1
सायंकाल हुआ ही चाहता है। जिस प्रकार पक्षी अपना आराम का समय आया देख अपने-अपने खेतों का सहारा ले रहे हैं उसी प्रकार हिंस्र श्वापद भी अपनी अव्याहत गति समझ कर कंदराओं से निकलने लगे हैं। भगवान सूर्य प्रकृति को अपना मुख फिर एक बार दिखा कर निद्रा के लिए करवट लेने वाले ही थे, कि सारी अरण्यानी ‘मारा’ है, बचाओ, मारा है’ की कातर ध्वनि से पूर्ण हो गई। मालूम हुआ कि एक व्याध हाँफता हुआ सरपट दौड़ रहा, और प्रायः दो सौ गज की दूरी पर एक भीषण सिंह लाल आँखें, सीधी पूँछ और खड़ी जटा दिखाता हुआ तीर की तरह पीछे आ रहा है। व्याध की ढीली धोती प्रायः गिर गई है, धनुष-बाण बड़ी सफाई के साथ हाथ से च्युत हो गए हैं, नंगे सिर बिचारा शीघ्रता ही को परमेश्वर समझता हुआ दौड़ रहा है। उसी का यह कातर स्वर था।
यह अरण्य भगवती जह्नुतनया और पूजनीया कलिंदनंदनी के पवित्र संगम के समीप विद्यमान है। अभी तक यहाँ उन स्वार्थी मनुष्य रुपी निशाचरों का प्रवेश नहीं हुआ था जो अपनी वासनाओं की पूर्ति के लिए आवश्यक से चौगुना-पँचगुना पा कर भी झगड़ा करते हैं, परंतु वे पशु यहाँ निवास करते थे जो शांतिपूर्वक समस्त अरण्य को बाँट कर अपना-अपना भाग्य आजमाते हुए न केवल धर्मध्वजी पुरुषों की तरह शिश्नोदर परायण ही थे, प्रत्युत अपने परमात्मा का स्मरण करके अपनी निकृष्ट योनि को उन्नत भी कर रहे थे। व्याध, अपने स्वभाव के अनुसार, यहाँ भी उपद्रव मचाने आया था। उसने बंग देश में रोहू और झिलसा मछलियों और ‘हासेर डिम’ को निर्वंश कर दिया था, बंबई के केकड़े और कछुओं को वह आत्मसात कर चुका था और क्या कहें मथुरा, बृंदावन के पवित्र तीर्थों तक में वह वकवृत्ति और विडालव्रत दिखा चुका था। यहाँ पर सिंह के कोपन बदनाग्नि में उसके प्रायश्चितों का होम होना ही चाहता है। भागने में निपुण होने पर भी मोटी तोंद उसे बहुत कुछ बाधा दे रही है। सिंह में और उसमें अब प्रायः बीस ही तीस गज का अंतर रह गया और उसे पीठ पर सिंह का उष्ण निःश्वास मालूम-सा देने लगा। इस कठिन समस्या में उसे सामने एक बड़ा भारी पेड़ दीख पड़ा। अपचीयमान शक्ति पर अंतिम कोड़ा मार कर वह उस वृक्ष पर चढ़ने लगा और पचासों पक्षी उसकी परिचित डरावनी मूर्ति को पहचान कर अमंगल समझ कर त्राहि-त्राहि स्वर के साथ भागने लगे। ऊपर एक बड़ी प्रबल शाखा पर विराजमान एक भल्लूक को देख कर व्याध के रहे-सहे होश पैंतरा हो गए। नीचे मंत्र-बल से कीलित सर्प की भाँति जला-भुना सिंह और ऊपर अज्ञात कुलशील रीछ। यों कढ़ाई से चूल्हे में अपना पड़ना समझ कर वह र्किकर्तव्यविमूढ़ व्याध सहम गया, बेहोश-सा हो कर टिक गया, ‘न ययौ न तस्थो’ हो गया। इतने में ही किसी ने स्निग्ध गंभीर निर्घोष मधुर स्वर में कहा – ‘अभयं शरणागतस्य! अतिथि देव! ऊपर चले जाइए, पापी व्याध, सदा छल-छिद्र के कीचड़ में पला हुआ, इस अमृत अभय वाणी को न समझ कर वहीं रुका रहा। फिर उसी स्वर ने कहा – ‘चले आइए महाराज! चले आइए। यह आपका घर है। आज मेरे बृहस्पति उच्च के हैं जो यह अपवान स्थान आपकी चरनधूलि से पवित्र होता है। इस पापात्मा का आतिथ्य स्वीकार करके इसे उद्धार कीजिए। ‘वैश्वदेवांतमापन्नो सोऽतिथिः स्वर्ग संज्ञकः।’ पधारिए – यह विष्टर लीजिए, यह पाद्य, यह अर्ध्य, यह मधुपर्क।’
