+91-9997111311,    support@sahityaratan.com

परीक्षा गुरु (प्रकरण26-41)/लाला श्रीनिवास दास

प्रकरण-२६ : दिवाला

कीजै समझ, न कीजिए बिना बि चार व्‍यवहार।।

आय रहत जानत नहीं ? सिरको पायन भार ।।

बृन्‍द।

लाला मदनमोहन प्रात:काल उठते ही कुतब जानें की तैयारी कर रहे थे। साथ जानेंवाले अपनें, अपनें कपड़े लेकर आते जाते थे, इतनें मैं निहालचंद मोदी कई तकाजगीरों को साथ लेकर आ पहुँचा।

इस्‍नें हरकिशोर से मदनमोहन के दिवाले का हाल सुना था। उसी समय से इस्को तलामली लग रही थी। कल कई बार यह मदनमोहन के मकान पर आया, किसी नें इस्‍को मदनमोहन के पास तक न जानें दिया और न इस्‍के आनें इत्तला की। संध्‍या समय मदनमोहन के सवार होनें के भरोसे वह दरवाजे पर बैठा रहा परन्‍तु मदनमोहन सवार न हुए इस्‍से इस्‍का संदेह और भी दृढ़ होगया। शहर मैं तरह-तरह की हजारों बातें सुनाई देती थी इस्‍से वह आज सवेरे ही कई लेनदारों को साथ लेकर एकदम मदनमोहन के मकान मैं घुस आया और पहुंचते ही कहनें लगा “साहब ! अपना हिसाब करके जितनें रुपे हमारे बाकी निकलें हमको इसी समय दे दीजिये। हमें आप का लेन-देन रखना मंजूर नहीं है। कल सै हम कई बार यहां आए परन्‍तु पहरे वालों नें आप के पास तक नहीं पहुँचनें दिया।”

“हमारा रुपया खर्च करके हमारे तकाजे से बचनें के लिये यह तो अच्‍छी युक्ति निकाली !” एक दूसरे लेनदार नें कहा “परन्‍तु इस्‍तरह रकम नहीं पच सक्‍ती। नालिश करके दमभर मैं रुपया धरा लिया जायगा।”

“बाहर पहरे चौकी का बंदोबस्‍त करके भीतर आप अस्‍बाब बांध रहे हैं !” तीसरे मनुष्‍य नें कहा “जो दो, चार घड़ी हम लोग और न आते तो दरवाजे पर पहरा ही पहरा रह जाता लाला साहब का पता भी न लगता।”

“इस्‍मैं क्‍या संदेह है ? कल रात ही को लाला साहब अपनें बाल बच्‍चों को तो मेरठ भेज चुके हैं” चोथे नें कहा “इन्‍सालवन्‍सी के सहारे से लोगों को जमा मारनें का इन दिनों बहुत होसला होगया है”

“क्‍या इस जमानें मैं रुपया पैदा करनें का लोगों नें यही ढंग समझ रक्‍खा है” एक और मनुष्‍य कहनें लगा “पहले अपनी साहूकारी, मातबरी, और रसाई दिखाकर लोगों के चित्त मैं बिश्‍वास बैठाना, अन्‍त मैं उन्की रकम मारकर एक किनारे हो बैठना”

“मेरी तो जन्‍म भर की कमाई यही है। मैंनें समझा था कि थोड़ीसी उमर बाकी रही है सो इस्मैं आराम सै कट जायगी परन्‍तु अब क्‍या करूं ?” एक बुड्ढा आंखों मैं आंसू भरकर कहनें लगा “न मेरी उमर मेहनत करनें की है न मुझको किसी का सहारा दिखाई देता है जो तुम से मेरी रकम न पटेगी तो मेरा कहां पता लगेगा ?”

“हमारे तो पांच हजार रुपे लेनें हैं परन्‍तु लाओ इस्‍समय हम चार हजार मैं फैसला करते हैं” एक लेनदार नें कहा।

“औरों की जमा मारकर सुख भेगनें मैं क्‍या आनन्‍द आता होगा ?” एक और मनुष्‍य बोल उठा।

इतनें में और बहुतसे लोगों की भीड़ आगई। वह चारों तरफ़ मदनमोहन को घेरकर अपनी, अपनी कहनें लगे। मदनमोहन की ऐसी दशा क़भी काहे को हुई थी ? उस्‍के होश उड़ गए। चुन्‍नीलाल, शिंभूदयाल वगैरे लोगों को धैर्य देनें की कोशिश करते थे परन्‍तु उन्‍को कोई बोलनें ही नहीं देता था। जब कुछ देर खूब गड़बड़ हो चुकी लोगों का जोश कुछ नरम हुआ तब चुन्‍नीलाल पूछनें लगा “आज क्‍या है ? सब के सब एका एक ऐसी तेजी मैं कैसे आ गए ? ऐसी गड़बड़ सै कुछ भी लाभ न होगा। जो कुछ कहना हो धीरे सै समझा कर कहो”

“हम को और कुछ नहीं कहना हम तो अपनी रकम चाहते हैं” निहालचंद नें जवाब दिया।

“हमारी रकम हमारे पल्‍ले डालो फ़िर हम कुछ गड़बड़ न करेंगे” दूसरे नें कहा।

“तुम पहले अपनें लेनें का चिट्ठा बनाओ। अपनी, अपनी दस्‍तावेज दिखाओ, हिसाब करो, उस्‍समय तुम्‍हारा रुपया तत्‍काल चुका दिया जायगा” मुन्शी चुन्‍नीलाल नें जवाब दिया।

“यह लो हमारे पास तो यह रुक्‍का है” हमारा हिसाब यह रहा” “इस रसीद को देखिये” हमनें तो अभी रकम भुगताई है” यह तरह पर चारों तरफ़ सै लोग कहनें लगे।

