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जो उबार लेती है, डूबती सियासत को/गज़ल/संजीव प्रभाकर

कुछ न कुछ हुआ होगा, सुब्ह तक उनिंदा है,

रात भर न सो पाया, ख़ौफ़ में परिंदा है।

एक तो है दफ़्तर में, दूसरा छुपा घर में,

एक है शिकारी तो दूसरा दरिंदा है।

खिदमतों में हाजिर हैं,आपके लिए हरदम,

कह गया है जो तुमसे, झूठ का पुलिंदा है।

भूख से वो मर जाता, बात है गनीमत की ,

पेटभर ज़हर खाकर , शख्स आज जिंदा है।

जो उबार लेती है, डूबती सियासत को,

धर्म और मजहब वो मुद्दआ चुनिंदा है ।

लेखक

  • संजीव प्रभाकर जन्म : 03 फरवरी 1980 शिक्षा: एम बी ए एक ग़ज़ल संग्रह ‘ये और बात है’ प्रकाशित और अमन चाँदपुरी पुरस्कार 2022 से पुरस्कृत आकाशवाणी अहमदबाद और वडोदरा से ग़ज़लों का प्रसारण भारतीय वायुसेना से स्वैच्छिक सेवानिवृत्त सम्पर्क: एस-4, सुरभि - 208 , सेक्टर : 29 गाँधीनगर 382021 (गुजरात) ईमेल: sanjeevprabhakar2010@gmail.com मोब: 9082136889 / 9427775696

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