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प्रश्न करने दिन खड़ा थाःसुरजीत मान जलईया सिंह

प्रश्न करने दिन खड़ा था

नींद सन्नाटों ने तोड़ी।

फूटकर रोने लगा मैं

गाँव के व्यवहार पर।

पेड़ से पत्ते गिरे हैं

टहनियों पर फिर हंसे हैं।

हर तरफ जाले घिरे हैं

जुगनू उनमें जा फंसे हैं।

सरसराया काल देखो

जोर करती हैं हवाएं।

बादलों का हाल देखो

हर तरफ काली घटाएं।

साथ छूटा जा रहा है

अब मेरी परछाईं का।

धूप रूंठी जा रही है

छाँव के व्यवहार पर।

फूटकर रोने लगा मैं

गाँव के व्यवहार पर।

बात यूं फैली हुई है

गाँव हंसता है हमीं पर।

आंख क्यों कर नम हुई है

तंज कसती है हमीं पर।

हमने जो भी आस पाली

वो ही है हर बार टूटी।

मन भरम की रात काली

जीने की उम्मीद छूटी।

कोना कोना रो दिया है

घर हमी ने खो दिया है।

घर का ज़र्रा ज़र्रा रोया

ठाँव के व्यवहार पर।

फूटकर रोने लगा मैं

गाँव के व्यवहार पर।

चल रहा हूँ थक गया हूँ

बैठता हूँ भागता हूँ।

स्वयं को कितना नया हूँ

खुद से डरकर जागता हूँ।

लड़ रहे हैं भिड़ रहे हैं

चीखते हैं स्वप्न कितने।

ठोकरों से गिर रहे है

व्यर्थ होते जत्न कितने।

पत्थरों से छिल रहे हैं

पथ निरन्तर पग निरन्तर।

रास्ते रोने लगे हैं

पाँव के व्यवहार पर।

फूटकर रोने लगा मैं

गाँव के व्यवहार पर।

सुरजीत मान जलईया सिंह

प्रश्न करने दिन खड़ा थाःसुरजीत मान जलईया सिंह
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