बिना वजह के वजह बताकर उथल-पुथल जो मचा रहे हैं,
न कोई चिंता उन्हें किसी की, जो खाया उसको पचा रहे हैं।
सभी हैं नंगे हमाम में तो किसे गलत या सही कहेंगे,
न राज़ अपना खुले ये डर है, इसीलिए तो बचा रहे हैं।
कोई है दीदी कोई है अम्मा कोई है भाई कोई भतीजा,
लगाएँ कैसे सगे पे तोहमत कभी तो हम भी चचा रहे हैं?
जिन्हें भरोसा रहा न खुद पे वो क्या भरोसा दिला सकेंगे,
कहीं पे धरना कहीं प्रदर्शन सियासी नाटक रचा रहे हैं।
नज़र कहीं है कहीं निशाना ‘नया विधेयक’ बना बहाना,
किसी की बनरी किसी के हाथों किसी जगह पे नचा रहे हैं।
न कोई चिंता उन्हें किसी की/गज़ल/संजीव प्रभाकर