पाठक! जानते हो यह मधुर स्वर किसका था? यह उस रीछ का था। वह धर्मात्मा विंध्याचल के पास से इस पवित्र तीर्थ पर अपना काल बिताने आया था। उस धर्मप्राण धर्मैकजीवन ने वंशशत्रु व्याध को हाथ पकड़ कर अपने पास बैठाया; उसके चरणों की धूलि मस्तक से लगाई और उसके लिए कोमल पत्तों का बिछौना कर दिया। विस्मित व्याध भी कुछ आश्वस्त हुआ।
नीचे से सिंह बोला – ‘रीछ! यह काम तुमने ठीक नहीं किया। आज इस आततायी का काम तमाम कर लेने दो। अपना अरण्य निष्कंटक हो जाय। हम लोगों में परस्पर का शिकार न छूने का कानून है। तुम क्यों समाज-नियम तोड़ते हो? याद रक्खो, तुम इसे आज रख कर कल दुःख पाओगे। पछताओगे। यह दुष्ट जिस पत्तल में खाता है उसी में छिद्र करता है। इसे नीचे फैंक दो।’
रीछ बोला – ‘बस, मेरे अतिथि परमात्मा की निंदा मत करो। चल दो। यह मेरा स्वर्ग है, इसके पीछे चाहे मेरे प्राण जायं, वह मेरी शरण आया है, इसे मैं नही छोड़ सकता। कोई किसी को धोखा या दुःख नहीं दे सकता है, जो देता है वह कर्म ही देता है। अपनी करनी सबको भोगनी ही पड़ती है।’
‘मैं फिर कहे देता हूँ, तुम पछताओगे’ यह कह कर सिंह अपना नख काटते हुए, दुम दबाए चल दिया।
2
प्रायः पहर भर रात जा चुकी है। रीछ अपने दिन भर के भूखे-प्यासे अतिथि के लिए, सूर्योढ अतिथि के लिए, कंदमूल फल लेने गया है। परंतु व्याध को चैन कहाँ? दिन भर की हिंसा प्रणव प्रवृत्ति रुकी हुई हाथों में खुजली पैदा कर रही है। क्या करै? बिजली के प्रकाश में उसी वृक्ष में एक प्राचीन कोटर दिखाई दिया और उसमें तीन-चार रीछ के छोटे-छोटे बच्चे मालूम दिए। फिर क्या था? व्याध के मुँह में पानी भर आया परंतु धनुष-बाण, तलवार रास्ते में गिर पड़े हैं, यह जान कर पछतावा हुआ। अकस्मात जेब में हाथ डाला तो एक छोटी सी पेशकब्ज! बस, काम सिद्ध हुआ। अपने उपकारी रक्षक रीछ के बच्चों को काट कर कच्चा ही खाते उस पापात्मा व्याध को दया तो आई ही नहीं, देर भी न लगी। वह जीभ साफ करके ओठों को चाट रहा था कि मार्ग में फरकती बाईं आँख के अशकुन को ‘शांतं पापं नारायण! शांतं पापं नारायण’ कह कर टालता हुआ रीछ आ गया और चुने हुए रसपूर्ण फल व्याध के आगे रख कर सेवक के स्थान पर बैठ कर बोला – ‘मेरे यहाँ थाल तो है नहीं, न पत्ते हैं, पुष्पं पत्रं फलं तोयं अतिथि नारायण की सेवा में समर्पित है।’ जब व्याध अपने दग्धोदर की पूर्ति कर चुका तो इसने भी शेषान्न खाया और कुछ प्रसाद अपने बच्चों को देने के लिए कोटर की तरफ चला।
