हुआ कुछ न कुछ है मेरी ज़िंदगी में, मुझे एक दम से मज़ा आ रहा है,
नज़र उसकी अब मुझपे शायद पड़ी है, निगाहे-करम से मज़ा आ रहा है।
न मैंने ज़ियादा किया है बहुत कुछ, बस इतना किया है कि बदला नज़रिया,
समझता रहा था मैं दुशवार जिसको, उसी पेचो-ख़म से मज़ा आ रहा है।
कोई वज़्ह इतनी बड़ी भी नहीं जो किसी को कहीं भी बताई न जाए
पड़ा बोझ दिल से उतारा है जब से तभी से कसम से मज़ा आ रहा है।
बताओ मुझे तुम कहूँ तो कहूँ क्या नहीं दूसरी है बड़ी बात कोई ,
बड़ी बात ये है कि उसको भी मुझसे, मुझे भी सनम से मज़ा आ रहा है।
इसी वाक़ये की वज़ह से प्रभाकर, बहुत मुतमइन मैं हुआ चाहता हूँ,
उठाते उठाते जिसे देर की है, इसी इक क़दम से मज़ा आ रहा है।
उसी पेचो-ख़म से मज़ा आ रहा है/गज़ल/संजीव प्रभाकर