कौन होता है फ़लक तेरे के बराबर पैदा,
आदमी आप ही करता है मुक़द्दर पैदा।
रास्ता जिनको समन्दर ने दिया ख़ुद झुककर,
इसी मिट्टी में हुए हैं वो कलन्दर पैदा।
हौसला तो मेरा ऊँचा है गगन तुझसे भी,
क्या है जो क़द न हुआ तेरे बराबर पैदा।
अब किसी बात पे हैरत नहीं होती हमको,
अब हवाओं में भी होने लगे हैं घर पैदा।
अब ज़मीनों ने चलन छोड़ दिया है अपना,
फूल बोता हूँ मैं और होते हैं ख़न्जर पैदा।
धूप में जलते हुए जिस्मों पे साया हो जाए,
अपने इक शे’र में कर दूँ मैं वो चादर पैदा।
कौन होता है फ़लक तेरे के बराबर पैदा/ग़ज़ल/ए.एफ़. ’नज़र’