कोटर के द्वार पर ही प्रेमपूर्वक स्वागतमय ‘दादा हो’ न सुन कर उसका माथा ठनका। भीतर जा कर उसने पैशाचिक लीला का अवशिष्ट चर्म और अस्थि देखा। परंतु उस वीतराग के मन में ‘तत्र को मोहः कः शोक एकत्वमनुपश्यतः?’ वह उस गंभीर पद से आ कर लेटे हुए व्याध के पैर दबाने लग गया। इतने में व्याध के दुष्कर्म ने एक पुराने गीध का रुप धारण कर रीछ को कह दिया कि तेरी अनुपस्थिति में इस कृतघ्न व्याध ने तेरे बच्चे खा डाले हैं। व्याध को कर्मसाक्षी में विश्वास न था, वह चौंक पड़ा। उसका मुँह पसीने से तर हो गया, उसकी जीभ तालू से चिपक गई और वह इन वाक्यों को आने वाले यम का दूत समझ कर थर-थर काँपने लगा। बूढ़े रीछ के नेत्रों में अश्रु आ गए; परंतु वह खेद के नहीं थे, हर्ष के थे। उसने उस गृध्र को संबोधन करके कहा – ‘धिक् मूढ़! मेरे परम उपकारी को इन उल्वण शब्दों से स्मरण करता है! (व्याध से) महाराज! धन्य भाग्य उन बच्चों के जो पाप में जन्मे और पाप में बढ़े; परंतु आज आपकी अशनाया निवृत्ति के पुण्य के भागी हुए! न मालूम किन नीचातिनीच कर्मो से उनने यह पशुयोनि पाई थी, न मालूम उनने इस गर्हित योनि में रह कर कितने पाप-कर्म और करने थे। धन्य मेरे भाग्य! आज वे ‘स्वर्गद्वारमुपानृतं’ में पहुँच गए। हे कुलतारण! आप कुछ भी इस बात की चिंता न कीजिए। आपने मेरे ‘सप्तावरे सप्त पूर्वे’ तरा दिए!’ जिसे मद नहीं और मोह नहीं वह रीछ व्याध का सम्वाहन करके संसार-यात्रा के अनुसार सो गया, परंतु उसने अपना निर्भीक स्थान व्याध को दे दिया था, और स्वंय वह दो शाखाओं पर आलंबित था। चिकने घड़े पर जल की तरह पापात्मा व्याध पर यह धर्म्माचरण और तज्जन्य शांति प्रभाव नहीं डाल सके; वह तारे गिनता जागता रहा और उसके कातर नेत्रों से निद्रा भी डर कर भाग गई। इसने में मटरगश्त करते वही सिंह आ पहुँचे और मौका देख कर व्याध से यों बोले – ‘व्याध! मैं वन का राजा हूँ। मेरा फर्मान यहाँ सब पर चलता है। कल से तू यहाँ निष्कण्ट रुप से शिकार करना। परंतु मेरी आज्ञा न मानने वाले इस रीछ को नीचे फैंक दे।’ पाठक! आप जानते है कि व्याध ने इस यत्न पर क्या किया? रीछ के सब उपकारों को भूल कर उस आशामुग्ध ने उसको धक्का दे ही तो दिया। आयुः शेष से, पुण्यबल से, धर्म की महिमा से, उस रीछ का स्वदेशी कोट एक टहनी में अटक गया और वह जाग कर, सहारा ले कर ऊपर चढ़ आया। सिंह ने अट्टहास करके कहा -‘देखो रीछ! अपने अतिथि चक्रवर्ती का प्रसाद देखो। इस अपने स्वर्ग, अपने अमृत को देखो। मैंने तुम्हें सायंकाल क्या कहा था? अब भी उस नीच को नीचे फैंक दो।’ रीछ बोला – ‘इसमें इनने क्या किया? निद्रा की असावधानता में मै ही पैर चूक गया, नीचे गिरने लगा। तू अपना मायाजाल यहाँ न फैला। चला जा।’ रीछ उसी गंभीर निर्भीक भाव से सो गया। उसको परमेश्वर की प्रीति के स्वप्न आने लगे और व्याध को कैसे मिश्र स्वप्न आए, यह हमारे रसज्ञ पाठक जान ही लेंगे। – ‘नहि कल्याणकृत कश्चिद्दुर्गति तात गच्छति।’
3
