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बादल को घिरते देखा है/कविता/नागार्जुन

अमल धवल गिरि के शिखरों पर,
बादल को घिरते देखा है।

छोटे-छोटे मोती जैसे
उसके शीतल तुहिन कणों को,
मानसरोवर के उन स्वर्णिम
कमलों पर गिरते देखा है,

बादल को घिरते देखा है।

तुंग हिमालय के कंधों पर
छोटी बड़ी कई झीलें हैं,
उनके श्यामल नील सलिल में
समतल देशों से आ-आकर
पावस की उमस से आकुल
तिक्त-मधुर विषतंतु खोजते
हंसों को तिरते देखा है।

बादल को घिरते देखा है।

ऋतु वसंत का सुप्रभात था
मंद-मंद था अनिल बह रहा
बालारुण की मृदु किरणें थीं
अगल-बगल स्वर्णाभ शिखर थे
एक-दूसरे से विरहित हो
अलग-अलग रहकर ही जिनको
सारी रात बितानी होती,
निशा-काल से चिर-अभिशापित
बेबस उस चकवा-चकई का
बंद हुआ क्रंदन, फिर उनमें
उस महान् सरवर के तीरे
शैवालों की हरी दरी पर
प्रणय-कलह छिड़ते देखा है।

बादल को घिरते देखा है।

शत-सहस्र फुट ऊँचाई पर
दुर्गम बर्फानी घाटी में
अलख नाभि से उठने वाले
निज के ही उन्मादक परिमल-
के पीछे धावित हो-होकर
तरल-तरुण कस्तूरी मृग को
अपने पर चिढ़ते देखा है,

बादल को घिरते देखा है।

कहाँ गय धनपति कुबेर वह
कहाँ गई उसकी वह अलका
नहीं ठिकाना कालिदास के
व्योम-प्रवाही गंगाजल का,
ढूँढ़ा बहुत किन्तु लगा क्या
मेघदूत का पता कहीं पर,
कौन बताए वह छायामय
बरस पड़ा होगा न यहीं पर,
जाने दो वह कवि-कल्पित था,
मैंने तो भीषण जाड़ों में
नभ-चुंबी कैलाश शीर्ष पर,
महामेघ को झंझानिल से
गरज-गरज भिड़ते देखा है,

बादल को घिरते देखा है।

शत-शत निर्झर-निर्झरणी कल
मुखरित देवदारु कनन में,
शोणित धवल भोज पत्रों से
छाई हुई कुटी के भीतर,
रंग-बिरंगे और सुगंधित
फूलों की कुंतल को साजे,
इंद्रनील की माला डाले
शंख-सरीखे सुघड़ गलों में,
कानों में कुवलय लटकाए,
शतदल लाल कमल वेणी में,
रजत-रचित मणि खचित कलामय
पान पात्र द्राक्षासव पूरित
रखे सामने अपने-अपने
लोहित चंदन की त्रिपटी पर,
नरम निदाग बाल कस्तूरी
मृगछालों पर पलथी मारे
मदिरारुण आखों वाले उन
उन्मद किन्नर-किन्नरियों की
मृदुल मनोरम अँगुलियों को
वंशी पर फिरते देखा है।

बादल को घिरते देखा है।

लेखक

  • नागार्जुन (30जून 1911- 5 नवम्बर 1998) का असली नाम वैद्यनाथ मिश्र था। वह हिन्दी और मैथिली के लेखक और कवि थे। वह अनेक भाषाओं के ज्ञाता तथा प्रगतिशील विचारधारा के साहित्यकार थे । उन्होंने संस्कृत एवं बाङ्ला में भी मौलिक रचनाएँ कीं तथा संस्कृत, मैथिली एवं बाङ्ला से अनुवाद कार्य भी किया । साहित्य अकादमी पुरस्कार से सम्मानित नागार्जुन ने हिन्दी साहित्य में नागार्जुन तथा मैथिली में यात्री उपनाम से रचनाएँ कीं। काशी में रहते हुए उन्होंने 'वैदेह' उपनाम से भी कविताएँ लिखी थीं। सन् १९३६ में सिंहल में 'विद्यालंकार परिवेण' में ही 'नागार्जुन' नाम ग्रहण किया। उनकी रचनाएँ हैं; कविता-संग्रह: युगधारा -१९५३, सतरंगे पंखोंवाली -१९५९, प्यासी पथराई आँखें -१९६२, तालाब की मछलियाँ -१९७४, तुमने कहा था -१९८०, खिचड़ी विप्लव देखा हमने -१९८०, हज़ार-हज़ार बाहों वाली -१९८१, पुरानी जूतियों का कोरस -१९८३, रत्नगर्भ -१९८४, ऐसे भी हम क्या! ऐसे भी तुम क्या!! -१९८५, आखिर ऐसा क्या कह दिया मैंने -१९८६, इस गुब्बारे की छाया में -१९९०, भूल जाओ पुराने सपने -१९९४, अपने खेत में -१९९७; प्रबंध काव्य: भस्मांकुर -१९७०, भूमिजा; उपन्यास: रतिनाथ की चाची, बलचनमा, नयी पौध -१९५३, बाबा बटेसरनाथ, वरुण के बेटे, दुखमोचन, कुंभीपाक/चम्पा, हीरक जयन्ती/अभिनन्दन, उग्रतारा, जमनिया का बाबा, गरीबदास; संस्मरण: एक व्यक्ति: एक युग; कहानी संग्रह: आसमान में चन्दा तैरे -१९८२ । मैथिली कविता-संग्रह: चित्रा, पत्रहीन नग्न गाछ, पका है यह कटहल ।

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