता। हाय! बेशर्म लड़की तनिक भी अपने बाप के बारे में नहीं सोची पूरा इज्जत माटी में मिला दिया। बहादुर सेठ शांत थे। सरपंच ने कहा कि तुम भी अपने लायक के बारे में कुछ बोलोगे सेठ! सेठ जी उठे और बोले अब क्या बोलना, साहब! लोहे पर सोना चढ़ाने से वह सोना थोड़े ही हो जाता है। अब नालायक ने भरे समाज में नाक कटा ही दिया तो क्या कहना, अब फैसला सरपंच के हाथ में है जो होगा मुझे स्वीकार होगा। सरपंच जी बोले तब ठीक है, जात-पात न देखा जाए मोहल्ले की इज्ज़त का सवाल है। मेरा प्रस्ताव है कि कुसुम और बुझारत का यह कांड कोई नया नहीं होगा अगर इनके पिता आपस में सहमत हो जाएं तो दोनों का विवाह करा दी जाए। अब पंच लोग इसपर अपना सुझाव दें। पंच लोग कुछ बोलते उससे पहले एक बच्चे ने आकर बताया कि कल्लू बनिया के परिवार के कुछ लोग बुझारत को मार रहे हैं। पंच लोग दौड़ कर वहाँ पहुँचे और किसी तरह बुझारत की जान बची। गाँव के मुखिया जी बोले हमें इस बात पर विचार करना चाहिए कि गाँव में एक आफत आया है और वो कोई मशीन नहीं स्वयं ग्राम माता हैं जो सभी विवादों में न्याय कर रहीं हैं। अगर हम इन प्रेमियों का विवाह नहीं कराएंगे तो कल के लिए मुँहनोचवा किसी को भी काट सकता है। पंचों में से एक सज्जन बोले कल्लू और बहादुर तुम्हें कोई ऐतराज तो नहीं है ना! बहादुर सेठ खड़े हुए और बोले कल्लू जी जैसा कहें, हमें कोई ऐतराज नहीं है। कल्लू बनिया बोले, तेरे बेटे पर मुझे पहले भी संदेह था, कोई देखुआर उसे पूछ भी नहीं रहा था। अब देवी रुष्ठ हैं तो इनका विवाह कर देना चाहिये। लेकिन विवाह के बाद हमारा इनसे कोई रिश्ता नहीं होगा। सरपंच बोले रिश्ता तो हो ही चुका है, कल्लू! गाँव की इज्ज़त और देवी माता की कृपा की बात है, अब घर की डोली बगल के डेवढ़ पर रह जाए तो इससे अच्छा क्या होगा। पंच लोग उठे। गाँव में फिर से एकदम सन्नाटा छा गया। बस कुसुम और बुझारत के दिलों में सोर था। मुँहनोचवा शायद इस गाँव में आशिकों का भगवान बन कर आया था।
प्रवीण वशिष्ठ