ब्राह्ममुहूर्त में उठ कर रीछ ने अलग व्याध को जगाया और कहा – ‘महाराज! मुझे स्नान के लिए त्रिवेणी जाना है और फिर लोकयात्रा के लिए फिरना है, मेरे साथ चलिए, मैं आपको इस कांतार से बाहर निकलने का मार्ग बतला दूँ। परंतु आप उदास क्यों हैं? क्या आपके आतिथ्य में कोई कमी रह गई? क्या मुझसे कोई कसूर हुआ?’ व्याध बात काट कर बोला – ‘नहीं, मेरा ध्यान घर की तरफ गया था। मेरे पर, अन्न-वस्त्र के लिए धर्मपत्नी और बहुत से बालक निर्भर हैं। मैंने सुख से खाया और सोया, परंतु वे बेचारे क्षुत्क्षामकंठ कल के भूखे हैं उनके लिए कुछ पाथेय नहीं मिला।’ रीछ ने हाथ जोड़ कर कहा – ‘नाथ! आज आपकी छुरिका त्रिवेणी में यह देह स्नान करके स्वर्ग को जाना चाहता है। यदि इस दुर्मांस से माता और भाई तृप्त हों, और इस जरच्चर्म्म से उनकी जूतियाँ बनें तो आप ‘तत सदद्य’ करें। धन्यभाग्य आज यह अनेक जन्मसंसिध्द आपके वदनाग्नि में परागति को पावै।’ व्याध ने बरछी उठा कर रीछ के हृदय में झोंक दी। प्रसन्नवदन रीछ ऋतुपर्ण की तरह बोला –
शिरामुखैः स्यन्दत एव रक्तनद्यापि देहे मम मांसमस्ति।
उस उदार महामान्य के आगे कर्ण का यह वाक्य क्या चीज था –
कियदिदमधिकं में यदद्विजावार्थयित्रे,
कवचमरमणीयं कुण्डले चार्पयामि ।
अकरुणमवकृत्य द्राक्कृपाणेन तिर्यग्,
वहलरुधिरधारं मौलिमावेदयामि॥
4
सारा अरण्य स्वर्गीय प्रकाश और सुगंध से खिल रहा है। अनागतवाद का मधुर स्वर कानों को पवित्र कर रही है। उसी वृक्ष के सहारे एक दिव्य विमान खड़ा है और परात्पर भगवान नारायण स्वयं रीछ को अपने चरणकमल में ले जाने को आए हैं। भगवान मृत्युंजय भी अपनी चंद्रकलाओं से उस शरीर को आप्यायित कर रहे हैं। देवाङ्नाएँ उसकी सेवा करने को और इंद्रादिक उसकी चरणधूलि लेने को दौड़े आ रहे हैं। जिस समय उस बर्छी का प्रवेश उस धर्मप्राण कलेवर में हुआ, भगवान नारायण आनंद से नाचते और क्लेष से तड़पते, लक्ष्मी को ढकेल, गरुड़ को छोड़ और शेषनाग को पेल, ‘नमे भक्तः प्रणश्यति’ को सिद्ध करते हुए दौड़ आए और रीछ को गले लगा कर आनंदाश्रु गद्गद कंठ से बोले -‘प्रयाग में बहुत बड़े-बड़े इंद्र, वरुण, प्रजापति और भरद्वाज के यज्ञ हुए हैं, परतु सबसे अधिक महिमापूर्ण यज्ञ यह हुआ है जिसकी पूर्णाहुति अभी हुई है। प्रिय ऋक्ष! मेरे साथ चलो, और हे नराधम! तू अपने नीच कर्मों…।’ ऋक्ष ने भगवान के चरण पकड़ कर कहा – ‘नाथ! यदि मेरा चावल भर भी पुण्य है तो इस पुरुष-रत्न को बैकुंठ ले जाइए। इसके कर्म का फल भोगने को मैं घोरातिघोर नरक में जाने को तैयार हूँ।’ भगवान विस्मित हो कर बोले – ‘यह क्या? लोक-संग्रह को उत्पन्न करते हो?’ ऋक्ष हाथ जोड़ कर बोला –
पापानां वा शुभानां वा वधार्हाणामथापि वा ।
कार्यं करुणमार्येण न कश्चिदपराध्यति ॥
भक्त का आग्रह माना गया। भगवान, व्याध और ऋक्ष एक ही विमान में बैकुंठ गए।
भारतवासियो! यह तुम्हारे ही ‘महाभारत’ की कथा है। परंतु अब पुराणों की भक्ति कहने ही की रह गई। पुराणों को सिवाय ‘वीक्ष्य रंतुं मनश्चक्रे’ के और किस वासना से पढ़ता है?