“देखो जी ! तुम बहुत हल्‍ला करोगे तो अभी पकड़ कर कोतवाली मैं भेज दिए जाओगे और तुम पर हतक इज़्जत की नालिश की जायगी नहीं तो जो कुछ कहना हो धीरज से कहो” मास्‍टर शिंभूदयाल नें अवसर पाकर दबानें की तजवीज की।

“हमको लड़नें झगड़नें की ज़रूरत है ? हम तो केवल जवाब चाहते हैं। जवाब मिले पीछे आप सै पहले हम नालिश कर देंगे” निहालचंद नें सबकी तरफ़ सै कहा।

“तुम बृथा घबराते हो। हमारा सब माल मता तुम्हारे साम्हनें मौजूद है। हमारे घर मैं घाटा नहीं है ब्याज समेत सबको कौड़ी, कौड़ी चुका दी जायगी” लाला मदनमोहन नें कहा।

“कोरी बातों से जी नहीं भरता” निहालचंद कहनें लगा “आप अपना बही खाता दिखादें, क्‍या लेना है ? क्या देना है ? कितना माल मौजूद है ? जो अच्‍छी तरह हमारा मन भर जायगा तो हम नालिश नहीं करेंगे”

“कागज तो इस्‍समय तैयार नहीं है” लाला मदनमोहन नें लजा कर कहा।

“तो खातरी कैसे हो ? ऐसी अँधेरी कोठरी मैं कौन रहै ? (ब्रंद) जो पहल करिये जतन तो पीछे फल होय । आग लगे खोदे कुआ कैसे पावे तोय ।। इस काठ कबाड़ के तो समय पर रुपे मैं दो आनें भी नहीं उठते” एक लेनदार नें कहा।

“ऐसे ही अनसमझ आदमी जल्‍दी करके बेसबब दूसरों का काम बिगाड़ दिया करते हैं” मास्‍टर शिंभूदयाल कहनें लगे।

इतनें मैं हरकिशोर अदालत के एक चपरासी को लेकर मदनमोहन के घर पर आ पहुँचे और चपरासी नें सम्‍मन पर मदनमोहन सै कायदे मूजिब इत्तला लिखा ली। उस्‍को गए थोड़ी देर न बीतनें पाई थी कि आगाहसनजान के वकील की नोटिस आ पहुँची। उस्‍मैं लिखा था कि “आगाहसनजान की तरफ़ सै मुझको आपके जतानें के लिये यह फ़र्मायश हुई है कि आप उस्‍के पहले की ख़रीद के घोड़ों की कीमत का रुपया तत्‍काल चुका दैं और कल की खरीद के तीन घोड़ों की कीमत चौबीस घन्टे के भीतर भेजकर अपनें घोड़े मंगवालें जो इस मयाद के भीतर कुल रुपया न चुका दिया जायगा तो ये घोड़े नीलाम कर दिये जायंगे और इन्‍की क़ीमत मैं जो कमी रहैगी पहले की बाकी समेत नालिश करके आप सै वसूल की जायगी”

थोड़ी देर पीछे मिस्‍टर ब्राइट का सम्‍मन और कच्‍ची कुरकी एक साथ आ पहुँची इस्‍सै लोगों के घरबराहट की कुछ हद न रही। घर मैं मामला हल होनें की आशा जाती रही। सबको अपनी, अपनी रक़म ग़लत मालूम होनें लगी और सब नालिश करनें के लिये कचहरी को दौड़ गए।

“यह क्‍या है ? किस दुष्ट की दुष्‍टता सै हम पर यह ग़जब का गोला एक साथ आ पड़ा ?” लाला मदनमोहन आंखों मैं आंसू भर कर बड़ी कठिनाई से इतनी बात कह सके।

“क्‍या कहूँ ? कोई बात समझ मैं नहीं आती” मुन्‍शी चुन्‍नीलाल कहनें लगे “कल लाला ब्रजकिशोर यहां से ऐसे बिगड़ कर गए थे कि मेरे मन मैं उसी समय खटका हो गया था शायद उन्‍हीं नें यह बखेड़ा उठाया हो। बाजे आदमियों को अपनी बात का ऐसा पक्ष होता कि वह औरों की तो क्‍या ? अपनी बरबादी का भी कुछ बिचार नहीं करते। परमेश्‍वर ऐसे हठीलों से बचाय। हरकिशोर का ऐसा होसला नहीं मालूम होता और वह कुछ बखेड़ा करता तो उस्‍का असर कल मालूम होना चा‍हिये था अब तक क्‍यों न हुआ ?”

प्र‍थम तो निहालचंद कल से अपनें मन मैं घबराट होनें का हाल आप कह चुका था, दूसरे हरकिशोर की तरफ़ से नालिश दायर होकर सम्‍मन आगया, तीसरे चुन्‍नीलाल ब्रजकिशोर के स्‍वभाव को अच्‍छी तरह जान्‍ता था इस्लिये उस्‍के मन मैं ब्रजकिशोर की तरफ़ से जरा भी संदेह न था परन्‍तु वह हरकिशोर की अपेक्षा ब्रजकिशोर से अधिक डरता था इसलिये उस्‍नें ब्रजकिशोर ही को अपराधी ठैरानें का बिचार किया। अफ़सोस ! जो दुराचारी अपनें किसी तरह के स्‍वार्थ से निर्दोष और धर्मात्‍मा मनुष्‍यों पर झूंटा दोष लगाते हैं अथवा अपना कसूर उन्‍पर बरसाते हैं उन्‍के बराबर पापी संसार मैं और कौन होगा ?

