कुंडलिया शब्द की उत्पत्ति ‘कुंडलिन’ या ‘कुंडल’ शब्द से हुई है। कुंडल का अर्थ है- गोल अथवा वर्तुलाकार वस्तु। सर्प के बैठने की मुद्रा ‘कुंडली’ कहलाती है। जब वह बैठता है तो उसकी पूँछ और मुख आपस में एक दूसरे के पास दिखते हैं। कुंडलिया शब्द सर्प की इसी कुंडली की आकृति से लिया गया है क्योंकि इस छंद का आरंभ जिस शब्द से होता है,उसी शब्द से छंद का समापन भी करना होता है। इतना ही नहीं, दोहे के चतुर्थ चरण को रोले के प्रथम चरणांश के रूप में भी प्रयोग किया जाता है जो एक कुंडलीनुमा आकृति बनाने में सहायक होता है और सर्प की कुंडली की याद अनायास ही आ जाती है।
‘प्राकृत पिंगल सूत्रम्’ के पृष्ठ संख्या 70 पर कुंडलिया छंद का लक्षण तथा पृष्ठ संख्या -71 पर जो उदाहरण उद्धृत है वही प्राकृत पैंगलम् भाग-1, पृष्ठ संख्या 129 पर भी दिया गया है जिसमें वीर हम्मीर के दिल्ली प्रयाण का वर्णन है। प्राकृत पैंगलम् ग्रंथ के निवेदन में पृष्ठ संख्या 4 में उल्लिखित है कि ‘हिंदी के आदिकाल का एक संग्रह ग्रंथ है जिसका विषय पुरानी हिंदी के आदिकालीन कवियों द्वारा प्रयुक्त वर्णिक तथा मात्रिक छंदों का विवेचन है।’ आचार्य रामचंद्र शुक्ल जी ने भी ‘हिंदी साहित्य का इतिहास’ नामक ग्रंथ में अपभ्रंश काल के अंतर्गत पृष्ठ 25 पर इसी कुंडलिया छंद को उद्धृत करते हुए इसे शार्ङ्गधर प्रणीत ‘हम्मीर रासो’ का होना माना है और लिखा है कि ‘मुझे पूरा निश्चय है कि ये पद्य असली ‘हम्मीर रासो’ के हैं।’ उन्होंने यह भी स्पष्ट किया है कि ‘ यह काव्य आजकल नहीं मिलता- उसके अनुकरण पर बहुत पीछे का लिखा हुआ एक ग्रंथ ‘हम्मीर रासो’ नाम का मिलता है। बाबू श्यामसुन्दर दास जी द्वारा सम्पादित ‘हम्मीर रासो’ कृति में इस छंद का कहीं उल्लेख नहीं है। परंतु यह असंदिग्ध है कि यह छंद हम्मीर रासो का ही है। हो सकता है हम्मीर रासो की जो सामग्री श्यामसुन्दर दास जी को संपादन हेतु उपलब्ध हुई हो वह अपूर्ण रही हो, इसलिए जो छंद आचार्य शुक्ल जी ने हिंदी साहित्य का इतिहास में उद्धृत किए हैं वे उन्हें प्राप्त न हो सके हों।
प्राकृतपैंगलम छन्दशास्त्र का एक ऐसा ग्रन्थ है जिसमें प्राकृत और अपभ्रंश छन्दों की विवेचना की गयी है। इसमें अनेक कवियों के छन्द मिलते हैं, जैसे विद्याधर, शार्ङ्गधर, जज्ज्वल, बब्बर, हरिब्रह्म, लक्ष्मीधर आदि। डॉ. सुनीति कुमार चटर्जी का मत है कि प्राकृतपैंगलम किसी एक काल की रचना नहीं है। इस ग्रंथ में कुंडलिया छंद का लक्षण और उदाहरण दिया है , जो निम्नलिखित है-
[अथ कुंडलिया ]
दोहा लक्खण पढम पढि कव्वह अद्ध णिरुत्त।
कुंडलिआ बुहअण मुणहु उल्लाले संजुत्त ।।
उल्लाले संजुत जमक सुद्धउ सलहिज्जइ ।
चउआलह सउ मन्त सुकइ दिढवंधु कहिज्जइ ॥
चउआलह सउ मत्त जासु तणु भूषण सोहा ।
एम कुँडलिआ जाणडु पढम जह पढिअइ दोहा ॥146
.कुंडलिया छंद-
हे बुधजन, पहले दोहा के लक्षण को पढ़कर, फिर काव्य (रोला) छंद दो, उसे उलाला से संयुक्त कर अर्थात् दोहा के चरण की पुनरुक्ति कर कुंडलिया समझो। उल्लाला से उक्त तथा यमक से शुद्ध कुंडलिया श्रेष्ठ समझा जाता है। इसमें 144 मात्रा होती हैं, सुकवि इसे दृढबंध कहते हैं। जिसमें 144 मात्रा शरीर की शोभा है, इस प्रकार वह कुंडलिया छंद जानो, जहाँ पहले दोहा पढ़ा जाता है।
उदाहरण-
ढाल्ला मारिअ ढिल्लि महँ मुच्छिअ मेच्छसरीर।
पुर जज्जला मंतिवर चलिअ वीर हम्मीर ॥
चलिए वीर हम्मीर पाअभर मेइणि कंपअ ।
दिग मग णह अंधार धूलि सूरह रह झंपइ ॥
दिग मग णह अंधार आण खुरसाणक आल्ला।
दरमरि दमसि विपक्ख मारु ढिल्लई महँ ढाल्ला ॥147
अर्थ-
दिल्ली में (जाकर ) वीर हमीर ने रणदुंदुभि (युद्ध का ढोल) बजाया; जिसे सुनकर म्लेच्छों के शरीर मूर्च्छित हो गये । जज्जल मन्त्रिवर को आगे (कर) वीर हमीर विजय के लिए चला। उसके चलने पर (सेनाके) पैर के बोझ से पृथ्वी काँपने लगी (काँपती है) दिशाओं के मार्ग में, आकाश में अंधेरा छा गया, धूल ने सूर्य के रथ को रोक दिया। दिशाओं में, आकाश में अंधेरा हो गया तथा खुरासान देश के ओल्ला लोग ( पकड़ कर) ले आये गये । हे हम्मीर, तुम विपक्ष का दलमल कर दमन करते दो; तुम्हारा ढोल दिल्ली में बजाया गया।
हिंदी साहित्य में कुंडलिया छंद का प्रथम कवि किसे माना जाए, यह अपने आप में शोध का विषय है। हाँ, इतना अवश्य है कि ‘शिवसिंह सरोज’ नामक ग्रंथ में शिवसिंह सेंगर ने कवियों का जो परिचय उपलब्ध कराया है उसमें कवियों के जीवन चरित्र के अंतर्गत पृष्ठ संख्या 427 पर गोस्वामी तुलसीदास जी (संवत् 1554)की जिन कृतियों का उल्लेख किया है, उसमें एक नाम ‘कुंडलिया रामायण’ भी है। शिवसिंह सरोजकार के अनुसार इस कृति में सात काण्ड थे। विद्वानों का सर्वमान्य मत यह है कि तुलसीदास जी ने 12 ग्रंथों की रचना की थी किंतु शिवसिंह सरोज में उनके 10 अन्य ग्रंथों का भी उल्लेख है। पृष्ठ सं 427 पर वे लिखते हैं कि “केवल जो ग्रंथ हमने देखे, अथवा हमारे पुस्तकालय में हैं, उनका जिकर किया जा रहा है।” किंतु कवि संख्या 256 पर गोस्वामी तुलसीदास के जिन ग्रंथों के उदाहरण पृष्ठ संख्या 120 से 123 तक उद्धृत किए गए हैं उनमें उन ग्रंथों के उदाहरण नहीं दिए गए है जिन अन्य दस ग्रंथों का उल्लेख शिवसिंह सरोजकार ने किया है।शायद इसी बात को ध्यान में रखकर आचार्य रामचंद्र शुक्ल जी ने हिंदी साहित्य का इतिहास’ के पृष्ठ संख्या 144 पर लिखा है कि ‘ पर शिवसिंह सरोज में दस और ग्रंथों के नाम गिनाए गए हैं …….इनमें से कई एक तो मिलते ही नहीं।’ अतः निर्विवादित रूप से यह नहीं कहा जा सकता कि गोस्वामी तुलसीदास जी ने ‘कुंडलिया रामायण’ नामक कोई ग्रंथ लिखा था। न ही हिंदी-साहित्य के किसी इतिहासकार के द्वारा और न ही जनश्रुति से इस बात की पुष्टि होती है कि गोस्वामी जी ने कुंडलिया छंद भी रचे थे। यदि रचे होते तो कोई न कोई कुंडलिया छंद अवश्य जन-मानस का अंग होता।
स्वामी अग्रदास (संवत् 1595), ध्रुवदास (संवत् 1610), गिरिधर ( संवत् 1770),बाबा दीनदयाल गिरि (संवत् 1859), गंगादास (संवत् 1880) और राय देवीप्रसाद ‘पूर्ण’ (संवत् 1925) वे नाम हैं जो कुंडलिया छंद का नाम आते ही स्वतः स्मृति पटल पर उभर आते हैं।
‘अग्र ग्रंथावली’ प्रथम खंड में कुंडलियाँ का प्रकाशन महात्मा राजकिशोरी शरण ने अयोध्या से सन् 1935 ई. में किया। इनकी ‘कुंडलियाँ’ में नीति और उपदेश से संबंधित छंद हैं। सन् 1985 में सत्येंद्र प्रकाशन, इलाहाबाद से डाॅ बलभद्र तिवारी जी के संपादन में अग्रदास ग्रंथावली का प्रकाशन हुआ है। अग्रदास जी के कुंडलिया छंदों में पहले दोहे का एक पाद फिर रोला छंद और अंत में फिर दोहे का एक पाद। दोहे के दूसरे चरण का सिंहावलोकन सर्वमान्य और लोकप्रिय नियम की तरह रोले के प्रथम चरण के पूर्वार्द्ध के चरणांश की तरह ही होता है। इनके कुंडलिया छंद जिस शब्द से आरंभ होते हैं उसी शब्द या शब्द-समूह पर समाप्त नहीं होते। परिशिष्ट में अग्रदास जी के छंदों का अवलोकन किया जा सकता है।
ध्रुवदास जी के ‘बयालीस लीला’ ग्रंथ जो कि हित साहित्य प्रकाशन,वृंदावन से प्रकाशित है, में ‘भजन कुंडलिया’ में दस ‘भजनशत’ में एक और प्रेमावली लीला में एक कुंडलिया संग्रहीत हैं। इनके कुंडलिया छंदों में कुछ में दोहा और रोला है तो कुछ में दोहा,आधा रोला और अंत में दोहा है तथा कुछ में दोहा, आधा रोला एवं अंत में उल्लाला छंद है। कुल मिलाकर इनके 12 कुंडलिया छंद हैं तथा सभी छंदों का समापन उसी शब्द या शब्द-समूह से किया गया जो दोहे के आदि में है।
गिरिधर जी के कुण्डलिया छंदों के अनेक संस्करण प्रकाशित हुए हैं। जिनमें नवल किशार प्रेस, लखनऊ का ‘कुण्डलियाँ’ सन् 1833 ई., मुक्तफाए प्रेस, लाहौर का ‘कुण्डलिया’ सन् 1874 ई., गुलशने पंजाब प्रेस, रावलपिण्डी का ‘गिरधर कविराय’ सन् 1896 ई., भार्गव बुक डिपो, बनारस का ‘कुण्डलियाँ’ सन 1904 ई., खेमरान श्री कृष्णदास बम्बई का ‘कविराय गिरधर कृत कुण्डलियाँ’ सन् 1953 ई., श्री वेकंटेश्वर प्रेस, बम्बई का ‘कविराय गिरधर कृत कुण्डलियाँ’ सन् 2009 ई., सस्ता साहित्य मंडल, नई दिल्ली का वियोगी हरि द्वारा सम्पादित ‘गिरधर की सुबोध कुण्डलियाँ’ प्रमुख हैं।
बाबा दीनदयाल गिरि के पाँच ग्रंथों में तीन – वैराग्य दिनेश ( संवत् 1906), अन्योक्ति कल्पद्रुम ( संवत् 1912) और अन्योक्ति माला ( रचनाकाल अज्ञात) ग्रंथों में कुंडलिया छंदों को देखा जा सकता है। संवत् 1976 में श्यामसुन्दर दास जी के संपादन में काशी नागरी प्रचारिणी सभा द्वारा ‘दीनदयाल गिरि ग्रंथावली’ प्रकाशित हुई है जिसमें आपके पाँचों ग्रंथ उपलब्ध हैं।
महात्मा गंगा दास ने 90 वर्ष की अवधि में लगभग 50 काव्य-ग्रन्थों और अनेक स्फुट निर्गुण पदों और कुंडलिया छंदों की रचना की। इनमें से 45 काव्य ग्रन्थ और लगभग 3000 स्फुट पद प्राप्त हो चुके हैं। इनमें से 25 कथा काव्य और शेष मुक्तक हैं।