चन्द्रधर शर्मा 'गुलेरी' (1883 - 12 सितम्बर 1922) हिन्दी के कथाकार, व्यंगकार, निबन्धकार तथा सम्पादक थे।
मूलतः हिमाचल प्रदेश के गुलेर गाँव के वासी ज्योतिर्विद महामहोपाध्याय पंडित शिवराम शास्त्री राजसम्मान पाकर जयपुर (राजस्थान) में बस गए थे। उनकी तीसरी पत्नी लक्ष्मीदेवी ने सन् 1883 में चन्द्रधर को जन्म दिया। घर में बालक को संस्कृत भाषा, वेद, पुराण आदि के अध्ययन, पूजा-पाठ, संध्या-वंदन तथा धार्मिक कर्मकाण्ड का वातावरण मिला और मेधावी चन्द्रधर ने इन सभी संस्कारों और विद्याओं आत्मसात् किया। आगे चलकर उन्होंने अंग्रेज़ी शिक्षा भी प्राप्त की और प्रथम श्रेणी में उत्तीर्ण होते रहे। कलकत्ता विश्वविद्यालय से एम. ए. (प्रथम श्रेणी में द्वितीय और प्रयाग विश्वविद्यालय से बी. ए. (प्रथम श्रेणी में प्रथम) करने के बाद चाहते हुए भी वे आगे की पढ़ाई परिस्थितिवश जारी न रख पाए हालाँकि उनके स्वाध्याय और लेखन का क्रम अबाध रूप से चलता रहा। बीस वर्ष की उम्र के पहले ही उन्हें जयपुर की वेधशाला के जीर्णोद्धार तथा उससे सम्बन्धित शोधकार्य के लिए गठित मण्डल में चुन लिया गया था और कैप्टन गैरेट के साथ मिलकर उन्होंने "द जयपुर ऑब्ज़रवेटरी एण्ड इट्स बिल्डर्स" शीर्षक अंग्रेज़ी ग्रन्थ की रचना की।
अपने अध्ययन काल में ही उन्होंने सन् 1900 में जयपुर में नागरी मंच की स्थापना में योग दिया और सन् 1902 से मासिक पत्र ‘समालोचक’ के सम्पादन का भार भी सँभाला। प्रसंगवश कुछ वर्ष काशी की नागरी प्रचारिणी सभा के सम्पादक मंडल में भी उन्हें सम्मिलित किया गया। उन्होंने देवी प्रसाद ऐतिहासिक पुस्तकमाला और सूर्य कुमारी पुस्तकमाला का सम्पादन किया और नागरी प्रचारिणी पुस्तकमाला और सूर्य कुमारी पुस्तकमाला का सम्पादन किया और नागरी प्रचारिणी सभा के सभापति भी रहे।
जयपुर के राजपण्डित के कुल में जन्म लेनेवाले गुलेरी जी का राजवंशों से घनिष्ठ सम्बन्ध रहा। वे पहले खेतड़ी नरेश जयसिंह के और फिर जयपुर राज्य के सामन्त-पुत्रों के अजमेर के मेयो कॉलेज में अध्ययन के दौरान उनके अभिभावक रहे। सन् 1916 में उन्होंने मेयो कॉलेज में ही संस्कृत विभाग के अध्यक्ष का पद सँभाला। सन् 1920 में पं॰ मदन मोहन मालवीय के प्रबंध आग्रह के कारण उन्होंने बनारस आकर काशी हिन्दू विश्वविद्यालय के प्राच्यविद्या विभाग के प्राचार्य और फिर 1922 में प्राचीन इतिहास और धर्म से सम्बद्ध मनीन्द्र चन्द्र नन्दी पीठ के प्रोफेसर का कार्यभार भी ग्रहण किया।
इस बीच परिवार में अनेक दुखद घटनाओं के आघात भी उन्हें झेलने पड़े। सन् 1922 में 12 सितम्बर को पीलिया के बाद तेज ज्वर से मात्र 39 वर्ष की अल्पायु में उनका देहावसान हो गया।
कार्य
इस थोड़ी-सी आयु में ही गुलेरी जी ने अध्ययन और स्वाध्याय के द्वारा हिन्दी और अंग्रेज़ी के अतिरिक्त संस्कृत प्राकृत बांग्ला मराठी आदि का ही नहीं जर्मन तथा फ्रेंच भाषाओं का ज्ञान भी हासिल किया था। उनकी रुचि का क्षेत्र भी बहुत विस्तृत था और धर्म, ज्योतिष इतिहास, पुरातत्त्व, दर्शन भाषाविज्ञान शिक्षाशास्त्र और साहित्य से लेकर संगीत, चित्रकला, लोककला, विज्ञान और राजनीति तथा समसामयिक सामाजिक स्थिति तथा रीति-नीति तक फैला हुआ था। उनकी अभिरुचि और सोच को गढ़ने में स्पष्ट ही इस विस्तृत पटभूमि का प्रमुख हाथ था और इसका परिचय उनके लेखन की विषयवस्तु और उनके दृष्टिकोण में बराबर मिलता रहता है।
