ख़यालों की बना कर डोर हर क़िस्से में रहती है तमन्ना हर घड़ी इस दिल को उकसाने में रहती है गुज़र कर हर घड़ी माज़ी के अफ़्साने में रहती है वो आप को हर वक़्त दुहराने में रहती है कहाँ उसको दिखाई देगा अपना चाक पैराहन जो बस हर वक़्त उलझी ज़ुल्फ़ें सुलझाने में रहती है यही सब सोच कर उम्मीद को ज़िंदा रखा दिल में सहर की आँच भी कुछ देर तो तारे में रहती है भला इस्लाह उसकी काम क्या आएगी अपने जो सुलझती बात को भी यार उलझाने में रहती है तू माने या न माने पर हक़ीक़त है यही “निर्मल” समझ अच्छे बुरे की उसके हर बंदे में रहती है
क़िस्से में रहती है/ग़ज़ल/रचना निर्मल