राय देवीप्रसाद ‘पूर्ण’ के ‘स्वदेशी कुंडल’ नामक ग्रंथ में खड़ीबोली हिंदी में लिखित कुंडलिया छंद हैं। यह ग्रंथ सन 1910 में प्रकाशित हुआ था। श्री नरेशचंद्र चतुर्वेदी जी के संपादन में राय देवीप्रसाद ‘पूर्ण’ रचनावली का प्रकाशन 1988 में हुआ था। इसे सचिन प्रकाशन,दरियागंज नई दिल्ली-2 ने प्रकाशित किया था। इसमें पूर्ण जी की’स्वदेशी कुंडल’ कृति भी संकलित है जिसमें कुल 52 कुंडलिया छंद हैं।
आरंभिक काल से लेकर आज तक कुंडलिया छंद के भाव और शिल्प को लेकर अनेक प्रयोग हुए हैं। जहाँ पूर्ववर्ती कवियों ने कुंडलिया छंद में नीति,अध्यात्म और जीवनानुभवों की बात की तो परवर्ती काल में इस छंद ने आम आदमी की पीड़ा को भी समेट लिया। एक समय ऐसा भी आया जब कुंडलिया छंद का उपयोग विभिन्न कवियों के दोहों के भाव-पल्लवन के लिए किया जाने लगा। यह संभवतः इसलिए हुआ होगा क्योंकि कुंडलिया छंद के शीर्ष में दोहा ही होता है और आगे के रोले वाले चारों पदों में उसी बात को विस्तार दिया जाता है । कबीर दास,रहीम दास, तुलसीदास और बिहारी लाल आदि के दोहों का भाव विस्तार अनेकानेक कवियों के द्वारा किया गया। बिहारी लाल के सुप्रसिद्ध दोहे का भाव पल्लवन भारतेन्दु हरिश्चन्द्र जी ने कितने खूबसूरत ढंग से किया है ,वह द्रष्टव्य है-
सोहर ओढ़े पीत पट,श्याम सलोने गात।
मनौ नीलमणि शैल पर, आतप परयौ प्रभात।
आतप परयौ प्रभात,किधौं बिजुरी घन लपटी।
जरद चमेली,तरु तमाल,मैं सोभित सपटी।
पिया रूप अनुरूप,जानि हरिचंद विमोहत।
स्याम सलोने गात,पीत पट ओढ़े सोहत।।
आदिकाल से आधुनिक काल तक की कुंडलिया छंद की यात्रा में इसे मध्यकाल में उत्कर्ष प्राप्त हुआ। जब स्वामी अग्रदास,संत गंगादास, बाबा दीनदयाल गिरि, कवि ध्रुवदास, गिरिधर दास, राय देवी प्रसाद पूर्ण प्रभृति कवियों ने कुंडलिया छंद में काव्य रचना कर इस छंद को समृद्ध किया। गिरिधर दास की एक कुंडलिया प्रस्तुत है ,जो आम आदमी को जीवन जीने की कला सिखाती है-
बीती ताहि बिसारि दे, आगे की सुधि लेइ।
जो बनि आवै सहज में, ताही में चित देइ॥
ताही में चित देइ, बात जोई बनि आवै।
दुर्जन हंसे न कोइ, चित्त मैं खता न पावै॥
कह ‘गिरिधर कविराय यहै करु मन परतीती।
आगे को सुख समुझि, होइ बीती सो बीती॥
दीनदयाल गिरि की एक कुंडलिया जो किसान को सचेत करती है तथा समय पर कार्य करने की सीख भी प्रदान करती है-
आछी भाति सुधारि कै, खेत किसान बिजोय।
नत पीछे पछतायगो, समै गयो जब खोय।।
समै गयो जब खोय, नहीं फिर खेती ह्वैहै।
लैहै हाकिम पोत, कहा तब ताको दैहै।।
बरनै दीनदयाल, चाल तजि तू अब पाछी।
सोउ न सालि सभालि, बिहंगन तें विधि आछी।।
आधुनिक कुंडलियाकार नीति ,न्याय और अध्यात्म के साथ-साथ भ्रष्टाचार, सामाजिक विषमता और विद्रूपता को भी रूपायित करते हुए दिखाई देते हैं। कथ्य और तथ्य की नव्यता आज के कुंडलिया छंद की एक उल्लेखनीय विशेषता है जो आज के कुंडलियाकारों के छंदों में स्पष्ट दृष्टिगोचर होती है।
कुंडलिया छंद के शिल्प को लेकर जो अभिनव प्रयोग हुए हैं उसमें 24 मात्राओं वाले दोहा छंद तथा 24 मात्रिक रोला छंद के चरणों का विन्यास ही पृथक रूप में दिखाई देता है। मूल कुंडलिया छंद की तरह सभी में मुख और पूँछ समान रूप में विद्यमान रहते हैं अर्थात जिस शब्द से छंद का आरंभ होता है,उसी पर समापन भी। समय -समय पर कुंडलिया छंद के शिल्प के साथ विद्वानों द्वारा प्रयोग किए गए हैं तथा उनका नामकरण भी किया गया है।
कुंडलिया छंद के अतिरिक्त ‘नव कुंडलिया छंद’ जिसमें दोहा+आधा रोला+ दोहा का संयोजन होता है।
मोह क्रोध भय दूर कर, जो हो मुझमें लीन।
स्वतः मुक्ति उसको मिली, मुझमें हुआ विलीन।
मुझमें हुआ विलीन, नहीं अंतर रह जाता।
इसको शाश्वत मान, भक्त मुझसा हो जाता।
कहते सत्य बसंत हैं, रहा न कोई द्रोह।
अनुभव कर नर दिव्यता, मिटे क्रोध भय मोह।
– बसंत राम दीक्षित
‘नाग कुंडली’ भी एक अभिनव प्रयोग है। नाग कुंडली में दोहा+ आधा रोला+दोहा+ रोला। इसमें दो बार दोहे का प्रयोग होता है और दोनों बार कुंडलिया छंद की तरह इसमें प्रत्येक दोहे का अंतिम चरण ,रोले के प्रथम चरण के प्रयुक्त होता है। प्रारंभ और समापन समान शब्द पर ही होता है।
तेरी आँखों में छिपे,चितचोर घनश्याम।
चित्त चुराती तू फिरे,निशि दिन आठों याम।।
निशि दिन आठों याम,श्याम घन इनमें सोते।
दर्शन कर भगवान, रूप पर मोहित होते।
तेरी आँखों से लजा,कह राधा मन मार।
मोहन जब तेरे हुए, मैं भी हुई तिहार।।
मैं भी हुई तिहार,चोर हैं आँखें तोरी।
तुझे सौंप निज चित्त,बसे कनु आँखों गोरी।।
बसी चित्त है श्याम,हृदय की दुनिया मेरी।
निशि दिन आठों याम, बसे जो आँखों तेरी।।
-अमर नाथ
अनूप कुंडलिया में तुकान्त सोरठा, आधा रोला और अंत में दोहे का प्रयोग किया जाता है। सोरठा छंद के प्रथम चरण की पुनरावृत्ति अंत में दोहे के चतुर्थ चरण के रूप में होती है।
सुनते हैं अविराम, राम कहानी जो सुजन।
करते काम ललाम,खिल जाते हैं मन सुमन।
रहते नित्य प्रसन्न, मनाते नित्य दीवाली।
पाते शुचि सौगात, न रहती झोली खाली।
एक दिवस आकर उन्हें,दर्शन देते राम।
राम कहानी जो सुजन, सुनते हैं अविराम।।
-डाॅ मिर्जा हसन नासिर
नवकुंडलिया राज छंद भी एक नूतन प्रयोग है। वैसे इस छंद का मात्रिक विधान पूर्णतः भिन्न है। इस छंद में 16,16 मात्राओं के 6 चरण होते हैं। इसमें प्रत्येक चरण के अंत में प्रयुक्त शब्द अगले चरण के आरंभ में प्रयोग किया जाता है। शब्द की पुनरावृत्ति का यह क्रम हर चरण में अंत तक होता है और समापन उसी शब्द पर होता है जिससे छंद को आरंभ किया जाता है।
“इतना वर दो मात शारदे !
मात शारदे , हाथ न फैले
हाथ न फैले , कभी भीख को
कभी भीख को , अब इतना दो
अब इतना दो , दूं जग – भर को
दूं जग – भर को , इतना वर दो।।”
-रमेशराज
कुंडलिया के साथ प्रयोग का एक रूप शितिकंठी कुंडलिया भी है। इसमें दोहा और डेढ़ रोला छंद का प्रयोग किया जाता है।
होता पूजित क्षीण शशि , पा जिनका संसर्ग।
अभिनंदन करते सभी , शीश नवाता स्वर्ग।।
शीश नवाता स्वर्ग , यश-स्तव गा-गा करके।
भजनानंद-विभोर भक्त , दृग – मुक्ता झरके।
‘हर-हर बं-बं’ घोष,भाव-विह्वल स्वर भरके।
रचते व्यास पुराण,चरित कह रुचिकर हर के।।
शिव समुपासन मंत्र-जाप सब कल्मष धोता।
अघी अपात्र अधम पूजक भी पूजित होता।।
डाॅ ‘शितिकंठ’
वैसे कुंडलिया छंद के शिल्प को लेकर जो भी प्रयोग किए गए हैं वे साहित्य की आवश्यकता से अधिक कवियों की आचार्यत्व पद की लिप्सा अधिक लगते हैं क्योंकि कोई अभिनव प्रयोग साहित्य में वह स्थान और लोकप्रियता प्राप्त नहीं कर पाया जो कुंडलिया छंद को मिला।
सम्प्रति कुंडलिया छंद सृजन को लेकर कवियों में एक उत्साह दिखाई देता है। अनेकानेक कुंडलियाकार न केवल कुंडलिया छंद का सृजन कर रहे हैं अपितु उनके कुंडलिया संग्रह भी प्रकाशित हो रहे हैं। केवल खड़ी बोली हिंदी में ही नहीं वरन अवधी में भी कुंडलियाकार सर्जना कर रहे हैं। आज का कुंडलिया छंद एक नए तेवर में दिखाई देता है। ऐसा कोई भी विषय नहीं है जो कुंडलिया छंद से अछूता हो। नवीन प्रतीक, बिंब और उपमान कुंडलिया के कथ्य को सुग्राह्य और बोधगम्य बनाते है। पिछले कुछ वर्षों में जो कुंडलिया संग्रह प्रकाशित हुए हैं, उनका विवरण निम्नवत है-
कहें कपिल कविराय (कपिल कुमार), कुण्डलिया कुंज ( राम औतार ‘पंकज’), कुण्डलिया छंद के सात हस्ताक्षर , कुंडलिया कानन और कुंडलिया संचयन ( सं. त्रिलोक सिंह ठकुरेला), काव्यगंधा (त्रिलोक सिंह ठकुरेला), मुझ में संत कबीर (रघुविंद्र यादव), कुण्डलियों का गांव (शिवानंद सिंह ‘सहयोगी’), सम्बंधों की नाव (राम सनेही लाल शर्मा ‘यायावर’), कुण्डलिया संचयन ( सं. त्रिलोक सिंह ठकुरेला), शिष्टाचारी देश में (तोताराम ‘सरस’), अब किसे भारत कहें ( डाॅ. रमाकांत सोनी), कुण्डलिया छंद के नये शिखर ( सं. त्रिलोक सिंह ठकुरेला), संस्कृति के आयाम ( डॉ. जगन्नाथ प्रसाद बघेल), लक्ष्मण की कुंडलियाँ (लक्ष्मण रामानुज लड़ीवाला), मन में भरो उजास (सुभाष मित्तल ‘सत्यम’), कुंडलिया कौमुदी और कहे नलिन हरिदास (डाॅ .नलिन), सुधियों के भुजपास (आचार्य भगवत दुबे ), मुठभेड़ समय से (रामशंकर वर्मा), सरस कुंडलिया सतसई (रुद्र प्रकाश गुप्त ‘सरस’), शब्दों का अनुनाद (डाॅ . बिपिन पाण्डेय), मानक कुण्डलियां ( सं.रघुविंद्र यादव), काक कवि की कुण्डलियां और कविताएँ (रामपाल शर्मा ‘काक ‘), समकालीन कुण्डलिया (सं. डाॅ. बिपिन पाण्डेय), बसंत के फूल (डॉ. रंजना वर्मा), इतनी सी फरियाद (राजपाल सिंह गुलिया ), कुण्डलिया सुमन (इन्द्र बहादुर सिंह ‘इन्द्रेश’), बाबा की कुंडलियाँ, पढ़ें प्रतिदिन कुंडलियाँ, कुंडलिया से प्रीत और कह बाबा कविराय, रिझाती हैं कुंडलियाँ, छंद है कुंडलिया अनुपम ( बाबा वैद्यनाथ झा), जीवन राग (अशोक कुमार रक्ताले) ,भावों की उर्मियाँ ( शकुन्तला अग्रवाल ‘शकुन’) , नवरस कुंडलियाँ ( ऋता शेखर ‘मधु’), अभिनव कुंडलिया ( सं. त्रिलोक सिंह ठकुरेला), मेरी कुंडलियाँ ( डाॅ सरला सिंह ‘स्निग्धा’) इक्कीसवीं सदी की कुंडलियाँ (सं. डाॅ बिपिन पाण्डेय), समकालीन कुंडलिया शतक ( सं. त्रिलोक सिंह ठकुरेला) , मंथन का निष्कर्ष ( डाॅ बिपिनपाण्डेय), सारंग- कुंडलियां (प्रदीप सारंग का अवधी कुंडलिया संग्रह) बाबा बैद्यनाथ झा रचनावली, भाग-1 (संपा संचिता संजीवनी झा) आदि।