पं. चन्द्रधर शर्मा गुलेरी के साथ एक बहुत बड़ी विडम्बना यह है कि उनके अध्ययन, ज्ञान और रुचि का क्षेत्र हालाँकि बेहद विस्तृत था और उनकी प्रतिभा का प्रसार भी अनेक कृतियों, कृतिरूपों और विधाओं में हुआ था, किन्तु आम हिन्दी पाठक ही नहीं, विद्वानों का एक बड़ा वर्ग भी उन्हें अमर कहानी ‘उसने कहा था’ के रचनाकार के रूप में ही पहचानता है। इस कहानी की प्रखर चौंध ने उनके बाकी वैविध्य भरे सशक्त कृति संसार को मानो ग्रस लिया है। उनके प्रबल प्रशंसक और प्रखर आलोचक भी अमूमन इसी कहानी को लेकर उलझते रहे हैं। प्राचीन साहित्य, संस्कृति, हिन्दी भाषा समकालीन समाज, राजनीति आदि विषयों से जुड़ी इनकी विद्वता का जिक्र यदा-कदा होता रहता है, पर ‘कछुआ धरम’ और ‘मारेसि मोहि कुठाऊँ’ जैसे एक दो निबन्धों और पुरानी हिन्दी जैसी लेखमाला के उल्लेख को छोड़कर उस विद्वता की बानगी आम पाठक तक शायद ही पहुँची हो। व्यापक हिन्दी समाज उनकी प्रकाण्ड विद्वता और सर्जनात्मक प्रतिभा से लगभग अनजान है।
अपने 39 वर्ष के संक्षिप्त जीवनकाल में गुलेरी जी ने किसी स्वतन्त्र ग्रन्थ की रचना तो नहीं कि किन्तु फुटकर रूप में बहुत लिखा, अनगिनत विषयों पर लिखा और अनेक विधाओं की विशेषताओं और रूपों को समेटते-समंजित करते हुए लिखा। उनके लेखन का एक बड़ा हिस्सा जहाँ विशुद्ध अकादमिक अथवा शोधपरक है, उनकी शास्त्रज्ञता तथा पाण्डित्य का परिचायक है; वहीं, उससे भी बड़ा हिस्सा उनके खुले दिमाग, मानवतावादी दृष्टि और समकालीन समाज, धर्म राजनीति आदि से गहन सरोकार का परिचय देता है। लोक से यह सरोकार उनकी ‘पुरानी हिन्दी’ जैसी अकादमिक और ‘महर्षि च्यवन का रामायण’ जैसी शोधपरक रचनाओं तक में दिखाई देता है। इन बातों के अतिरिक्त गुलेरी जी के विचारों की आधुनिकता भी हमसे आज उनके पुराविष्कार की माँग करती है।
मात्र 39 वर्ष की जीवन-अवधि को देखते हुए गुलेरी जी के लेखन का परिमाण और उनकी विषय-वस्तु तथा विधाओं का वैविध्य सचमुच विस्मयकर है। उनकी रचनाओं में कहानियाँ कथाएँ, आख्यान, ललित निबन्ध, गम्भीर विषयों पर विवेचनात्मक निबन्ध, शोधपत्र, समीक्षाएँ, सम्पादकीय टिप्पणियाँ, पत्र विधा में लिखी टिप्पणियाँ, समकालीन साहित्य, समाज, राजनीति, धर्म, विज्ञान, कला आदि पर लेख तथा वक्तव्य, वैदिक/पौराणिक साहित्य, पुरातत्त्व, भाषा आदि पर प्रबन्ध, लेख तथा टिप्पणियाँ-सभी शामिल हैं।
विषय-वस्तु की व्यापकता की दृष्टि से गुलेरी जी का लेखन धर्म पुरातत्त्व, इतिहास और भाषाशास्त्र जैसे गम्भीर विषयों से लेकर काशी की नींद जैसे हलके-फुलके विषयों तक को समान भाव से समेटता है। विषयों का इतना वैविध्य लेखक के अध्ययन, अभिरुचि और ज्ञान के विस्तार की गवाही देता है, तो हर विषय पर इतनी गहराई से समकालीन परिप्रेक्ष्य में विचार अपने समय और नए विचारों के प्रति उसकी सजगता को रेखांकित करता है। राज ज्योतिषी के परिवार में जन्मे, हिन्दू धर्म के तमाम कर्मकाण्डों में विधिवत् दीक्षित, त्रिपुण्डधारी निष्ठावान ब्राह्मण की छवि से यह रूढ़िभंजक यथार्थ शायद मेल नहीं खाता, मगर उस सामाजिक-राजनीतिक-साहित्यिक उत्तेजना के काल में उनका प्रतिगामी रुढ़ियों के खिलाफ़ आवाज़ उठाना स्वाभाविक ही था। यह याद रखना ज़रूरी है कि वे रूढियों के विरोध के नाम पर केवल आँख मूँदकर तलवार नहीं भाँजते। खण्डन के साथ ही वे उचित और उपयुक्त का मंडन भी करते हैं। किन्तु धर्म, समाज, राजनीति और साहित्य में उन्हें जहाँ कहीं भी पाखण्ड या अनौचित्य नज़र आता है, उस पर वे जमकर प्रहार करते हैं। इस क्रम में उनकी वैचारिक पारदर्शिता, गहराई और दूरदर्शिता इसी बात से सिद्ध है कि उनके उठाए हुए अधिकतर मुद्दे और उनकी आलोचना आज भी प्रासंगिक हैं।