लाला मदनमोहन के मन मैं चुन्‍नीलाल के कहनें का पूरा विश्‍वास होगया। उस्‍नें कहा “मैं अपनें मित्रों को रुपे की सहायता के लिये चिट्ठी लिखता हूँ। मुझको विश्‍वास है कि उन्‍की तरफ़ से पूरी सहायता मिलेगी परन्‍तु सबसे पहले ब्रजकिशोर के नाम चिट्ठी लिखूंगा कि वह मुझको अपना काला मुंह जन्‍म भर न दिखलाय” यह कह कर लाला मदनमोहन चिट्ठियां लिखनें लगे।

प्रकरण-२७ : लोक चर्चा (अफ़वाह)

निन्‍दा, चुगली, झूंठ अरु पर दुखदायक बात ।

जे न कर हिं तिन पर द्रवहिं स र्बे श्‍वर बहुभांत ।।[1]

विष्‍णुपुराणों।

उस तरफ़ लाला ब्रजकिशोर नें प्रात:काल उठ कर नित्‍य नियम से निश्चिन्‍त होते ही मुन्‍शी हीरालाल को बुलानें के लिये आदमी भेजा।

हीरालाल मुन्‍शी चुन्‍नीलाल का भाई है। यह पहले बंदोबस्‍त के महक़मे मैं नौकर था। जब से वह काम पूरा हुआ इस्‍की नौकरी कहीं नहीं लगी थी।

“तुमनें इतनें दिन से आकर सूरत तक नहीं दिखाई। घर बैठे क्‍या किया करते हो ?” हीरालाल के आते ही ब्रजकिशोर कहनें लगे “दफ्तर मैं जाते थे जब तक खैर अवकाश ही न था परन्‍तु अब क्यों नहीं आते ?”

“हुज़ूर ! मैं तो हरवक्त हाजिर हूँ परन्तु बेकाम आनें मैं शर्म आती थी। आज आपनें याद किया तो हाजिर हुआ। फरमाइये क्या हुक्म है ?” हीरालाल नें कहा।

“तुम ख़ाली बैठे हो इस्‍की मुझे बड़ी चिन्‍ता है। तुम्‍हारे बिचार सुधरे हुए हैं इस्‍सै तुमको पुरानें हक़ का कुछ ख़याल हो या न हो (!) परन्‍तु मैं तो नहीं भूल सक्‍ता। तुम्‍हारा भाई जवानी की तरंग में आकर नौकरी छोड़ गया परन्‍तु मैं तो तुम्हैं नहीं छोड़ सक्ता। मेरे यहां इन दिनों एक मुहर्रिर की चाह थी। सब से पहले मुझको तुम्‍‍हारी याद आई। (मुस्‍करा कर) तुम्‍हारे भाई को दस रुपे महीना मिल्‍ता था परन्‍तु तुम उस्सै बड़े हो इसलिये तुम को उस्से दूनी तनख्‍वाह मिलेगी”

“जी हां ! फ़िर आप को चिन्‍ता न होगी तो और किस्‍को होगी ? आपके सिवाय हमारा सहायक कौन है ? चुन्‍नीलाल नें निस्सन्देह मूर्खता की परन्‍तु फ़िर भी तो जो कुछ हुआ आप ही के प्रताप ही से हुआ।”

“नहीं मुझको चुन्‍नीलाल की मूर्खता का कुछ बिचार नहीं है मैं तो यही चाहता हूँ कि वह जहां रहै प्रसन्‍न रहै। हां मेरी उपदेश की कोई, कोई बात उस्को बुरी लगती होगी। परन्‍तु मैं क्‍या करूं ? जो अपना होता है उस्‍का दर्द आता ही है।”

“इस्मैं क्‍या संदेह है ? जो आपको हमारा दर्द न होता तो आप इस समय मुझको घर सै बुलाकर क्या इतनी कृपा करते ? आपका उपकार मान्‍नें के लिये मुझ को कोई शब्‍द नहीं मिल्‍ते। परन्तु मुझको चुन्‍नीलाल की समझ पर बड़ा अफसोस आता है कि उस्‍नें आप जैसे प्रतिपालक के छोड़ जानें की ढिठाई की। अब वह अपनें किये का फल पावेगा तब उस्की आंखें खुलेंगी।”

“मैं उस्‍के किसी-किसी काम को निस्‍सन्‍देह नापसन्‍द करता हूँ परन्‍तु यह सर्बथा नहीं चाहता कि उस्‍को किसी तरह का दु:ख हो।”

“यह आपकी दयालुता है परन्‍तु कार्य कारण के सम्‍बन्‍ध को आप कैसे रोक सक्‍ते हैं ? आज लाला मदनमोहन पर तकाज़ा हो गया। जो ये लोग आपका उपदेश मान्‍ते तो ऐसा क्‍यों होता ?”

“हाय ! हाय ! तुम यह क्‍या कहते हो ? मदनमोहन पर तकाज़ा होगया ! तुमनें यह बात किस्‍सै सुनी ? मैं चाहता हूँ कि परमेश्‍वर करे यह बात झूंट निकले” लाला ब्रजकिशोर इतनी बात कह कर दु:ख सागर मैं डूब गये। उन्‍के शरीर मैं बिजली का सा एक झटका लगा, आंसू भर आए, हाथ पांव शिथिल हो गये। मदनमोहन के आचरण से बड़े दु:ख के साथ वह यह परिणाम पहले ही समझ रहे थे इसलिये उन्‍को उस्‍का जितना दु:ख होना चाहिए पहले होचुका था। तथापि उन्‍को ऐसी जल्‍दी इस दुखदाई ख़बर के सुन्‍नें की सर्बथा आशा न थी इस लिये यह ख़बर सुन्‍ते ही उन्‍का जी एक साथ उमड़ आया परन्‍तु वह थेड़ी देर में अपनें चित्त का समाधान करके कहनें लगे :-

“हा ! कल क्‍या था ! आज क्‍या हो गया ! ! ! श्रृंगाररसका सुहावनां समां एका एक करुणा से बदल गया ! बेलजिअम की राजधानी ब्रसेलस पर नैपोलियन नें चढ़ाई की थी उस्‍समय की दुर्दशा इस्‍समय याद आती है, लार्डबायरन लिखता है:-

“निशि मैं बरसेलस गाजि रह्यो ।।

बल, रूप बढ़ाय बिराजि रह्यो

अति रूपवती युवती दरसैं ।।

बलवान सुजान जवान लसैं

सब के मुख दीपनसों दमकैं ।।

सब के हिय आनन्‍द सों धमकैं

बहुभांति बिनोद प्रमोद करैं ।।

मधुर सुर गाय उमंग भरैं

जब रागन की मृदु तान उड़ैं ।।

प्रियप्रीतम नैनन सैन जुडै

चहुँओर सुखी सुख छायरह्यो ।।

जनु ब्‍यहान घंट निनाद भयो

पर मौनगहो ! अबिलोक इतै ।।

यह होत भयानक शब्‍द कितै ?