इसके अतिरिक्त अन्यान्य कुंडलियाकार हैं जिन्होंने प्रचुर मात्रा में कुंडलिया छंद सृजित किए हैं और आज भी कुंडलिया- कोष को समृद्ध करने में लगे हुए हैं। हरिओम श्रीवास्तव, रविकांत श्रीवास्तव, श्लेष चंद्राकर, नीलमणि दुबे, पुष्प लता, नीता अवस्थी, नवनीत राय रुचिर ,शिवकुमार ‘दीपक’ रामेश्वर गुप्ता,अमित साहू आदि ऐसे ही कुंडलियाकारों के नाम हैं।
समय के साथ सामाजिक जरूरतों को अपने में समाहित कर समाज को एक सकारात्मक दिशा एवं सोच देना साहित्य का प्रमुख उद्देश्य होता है और कुंडलिया छंद अपने उद्देश्य में पूर्णतः सफल रहा है। उक्त विवेचन से स्पष्ट है कि कुंडलिया छंद अपनी विकास यात्रा में भाव एवं शिल्पगत परिवर्तन के अनेक पड़ाव देखे हैं। कथ्य एवं भावगत परिवर्तन की यह क्षमता ही इस छंद को आज भी लोकप्रिय बनाए हुए है।
आलेख : डॉ. बिपिन पाण्डेय
गुन के गाहक सहस नर, बिन गुन लहै न कोय।
जैसे कागा- कोकिला, शब्द सुनै सब कोय।।
शब्द सुनै सब कोय, कोकिला सबै सुहावन।
दोऊ को इक रंग, काग सब भये अलावा।
कह गिरिधर कविराय, सुनौ हो ठाकुर मन के।
बिन गुण लहै न कोय, सहस नर गाहक गुन के।।
साईं बैर न कीजिये, गुरु, पंडित, कवि, यार।
बेटा, बनता, पंवरिया, यज्ञ- करावनहार ।।
यज्ञ- करावनहार, राज मंत्री जो होई।
विप्र, पड़ौसी, वैद्य, आपकी तपै रसोई।।
कह गिरिधर कविराय, जुगनते यह चलि आई।
इन तेरह सौं तरह, दिये बनि आवै साईं।।
हॅंसा ह्यां रहिये नहीं, सरवर गये सुखाय।
काल्ह हमारी पीठ पर, बगुला धरिहै पांय।।
बगुला धरिहै पांय, इहां आदर नहि हैहै ।
जगत हंसा होय, बहुरि मन में पछितैहै।
कह गिरिधर कविराय, दिनै-दिन बाढ़ हॅंसा ।।
साईं बेटा बाप के, बिगरे भयो अकाज।
हिरनाकस्यप, कंस को, गयउ दुहुंन को राज।।
गयउ दुहुंन को राज, बाप बेटा में बिगरी।
दुश्मन दावागीर, हॅंसे बहुमण्डल नगरी।
कह गिरिधर कविराय, जुगन या हो चलि आई ।
पिता- पुत्र के वैर, नफा कहु कौने, साईं।।
साईं अपने भ्रात को, कबहुं न दीजे त्रास।
पलक दूर नहिं कीजिए, सदा राखिए पास।।
सदा राखिए पास, त्रास कबहूँ नहिं दीजै।
त्रास दियो लंकेश, ताहि की गति सुनि लीजै।
कह गिरिधर कविराय, राम सों मिलिगो जाई।
पाय विभीषण राज्य, लंक पति बाह्य साईं।।
कमरी थोरे दाम की, आवै बहुतै काम।
खासा मलमल बाफता, उनकर राखै मान।।
उनकर राखै मान, बुन्द जंहा आड़े आवै।
बकुचा बांधे मोट, रात को झारि बिछावै।
कह गिरिधर कविराय, मिलति हैं थोरी दमरी ।
सब दिन राखै साथ, बड़ी मर्यादा कमरी।।
बिना विचारे जो करै, सो पाछै पछताय।
काम बिहारी आपनो, जग में होत हॅंसाय ।।
जग में होत हॅंसाय, चित्त में चैन न आवै।
खान- पान सनमान, राग रंग मनहि न भावै।
कह गिरिधर कविराय, दु:ख कछु करते न टारे।
खटकत है जिय मांहि, कियो जो बिना विचारे ।।
बीती ताहि बिहारी दे, आगे की सुधि लेइ।
जो बनि आवै सहज में, ताही में चित देइ।।
ताही में चित देइ, बात जोई बनि आवै।
दुर्जन हॅंसे न कोय, चित्त में खता न पावै।
कह गिरिधर कविराय, यहै करु मन परतीती।
आगे की सुधि लेइ, समझ बीती सो बीती।।
साईं समय न चूकिए, यथाशक्ति सनमान।
का जानै को आग है, तेरी परिवार प्रमान।।
तेरी परिवार प्रमान, समय असमय तकि आवै।
ताको तू मन खोलि, अंक भरि ह्रदय लखावै।
कह गिरिधर कविराय, सबै या मैं सधि जाई।
शीतल जल, फल फूल, समय जनि चूको, साईं।।
लाठी में गुण बहुत हैं, सदा राखिए संग।
गहिरि नदी, नारा जहाँ, तहाँ बचावै अंग।।
तहाँ बचावै अंग, झपटि कुत्ता को मारै।
दुश्मन दावागीर, होय तिनहूं को झारै ।
कह गिरिधर कविराय, सुनो हो धर के पानी।
सब हथियारन छोड़ि, हाथ में लीजै लाठी ।।
बोए पेड़ बबूल के, खाना चाहे दाख।
ये गुन मत परगट करे, मन के मन में राख।।
मन के मन में राख, मनोरथ झूठे तेरे।
ये आगम के कथन, कदी फिरते ना फेरे।
गंगादास कह मूढ़, समय बीती जब रोए।
दाख कहाँ से खाय, पेड़ कीकर के बोए।।
तेरे बैरी तुझी में, हैं ये तेरे फैल।
फैल नहीं तो सिद्ध है, निर्मल में क्या मैल।।
निर्मल में क्या मैल, मैल बिन पाप कहाँ है।
बिना पाप फिर आप, आप में ताप कहाँ है।
गंगादास प्रकाश, भये फिर कहाँ ॲंधेरे।
और सब जगत मित्र, फैल दुश्मन हैं तेरे ।।
सोई जानो जगत में, उत्तम जीव सुभाग।
मधुर बचन निरमानता,सम, दम, तप, बैराग।।
सम, दम, तप, बैराग, दया हिरदे में धारैं।
मुख से बोले सत्त, सदा ना झूठ उचारैं।
गंगादास शुभ कर्म, करें तजकर बगदोई ।
तन मन पर उपकार, समझ जन उत्तम सोई।।
अन्तर नहीं भगवान में, राम कहो या संत।
एक अंग तन संग में, रहे अनादि अनन्त।।
रहे अनादि अनन्त, सिद्ध, गुरु, साधक, चेले।
तब हो गया अभेद, भेद सतगुरु से ले ले।
गंगादास ऐ आप, ओई मंत्री अर मंतर।
राम संत के बीच, कड़ी रहता ना अंतर।।
पावैं शोभा लोक में, जो जन विद्यामान।
जिन विद्या बल है नहीं, सो नर भूत समान।।
सो नर भूत समान, पशू, पागल, परवारी ।
बिन विद्या नर सून, ताल जैसे बिन वारी ।
गंगादास ये जीव, जाति नर पशू कहावैं।
बिना सुगंधी फूल, कहीं आदर ना पावैं।।
पापी के कोई भूलकर, मत ना बसो पड़ौस।
नीच जनों के संग में, निर्दोषी गहें दोस।।
निर्दोषी गहें दोस, दोस देते दुख भारी।
बिगड़ जाये दो लोक, भीख न मिले उधारी।
गंगादास कहें, नीच संग डूबें परतापी ।
तजें गाम, घर, देस, जहाँ बसते हों पापी ।।
मोहताजों की खबर ले, तेरी लें भगवान ।
जस परगट दो लोक में, होगा निश्चय जान ।।
होगा निश्चय जान, मान वेदों का कहना।
जो डाले उपकार, उदय होता है लहना।
गंगादास लें राम, खबर उनके काजों की।
जो लेते हैं खबर, जगत में मोहताजों की।।
माला फेरों स्वांस की, जपो अजप्पा जाप।
सोहं सोहं सुने से, कटते हैं सब पाप।।
कटते हैं सब पाप, जगे सर में कर मंजन।
छ: चक्कर ले शोध, अंत पावै मनरंजन।
गंगादास प्रकाश, होय खुलते घट ताला।
मानो मेरा कहा, भजो स्वांस की माला।।
उल्लू को अचरज लगे, सुन सूरज की बात।
अन्ध होत दिन के उदय, देत दिखाई रात।।
देत दिखाई रात, रवि को मिथ्या माने।
औरों को कह मूढ़, आपको पण्डित जाने।
गंगादास गुरुदेव, करें क्या चेले भुल्लू ।
रवि को करें अभान, जन्म के अंधे उल्लू।।
सोवेगा जो कोई कदी, जदी पड़ेंगे चोर ।
जागो तो खतरा नहीं, इस सारे में और ।।
इस सारे में और रोज दिन में आती हैं ।
दो ठगनी ठग एक सदा ठग-ठग खाती हैं ।।
गंगादास कहें आँख खुले पीछे रोवेगा ।
तस्कर लेजां माल-जान जो कोई सोवेगा ।।
सरकारी कानून का रखकर पूरा ध्यान।
कर सकते हो देश का सभी तरह कल्यान ।।
सभी तरह कल्यान, देश का कर सकते हो।
करके कुछ उद्योग, सोग सब हर सकते हो।
जो हो तुममें जान, आपदा भारी सारी।
हो सकती है दूर, नहीं बाधा सरकारी।।
थाली हो जो सामने भोजन से संपन्न।
बिना हिलाए हाथ के, जाय न मुख में अन्न।।
जाय न मुख में अन्न, बिना पुरुषार्थ न कुछ हो।
बिना तजे कुछ स्वार्थ, सिद्ध परमार्थ न कुछ हो ।
बरसो, गरजो नहीं, धीर की यही प्रणाली,
करो देश का कार्य, छोड़कर परसी थाली ।।
धन के होते सब मिले, बल, विद्या भरपूर।
धन से होते हैं सकल जग के संकट चूर।।
जग के संकट चूर, यथा कोल्हू में घानी।
धन है जन का प्राण, वृक्ष को जैसे पानी।
हे त्रिभुवन के धनी ! परमधन निर्धन जन के !
है भारत अति दीन, लीन दुख में बिन धन के।।
‘पूरन’! भारततर्ष के, सेवाप्रेमी लोग।
कर सकते हैं दूर दुख, ठानें यदि उद्योग।
ठानें यदि उद्योग, कलह तजकर आपुस का।
नानाविध उपकार, तभी कर डालें उसका।
करता है निर्देश, जगत का स्वामी ‘पूरन’।
करें सूजन उद्योग, कामना होगी पूरन।।
तन, मन, धन से देश का करें लोग उपकार।
विद्या, पौरुष नीति का, कर पूरा व्यवहार ।।
कर पूरा व्यवहार, धर्म का काम बनावें।
अग्रगण्य जन विहित प्रथा को चित्त में लावें ।
पृथक् पृथक् निज स्वार्थ भुलावें सच्चेपन से।
देश-लाभ को अधिक जानकर तन-मन-धन से।।
धन को सेवा जानिए सब सेवा का सार।
होता है तन, मन दिए, इस धन का संचार ।।
इस धन का संचार, धर्म ही के हित मानो।
बिना दान के सफल धनी-पद को मत जानो ।
पेट देश का भरो पेट का काट कलेवा।
ययाभक्ति दो दान,बनै तब धन की सेवा।।
सुनो बंधुवर ! ‘पूर्ण’ का सुन करुणामय नाद।
इन वचनों से ईश ने सब हर लिया विषाद ।।
सब हर लिया विषाद किया आश्वासन पूरा।
होगा पूरन काम, नहीं जो यत्न अधूरा।
उसी सीख अनुसार, लेखनी कर में लेकर।
करता हूं विस्तार-कथन, टुक सुनो बंधुवर ।।
पुर्जे किसी मशीन के हों कहने को साठ।
बिगड़े उनमें एक तो, हो सब बाराबाट।।
हो सब बाराबाट, बन्द हो चलना कल का।
छोटा हो या बड़ा, किसी को कहो न हलका ।
है यह देश मशीन, लोग सब दर्जे दर्जे।
चलें मेल के साथ उड़े क्यों पुर्जे-पुर्जे ।।
पानी पीना देश का, खाना देशी अन्न।
निर्मल देशी रुधिर से, नस-नस हो संपन्न ।।
नस-नस हो संपन्न, तुम्हारी उसी रुधिर से।
हृदय, यकृत, सर्वांग, नखों तक लेकर शिर से ।
यदि न देशहित किया, कहेंगे सब ‘अभिमानी’ ।
शुद्ध नहीं तब रक्त, नहीं तुझमें कुछ ‘पानी’ ।।
सपना हो तो देश के हित ही का हो, मित्र !
