रूह अपनी न हुई जिस्म भी अपना न हुआ काट दी उम्र जहाँ वो भी हमारा न हुआ मिल गईं ख़ाक में सब आसमाँ उनका न हुआ जिन पतंगों का तेरे शह्र में जाना न हुआ घर का हर शख़्स मिलनसार था पर जाने क्यों बात जिससे मैं कहूँ मन की वो रिश्ता न हुआ पूछती रहतीं हैं ख़ामोश निगाहें मुझसे क्यों मेरी आँखों का सपना कभी तेरा न हुआ आँखों ने ख़्वाबों की चुपचाप मिटा दी हस्ती ज़ह्र की सोच प जब दिल को भरोसा न हुआ ख़ूब मसरूफ़ रखा काम में ख़ुद को "निर्मल" दूर दिल फिर भी सितमकेश से अपना न हुआ
रूह अपनी न हुई जिस्म भी अपना न हुआ/ग़ज़ल/रचना निर्मल