डरपौ जिन चंचल बायु बहै ।।

अथवा रथ दौरत आवत है

प्रिय ! नाचहु, नाचहु ना ठहरो ।।

अपनें सुख की अवधी न करो

जब जोबन और उमंग मिलैं ।।

सुख लुटन को दुहु दोर चलै

तब नींद कहूँ निशआवत है ? ।।

कुछ औरहु बात सुहावत है ?

पर कान लगा; अब फेर सुनो ।।

वह शब्‍द भयानक है दुगुनो !

घनघोरघटा गरजी अब ही ।।

तिहँ गूंज मनो दुहराय रही

यह तोप दनादन आवत हैं ।।

ढिंग आवत भूमि कँपावत हैं

“सब शस्‍त्रसजो, सबशस्‍त्रसजो” ।।

घबराहट बढ़ो सुख दूर भजो

दुखसों बिलपै कलपैं सबही ।।

तिनकी करूणा नहिं जाय कही

निज कोमलता सुनि लाज गए ।।

सुकपोल ततक्षण पीत भए

दुखपाय कराहि बियोग लहैं ।।

जनु प्राण बियोग शरीर सहैं

किहिं भाति करों अनुमान यहू ।।

प्रिय प्रीतम नैन मिलैं कबहू ?

जब वा सुख चैनहि रात गई ।।

इहिं भांत भयंकर प्रात भई !!!”[2]

हां यह खबर तुमनें किस्सै सुनी ?”

“चुन्‍नीलाल अभी घर भोजन करनें आया था वह, कहता था”

“वह अबतक घर हो तो उसे एक बार मेरे पास भेज देना। हम लोग खुशी प्रसन्‍नता मैं चाहें जितनें लड़ते झगड़ते रहें परन्‍तु दु:ख दर्द सब मैं एक हैं। तुम चुन्‍नीलाल सै कह देना कि मेरे पास आनेंमैं कुछ संकोच न करे मैं उस्‍सै जरा भी अप्रसन्‍न नहीं हूँ”

“राम, राम ! यह हजूर क्‍या फरमाते हैं ? आपकी अप्रसन्नता का बिचार कैसे हो सक्ता है ? आप तो हमारे प्रतिपालक हैं। मैं जाकर अभी चुन्‍नीलाल को भेजता हूँ। वह आकर अपना अपराध क्षमा करायगा और चला गया हो तो शाम को हाजिर होगा” हीरालाल नें उठते उठते कहा।

अच्‍छा ! तुम कितनी देर मैं आओगे ?”

“मैं अभी भोजन करके हाजिर होता हूँ” यह कह कर हीरालाल रुख़सत हुआ।

लाला ब्रजकिशोर अपनें मन मैं बिचारनें लगे कि “अब चुन्‍नीलाल सै सहज मैं मेल हो जायगा परन्‍तु यह तकाजा कैसे हुआ ? कल हरकिशोर क्रोधमैं भर रहाथा। इस्से शायद उसीनें यह अफ़वाह फैलाई हो। उस्‍नें ऐसा किया तो उस्‍के क्रोधनें बड़ा अनुचित मार्ग लिया और लोगोंनें उस्‍के कहनें मैं आकर बड़ा धोका खाया।

