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तुझे हो यक़ीं न हो यक़ीं/गज़ल/संजीव प्रभाकर

मुझे और कोई नहीं है डर, तुझे हो यक़ीं न हो यक़ीं,

मैं जो चुप हूँ तो तुझे सोचकर, तुझे हो यक़ीं कि न हो यक़ीं ।

तू ने जिस जगह पे कहा मुझे, “न तू याद कर न तू याद आ”,

मैं खड़ा रहा वहीं उम्रभर, तुझे हो यक़ीं कि न हो यक़ीं।

तू ख़याल में कहीं और था, तुझे रोकता भी तो किस तरह,

मेरी चीख भी रही बे-असर, तुझे हो यक़ीं कि न हो यक़ीं ।

यूँ तो दरमियान तेरे मेरे, न थे ताल्लुकात बचे मगर ,

तेरी रख रहा था मैं हर ख़बर, तुझे हो यक़ीं कि न हो यक़ीं।

तेरे बाद क्या क्या नहीं हुआ, जो न चाहिए था वो सब हुआ,

मिली ठोकरें मुझे दर-ब -दर, तुझे हो यक़ीं कि न हो यक़ीं।

वहाँ और कुछ न रहा है अब, वहाँ सिर्फ एक मकान है,

वो जो घर था अब न रहा वो घर , तुझे हो यक़ीं कि न हो यक़ीं।

तेरा रास्ता मेरा रास्ता, हुआ जिस जगह था अलग-अलग,

मैं अभी भी हूँ उसी मोड़ पर, तुझे हो यक़ीं कि न हो यक़ीं।

लेखक

  • संजीव प्रभाकर

    संजीव प्रभाकर जन्म : 03 फरवरी 1980 शिक्षा: एम बी ए एक ग़ज़ल संग्रह ‘ये और बात है’ प्रकाशित और अमन चाँदपुरी पुरस्कार 2022 से पुरस्कृत आकाशवाणी अहमदबाद और वडोदरा से ग़ज़लों का प्रसारण भारतीय वायुसेना से स्वैच्छिक सेवानिवृत्त सम्पर्क: एस-4, सुरभि - 208 , सेक्टर : 29 गाँधीनगर 382021 (गुजरात) ईमेल: sanjeevprabhakar2010@gmail.com मोब: 9082136889 / 9427775696

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