नींद सर थपथपाती रही रात भर
फ़र्ज़ अपना निभाती रही रात भर
दर्द का एक सूरज उगा रात में
धूप फिर चिलचिलाती रही रात भर
जब अँधेरे में था साथ कोई नहीं
तो दिया संग बाती रही रात भर
शब्द उनके तो सारे थे मन पर खुदे
और ख़त मैं जलाती रही रात भर
कर्ज़ तो था उजालों का भारी बहुत
जिसको शम्मा चुकाती रही रात भर
झिड़कियाँ सुन के सो तो गई सरकशी
नींद में बड़बड़ाती रही रात भर
नम है दामन ज़मी का ये लगता है के
फिर वो आँसू बहाती रही रात भर
चाँद आगोश में अब्र के गुम था औ’
चाँदनी कसमसाती रही रात भर
जिंदगी कैसी होती अंँधेरों की है
रात बस ये सिखाती रही रात भर
नींद सर थपथपाती रही रात भर/ग़ज़ल/अंजू केशव