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मैं पूछता हूँ/कविता/अवतार सिंह संधू ‘पाश’

मैं पूछता हूँ आसमान में उड़ते हुए सूरज से

क्या वक़्त इसी का नाम है

कि घटनाए कुचलती हुई चली जाए

मस्त हाथी की तरह

एक समूचे मनुष्य की चेतना को?

कि हर सवाल

केवल परिश्रम करते देह की गलती ही हो

 

क्यों सुना दिया जाता है हर बार

पुराना लतीफा

क्यों कहा जाता है हम जीते है

ज़रा सोचें –

कि हममे से कितनो का नाता है

ज़िन्दगी जैसी किसी चीज़ के साथ!

 

रब्ब की वह कैसी रहमत है

जो गेहू गोड़ते फटे हाथो पर

और मंडी के बीच के तख्तपोश पर फैले मांस के

उस पिलपिले ढेर पर

एक ही समय होती है ?

 

आखिर क्यों

बैलों की घंटियों

पानी निकालते इंज़नो के शोर में

घिरे हुए चेहरों पर जम गयी है

एक चीखती ख़ामोशी ?

 

कौन खा जाता है तलकर

टोके पर चारा लगा रहे

कुतरे हुए अरमानो वाले पट्ठे की मछलियों?

 

क्यों गिड़गिडाता है

मेरे गाँव का किसान

एक मामूली पुलिस वाले के सामने ?

क्यों कुचले जा रहे आदमी के चीखने को

हर बार कविता कह दिया जाता है ?

मैं पूछता हूँ आसमान में उड़ते हुए सूरज से

 

लेखक

  • अवतार सिंह संधू (9 सितम्बर 1950 - 23 मार्च 1988), जिन्हें सब पाश के नाम से जानते हैं पंजाबी कवि और क्रांतिकारी थे। उनका जन्म 09 सितम्बर 1950 को ग्राम तलवंडी सलेम, ज़िला जालंधर और निधन 37 साल की युवावस्था में 23 मार्च 1988 अपने गांव तलवंडी में ही हुआ था। वे गुरु नानक देव युनिवर्सिटी, अमृतसर के छात्र रहे हैं। उनकी साहित्यिक कृतियां, लौहकथा, उड्ड्दे बाजाँ मगर, साडे समियाँ विच, लड़ांगे साथी, खिल्लरे होए वर्के आदि हैं। पाश एक विद्रोही कवि थे। वे अपने निजी जीवन में बहुत बेबाक थे, और अपनी कविताओं में तो वे अपने जीवन से भी अधिक बेबाक रहे। वे घुट घुटकर, डर डरकर जीनेवालों में से बिलकुल नहीं थे। उनको सिर्फ अपने लिए नहीं बल्कि सबके लिए शोषण, दमन और अत्याचारों से मुक्त एक समतावादी संसार चाहिए था। यही उनका सपना था और इसके लिए आवाज़ उठाना उनकी मजबूरी थी। उनके पास कोई बीच का रास्ता नहीं था। त्रासदी यह भी कि भगतसिंह को आदर्श मानने वाले पाश को भगतसिंह के ही शहादत दिन 23 मार्च 1988 को मार दिया गया। धार्मिक कट्टरपंथ और सरकारी आतंकवाद दोनों के साथ एक ही समय लड़ने वाले पाश का वही सपना था जो भगतसिंह का था। कविताओं के लिए ही पाश को 1970 में इंदिरा गांधी सरकार ने दो साल के लिए जेल में डाला था।  

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