सरकशी है लहजे में तल्खियाँ हैं तेवर में,
इन दिनों ये आलम है शहर शहर घर घर में।
पूजने लगे हैं हम जिन दिनों से पत्थर को,
उन दिनों से हम शायद ढल रहे हैं पत्थर में।
जब मिला अकेले में तब पता चला मुझको,
शख्श है वही लेकिन एक और पैकर में।
हम पहुँच चुके होते कब के अपनी मंज़िल तक,
पर भटक गये रस्ता,राहबर के चक्कर में।
लेन – देन होता है भूल चूक होती है,
सब लिखा हुआ होता अस्ल में मुकद्दर में।
जो बचा -खुचा है वो काम का नहीं कोई,
वक़्त कीमती जो था, रह गया वो दफ़्तर में।
पूजने लगे हैं हम जिन दिनों से पत्थर को/गज़ल/संजीव प्रभाकर