गाना हो तो देश के हित का गीत पवित्र ।।
हित का गीत पवित्र, प्रेम-वानी से गाओ।
रोना हो तो देश-हेतु ही अश्रु बहाओ।
देश-देश ! हा देश ! समझ बेगाना अपना।
रहे झोपड़ी बीच, महल का देखें सपना ।।
जीवन में पाले रहो, नित्य नई उम्मीद।
सुन्दर भावों को कभी, मत लेने दो नींद।।
मत लेने दो नींद, साहसी बनकर जी लो।
कर मन में संतोष, अभावों का विष पी लो।
बनकर आशावान, रहो अविचल निज मन में।
हो सुखदायी भोर, ‘सरस’ सुखमय जीवन में।।
सद्भावों की गंध से, महकायें संसार।
बदले में संसार से, मिले असीमित प्यार।।
मिले असीमित प्यार, सभी सम्मान करेंगे।
खुशियों के भण्डार, सहज बहुभाँति भरेंगे।
हो जीवन रंगीन, सजे दुनिया ख्वावों की।
फैले अगर सुगंध हमारे सद्भावों की।।
अंतर्मन की स्वच्छता, दे पावन संदेश।
यदि अंतर्मन स्वच्छ तो, सद्गुण करें प्रवेश।।
सद्गुण करें प्रवेश, भाव हों निर्मल निर्मल।
हो जाये व्यवहार, पूर्णतः निश्छल निश्छल।
खुद का करें सुधार, सुधर जायेगा जन जन।
देख सुखद परिणाम, प्रफुल्लित हो अंतर्मन।।
छोड़ें क्षुद्र विचार को, अहंकार दें छोड़।
रुढ़िवादिता के सभी, बंधन डालें तोड़।।
बंधन डालें तोड़, फसादों की जड़ काटें।
भरसक करें प्रयास, दिलों की खाई पाटें ।
मन से मन के तार, ‘सरस’ आपस में जोड़ें।
सबसे रखें लगाव, किसी को अलग न छोड़ें ।।
हालातों का सामना, जो लें करना सीख।
नहीं पड़ेगी माँगनी, कभी दया की भीख।।
कभी दया की भीख, रास्ता स्वयं बनाकर।
हर बाधा कर पार, पहुँच जायेंगे मंजिल पर।
देंगे वे मुख मोड़, तीव्र झंझावातों का।
उन्हें न किंचित मात्र, कभी डर हालातों का।।
दुख में जो सुख खोजते, वे ही रहें प्रसन्न।
जीवन में रहते सदा, खुशियों से सम्पन्न।।
खुशियों से सम्पन्न, शान्ति निज मन में पाते।
स्वाभिमान के साथ, जिन्दगी ‘सरस’ बनाते।
मन पर कसें लगाम, जियें बस वे ही सुख में।
जिन्हें नहीं संतोष, जिन्दगी उनकी दुख में ।।
हॅंसते रहना ही सदा, जीवन में उपयुक्त।
हॅंसते हॅंसते जिन्दगी, हो तनाव से मुक्त।।
हो तनाव से मुक्त, सुगम हों पथ जीवन के।
विहॅंसें बारहमास, सुमन निज मन उपवन के।
सौ बातों की बात, ‘सरस’ यह मानो कहना।
जीवन में अनिवार्य, हमेशा हॅंसते रहना।।
आया है किस वेग से, फैशन में बदलाव।
लड़का लड़की का हुआ, अब समान पहनाव।।
अब समान पहनाव, नहीं पहचाने जाते।
जुल्फ डिजाइन एक, एक सी जीन्स चढ़ाते।
लिए विदेशी ढंग, ढंग देशी न सुहाया ।
यह फैशन का दौर, देश में कैसा आया।।
गौ माता इस देश की, है अनुपम पहचान।
भारतवासी पूजते, इसको माता मान।।
इसको माता मान, पूजते पूरे मन से।
रख गौ सेवा भाव, सुखी हों तन-मन-धन से।
पंचगव्य से रोग, सहज हर इक कट जाता।
करती है कल्याण, कष्टहारिणि गौ माता।।
हारे हैं सब वक्त से, वक्त बड़ा बलवान।
नहीं भूलना चाहिए, कभी वक्त का ध्यान।।
कभी वक्त का ध्यान, वक्त को हम पहचानें।
चलें वक्त के साथ, व्यर्थ की ठान न ठानें ।
दिखलाता है वक्त, जगत में अजब नजारे।
नहीं वक्त की हार, वक्त से सब हैं हारे।।
सोना तपता आग में, और निखरता रूप।
कभी न रुकते साहसी, छाया हो या धूप।।
छाया हो या धूप, बहुत सी बाधा आयें।
‘ठकुरेला’ कविराय, दुखों से कभी न रोना।
निखरे सहकर कष्ट, आदमी हो या सोना।।
***
चलते चलते एक दिन, तट पर लगती नाव।
मिल जाता है सब उसे, हो जिसके मन चाव।।
हो जिसके मन चाव, कोशिशें सफल करातीं।
लगे रहो अविराम, सभी निधि दौड़ी आतीं।
‘ठकुरेला’ कविराय, आलसी निज कर मलते।
पा लेते गंतव्य, सुधीजन चलते चलते।।
***
जो मीठी बातें करें, बनते उनके काम।
मीठे मीठे बोल सुन, बनें सहायक वाम।।
बनें सहायक वाम, सहज जीवन हो जाता।
जायें देश विदेश, सहज में बनता नाता।
‘ठकुरेला’ कविराय, सुखद दिन, भीनी रातें।
पायें सबसे प्यार, करें जो मीठी बातें।।
***
जैसा चाहो और से, दो औरों को यार।
आवक जावक के जुडे़, आपस मे सब तार।।
आपस मे सब तार, गणित इतना ही होता।
वैसी पैदावार, बीज जो जैसे बोता।
‘ठकुरेला’ कविराय, नियम इस जग का ऐसा।
पाओगे हर बार, यार बाँटोगे जैसा।।
***
मोती बन जीवन जियो, या बन जाओ सीप।
जीवन उसका ही भला, जो जीता बन दीप।।
जो जीता बन दीप, जगत को जगमग करता।
मोती सी मुस्कान, सभी के मन मे भरता।
‘ठकुरेला’ कविराय, गुणों की पूजा होती।।
बनो गुणों की खान, फूल, दीपक या मोती।
***
मिलते हैं हर एक को, अवसर सौ सौ बार।
चाहे उन्हें भुनाइये, या कर दो बेकार।।
या कर दो बेकार, समय को देखो जाते।
पर ऐसा कर लोग, फिरें फिर फिर पछताते।
‘ठकुरेला’ कविराय, फूल मेहनत के खिलते।
जीवन में बहु बार, सभी को अवसर मिलते।।
***
मोती मिलते हैं उसे, जिसकी गहरी पैठ।
उसको कुछ मिलना नहीं, रहा किनारे बैठ।।
रहा किनारे बैठ, डरा, सहमा, सकुचाया।
जिसने किया प्रयास, सदा मनचाहा पाया।
‘ठकुरेला’ कविराय, महत्ता श्रम की होती।
की जिसने भी खोज, मिले उसको ही मोती।।
***
रोना कभी न हो सका, बाधा का उपचार।
जो साहस से काम ले, वही उतरता पार।।
वही उतरता पार, करो मजबूत इरादा।
लगे रहो अविराम, जतन यह सीधा सादा।
‘ठकुरेला’ कविराय, न कुछ भी यूँ ही होना।
लगो काम में यार, छोड़कर पल पल रोना।।
***
हँसना सेहत के लिये, अति हितकारी, मीत।
कभी न करें मुकाबला, मधु, मेवा, नवनीत।।
मधु, मेवा, नवनीत, दूध, दधि, कुछ भी खायें।
अवसर हो उपयुक्त, साथियो, हँसें, हँसायें।
‘ठकुरेला’ कविराय, पास हँसमुख के बसना।
रखो समय का ध्यान, कभी असमय मत हँसना।।
***
मैली चादर ओढ़कर, किसने पाया मान।
उजले निखरे रूप का, दुनिया में गुणगान ।।
दुनिया मे गुणगान, दाग किसको भाते हैं।
दाग-हीन छवि देख, सभी दौडे़ आते हैं।
‘ठकुरेला’ कविराय, यही जीवन की शैली।
जीयें दाग-विहीन, फेंक कर चादर मैली।।
***
सुखिया वह जो कर सके, निज मन पर अधिकार।
सुख दुःख मन के खेल हैं, इतना ही है सार।।
इतना ही है सार, खेल मन के हैं सारे।
मन जीता तो जीत, हार है मन के हारे।
‘ठकुरेला’ कविराय, बनो निज मन के मुखिया।
जो मन को ले जीत, वही बन जाता सुखिया।।
***
पल पल जीवन जा रहा, कुछ तो कर शुभ काम।
जाना हाथ पसार कर, साथ न चले छदाम।।
साथ न चले छदाम, दे रहे खुद को धोखा।
चित्रगुप्त के पास, कर्म का लेखा जोखा।
‘ठकुरेला’ कविराय, छोड़िये सभी कपट छल।
काम करो जी नेक, जा रहा जीवन पल पल।।
***
असफलता को देखकर, रोक न देना काम।
मंजिल उनको ही मिली, जो चलते अविराम।।
जो चलते अविराम, न बाधाओं से डरते।
असफलता को देख, जोश दूना मन भरते।
‘ठकुरेला’ कविराय, समय टेड़ा भी टलता।
मत बैठो मन मार, अगर आये असफलता।।
***
मानवता ही है सखे, सबसे बढ कर धर्म।
जिसमें परहित निहित हो, करना ऐसे कर्म।।
करना ऐसे कर्म, सभी सुख मानें मन में।
सुख की बहे बयार, सहज सब के जीवन में।
‘ठकुरेला’ कविराय, सभी में आये समता।
धरती पर हो स्वर्ग, फले फूले मानवता।।
***
वाणी में ही जहर है, वाणी जीवनदान।
वाणी के गुण दोष का, सहज नहीं अनुमान।।
सहज नहीं अनुमान, कौन सी विपदा लाये।
जग में यश, धन, मान, मीत, सुख, राज दिलाये।
‘ठकुरेला’ कविराय, विविध विधि हो कल्याणी।
हो विवेक से युक्त, सरल, रसभीनी वाणी।।
***
पाया उसने ही सदा, जिसने किया प्रयास।
कभी हिरण जाता नहीं, सोते सिंह के पास।।
सोते सिंह के पास, राह तकते युग बीते।
बैठे ठाले लोग, रहेंगे हरदम रीते।
‘ठकुरेला’ कविराय, समय ने यह समझाया।
जिसने किया प्रयास, मधुर फल उसने पाया।।
***
जल मे रहकर मगर से, जो भी ठाने बैर।
उस अबोध की साथियो, रहे किस तरह खैर।।
रहे किस तरह खैर, बिछाये पथ में काँटे।
रहे समस्या-ग्रस्त, और दुख खुद को बाँटे।
‘ठकुरेला’ कविराय, बने बिगड़े सब पल में।
रखो मगर से प्रीति, अगर रहना है जल में।।
***
आ जाते हैं जब कभी, मन में बुरे विचार।
उन्हें ज्ञान के खड़्ग से, ज्ञानी लेता मार।।
ज्ञानी लेता मार, और अज्ञानी फँसते।
बिगड़ें उनके काम, लोग सब उन पर हँसते।
‘ठकुरेला’ कविराय, असर अपना दिखलाते।
दुःख की जड़ कुविचार, अगर मन मे आ जाते।।
***
होता है मुश्किल वही, जिसे कठिन लें मान।
करें अगर अभ्यास तो, सब कुछ है आसान।।
सब कुछ है आसान, बहे पत्थर से पानी।
कोशिश करता मूढ़, और बन जाता ज्ञानी।
‘ठकुरेला’ कविराय, सहज पढ़ जाता तोता।
कुछ भी नही अगम्य, पहँुच में सब कुछ होता।।
***
भाषा में हो मधुरता, जगत करेगा प्यार।
मीठे शब्दों ने किया, सब पर ही अधिकार।
सब पर ही अधिकार, कोकिला किसे न भाती।
सब हो जाते मुग्ध, मधुर सुर में जब गाती।
‘ठकुरेला’ कविराय, जगाती मन में आशा।
सहज बनाये काम, मंत्र है मीठी भाषा।।
***
सोता जल्दी रात को, जल्दी जागे रोज।
उसका मन सुख से भरे, मुख पर छाये ओज।
मुख पर छाये ओज, निरोगी बनती काया।
भला करे भगवान्, और घर आये माया।
‘ठकुरेला’ कविराय, बहुत से अवगुण खोता।
शीघ्र जगे जो नित्य, रात को जल्दी सोता।।
***
फीकी लगती जिन्दगी, रंगहीन से चित्र।
जब तक मिले न आपको, कोई प्यारा मित्र।।
कोई प्यारा मित्र, जिसे हमराज बनायें।
हों रसदायक बात, व्यथा सब सुनें, सुनायें।
‘ठकुरेला’ कविराय, व्याधि हर लेता जी की।
जब तक मिले न मित्र, जिन्दगी लगती फीकी।।
