बदल दिया परिदृश्य गाँव का, फैशन की अंगड़ाई ने।
खेत बेंचकर पल्सर ले ली, बुद्धा और कन्हाई ने।।
मुन्नी जीन्स पहनकर घूमे, लौटन की फटफटिया पर।
सेल्फी लेती नयी बहुरिया, द्वारे बैठी खटिया पर।
लाज, शर्म, घूघट, खा डाला, इस टीवी हरजाई ने।।
धोती-कुर्ते संदूको में, धूल समय की फाँक रहे।
कोट पैंट सदरी से डींगे, ऊँची-ऊँची हाँक रहे।
सीट अंगौछे की हथिया ली, मूंछ ऐंठकर टाई ने।।
मोढ़े, मचिया, पलँग, मसहरी, चौकी अन्तर्धान हुए।
डबल बेड, सोफ़ा सेट, चेयर, टेबल घर की शान हुए।
बचा स्वयं को लिया जुगत से, गद्दे और रजाई ने।।
इमली, जामुन, महुआ, पाकड़, एक-एक कर काट दिये।
कुएँ, बावली, ताल, तलैया, पोखर सारे पाट दिये।
पछुआ से अनुबन्ध कर लिया, जाने क्यों पुरवाई ने।।
—राहुल द्विवेदी स्मित’
बदल दिया परिदृश्य गाँव का/राहुल द्विवेदी स्मित’
वर्तमान परिप्रेक्ष्य में आधुनिकता के नाम पर भदेसपन के चित्र को खींचती हुई सजीव रचना।