उनके लेखन की रोचकता उसकी प्रासंगिकता के अतिरिक्त उसकी प्रस्तुति की अनोखी भंगिमा में भी निहित है। उस युग के कई अन्य निबन्धकारों की तरह गुलेरी जी के लेखन में भी मस्ती तथा विनोद भाव एक अन्तर्धारा लगातार प्रवाहित होती रहती है। धर्मसिद्धान्त, अध्यात्म आदि जैसे कुछ एक गम्भीर विषयों को छोड़कर लगभग हर विषय के लेखन में यह विनोद भाव प्रसंगों के चुनाव में भाषा के मुहावरों में उद्धरणों और उक्तियों में बराबर झंकृत रहता है। जहाँ आलोचना कुछ अधिक भेदक होती है, वहाँ यह विनोद व्यंग्य में बदल जाता है-जैसे शिक्षा, सामाजिक, रूढ़ियों तथा राजनीति सम्बन्धी लेखों में इससे गुलेरी जी की रचनाएँ कभी गुदगुदाकर, कभी झकझोरकर पाठक की रुचि को बाँधे रहती हैं।
भाषा-शैली
गुलेरी जी की शैली मुख्यतः वार्तालाप की शैली है जहाँ वे किस्साबयानी के लहजे़ में मानो सीधे पाठक से मुख़ातिब होते हैं। यह साहित्यिक भाषा के रूप में खड़ी बोली को सँवरने का काल था। अतः शब्दावली और प्रयोगों के स्तर पर सामरस्य और परिमार्जन की कहीं-कहीं कमी भी नज़र आती है। कहीं वे ‘पृश्णि’, ‘क्लृप्ति’ और ‘आग्मीघ्र’ जैसे अप्रचलित संस्कृत शब्दों का प्रयोग करते हैं तो कहीं ‘बेर’, ‘बिछोड़ा’ और ‘पैंड़’ जैसे ठेठ लोकभाषा के शब्दों का। अंग्रेज़ी अरबी-फारसी आदि के शब्द ही नहीं पूरे-के-पूरे मुहावरे भी उनके लेखन में तत्सम या अनूदित रूप में चले आते हैं। पर भाषा के इस मिले-जुले रूप और बातचीत के लहज़े से उनके लेखन में एक अनौपचारिकता और आत्मीयता भी आ गई है। हाँ गुलेरी जी अपने लेखन में उद्धरण और उदाहरण बहुत देते हैं। इन उद्धरणों और उदाहरणों से आमतौर पर उनका कथ्य और अधिक स्पष्ट तथा रोचक हो उठता है पर कई जगह यह पाठक से उदाहरण की पृष्ठभूमि और प्रसंग के ज्ञान की माँग भी करता है आम पाठक से प्राचीन भारतीय वाङ्मय, पश्चिमी साहित्य, इतिहास आदि के इतने ज्ञान की अपेक्षा करना ही गलत है। इसलिए यह अतिरिक्त ‘प्रसंगगर्भत्व’ उनके लेखन के सहज रसास्वाद में कहीं-कहीं अवश्य ही बाधक होता है।
बहरहाल गुलेरी जी की अभिव्यक्ति में कहीं भी जो भी कमियाँ रही हों, हिन्दी भाषा और शब्दावली के विकास में उनके सकारात्मक योगदान की उपेक्षा नहीं की जा सकती। वे खड़ी बोली का प्रयोग अनेक विषयों और अनेक प्रसंगों में कर रहे थे-शायद किसी भी अन्य समकालीन विद्वान से कहीं बढ़कर। साहित्य पुराण-प्रसंग इतिहास, विज्ञान, भाषाविज्ञान, पुरातत्त्व, धर्म, दर्शन, राजनीति, समाजशास्त्र आदि अनेक विषयों की वाहक उनकी भाषा स्वाभाविक रूप से ही अनेक प्रयुक्तियों और शैलियों के लिए गुंजाइश बना रही थी। वह विभिन्न विषयों को अभिव्यक्त करने में हिन्दी की सक्षमता का जीवन्त प्रमाण है। हर सन्दर्भ में उनकी भाषा आत्मीय तथा सजीव रहती है, भले ही कहीं-कहीं वह अधिक जटिल या अधिक हलकी क्यों न हो जाती हो। गुलेरी जी की भाषा और शैली उनके विचारों की अभिव्यक्ति का माध्यम मात्र नहीं थी। वह युग-सन्धि पर खड़े एक विवेकी मानस का और उस युग की मानसिकता का भी प्रामाणिक दस्तावेज़ है। इसी ओर इंगित करते हुए प्रो॰ नामवर सिंह का भी कहना है, ‘‘गुलेरी जी हिन्दी में सिर्फ एक नया गद्य या नयी शैली नहीं गढ़ रहे थे बल्कि वे वस्तुतः एक नयी चेतना का निर्माण कर रहे थे और यह नया गद्य नयी चेतना का सर्जनात्मक साधन है।’’
