कुछेक दिन हम ये काम करते,उसी की महफ़िल में शाम करते,
सुना है मैंने कि चाँद तारे वहाँ पर आकर क़याम करते।
जहाँ से भटके वहीं था रस्ता , जहाँ से लौटे वहीं थी मंज़िल,
तमाम उम्रें गयीं हमारी पता, ठिकाना, मुकाम करते।
न और कुछ, वो सुकून देता इसीलिए हैं लगी कतारें,
बड़े-बड़े उस फकीर के दर पर आके झुकते,सलाम करते।
न कोई उसने किया इशारा न लफ्ज़ इक भी कहा किसी को,
नज़र नज़र में कहा जो उसने खड़े वहाँ पर तमाम करते।
न वक़्त का कोई दबाव दिखता, न कोई दिखता तनाव उन पर,
मुझे यक़ीं है ज़रूर कोई वो ख़ास मक़्सद से काम करते।
न वक़्त का कोई दबाव दिखता/गज़ल/संजीव प्रभाकर