साहित्य रत्न
साहित्य की विभिन्न विधाओं का संसार
दूर तक मंज़र हैं सारे तीरगी पहने हुए
सिर्फ़ हम ही जल रहे हैं रौशनी पहने हुए
बारिशों में भीग जाने का ख़सारा उनसे पूछ
जिस्म पर जो पैराहन हैं कागज़ी पहने हुए
क्या कहूं यूं दर ब दर फिरना मुकद्दर है मेरा
पांव जब से हैं मेरे आवारगी पहने हुए
फिर रहे हैं लोग इतराते हुए इस ख़ाक पर
जिस्म पर पोशाक अपने ख़ाक की पहने हुए
रंग जब उतरेगा हो जायेगा सब कुछ बेनकाब
मौत भी है चार दिन की ज़िंदगी पहने हुए
रूह दोनों की मुसलसल रक्स करती है “विजय”
इश्क राधा और मीरा बंदगी पहने हुए
विजय वाजिद