आज के युग में गुलेरी जी की प्रासंगिकता
अपने और आधुनिकता’ समकालीन सामाजिक, राजनीतिक और धार्मिक स्थितियों से उनके गम्भीर जुड़ाव और इनसे सम्बद्ध उनके चिन्तन तथा प्रतिक्रियाओं में स्पष्ट होती है। उनका सरोकार अपने समय के केवल भाषिक और साहित्यिक आन्दोलनों से ही नहीं, उस युग के जीवन के हर पक्ष से था। किसी भी प्रसंग में जो स्थिति उनके मानस को आकर्षित या उत्तेजित करती थी, उस पर टिप्पणी किए बगैर वे रह नहीं पाते थे। ये टिप्पणियाँ उनके सरोकारों, कुशाग्रता और नज़रिये के खुलेपन की गवाही देती हैं। अनेक प्रसंगों में गलेरी जी अपने समय से इतना आगे थे कि उनकी टिप्पणियाँ आज भी हमें अपने चारों ओर देखने और सोचने को मज़बूर करती हैं।
‘खेलोगे कूदोगे होगे खराब’ की मान्यता वाले युग में गुलेरी जी खेल को शिक्षा का सशक्त माध्यम मानते थे। बाल-विवाह के विरोध और स्त्री-शिक्षा के समर्थन के साथ ही आज से सौ साल पहले उन्होंने बालक-बालिकाओं के स्वस्थ चारित्रिक विकास के लिए सहशिक्षा को आवश्यक माना था। ये सब आज हम शहरी जनों को इतिहास के रोचक प्रसंग लग सकते हैं किन्तु पूरे देश के सन्दर्भ में, यहाँ फैले अशिक्षा और अन्धविश्वास के माहौल में गुलेरी जी की बातें आज भी संगत और विचारणीय हैं। भारतवासियों की कमज़ोरियाँ का वे लगातार ज़िक्र करते रहते हैं-विशेषकर सामाजिक राजनीतिक सन्दर्भों में। हमारे अधःपतन का एक कारण आपसी फूट है-‘‘यह महाद्वीप एक दूसरे को काटने को दौड़ती हुई बिल्लियों का पिटारा है’’ (डिनामिनेशन कॉलेज : 1904) जाति-व्यवस्था भी हमारी बहुत बड़ी कमज़ोरी है। गुलेरी जी सबसे मन की संकीर्णता त्यागकर उस भव्य कर्मक्षेत्र में आने का आह्वान करते हैं जहाँ सामाजिक जाति भेद नहीं, मानसिक जाति भेद नहीं और जहाँ जाति भेद है तो कार्य व्यवस्था के हित (वर्ण विषयक कतिपय विचार : 1920)। छुआछूत को वे सनातन धर्म के विरुद्ध मानते हैं। अर्थहीन कर्मकाण्डों और ज्योतिष से जुड़े अन्धविश्वासों का वे जगह-जगह ज़ोरदार खण्डन करते हैं। केवल शास्त्रमूलक धर्म को वे बाह्यधर्म मानते हैं और धर्म को कर्मकाण्ड से न जोड़कर इतिहास और समाजशास्त्र से जोड़ते हैं। धर्म का अर्थ उनके लिए ‘‘सार्वजनिक प्रीतिभाव है’’ ‘‘जो साम्प्रदायिक ईर्ष्या-द्वेष को बुरा मानता है’’ (श्री भारतवर्ष महामण्डल रहस्य : 1906)। उनके अनुसार उदारता सौहार्द और मानवतावाद ही धर्म के प्राणतत्त्व होते हैं और इस तथ्य की पहचान बेहद ज़रूरी है-‘‘आजकल वह उदार धर्म चाहिए जो हिन्दू, सिक्ख, जैन, पारसी, मुसलमान, कृस्तान सबको एक भाव से चलावै और इनमें बिरादरी का भाव पैदा करे, किन्तु संकीर्ण धर्मशिक्षा...(आदि) हमारी बीच की खाई को और भी चौड़ी बनाएँगे।’’ (डिनामिनेशनल कॉलेज : 1904)। धर्म को गुलेरी जी बराबर कर्मकाण्ड नहीं बल्कि आचार-विचार, लोक-कल्याण और जन-सेवा से जोड़ते रहे।