जिसे तुम कविता कहते हो/नरेन्द्र सोनकर ‘कुमार सोनकरन’
बिल्कुल ही एक मजदूर की तरह जब खुद को जोड़ा हूं झिंझोड़ा हूं दिन रात आंखों को फोड़ा हूं निचोड़ा हूं तब जाकर कहीं कुछ पंक्तियां लिख पाया हूं जिसे तुम कविता कहते हो दरअसल यह कविता नही मेरी आंखों का छिना हुआ सुकून है परिश्रम है; पसीना है; खून है