***
जब तक ईश्वर की कृपा, तब तक सभी सहाय।
होती रहती सहज ही, श्रम से ज्यादा आय।।
श्रम से ज्यादा आय, फाड़कर छप्पर मिलता।
बाधा रहे न एक, कुसुम सा तन मन खिलता।
‘ठकुरेला’ कविराय, नहीं रहता कोई डर।
सुविधा मिलें तमाम, साथ हो जब तक ईश्वर।।
***
सोना चांदी सम्पदा, सबसे बढ़कर प्यार।
ढाई आखर प्रेम के, इस जीवन का सार।।
इस जीवन का सार, प्रेम से सब मिल जाता।
मिलें सभी सुख भोग, मान, यश, मित्र, विधाता।
‘ठकुरेला’ कविराय, प्रेम जैसा क्या होना।
बडा कीमती प्रेम, प्रेम ही सच्चा सोना।।
***
जनता उसकी ही हुई, जिसके सिर पर ताज।
या फिर उसकी हो सकी, जो हल करता काज।।
जो हल करता काज, समय असमय सुधि लेता।
सुनता मन की बात, जरूरत पर कुछ देता।
‘ठकुरेला’ कविराय, वही मनमोहन बनता।
जिसने बांटा प्यार, हुई उसकी ही जनता।।
***
धीरे धीरे समय ही, भर देता है घाव।
मंजिल पर जा पहुंचती, डगमग होती नाव।।
डगमग होती नाव, अन्ततः मिले किनारा।
मन की मिटती पीर, टूटती तम की कारा।
‘ठकुरेला’ कविराय, खुशी के बजें मंजीरे।
धीरज रखिये मीत, मिले सब धीरे धीरे।।
***
तिनका तिनका जोड़कर, बन जाता है नीड़।
अगर मिले नेतृत्व तो, ताकत बनती भीड़।।
ताकत बनती भीड़, नये इतिहास रचाती।
जग को दिया प्रकाश, मिले जब दीपक, बाती।
‘ठकुरेला’ कविराय, ध्येय सुन्दर हो जिनका।
रचते श्रेष्ठ विधान, मिले सोना या तिनका।।
***
पछताना रह जायेगा, अगर न पाये चेत।
रोना धोना व्यर्थ है, जब खग चुग लें खेत।।
जब खग चुग लें खेत, फसल को चैपट कर दें।
जीवन में अवसाद, निराशा के स्वर भर दें।
‘ठकुरेला’ कविराय, समय का मोल न जाना।
रहते रीते हाथ, उम्र भर का पछताना।।
***
कहते आये विद्वजन, यदि मन में हो चाह।
पा लेता है आदमी, अँधियारे में राह।।
अँधियारे में राह, न रहती कोई बाधा।
मिला उसे गंतव्य, लक्ष्य जिसने भी साधा।
‘ठकुरेला’ कविराय, खुशी के झरने बहते।
चाह दिखाती राह, गहन अनुभव यह कहते।।
***
मानव मानव एक से, उन्हें न समझें भिन्न।
ये आपस के भेद ही, मन को करते खिन्न।।
मन को करते खिन्न, आपसी प्रेम मिटाते।
उग आते विष बीज, दिलों में दूरी लाते।
‘ठकुरेला’ कविराय, बैठता मन में दानव।
आते हैं कुविचार, विभाजित हो यदि मानव।।
***
आजादी का अर्थ है, सब ही रहें स्वतंत्र।
किन्तु बंधे हों सूत्र में, जपें प्रेम का मंत्र।।
जपें प्रेम का मंत्र, और का दुख पहचानें।
दें औरों को मान, न केवल अपनी तानें।
‘ठकुरेला’ कविराय, बात है सीधी सादी।
दे सबको सुख-चैन, वही सच्ची आजादी।।
***
बढ़ता जाता जगत में, हर दिन उसका मान।
सदा कसौटी पर खरा, रहता जो इन्सान।।
रहता जो इन्सान, मोद सबके मन भरता।
रखे न मन में लोभ, न अनुचित बातें करता।
‘ठकुरेला’ कविराय, कीर्ति- किरणों पर चढ़ता।
बनकर जो निष्काम, पराये हित में बढ़ता।।
***
बोता खुद ही आदमी, सुख या दुख के बीज।
मान और अपमान का, लटकाता ताबीज।।
लटकाता ताबीज, बहुत कुछ अपने कर में।
स्वर्ग नर्क निर्माण, स्वयं कर लेता घर में।
‘ठकुरेला’ कविराय, न सब कुछ यूं ही होता।
बोता स्वयं बबूल, आम भी खुद ही बोता।।
***
चन्दन चन्दन ही रहा, रहे सुगन्धित अंग।
बदल न सके स्वभाव को, मिलकर कई भुजंग।।
मिलकर कई भुजंग, प्रभावित कभी न करते।
जिनका संत स्वभाव, खुशी औरों में भरते।
‘ठकुरेला’ कविराय, गुणों का ही अभिनंदन।
देकर मधुर सुगन्ध, पूज्य बन जाता चन्दन।।
***
कभी न रहते एक से, जीवन के हालात।
गिर जाते हैं सूखकर, कोमल चिकने पात।।
कोमल चिकने पात, हाय, मिट्टी में मिलते।
कलियां बनती फूल, फूल भी सदा न खिलते।
‘ठकुरेला’ कविराय, समय धारा में बहते।
पल पल बदलें रूप, एकरस कभी न रहते।।
***
ताकत ही सब कुछ नहीं, समय समय की बात।
हाथी को मिलती रही, चींटी से भी मात।।
चींटी से भी मात, धुरंधर धूल चाटते।
कभी कभी कुछ तुच्छ, बड़ों के कान काटते।
‘ठकुरेला’ कविराय, हुआ इतना ही अवगत।
समय बड़ा बलवान, नहीं धन, पद या ताकत ।।
***
अन्तर्मन को बेधती, शब्दों की तलवार।
सहज नहीं है जोड़ना, टूटे मन के तार।।
टूटे मन के तार, हृदय आहत हो जाये।
होता नहीं निदान, वैद्य धन्वंतरि आये।
‘ठकुरेला’ कविराय, सरसता दो जीवन को।
बोलो ऐसे शब्द, रुचें जो अंतर्मन को।।
***
खटिया छोड़ें भोर में, पीवें ठण्डा नीर।
मनुआ खुशियों से भरे, रहे निरोग शरीर।।
रहे निरोग शरीर, वैद्य घर कभी न आये।
यदि कर लें व्यायाम, बज्र सा तन बन जाये।
‘ठकुरेला’ कविराय, भली है सुख की टटिया।
जल्दी सोयें नित्य, शीघ्र ही छोड़ें खटिया।।
***
किसने पूछा है उसे, जिसको रहा अभाव।
कब जाती उस पार तक, यदि जर्जर हो नाव।।
यदि जर्जर हो नाव, बहुत ही दूर किनारा।
जब कुछ होता पास, मान देता जग सारा।
‘ठकुरेला’ कविराय, पा लिया वैभव जिसने।
सदा उसी की पूछ, उसे ठुकराया किसने।।
***
आता हो यदि आपको, बात बात पर ताव।
समझो खुद पर छिड़कते, तुम खुद ही तेजाब।।
तुम खुद ही तेजाब, जिन्दगी का रस जलता।
क्रोध-कढ़ाई मध्य, आदमी खुद को तलता।
‘ठकुरेला’ कविराय, चाँद सुख का छिप जाता।
बहुविधि करे अनर्थ, क्रोध जब जब भी आता।।
***
करता रहता है समय, सबको ही संकेत।
कुछ उसको पहचानते, पर कुछ रहें अचेत।।
पर कुछ रहें अचेत, बन्द कर बुद्धि झरोखा।
खाते रहते प्रायः, वही पग पग पर धोखा।
‘ठकुरेला’ कविराय, मंदमति हर क्षण डरता।
जिसे समय का ज्ञान, वही निज मंगल करता।।
***
रीता घट भरता नहीं, यदि उसमें हो छेद।
जड़मति रहता जड़ सदा, नित्य पढ़ाओ वेद।।
नित्य पढ़ाओ वेद, बुद्धि रहती है कोरी।
उबटन करके भैंस, नहीं हो सकती गोरी।
‘ठकुरेला’ कविराय, व्यर्थ ही जीवन बीता।
जिसमें नहीं विवेक, रहा वह हर क्षण रीता।।
***
थोथी बातों से कभी, जीते गये न युद्ध।
कथनी पर कम ध्यान दे, करनी करते बुद्ध।।
करनी करते बुद्ध, नया इतिहास रचाते।
करते नित नव खोज, अमर जग में हो जाते।
‘ठकुरेला’ कविराय, सिखाती सारी पोथी।
ज्यों ऊसर में बीज, वृथा हैं बातें थोथी।।
***
सिखलाता आया हमें, आदिकाल से धर्म।
मूल्यवान है आदमी, यदि अच्छे हों कर्म।।
यदि अच्छे हों कर्म, न केवल बात बनाये।
रखे और का ध्यान, न पशुवत खुद ही खाये।
‘ठकुरेला’ कविराय, मनुजता से हो नाता।
है परहित ही धर्म, शास्त्र सबको सिखलाता।।
***
जीवन के भवितव्य को, कौन सका है टाल।
किन्तु प्रबुद्धों ने सदा, कुछ हल लिये निकाल।।
कुछ हल लिये निकाल, असर कुछ कम हो जाता।
नहीं सताती धूप, शीश पर हो जब छाता।
‘ठकुरेला’ कविराय, ताप कम होते मन के।
खुल जाते हैं द्वार, जगत में नवजीवन के।।
***
आ जाते हैं और के, जो गुण हमको रास।
वे गुण अपने हो सकें, ऐसा करें प्रयास।।
ऐसा करें प्रयास, और गुणवान कहायें।
बदलें निज व्यवहार, प्रशंसा सबसे पायें।
‘ठकुरेला’ कविराय, गुणी ही सबको भाते।
जग बन जाता मित्र, सहज ही सुख आ जाते।।
***
बहता जल के साथ में, सारा ही जग मीत।
केवल जीवन बह सका, धारा के विपरीत।।
धारा के विपरीत, नाव मंजिल तक जाती।
करती है संघर्ष, जिन्दगी हँसती गाती।
‘ठकुरेला’ कविराय, सभी का अनुभव कहता।
धारा के विपरीत, सिर्फ जीवन ही बहता।।
***
आगे बढ़ता साहसी, हार मिले या हार।
नयी ऊर्जा से भरे, बार-बार हर बार।।
बार- बार हर बार, विघ्न से कभी न डरता।
खाई हो कि पहाड़, न पथ में चिंता करता।
‘ठकुरेला’ कविराय, विजय रथ पर जब चढ़ता।
हों बाधायें लाख, साहसी आगे बढ़ता।।
***
ताली बजती है तभी, जब मिलते दो हाथ।
एक एक ग्यारह बनें, अगर खड़े हों साथ।।
अगर खड़े हों साथ, अधिक ही ताकत होती।
बनता सुन्दर हार, मिलें जब धागा, मोती।
‘ठकुरेला’ कविराय, सुखी हो जाता माली।
खिलते फूल अनेक, खुशी में बजती ताली ।।
बीते दिन का क्रय करे, इतना कौन अमीर।
कभी न वापस हो सके, धनु से निकले तीर।।
धनु से निकले तीर, न खुद तरकश में आते।
मुँह से निकले शब्द, नया इतिहास रचाते।
‘ठकुरेला’ कविराय, भले कोई जग जीते।
थाम सका है कौन, समय जो पल पल बीते।।
***
आती रहती आपदा, जीवन में सौ बार।
किन्तु कभी टूटें नहीं, उम्मीदों के तार।।
उम्मीदों के तार, नया विश्वास जगायें।
करके सतत प्रयास, विजय का ध्वज फहरायें।
‘ठकुरेला’ कविराय, खुशी तन मन पर छाती।
जब बाधायें जीत, सफलता द्वारे आती।।
***
यदि हम चाहें सीखना, शिक्षा देती भूल।
अर्थवान होती रहीं, कुछ बातें प्रतिकूल।।
कुछ बातें प्रतिकूल, रंग जीवन में भरतीं।
धारायें विपरीत, बहुत उद्वेलित करतीं।
‘ठकुरेला’ कविराय, सुखद संबन्ध निबाहें।
सबसे मिलती सीख, सीखना यदि हम चाहें।।
***
चुप रहना ही ठीक है, कभी न भला प्रलाप।
काम आपका बोलता, जग में अपने आप।।
जग में अपने आप, दूर तक खुशबू जाती।
तम हर लेती ज्योति, कभी गुण स्वयं न गाती।
‘ठकुरेला’ कविराय, स्वयं के गुण क्या कहना।
करके अच्छे काम, भुला देना, चुप रहना।।
***
रत्नाकर सबके लिये, होता एक समान।
बुद्धिमान मोती चुने, सीप चुने नादान।।
सीप चुने नादान, अज्ञ मूंगे पर मरता।
जिसकी जैसी चाह, इकट्ठा वैसा करता।
‘ठकुरेला’ कविराय, सभी खुश इच्छित पाकर।
हैं मनुष्य के भेद, एक सा है रत्नाकर।।
***
यह जीवन है बांसुरी, खाली खाली मीत।