“अफ़वाह वह भयंकर वस्‍तु है जिस्‍से बहुत से निर्दोष दूषित बन जाते हैं। बहुत लोगों के जीमैं रंज पड़ जाते हैं, बहुत लोगों के घर बिगड़ जाते हैं। हिन्‍दुस्‍थानियोंमैं अबतक बिद्याका ब्यसन नहीं है, समय की कदर नहीं है, भले बुरे कामों की पूरी पहचान नहीं है इसी सै यहांके निवासी अपना बहुत समय ओरों के निज की बातों पर हासिया लगानें मैं और इधर उधरकी जटल्‍ल हांकनेंमैं खो देतेहैं जिस्‍से तरह, तरह की अफ़वाएं पैदा होती हैं और भलेमानसोंकी झूंटी निंदा अफ़वाहकी ज़हरी पवन मैं मिल्‍कर उनके सुयश को धुंधला करती है। इन अफवाह फैलानें मालोंमैं कोई, कोई दुर्जन खानें कमानें वाले हैं कोई कोई दुष्‍ट बैर और जलन सै औरों की निंदा करनें वाले हैं और कोई पापी ऐसे भी हैं जो आप किसी तरह की योग्‍यता नहीं रखते इस लिये अपना भरम बढ़ानें को बड़े बड़े योग्‍य मनुष्‍यों की साधारण भूलों पर टीका करकै आप उन्‍के बराबर के बना चाहते हैं अथवा अपना दोष छिपानें के लिये दूसरे के दोष ढूंढ़ते फ़िरते हैं या किसी की निंदित चर्चा सुन्कर आप उस्‍सै जुदे बन्नें के लिये उस्‍की चर्चा फैलानें मैं शामिल होजाते हैं या किसी लाभदायक वस्तु सै केवल अपना लाभ स्थिर रखनें के लिये औरों के आगे उस्‍की निंदा किया करते हैं पर बहुतसै ठिलुए अपना मन बहलानें के लिये औरों की पंचायत ले बैठते हैं। बहुतसै अन्‍समझ भोले भावसै बात का मर्म जानें बिना लोगों की बनावट मैं आकर धोका खाते हैं। जो लोग औरों की निंदा सुन्‍कर कांपते हैं वह आप भी अपनें अजानपनें मैं औरोंकी निंदा करते हैं ! जो लोग निर्दोष मनुष्‍यों की निंदा सुन्‍कर उन्‍पर दया करते हैं वह आप भी थीरे सै, कान मैं झुककर, औरों सै कहनें के वास्‍ते मनै करकर औरोंकी निंदा करते हैं ! जिन लोगोंके मुख सै यह वाक्‍य सुनाई देते हैं कि “बड़े खेद की बात है” “बड़ी बुरी बात है” “बड़ी लज्‍जा की बात है” “यह बात मान्‍नें योग्‍य नहीं” “इस्मैं बहुत संदेह है” “इन्‍बातों सै हाथ उठाओ” वह आप भी औरों की निंदा करते हैं ! वह आप भी अफवाह फैलानें वालोंकी बात पर थोड़ा बहुत विश्वास रखते है ! झूंटी अफ़वासै केवल भोले आदमियों के चित्त पर ही बुरा असर नहीं होता वह सावधान सै सावधान मनुष्‍यों को भी ठगती है। उस्‍का एक, एक शब्‍द भले मानसों की इज्‍जत लूटता है। कल्‍पद्रुम मैं कहा है “होत चुगल संसर्ग ते सज्‍जन मनहुं विकार ।। कमल गंध वाही गलिन धूल उड़ावत ब्‍यार।।”[3] जो लोग असली बात निश्‍चय किये बिना केवल अफ़वाके भरोसे किसी के लिये मत बांध लेते हैं वह उस्‍के हक़ में बड़ी बेइन्‍साफी करते हैं। अफ़वाह के कारण अबतक हमारे देशको बहुत कुछ नुकसान हो चुका है। नादिरशाह सै हारमानकर मुहम्‍मदशाह उसै दिल्‍ली मैं लिवा लाया नगर निवासियोंनें यह झूंटी अफ़वाह उड़ा दी की नादिरशाह मरगया। नादिरशाह नें इस झूंटी अफ़वाह को रोकनें के लिये बहुत उपाय किये परन्‍तु अफ़वाह फैले पीछै कब रुक सक्‍ती थी ! लाचार होकर नादिरशाह नें विजन बोल दिया। दोपहरके भीतर लाख मनुष्‍यों सै अधिक मारे गए ! तथापि हिन्‍दुस्‍थानियों की आंख न खुली।”

“हिन्‍दुस्थानियों को आज कल हर बात मैं अंग्रेजों की नक़ल करनें का चस्‍का पड़ ही रहा है तो वह भोजन वस्‍त्रादि निरर्थक बातौं की नक़ल करनें के बदले उन्‍के सच्‍चे सद्गुणों की नकल क्‍यों नहीं करते ? देशोपकार, कारीगरी और व्‍यापारादि मैं उन्‍की सी उन्‍नति क्‍यों नहीं करते ? अपना स्वभाव स्थिर रखनें मैं उन्‍का दृष्‍टांत क्‍यों नहीं लेते ? अंग्रेजों की बात चीत मैं किसी की निजकी बातों का चर्चा करना अत्यन्त दूषित समझा जाता है। किसी की तन्‍ख्‍वाह या किसी की आमदनी, किसी का अधिकार या किसी का रोजगार, किसी की सन्‍तान या किसी के घर का वृत्तान्त पूछनें मैं, पूछा होय तो कहनें मैं, कहा होय तो सुन्‍नें मैं वह लोग आनाकानी करते हैं और किसी समय तो किसी का नाम, पता और उम्र पूछना भी ढिटाई समझा जाता है। अपनें निज के सम्‍बन्धियों की बातों सै भी अज्ञान रहना वह लोग बहुधा पसंद करते हैं। रेल मैं, जहाज मैं खानें पीनें के जलसों मैं, पास बैठनें मैं और बातचीत करनें मैं जान पहचान नहीं समझी जाती। वह लोग किराए के मकान मैं बहुत दिन पास रहनें पर बल्कि दुख दर्द मैं साधारण रीति सै सहायता करनें पर भी दूसरे की निज की बातों सै अजान रहते हैं। जब तक पहचान स्थिर रखनें के लिये दूसरे की तरफ़ सै सवाल न हो, अथवा किसी तीसरे मनुष्‍य नें जान पहचान न कराई हो, नित्‍य की मिला भेटी और साधारण रीति सै बात चीत होनें पर भी जान पहचान नहीं समझी जाती और जान पहचान हुए पीछै भी मित्रता नहीं करते पर मित्रता हुए पीछै भी दूसरे की निजकी बातों सै अजान रहना अधिक पसन्‍द करते हैं। उन्‍के यहां निज की बातों के पूछनें की रीति नहीं है। उन्‍को देश सम्‍बन्‍धी बातैं करनें का इतना अभ्‍यास होता है कि निज के वृत्तान्त पूछनें का अवकाश ही नहीं मिल्‍ता परन्‍तु निजकी बातों सै अजान रहनें के कारण उन्की प्रीति मैं कुछ अन्‍तर नहीं आता। मनुष्‍य का दुराचार साबित होनें पर वह उसै तत्‍काल छोड़ देते हैं परन्‍तु केवल अफ़वाह पर वह कुछ ख्‍याल नहीं करते बल्कि उस्‍का अपराध साबित न हो जबतक वह उसको अपना बचाव करनें के लिये पूरा अवकाश देते हैं और उचित रीति सै उस्‍का पक्ष करते हैं”

