बिटिया पापड़ बेल के, करे कढ़ाई साफ।
बेटा गुलछर्रे उड़ा, सोये ओढ़ लिहाफ।
सोये ओढ़ लिहाफ, दुलारा बेटा माँ का।
सर्विस वाली देख, भिड़ाता रविकर टाका।
करवाती यह काम, खड़ी कर देती खटिया।
नारि नारि में फर्क, सास की शातिर बिटिया ।।
पैरों पर होना खड़ी, सीखो सखी जरुर ।
आये जब आपद-विपद, होना मत मजबूर ।
होना मत मजबूर, सिसकियाँ नहीं सहारा ।
कन्धा क्यूँकर खोज, सँभालो जीवन-धारा ।
समय हुआ विपरीत, भरोसा क्यूँ गैरों पर |
लिखो भाग्य लो जीत, खड़ी हो खुद पैरों पर ।।
बना चपाती रच रही, गृहणी छंद महान।
बैठी सब्जी काटती, बड़े-बड़ों के कान।
बड़े बड़ों के कान, नई चीजें नित दीखें।
तरह तरह के छौंक, लगा के कविता सीखें।
उच्चकोटि के छंद, आज मां बहन सुनाती।
धन्य फेसबुक धन्य, पेट भर बना चपाती।
बेटी ठिठकी द्वार पर, बैठक में रुक जाय।
लगा पराई हो गयी, पिये चाय सकुचाय।
पिये चाय सकुचाय, आज वापस जायेगी।
रविकर बैठा पूछ, दुबारा कब आयेगी।
देखी पति की ओर , दुशाला पुन: लपेटी।
लगा पराई आज, हुई है अपनी बेटी।।
दोहा
बेटी हो जाती विदा, लेकिन सतत् निहार।
नही पराई हूँ कहे, बारम्बार पुकार।।
कुण्डलियां/नारि-सशक्तिकरण /दिनेश चन्द्र गुप्ता ‘रविकर’