श्रम से इसे संवारिये, बजे मधुर संगीत।।
बजे मधुर संगीत, खुशी से सबको भर दे।
थिरकें सबके पांव, हृदय को झंकृत कर दे।
‘ठकुरेला’ कविराय, महकने लगता तन मन।
श्रम के खिलें प्रसून, मुस्कुराता यह जीवन।।
***
तन का आकर्षण रहा, बस यौवन पर्यन्त।
मन की सुंदरता भली, कभी न होता अंत।।
कभी न होता अंत, सुशोभित जीवन करती।
इसकी मोहक गंध, सभी में खुशियाँ भरती।
‘ठकुरेला’ कविराय, मूल्य है सुन्दर मन का।
रहता है दिन चार, मित्र आकर्षण तन का।।
***
दोष पराये भूलता, वह उत्तम इंसान।
याद रखे निज गलतियां, होता वही महान।।
होता वही महान, सीख ले जो भूलों से।
चुने विजय के फूल, न घबराये शूलों से।
‘ठकुरेला’ कविराय, स्वयं को मुकुर दिखाये।
खुद की रखे संभाल, देखकर दोष पराये।।
***
चन्दन की मोहक महक, मिटा न सके भुजंग।
साधु न छोड़े साधुता, खल बसते हों संग।।
खल बसतें हों संग, नहीं अवगुण अपनाता।
सुन्दर शील स्वभाव, सदा आदर्श सिखाता।
‘ठकुरेला’ कविराय, गुणों का ही अभिनन्दन।
गुण के कारण पूज्य, साधु हो या फिर चन्दन।।
***
भातीं सब बातें तभी, जब हो स्वस्थ शरीर।
लगे बसन्त सुहावना, सुख से भरे समीर।।
सुख से भरे समीर, मेघ मन को हर लेते।
कोयल, चातक, मोर, सभी अगणित सुख देते।
‘ठकुरेला’ कविराय, बहारें दौड़ी आतीं।
तन मन रहे अस्वस्थ, कौन सी बातें भातीं।।
***
जीना है अपने लिये, पशु को भी यह भान।
परहित में मरता रहा, युग युग से इंसान।।
युग युग से इंसान, स्वार्थ को किया तिरोहित।
द्रवित करे पर-पीर, पराये सुख पर मोहित।
‘ठकुरेला’ कविराय, गरल परहित में पीना।
यह जीवन दिन चार, जगत हित में ही जीना।।
***
रहता है संसार में सदा न कुछ अनुकूल।
खिलकर कुछ दिन बाग़ में, गिर जाते हैं फूल।।
गिर जाते हैं फूल, एक दिन पतझड़ आता।
रंग, रूप, रस, गंध, एकरस क्या रह पाता।
‘ठकुरेला’ कविराय, समय का दरिया बहता।
जग परिवर्तनशील, न कुछ स्थाई रहता।।
***
चलता राही स्वयं ही, लोग बताते राह।
कब होता संसार में, कर्म बिना निर्वाह।।
कर्म बिना निर्वाह, न कुछ हो सका अकारण।
यह सारा संसार, कर्म का ही निर्धारण।
‘ठकुरेला’ कविराय, कर्म से हर दुख टलता।
कर्महीनता मृत्यु, कर्म से जीवन चलता।।
***
रिश्ते-नाते, मित्रता, समय, स्वास्थ्य, सम्मान।
खोने पर ही हो सका, सही मूल्य का भान।।
सही मूल्य का भान, पास रहते कब होता।
पिंजरा शोभाहीन, अगर उड़ जाये तोता।
‘ठकुरेला’ कविराय, अल्पमति समझ न पाते।
रखते बडा महत्व, मित्रता, रिश्ते-नाते।।
***
छाया कितनी कीमती, बस उसको ही ज्ञान।
जिसने देखें हो कभी, धूप भरे दिनमान।।
धूप भरे दिनमान, फिरा हो धूल छानता।
दुख सहकर ही व्यक्ति, सुखों का मूल्य जानता।
‘ठकुरेला’ कविराय, बटोही ने समझाया।
देती बड़ा सुकून, थके हारे को छाया।।
***
मकड़ी से कारीगरी, बगुले से तरकीब।
चींटी से श्रम सीखते, इस वसुधा के जीव।।
इस वसुधा के जीव, शेर से साहस पाते।
कोयल के मृदु बोल, प्रेरणा नयी जगाते।
‘ठकुरेला’ कविराय, भलाई सबने पकड़ी।
सबसे मिलती सीख, श्वान, घोड़ा या मकड़ी।।
***
निर्मल सौम्य स्वभाव से, बने सहज सम्बन्ध।
बरबस खींचे भ्रमर को, पुष्पों की मृदुगंध।।
पुष्पों की मृदुगंध, तितलियां उड़कर आतीं।
स्वार्थहीन हों बात, उम्र लम्बी तब पातीं।
‘ठकुरेला’ कविराय, मोह लेती नद कल कल।
रखतीं अमिट प्रभाव, वृत्तियां जब हों निर्मल।।
***
मालिक है सच में वही, जो भोगे, दे दान।
धन जोड़े, रक्षा करे, उसको प्रहरी मान।।
उसको प्रहरी मान, खर्च कर सके न पाई।
हर क्षण धन का लोभ, रात दिन नींद न आई।
‘ठकुरेला’ कविराय, लालसा है चिर-कालिक।
मेहनत की दिन रात, बने चिंता के मालिक।
***
बलशाली के हाथ में, बल पाते हैं अस्त्र।
कायर के संग साथ में, अर्थहीन सब शस्त्र।।
अर्थहीन सब शस्त्र, तीर, तलवार, कटारी।
बरछी, भाला, तोप, गदा, बन्दूक, दुधारी।
‘ठकुरेला’ कविराय, बाग का बल ज्यों माली।
हथियारों का मान, बढ़ाता है बलशाली।।
***
माटी अपने देश की, पुलकित करती गात।
मन में खिलते सहज ही, खुशियों के जलजात।।
खुशियों के जलजात, सदा ही लगती प्यारी।
हों निहारकर धन्य, करें सब कुछ बलिहारी।
‘ठकुरेला’ कविराय, चली आई परिपाटी।
लगी स्वर्ग से श्रेष्ठ, देश की सौंधी माटी।।
***
आया कभी न लौटकर, समय गया जो बीत।
फिर से दूध न बन सका, मटकी का नवनीत।।
मटकी का नवनीत, जतन कर कोई हारे।
फिर से चढ़े न शीर्ष, कभी नदिया के धारे।
‘ठकुरेला’ कविराय, सभी ने यह समझाया।
समय बड़ा अनमोल, लौटकर कभी न आया।।
***
जीवन जीना है कला, जो जाता पहचान।
विकट परिस्थिति भी उसे, लगती है आसान।।
लगती है आसान, नहीं दुख से घबराता।
ढूंढ़े मार्ग अनेक, और बढ़ता ही जाता।
‘ठकुरेला’ कविराय, नहीं होता विचलित मन।
सुख-दुख, छाया-धूप, सहज बन जाता जीवन ।।
— त्रिलोक सिंह ठकुरेला
चलती रहती जिंदगी , ज्यों कागज़ की नाव ।
लोग भटकते लक्ष्य से , करते नहीं चुनाव ।।
करते नहीं चुनाव , हवा खे कर ले जाती ।
कुछ हो जाती पार ,कहीं पर भँवर डुबाती ।
कहे ‘साधना’ सत्य , करो मत कोई गलती ।
हाथ रखो पतवार , नाव तब ढंग से चलती ।।
चढ़ती चींटी सर्वदा , अनथक करे प्रयास ।
ले जाती है शीर्ष तक , बस मंजिल की आस ।।
बस मंजिल की आस ,सदा श्रम करती जाती ।
हो जाता श्रम साध्य , और मंजिल को पाती ।
कहे ‘साधना’ सत्य ,लगन ही आगे बढ़ती ।
देती श्रम की सीख , तुच्छ चींटी जब चढ़ती ।।
जाला मकड़ी बुन रही , करके यही विचार ।
कीट फसेंगे जाल में , कर लूँ सहज शिकार ।।
कर लूँ सहज शिकार , मजे से पेट भरुँगी ।
ऐश करूँ दिन-रात , नहीं अब कभी मरूंगी ।
खुद फँस खुद के जाल , सहज बन गयी निवाला ।
ऐसे ही इंसान , बनाता रहता जाला।।
गढ़ता काँटा पैर में , देता भारी पीर ।
तीखी वाणी भी सदा , मन को देती चीर ।।
मन को देती चीर ,घाव ऐसा हो जाता ।
होते यत्न अनेक , नहीं फिर भी भर पाता ।
कहे ‘साधना’ सत्य ,विवेकी बस यह पढ़ता ।
तन ,मन रहे सचेत , न कोई काँटा गढ़ता ।।
नेकी कर के भूल जा , मत कर उसको याद ।
मिल जायेगा फल तुझे , कुछ दिन के ही बाद ।।
कुछ दिन के ही बाद ,मिले यश ,मान , बड़ाई ।
दे सुख अमित , अपार ,यही है नेक कमाई ।
कहे ‘साधना’ सत्य , याद रखना जाने की ।
मानव बनो प्रबुद्ध , करो तुम हर दिन नेकी ।।
पीड़ा दें संसार में , कुछ अपने ही कर्म ।
लेकिन जो अनभिज्ञ हैं , नहीं जानते मर्म ।।
नहीं जानते मर्म , दोष ईश्वर पर मढ़ते ।
कोसें अपना भाग्य , कहानी नित नव गढ़ते ।
कहे ‘साधना’ सत्य , सुखों की बाजे वीणा ।
करते रहो सुकर्म , हरे ईश्वर सब पीड़ा ।।
आजादी की आड़ में , नारी हुई असभ्य ।
रँगी पश्चिमी रंग में , खुद को समझे सभ्य ।।
खुद को समझे सभ्य, भूल बैठी मर्यादा ।
सभ्य जनों की सीख , न उसको भाती ज्यादा ।
कहे ‘साधना’ सत्य , कर रही खुद बर्बादी ।
विस्मित हैं सब लोग , भला ये क्या आजादी ।।
सेवा का अवसर मिले , तजो स्वार्थ , अभिमान ।
तन , मन से लग जाइये , खुश होता भगवान ।।
खुश होता भगवान ,परम पद पर बैठाता ।
बिन लालच का कर्म , सदा सम्मान दिलाता।
कहे [साधना’ सत्य ,मुफ्त में मिले न मेवा ।
निज दायित्व सँभाल , यही है सच्ची सेवा ।।
पाला जिसने भी यहाँ , अति लगाव का रोग ।
तृप्त नहीं कर पायेंगे , उसे जगत के भोग।।
उसे जगत के भोग ,लालसा बढ़ती जाये ।
जैसे घृत से आग , न बुझती कभी बुझाये ।
कहे ‘साधना’ सत्य, हो रहा क्यों मतवाला ।
कब उसका कल्याण , रोग जिसने यह पाला ।।
बेटी को दे दीजिये , शिक्षा औ’ संस्कार ।
भारत की संस्कृति बचे, फिर से करो विचार।।
फिर से करो विचार , अपाला और गार्गी ।
संस्कारों की देन , बनीं वे ज्ञान-मार्गी ।
कहे ‘साधना’ सत्य , खुशी की भर दे पेटी ।
समुचित करो विकास , कुलों को तारे बेटी ।
सपने देखो जागकर , और करो साकार ।
अनथक परिश्रम हो अगर , लेंगे वे आकार ।।
लेंगे वे आकार , नया निर्माण करोगे ।
हासिल होगा लक्ष्य , राष्ट्र का भला करोगे ।
कहे ‘साधना’ सत्य , कर्मफल होते अपने।
जो भी लेता ठान , सत्य हो जाते सपने ।।
योगी तन से हो गये , मन से गया न भोग ।
फिरते हैं बहुरूपिये, संत समझते लोग ।।
संत समझते लोग , भीड़ भक्तों की बढ़ती ।
धन-सम्पदा बटोर , कर रहे अपनी चढ़ती ।
कहे ‘साधना’ सत्य , जगत को ठगते भोगी ।
धन,पद,यश की चाह , न करता सच्चा योगी ।।
सुख-सुविधा ज्यादा मिली , रोगी हुआ शरीर।
आलस बढ़ता ही गया , भोग रहे अब पीर ।।
भोग रहे अब पीर , सुखों का करें दिखावा ।
हो यथार्थ से दूर , स्वयं से करें छलावा ।
कहे ‘साधना’ सत्य , न रहती कोई दुविधा ।
श्रम से बने शरीर , यही सच्ची सुख-सुविधा ।।
रोगी ,दीन , दरिद्र पर , करो अनुग्रह आप ।
हरो कुटुम्बी स्वजन के , तुम सारे संताप ।।
तुम सारे संताप , होय कल्याण तुम्हारा ।
गौरव बढ़ता जाय , बढ़ेगा भाईचारा ।
कहे ‘साधना; सत्य ,वही है सच्चा योगी ।
हरे सभी के कष्ट , दीन हो या हो योगी ।।
वाणी औ’ मन पर रखो , सदा नियंत्रण आप ।
स्वयं दूर हो जायेंगे , जीवन के संताप ।।
जीवन के संताप ,शीलनिधि लोग कहेंगे ।
आकर्षक व्यक्तित्व ,धनी हम बने रहेंगे ।
कहे ‘साधना’ सत्य , ठीक कब है मनमानी।
मन पर लगाम , सँभल कर बोलो वाणी ।।