प्रकरण-२८ : फूट का काला मुंह

फूट गए हीरा की बिकानी कनी हाट, हाट ।।

काहू घाट मोल काहू बाढ़ मोल कों लयो ।।

टूट गई लंका फूट मिल्‍यो जो विभीषण है ।।

रावण समेत बंस आसमान को गयो ।।

कहे कविगंग दुर्योधन सो छत्रधारी ।।

तनक के फूटेते गुमान वाको नै गयो ।।

फूटेते नर्द उठ जात बाजी चौपर की ।।
आपस के फूटे कहु कौन को भलो भयो ।।?।।

गंग।

थोड़ी देर पीछै मुन्शी चुन्‍नीलाल आ पहुँचा परन्‍तु उस्‍के चेहरे का रंग उड़ रहा था। लाला सै उस्‍की आंख ऊँची नहीं होती थी। प्रथम तो उस्‍की सलाह सै मदनमोहन का काम बिगड़ा दूसरे उस्‍की कृतघ्नता पर ब्रजकिशोर नें उस्‍के साथ ऐसा उपकार किया इसलिये वह संकोच के मारे धरती मैं समाया जाता था।

“तुम इतनें क्‍यों लजाते हो ? मैं तुम सै जरा भी अप्रसन्‍न नहीं हूँ बल्कि किसी, किसी बात मैं तो मुझको अपनी ही भूल मालूम होती है। मैं लाला मदनमोहनकी हरेक बात पर हदसै ज्‍यादा: जिद करनें लगता था। परन्‍तु मेरी वह जिद अनुचित थी। हरेक मनुष्‍य अपनें बिचार का आप धनी है। मैं चाहता हूँ कि आगे को ऐसी सूरत न हो और हम सब एक चित्‍त होकर रहैं। परन्‍तु मैंनें तुमको इस्समय इस सलाह के लिये नहीं बुलाया था। इस बिषय मैं तो जब तुम्‍हारी तरफ़ सै चाहना मालूम होगी देखा जायगा” लाला ब्रजकिशोर कहनें लगे “इस्समय तो मुझको तुम सै हीरालाल की नौकरी बाबत सलाह करनी है। यह बहुत दिन सै खाली है। और मुझको अपनें यहां इस्‍समय एक मुहर्रिर की ज़रूरत मालूम होती है। तुम कहो तो इन्हैं रख लूं ?”

“इस्‍मैं मुझ सै क्‍या पूछते हैं ? इसके आप मालिक हैं” मुन्शी चुन्‍नीलाल कहनें लगा “मेरी तो इतनी ही प्रार्थना है कि आप मेरी मूर्खता पर दृष्टि न करैं अपनें बड़प्‍पन का बिचार रक्‍खें पहली बातों के याद करनें सै मुझको अत्‍यन्‍त लज्‍जा आती है। आपनें इस्‍समय लाला हीरालाल को नौकर रखकर मुझे मौत कर दिया।”

“मैं तुमको लज्जित करनें के लिये यह बात नहीं कहता। मैंनें अपनें मन का निज भाव तुमको इसलिये समझा दिया है कि तुम मुझे अपना शत्रु न समझो” लाला ब्रजकिशोर कहनें लगे। “हिन्‍दुस्तान के सत्‍यानाश की जड़ प्रारम्‍भ सै यही फूट है। इसी के कारण कौरव पांडवों का घोर युद्ध हुआ, इसी के कारण नन्‍द वंश की जड़ उखड़ी, पृथ्‍वीराज और जयचन्‍द की फूट सै हिन्‍दुस्‍थान मैं मुसल्‍मानों का राज आया और मुसल्‍मानों का राज भी अन्त मैं इसी फूट के कारण गया। सौ सवा सौ बरस सै लेकर अबतक हिन्‍दुस्‍थानमैं कुछ ऐसे अप्रबन्‍ध, फूट और स्‍वेच्‍छाचारकी हवा चली कि बहुधा लोग आपस मैं कट मरे। साहूजी नें ईस्‍ट इंडियन कम्‍पनी को देवी कोटे का किला और जिला देकर उस्‍के द्वारा अपनें भाई प्रताप सिंह सै तंजोर का राज छीन लिया। बंगाल के सूबेदार सिराजुद्दौला सै अधिकार छीन्‍नें के लिये उस्‍के बखशी मीर जाफर और दिवान राय दुल्‍लभ आदि नें कंपनी को दक्षिण काल्‍पी तक की जमीदारी, एक करोड़ रुपया नक़द और कलकत्ते के अंग्रेजों को पचास लाख, फौज को पचास लाख और और लोगों को चालीस लाख अनुमान देनें किये। जब मीर जाफर सूबेदार हुआ तब उस्‍सै अधिकार छीन्नें के लिये उस्‍के जँवाई कासम अलीखां नें कंपनी को बर्दवान, मेदनीपुर, चट गांव के जिले, पांच लाख रुपे नक़द और कौन्सिल वालों को बीस लाख रुपे देनें किये। जब कासम अलीखां सूबेदार हो गया और महसूल बाबत उसका कंपनी सै बिगाड़ हुआ तब मीर जाफर नें कंपनी को तीस लाख रुपे नक्‍द और बारह हजार सवार और बारह हजार पैदलों का खर्च देकर फ़िर अपना अधिकार जमा लिया। उधर अवध का सूबेदार शुजाउद्दौला कंपनी को चालीस लाख रुपे नक्‍द और लड़ाई का खर्च देना करके उस्‍की फौज रुहेलों पर चढ़ा ले गया। दखन मैं बालाजी राव पेशवा के मरते ही पेशवाओं के घरानें मैं फूट पड़ी। दो थोक हो गए। अब तक पंजाब बच रहा था। रणजीतसिंह की उन्‍नति होती जाती थी परन्‍तु रणजीतसिंह के मरते ही वहां फूट नें ऐसे पांव फैलाए कि पहले सब झगड़ों को मात कर दिया। राजा ध्‍यानसिंह मन्त्री और उसके बेटे हीरा सिंह आदि की स्‍वार्थपरता, लहनासिंह और अजीतसिंह सिंधां वालों का छल अर्थात् कुंवर शेरसिंह और राजा ध्‍यानसिंह के जी मैं एक दूसरे की तरफ़ सै संदेह डालकर विरोध बढाना, और अन्‍त मैं दोनों के प्राण लेना, राजकुमार खड़गसिंह उसका बेटा नोनिहालसिंह, राजकुमार शेरसिंह उस्‍का बेटा प्रतापसिंह आदि की अन्‍समझी सै आपस मैं यह कटमकटा हुई कि पांच बरस के भीतर भीतर उस्‍के बंश मैं सिवाय दिलीपसिंह नामी एक बालक के कोई न रहा और उस्‍का राज भी कंपनी के राज मैं मिल गया। किसी नें सच कहा है, “अल्‍पसार हू बहुत मिल करैं बड़ो सो जोर ।। जों गज को बंधन करे तृणकी निर्मित डोर ।। [4] इसलिये मैं आपस की फूट को सर्वथा अच्‍छा नहीं समझता। तुम मेरे पास सै गए थे इसलिये मुझको तुम्‍हारे कामों पर विशेष दृष्टि रखनी पड़ती थी परन्‍तु तुम अपनें जीमैं कुछ और ही समझते रहे। खैर ! अब इन बातों की चर्चा करनें सै क्‍या लाभ है।”

