खँडहर बचे हुए हैं, इमारत नहीं रही/दुष्यंत कुमार
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देख, दहलीज़ से काई नहीं जाने वाली/दुष्यंत कुमार
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इस नदी की धार से ठंडी हवा आती तो है/दुष्यंत कुमार
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ये सारा जिस्म झुक कर बोझ से दुहरा हुआ होगा/दुष्यंत कुमार
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कैसे मंज़र सामने आने लगे हैं/दुष्यंत कुमार
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कहाँ तो तय था चिराग़ाँ हर एक घर के लिए/दुष्यंत कुमार
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