सीमा पर लड़ते हुए , वीर दे रहे जान ।
उनको मिलना चाहिये , पग पग पर सम्मान ।।
पग पग पर सम्मान , हौसला नित्य बढ़ाऐं ।
मिले वीर को न्याय , सुरक्षित हों सीमाऐं ।
कहे ‘साधना’ सत्य , धन्य है आज वही माँ ।
जन्में वीर सपूत , सुरक्षित कर दे सीमा ।।
माता अपनी कोख से मत जन ऐसा लाल ।
करे कलंकित कोख को , झुके देश का भाल।।
झुके देश का भाल , सभ्यता नष्ट करेगा ।
जाए यदि परदेश , शर्म से डूब मरेगा ।
कहे ‘साधना’ सत्य , समय हमको समझाता ।
करे सुसंस्कृत वत्स , कोख में से ही माता ।।
रोटी ,कपड़ा और घर , सबको ही दरकार ।
इन तीनों ही वस्तु पर , सबका हो अधिकार ।।
सबका हो अधिकार ,और सब खुशी मनायें ।
स्वाभिमान के साथ ,सभी जीवन जी पायें ।
कहे ‘साधना’ सत्य , बात यह इतनी छोटी ।
जो कर ले पुरुषार्थ , मिले घर , कपड़ा , रोटी ।।
द्वापर में कब मिल सका , द्रुपद – सुता को न्याय ।
कलयुग में भी हो रहा , उसके प्रति अन्याय ।।
उसके प्रति अन्याय , बात कैसी गढ़ डाली ।
हुआ प्रचारित झूँठ , द्रोपदी ने दी गाली ।
कहे ‘साधना’ सत्य ,महाभारत समझाकर ।
दो नारी को न्याय , भले कलयुग या द्वापर ।।
शुक्ल पक्ष का चाँद है , भले व्यक्ति का नेह ।
कृष्ण पक्ष के चाँद सम , दुर्जन करें सनेह ।।
दुर्जन करें सनेह , स्वार्थ से उसका नाता ।
पल पल घटता प्रेम ,स्वार्थ यदि ना सध पाता ।
कहे ‘साधना’ सत्य ,प्रेम है राम , कृष्ण का ।
बढ़ता रहता नित्य , चाँद ज्यों शुक्ल पक्ष का ।।
सूरज कोप प्रचंड है,व्याकुल है संसार।
ऐसा लगता गगन से ,बरस रहे अंगार।।
बरस रहे अंगार ,हुआ है दूभर जीना।
बहता खूब प्रस्वेद,वस्त्र काया पर झीना।
कहीं न मिलता चैन,चुका जाता है धीरज।
टूट रहा बन कहर,धरा पर क्यों ये सूरज।।
******************
विस्मित मत होना कभी,देख समय का फेर।
अंधे के भी हाथ में ,लगती दिखी बटेर।।
लगती दिखी बटेर, निराली प्रभु की माया।
दिखे कहीं पर धूप ,कहीं पर फैली छाया।
कर्म, भाग्य, प्रारब्ध,परस्पर रहते गुम्फित।
जो इससे अनजान ,वही होते हैं विस्मित।।
******************
दिखा अँगूठा चल दिए,कभी न आए काम।
दुनिया इनको मित्र का , देती कैसे नाम।।
देती कैसे नाम, स्वार्थ में डूबे रहते।
अवसर रहे तलाश, स्वयं को नागर कहते।
कभी न आते काम ,करें बस वादा झूठा।
बनकर मित्र तमाम, दिखाते रहे अँगूठा।।
******************
बोलो अंतिम काल में,होगा कैसे काम।
अगर-मगर करते रहे,हुई सुबह से शाम।।
हुई सुबह से शाम, बैठ अब रोना रोते।
समझा नहीं महत्त्व,जिंदगी बीती सोते।
धर्म-तुला पर काम,हमेशा अपने तोलो।
प्यारे प्रभु का नाम,समय जब मिलता बोलो।।
******************
अपने पैरों पर खड़े ,होते हैं वे लोग।
नहीं सफलता मानते,जो केवल संयोग।।
जो केवल संयोग,मानकर रचें कथानक।
साक्षी है इतिहास, नहीं वे होते नायक।
वे ही भरें उड़ान, पूर्ण हों उनके सपने।
करते हैं उपयोग,शक्ति का जो भी अपने।।
******************
अपने मुँह मिट्ठू मियाँ,जो बनते हैं लोग।
आत्ममुग्धता का उन्हें,होता तगड़ा रोग।।
होता तगड़ा रोग ,सुनाना रोज कहानी।
करना खुद पर गर्व,समझना खुद को ज्ञानी।
जो रहते सामान्य,पूर्ण हों उनके सपने।
करना नहीं घमंड, दूर हो जाते अपने।।
******************
जीवन में जब भी कभी,होतीं आँखें चार।
परिवर्तित होने लगे,अनायास व्यवहार।।
अनायास व्यवहार,दिखे करता मनमानी।
करते खूब सिंगार, समझते राजा रानी।
होता है उत्साह,तरसता मिलने को मन।
मिल जाता जब प्रेम,सुहाना लगता जीवन।।
******************
होते अच्छे समय में, मित्र हमेशा ढेर।
बुरे वक्त में लोग सब, लेते आँखें फेर।।
लेते आँखें फेर,पकड़ता हाथ न कोई।
यह है सच्ची बात,नहीं है किस्सागोई।
जो रहते हैं साथ,लगाते सुख में गोते।
दें मुश्किल में साथ,मित्र कम ऐसे होते।।
******************
कोई भी अंतर नहीं ,दोनों एक समान।
बेटा-बेटी एक-से ,ईश्वर के वरदान।।
ईश्वर के वरदान,जगत ये कहता सारा।
मानें बेटी हेय, पुत्र आँखों का तारा।
बेटी से दुर्व्यवहार, देख मानवता रोई।
सब देते उपदेश, मानता मगर न कोई।।
******************
आया कैसा दौर ये, मिटी फिक्र परवाह।
मनमानी सब कर रहे,सुनें न नेक सलाह।।
सुनें न नेक सलाह, मरा आँखों का पानी।
पकड़ी पश्चिम चाल,बहकती दिखी जवानी।
करें प्रदर्शन अंग ,लगाए गले पराया।
ये कैसा उत्थान ,दौर ये कैसा आया।।
******************
विरहानल में जल रही, सह भीषण अभिशाप ।
राम नाम की मुद्रिका, लेकर आये आप ।
लेकर आये आप, राह अब सरल बनेगी ।
प्रभु – चरणों से दूर, प्रीति पर अटल बनेगी ।
रघुकुल – भूषण राम, रहें मन में हर पल में ।
बचे रहेंगे प्राण, जल रही विरहानल में ।।
***
मिली अँगूठी राम की, ले आये हनुमान ।
विरह अवधि में अब यही, जीवन की पहचान ।
जीवन की पहचान, प्रीति करुणानिधान की ।
बहा हर्ष के अश्रु, रुदन कर रही जानकी ।
गये प्राणप्रिय भूल, कल्पना थी वह झूठी ।
बनी अवधि आधार, राम की मिली अँगूठी ।।
***
चढ़ी हिंडोले डालियां, झुला रहा है वात ।
जादू की जाली बुने,फिर पूनम की रात ।
फिर पूनम की रात, पत्तियों से छन छन कर।
करे नवल सिंगार, चांदनी गोरी बन कर।
चुरा रही है चित्त, रूपसी यह बिन बोले।
करती सुख आह्वान, चंद्रिका चढ़ी हिंडोले।।
***
बचपन की किलकारियां, वह मीठी सी याद ।
फिर से हम जी लें चलो, बहुत दिनों के बाद ।
बहुत दिनों के बाद, चलो खोलें दरवाजा ।
बंद रही जो याद, कहें फिर सम्मुख आजा ।
छूट न जाये साथ, न हो साथी से अनबन ।
यादों की सौगात, मिली फिर जी लें बचपन ।।
***
व्याकुल मन से सोचती, नीलांबर को देख ।
पढ़ न सका कोई कभी, क्रूर नियति का लेख ।
क्रूर नियति का लेख, न आगत जाये जाना ।
सुख या दुख आघात, उसे ही सहे जमाना ।
बन जाते हैं शत्रु, सदा संबंधी मातुल ।
देते रहते दुक्ख, किया करते मन व्याकुल ।।
***
झोली भरी गुलाल से, उड़ी रंग की धार ।
हृदय तरंगित कर रहा, होली का त्यौहार ।
होली का त्यौहार, थाप पड़ रही ढोल पर ।
थिरक रहे हैं पांव, होलिका गीत बोल पर ।
भर उमंग से लोग, भंग की खायी गोली ।
भेद भाव सब भूल, रंग भर लाये झोली ।।
***
आँखों में जागा करे, नित सपना सुकुमार ।
व्यर्थ न होने दें मगर, जीवन के दिन चार ।
शैशव बचपन काल, नित्य डूबे सपनों में ।
यौवन में जग भूल, रहे खोये अपनों में ।
ज्यों पानी की बूंद, न ठहरें खग पाँखों में ।
आँसू – से दिन रैन, ठहरते कब आँखों में ।।
***
बजती मनहर बांसुरी, बिखराती प्रिय गीत ।
कृष्ण कुशल मन-हरण में, बना सभी का मीत ।
बना सभी का मीत, सदा आनंद लुटाता ।
प्यार भरा यह ढंग, सभी के मन को भाता ।
बरसाता नभ नेह, धरा हरि हित है सजती ।
ले राधा की प्रीत, कृष्ण की वंशी बजती ।।
***
आया सावन मास शुभ, शंकर का प्रिय वार ।
नील गगन से घन सघन, बरसाता जल-धार ।
बरसाता जल – धार, शंभु को है नहलाता ।
बेल – पत्र मंदार, आक निज सुमन चढ़ाता ।
करिए व्रत उपवास, मास सब के मनभाया ।
शिव जी का श्रृंगार, कराने सावन आया ।।
***
अवध पुरी में आ गये, रघुनंदन श्रीराम ।
पावन धरती हो गई, मंगलमय यह धाम ।
मंगलमय यह धाम, राम आ गए नगर में ।
करने पूरण काम, सिया संग आए घर में ।
रहा उपेक्षित ब्रह्म, रहा जो सदा धुरी में ।
करने जन कल्याण, पधारा अवधपुरी में ll
पथ के कंटक भूलकर, बढ़ते जाओ मीत |
आने वाला हर दिवस, दे जाएगा जीत ||
दे जाएगा जीत,काल की बोली कहती |
प्रतिपल दे संकेत, हमें चेताती रहती | मिले नहीं नवनीत, ‘रीत’ पानी को मथ के |
करते रहना कर्म, भूलकर कंटक पथ के ||
आहट फागुन की हुई, मीठी हुई बयार |
रंगों भरी उमंग में, बहक रहा संसार ||
बहक रहा संसार, पहन मस्ती का बाना |
बरसें रंग अबीर, फाग ज्यूँ खेले कान्हा |
पा रंगो का साथ, भरें रिश्ते गर्माहट |
लिये मधुरता ‘रीत’, हुई फागुन की आहट ||
जब तक अंतिम साँस है, तूफानों से ऱार |
जलता दीपक कह रहा, नही माननी हार ||
नही माननी हार, मुझे जलते जाना है |
अपना तनिक उजास, जगत में बिखराना है |
लौ बढ़ जाये और, आखिरी जब हो दस्तक |
कुछ कर ले तूफ़ान, लडूँगा साँसे जब तक ||
बनते हैं आदर्श जब, दुनिया में कुछ लोग |
रचते हैं इतिहास को, संकल्पों के योग ||
संकल्पों के योग, अटल-पथ बढ़ते जाते |
बाधायें हो लाख, कहाँ कब वे घबराते |
कहती ‘रीत’ यथार्थ, संकटों में हैं छनते |
लोग वही आदर्श, उद्धरण जग में बनते ||
सरिता बहती जा रही, बाधाओं को चीर |
अपनी राहें ढूँढकर, आगे बढ़ता नीर ||
आगे बढ़ता नीर, और पत्थर घिस देता |
बह निकले जो संग, साथ उसको ले लेता |
सरिता जीवन-दर्श, लगे ज्यों कविता कहती |
बढ़ हर बाधा चीर, कह रही सरिता बहती ||
कितनी प्यारी सी लगें, बिटिया चिड़िया धूप |
रोशन करतीं चहककर, आँगन का हर रूप ||
आँगन का हर रूप, बदल ही इनसे जाता |
इनके आते गेह, एक रौनक सी पाता |
करतीं नभ पर राज, बात ये इनकी न्यारी |
बिटिया चिड़िया धूप,तभी तो कितनी प्यारी।।
साँकल तेरे पाँव में, दूर बहुत आकाश |
अरी! चिड़कली किन्तु तूँ, होना नहीं निराश ||
होना नहीं निराश, पंख फैलाती रहना |
एक न इक दिन टूट, गिरेंगे बंधन, है ना?