“आप यह क्‍या कहते हैं ? आप मेरे बड़े हैं। मैं आपका बरताव और तरह कैसे समझ सक्‍ता था ?” चुन्‍नी लाल कहनें लगा “आप नें बचपन मैं मेरा पालन किया, मुझको पढ़ा लिखा कर आदमी बनाया इस्‍सै बढ़ कर कोई क्‍या उपकार करेगा ? मैं अच्‍छी तरह जान्‍ता हूँ कि आप नें मुझ से जो कुछ भला बुरा कहा मेरी भलाई के लिये कहा। क्‍या मैं इतना भी नहीं जान्‍ता कि दंगा करनें से मां अपनें बालक को मारती है दूसरे से कुछ नहीं कहती यदि आपको हमारे प्रतिपालन की चिन्ता मन से न होती तो ऐसे कठिन समय मैं लाला हीरालाल को घर से बुलाकर क्‍यों नौकर रखते ?”

“भाई ! अब तो तुमनें वही खुशामद की लच्‍छेदार बातैं छेड़ दीं” लाला ब्रजकिशोर नें हँस कर कहा।

“आपके जी मैं मेरी तरफ़ का संदेह हो रहा है इस्सै आप को ऐसा ही भ्‍यास्‍ता होगा। परन्‍तु इस्‍मैं सै कौन्‍सी बात आप को खुशामद की मालूम हुई ?”

मनुस्‍मृति मैं कहा है “आकृति, चेष्‍टा, भाव, गति, बचन, रीति, अनुमान ।।

नैन सैंन, मुखकांति लख मन की रुचि पहिचान ।।[5]” लाला ब्रजकिशोर कहनें लगे “तुम कहते हो कि आप नें जो कुछ भला बुरा कहा मेरी भलाई के लिये कहा” परन्‍तु उस्‍समय तुम यह सर्वथा नहीं समझते थे। तुम्‍हारे कामों सै यह स्‍पष्‍ट जाना जा‍ता था कि तुम मेरी बातों सै अप्रसन्‍न हो और तुम्‍हारा अप्रसन्‍न होना अनुचित न था क्‍योंकि मेरी बातों सै तुम्‍हारा नुक्सान होता था। मुझको इस्बात का पीछै बिचार आया। मुझको इस्समय इन बातों के जतानें की ज़रूरत न थी परन्‍तु मैंनें इसलिये जतादी कि मैं भी सच झूँट को पहचान्ता हूँ। सच्‍चाई बिना मुझ सै सफाई न होगी”

“आप की मेरी सफाई क्‍या ? सफाई और बिगाड़ बराबर वालों में हुआ करता है, आप तो मेरे प्रतिपालक हैं। आप की बराबरी मैं कैसे कर सकता हूँ ?” मुन्‍शी चुन्‍नी लाल नें गम्‍भीरता सै कहा।

“यह तो बहानें बाजी की बात हैं। सफ़ाई के ढंग और ही हुआ करते हैं। मुझको तुम्‍हारा सब भेद मालूम है परन्‍तु तुमनें अबतक कौन्‍सी बात खुल के कही ?” लाला ब्रजकिशोर कहनें लगे “मैं पूछता हूँ कि तुमनें मदनमोहन के यहां सै सिवाय तनख्‍वाह के और कुछ नहीं लिया तो तुम्‍हारे पास आठ दस हजार रुपे कहां सै आगए ? मिस्‍टर ब्राइट इत्‍यादि सै तुम जो कमीशन लेते हो उस्‍का हाल मैं उन्‍के मुख सै सुन चुका हूँ तुम्‍हारी और शिंभूदयाल की हिस्‍सा पत्ती का हाल मुझे अच्‍छी तरह मालूम है। हरकिशोर और निहालचंद गली, गली तुम्‍हारी धूल उड़ाते फ़िरते हैं। मैं नहीं जान्‍ता कि जब इस्‍की चर्चा अदालत तक पहुँचेगी तो तुम्‍हारे लिये क्‍या परिणाम होगा ? मैंनें केवल तुम सै सलाह करनें के लिये यह चर्चा छेड़ी थी परन्‍तु तुम इस्‍के छिपानें मैं अपनी सब अकलमन्‍दी खर्च करनें लगे तो मुझको पूछनें सै क्‍या प्रयोजन है ? जो कुछ होना होगा समय पर अपनें आप हो रहैगा”