पलट समय के साथ,कहें क्या कौन यहाँ कल।
बन जाये औजार, पाँव की जो है साँकल ||
दुनिया हाँडी में भरा, माया का नवनीत |
जुगत लगायें इंद्रियाँ, भोग लगे नित, मीत ||
भोग लगे नित, मीत, व्यर्थ की भागा-दौड़ी |
जीवन जाता बीत, जोड़कर कौड़ी-कौड़ी |
शेष विरासत ‘रीत’, सँभालें मुन्ना-मुनिया |
चलता रहता चक्र, घूमती हाँडी दुनिया ||
होती है उसकी विजय, लेता जो संकल्प |
श्रम से प्रतिउत्तर करे, व्यर्थ न करता जल्प ||
व्यर्थ न करता जल्प, विज्ञ हो या हो साक्षर |
परबत पर जो लीक, खींच करता हस्ताक्षर |
अपने बल जो ‘रीत’, निकाले नग या मोती |
करता रहे प्रयास, विजय है उसकी होती ||
कुदरत हमको जाँचती, कठिनाई में डाल |
संयम धीरज नम्रता, देते हमें निकाल ||
देते हमें निकाल, परीक्षा की घड़ियों से |
उचित कर्म की राह,मिलाती शुभ-कड़ियों से |
कहती ‘रीत’यथार्थ,सफलता की यह कसरत|
करवाती है मित्र, हमेशा सबको कुदरत ||
खूब उँलीचो प्रेम घट,जीवन है अनमोल।
रिश्तों में रस घोलते,शहद-पगे दो बोल।
शहद-पगे दो बोल, हरे है सारी पीड़ा।
अब तो दृग-पट खोल,मार नफरत का कीड़ा।
मन-आँगन के बीच, घृणा रेखा मत खींचो।
नहीं करो अब देर,प्रेम-घट खूब उँलीचो।।
तन-मन पर जितने चुभे,विपदाओं के शूल।
उतना खिलता ही गया,जीवन रूपी फूल।
जीवन रूपी फूल, महकता ही रहता है।
हो सबकुछ अनुकूल,किला दुख का ढहता है।
मुखरित होता हर्ष,चहक उठता मन-उपवन।
खूब करो संघर्ष,खिलेगा अपना तन-मन।।
आह्लादित तन-मन हुआ,कर ममता का पान।
छंदों से वन्दन करूँ, इतना देना ज्ञान
इतना देना ज्ञान,मुझे हे!वीणापाणी।
तज कर निज अभिमान,रखूँ अनुशासित वाणी।
पाकर माँ का नेह,हुआ जीवन आच्छादित।
पाकर प्रेम-पुनीत,हृदय होता आह्लादित।
रीते -घट भर प्रेम से,हो नफरत का नाश।
मावस को रोशन करे,जगमग दीप-प्रकाश,
जगमग दीप प्रकाश,सजी दुल्हन-सी मुँडेरे।
निज-आँगन में आज,करें खुशियाँ पग-फेरे।।
मन में है विश्वास,तभी तो हम सब जीते।
करे प्रेम का ह्रास,वही रहते है रीते।
आज निभाएँ प्रीत हम,नफरत जाए हार।
जगमग होंगे घर तभी,दीप जले हर -द्वार।
दीप जले हर-द्वार,तमस पल में है हारा।
जगमग है संसार, हुआ चहुँ-दिश उजियारा।
हुई व्याधि सब खत्म,सभी मिल मौज मनाएँ।
प्रेम-भाव की रस्म, चलो हम आज निभाएँ।।
परिवर्तन से ही खिले,जग में मधुरिम-फूल।
मान सको तो मान लो,जीवन का यह मूल।
जीवन का यह मूल,जिन्दगी महका देता।
तूफानों के बीच,तभी मंजिल पा लेता।
चले समय के साथ, विपद का करता मर्दन।
शकुन वहीं हो नित्य, देहरी पर परिवर्तन।
नाता श्रम से जोड़ कर,भी रहता लाचार।
माँ को नित्य पुकारता,रखकर आस कुम्हार।
रखकर आस कुम्हार,चाक फेरे रोजाना।
खूब करे मनुहार,रमा जी निज-घर आना।
रूखा-सूखा भोग,ग्रहण कर लेना माता।
बनाकर सुखद-योग,जोड़ना मुझसे नाता।।
कैसे-कैसे लोग हैं,कैसा यह संसार?
भूले अपनों को सभी,कर दौलत से प्यार,
कर दौलत से प्यार,एक दिन सब पछ्ताते।
पाते कष्ट अपार,द्वार ईश्वर के जाते।
रोज करें विष-पान,तिजोरी में भर पैसे।
विपद पड़े जब आन,पार पाएँ अब कैसे??
बहके कदमों से कभी,पार न लगती नाव।
अटके है मझधार में,जिस मन में भटकाव।।
जिस मन में भटकाव,वही खाता है ठोकर।
निशि-दिन खाता ताव,बुद्धि अपनी वो खोकर।
रिसने लगते घाव,मार काँटों की सहके।
होता नहीं भराव,’शकुन’तन-मन भी बहके।।
अनदेखा करता पिता, बेटे की करतूत।
मर-मर कर जीता सदा,सहकर कष्ट-अभूत।
सहकर कष्ट-अभूत,रात-दिन घुटता रहता।
अधरों पर धर मौन,किसी से कब कुछ कहता।
साथ लगे भी कौन,भाग्य का सारा लेखा।
निकला पूत कपूत,करे सबको अनदेखा।।
सुख में छाती पीटते , संकट में करताल ।
हमदर्दी का आजकल , है कुछ ऐसा हाल ।।
है कुछ ऐसा हाल , ग़ैर का सुख न सुहाए ।
कल का मरता आज , भले ही जग मर जाए ।
कह गुलिया कविराय , खुशी ये खोजें दुख में ।
लगती इनको ठेस , किसी को देखें सुख में ।।
बढ़ता ही अब जा रहा , जन जन में अवसाद ।
इसके कारण हो रहे , कितने घर बर्बाद ।।
कितने घर बर्बाद , चाह जीवन की छीने ।
बढ़े नकारा सोच , नहीं जो देती जीने ।
कह गुलिया कविराय , भाव कुंठा का चढ़ता ।
करता आत्मघात , रोग जब हद से बढ़ता ।।
मिलते हैं संसार में , भाँति भाँति के लोग ।
करें किनारा कुछ यहाँ , कुछ करते सहयोग ।।
कुछ करते सहयोग , काम ये हरदम आते ।
करें कभी ना छेद , यहाँ जिस थाली खाते।
कह गुलिया कविराय , देख जिनको दिल खिलते ।
मुझे बताओ , मीत , कहाँ अब ऐसे मिलते।।
करना चाहें नौकरी , मानें ना आदेश ।
जाने कैसे लोग ये , कैसा ये परिवेश ।।
कैसा ये परिवेश , करें ना तनिक कमाई ।
घर में भूखे मूष , तोड़ते हैं अँगड़ाई ।
कह गुलिया कविराय ,छोड़ दो कान कतरना ।
करो कमाई नेक , ऐश जो चाहो करना ।
अपने कटते दिन नहीं , दें दूजों को दान ।
कदम कदम भूलोक में , हैं ऐसे इंसान ।।
हैं ऐसे इंसान , दिखावा झूठा करते ।
खुद हैं जो बेज़ार , पीर दूजों की हरते ।
कह गुलिया कविराय ,कहाँ सच होते सपने ।
विपदा में दें साथ , वही होते हैं अपने ।।
भूखे की बस चाह ये , मिलें रोटियाँ दाल ।
भरे पेट की लालसा , खूब मिले धन माल ।।
खूब मिले धन माल , बने हम वैभवशाली ।
रखना हरदम याद , बात ये बड़ी निराली ।
नफरत से मत देख, खिला कर मेवे सूखे ।
निर्धन हों या सेठ , सभी आदर के भूखे ।।
डालें सिर ये ओखली , मूसल से संत्रास ,
नई नस्ल की सोच ये , बनी आज उपहास .
बनी आज उपहास , उन्हें अब कौन उबारे
करते जन जो काज , बिना ही सोच विचारे .
कह गुलिया कविराय , मदद का वहम न पालें ,
मंत्र पढ़े जो ग़ैर , हाथ ना बाँबी डालें.
अपना भारत देश ये , बने जगत सिरमौर ।
इतनी सी है कामना , चाह नहीं कुछ और ।।
चाह नहीं कुछ और , किसी पर करें चढ़ाई ।
बढ़े विश्व में प्यार , सुनो बहन और भाई ।
कह गुलिया कविराय , यही हो सबका सपना ।
बने विश्व सरदार , देश ये भारत अपना ।।
पानी पीकर देश का , बनना पानीदार ।
यही समय की मांग है , ये ही लोकाचार ।।
ये ही लोकाचार , बड़ा आदर को मानो ।
बहुत कीमती नीर , मोल इसका भी जानो ।
कह गुलिया कविराय , करो मत ये नादानी ।
बड़ा बड़ों का मान , फेर ना देना पानी ।।
हर ले सब के कष्ट जो , दूर करे संत्रास ।
जादू की ऐसी छड़ी , नहीं किसी के पास ।।
नहीं किसी के पास , सभी को खुशियाँ बाँटे ।
पुष्प बिछा दे राह , खार रस्ते से छाँटे ।
कह गुलिया कविराय , ईश का सुमिरन कर ले ।
वो ही पालनहार , विपद जो सब की हर ले ।।
अपनी-अपनी सोच है, अपना राग-विराग।
कोई शीतल चाँदनी, कोई तपती आग।।
कोई तपती आग, जलाकर रख देती है।
कोई बनकर चन्द्र, सभी दुख हर लेती है।
कह कविवर इन्द्रेश, नहीं है कोई नपनी।
सब किस्मत का खेल,बुद्धि है अपनी-अपनी।।
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आये पति घर लौटकर, दीजै उसका ध्यान।
प्रेम सुधा बरसाइये, आधी मिटे थकान।।
आधी मिटे थकान, धीर कुछ मन में धरिये।
ला मुख पर मुस्कान, प्रेम से बातें करिये।
कह कविवर इन्द्रेश, तभी सुन्दरता भाये।
मन भी सुन्दर होय, सदन धन-वैभव आये।।
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आशुतोष हैं आप प्रभु, नौका खेवनहार।
दानी-वरदानी महा, विनवहुँ बारम्बार।।
विनवहुँ बारम्बार, करो प्रभु रक्षा मेरी।
दुख से लेउ उबारि, शरण मैं आया तेरी।
कह कविवर इन्द्रेश, दास में बहुत दोष हैं।
पल में देउ नशाय, आप तो आशुतोष हैं।।
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आशा के अनुरूप जब काम करें नहिं पूत।
मातु पिता भी क्या करें, सम्पति भरी अकूत।।
सम्पति भरी अकूत, नष्ट सब होते देखा।
दगा भी देगा सगा, करे क्या किस्मत-रेखा।
कह कविवर इन्द्रेश, चतुर्दिक दिखे निराशा।
गलत करो यदि कार्य छोंड़ दीजै शुभ आशा।।
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जिसके जीवन में सदा, सर्वोपरि है काम।
ऐसे कर्मठ श्रमिक को, बारम्बार प्रणाम।।
बारम्बार प्रणाम, आप सब भाग्यविधाता।
जानें तीन न पाँच, कर्म से केवल नाता।
कह कविवर इन्द्रेश, भरोसे हैं सब उसके।
देते हम सम्मान, कर्म पूजित हैं जिसके।।
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ऐसे भी कुछ लोग हैं, ऐसा मिला नसीब ।
धन के बहुत अमीर हैं, मन के बहुत गरीब।।
मन के बहुत गरीब, रात दिन चौन न पाते।
कर पैसे से प्यार, दौड़ दिन-रात लगाते।
कह कविवर इन्द्रेश, मक्खीचूस हैं कैसे।
नहिं इज्जत-ईमान, फेर पैसे के ऐसे।।
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करते जो नर साधना, धेय निष्ठ निष्काम।
पाते अपने लक्ष्य को, जग में होता नाम।।
जग में होता नाम, सभी से आदर पाते।
थोड़े से श्रम माँहिं, सभी कारज बन जाते।
कह कविवर इन्द्रेश, देव सम धरा विचरते।
दुनिया हाथों लेत, काम जो अच्छे करते।।
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माया को सब जानते, ठगती बारम्बार।
लेकिन लालच है बुरा, फँस जाते हरबार।।
फँस जाते हरबार,काम क्या-क्या कर जाते।
निकले कइयों बार,किन्तु फिरभी फंस जाते।
कह कविवर इन्द्रेश, जहाँ अपना गुण गाया।
जाते सब कुछ भूल, है अच्छी लगती माया।।
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मारो बेटी गर्भ में, बहुत बुरी है बात।
बेटी घर की लक्ष्मी, समझ लीजिए तात।।
समझ लीजिए तात, सृष्टि है हमें बचाना।
बेटी दीन्हा मार, पड़ेगा फिर पछताना।
कह कविवर इन्द्रेश, जरा मन माँहि विचारो।
बेटी जग का सार, बन्धु बेटी मत मारो।।
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मूल से प्यारा ब्याज है, कहते हैं सब लोग।
प्यारा मुझे सुपौत्र है यह भी है संयोग।।
यह भी अति संयोग बहुत ही होनहार है।
सद्बुद्धी सुचि नेक सभी से सरोकार है।
कह कविवर इन्द्रेश न गल्ती करे भूल से।
सही कहें सबलोग, ब्याज प्रिय होत मूल से।।
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