“आप क्रोध न करैं मैंनें हर काम मैं आप को अपना मालिक और प्रतिपालक समझ रक्‍खा है। मेरी भूल क्षमा करैं और मुझको इस्‍समय सै अपना सच्‍चा सेवक समझते रहैं” मुन्‍शी चुन्‍नीलाल नें कुछ, कुछ डरकर कहा “आप जान्‍ते हैं कि कुन्बे का बड़ा खर्च है इस्‍के वास्तै मनुष्‍य को हजार तरह के झूंट सच बोलनें पड़ते हैं (वृन्द) “उदर भरन के कारनें प्राणी करत इलाज ।। नाचे, बांचे, रणभिरे, राचे काज अकाज ।।”

”संसार की यही रीति है। प्रसंग रत्‍नावली मैं लिखा है “ज्ञान बृद्ध तपबृद्ध अरु बयके बृद्ध सुजान । धनवान के द्वार कों सेवैं भृत्‍य समान।।” [6] लाला ब्रजकिशोर कहनें लगे “तुमको मेरी एकाएक राय पलटनें का आश्‍चर्य होगा। परन्‍तु आश्‍चर्य न करो। जिस तरह शतरंज मैं एक चाल चलनें सै बाजी का नक्‍शा पलटता जाता है इसी तरह संसार मैं हरेक बात मैं काम काज की रीति भांति बदलती रहती है। अबतक यह समझता था कि मुझको मदनमोहन सै अवश्‍य इन्‍साफ़ मिलेगा परन्तु वह समय निकल गया। अब मैं फायदा उठाऊँ या न उठाऊँ मदनमोहन को फायदा पहुँचाना सहज नहीं। मेरा हाल तु‍म अच्‍छी तरह जान्‍ते हो। मैं केवल अपनी हिम्‍मत के सहारे सब तरह का दु:ख झेल रहा हूँ परन्‍तु मेरे कर्तव्य काम मुझको जरा भी नहीं उभरनें देते। कहते हैं कि अत्यन्त विपत्ति काल मैं महर्षि विश्‍वामित्र नें भी चंडाल के घर सै कुत्ते का मांस चुराया था ! फ़िर मैं क्‍या करूं ? क्‍या न करूं कुछ बुद्धि काम नहीं करती”

“समय बीते पीछै आप इन सब बातों की याद करते हैं अब तो जो होना था हो चुका यदि आप पहले इन बातों को बिचार करते तो केवल आप को ही नहीं आप के कारण हम लोगों को भी बहुत कुछ फ़ायदा हो जाता”

“तुम अपनें फ़ायदे के लिये तो बृथा खेद करते हो !” लाला ब्रजकिशोर नें हंस; कर जवाब दिया “अलबत्‍ता मैं मदनमोहन सै साफ जवाब पाए बिना कुछ नहीं कर सक्‍ता था क्‍योंकि मुझको प्रतिज्ञा भंग करना मंजूर न था। क्‍या तुम को मेरी तरफ़ सै अब तक कुछ संदेह है ?”

“जी नहीं, आप की तरफ़ का तो मुझ को कुछ संदेह नहीं है परन्तु इतना ही बिचार है कि खल मैं सै तेल आप किस तरह निकालैंगे !” मुन्‍शी चुन्‍नीलाल नें जीमैं संदेह करके कहा।

“इस्‍की चिन्‍ता नहीं, ऐसे काम के लिये लोग यह समय बहुत अच्‍छा समझते हैं”

“बहुत अच्‍छा ? अब मैं जाता हूँ परन्‍तु——” मुन्‍शी चुन्‍नीलाल कहते, कहते रुक गया।

“परन्‍तु क्‍या ? स्‍पष्‍ट कहो, मैं जान्‍ता हूँ कि तुम्‍हारे मन का संदेह अब तक नहीं गया। तुम्‍हारी हजार बार राजी हो तो तुम सफ़ाई करो, नहीं तो न करो। अभी कुछ नहीं बिगड़ा। मेरा कौन्‍सा काम अटक रहा है ? तुम अपना नफा नुक्‍सान आप समझ सक्ते हो”

“आप अप्रसन्‍न न हों, मुझको आपपर पूरा भरोसा है। मैं इस कठिन समय मैं केवल आप पर अपनें निस्‍तार का आधार समझता हूँ। मेरी लायकी-नालायकी मेरे कामों सै आप को मालूम हो जायगी। परन्‍तु मेरी इतनीही विनती है कि आप भी जरा नरम ही रहैं इन्की बातों मैं बढ़ावा देकर इन्‍सै सब तरह का काम ले सक्‍ते हैं परन्‍तु इन पर एतराज करनें सै यह चिढ़ जाते हैं। कल के झगड़े के कारण आजके तक़ाजे का संदेह इन्‍को आप पर हुआ है परन्‍तु अब मैं जाते ही मिटा दूंगा” मुन्‍शी चुन्‍नीलाल नें बात पलटकर कहा और उठकर जानें लगा।

“तुम किया चाहोगे तो सफाई होनी कौन कठिन है? (बृन्द) प्रेरक ही ते होत है कारज सिद्ध निदान ।। चढ़े धनुष हू ना चले बिना चलाए बान ।।१ सुजन बीच पर दुहुनको हरत कलह रस पूर ।। करत देहरी दीप जों घर आंगन तम दूर ।।२” यह कहक़र लाला ब्रजकिशोर नें चुन्‍नीलाल को रुख़सत किया।

चुन्‍नीलाल के चित्त पर ब्रजकिशोर की कहन और हीरालाल की नौकरी सै बड़ा असर हुआ था परन्तु अबतक ब्रजकिशोर की तरफ़ सै उस्का मन पूरा साफ न था। यह बातें ब्रजकिशोर के स्‍वभाव सै इतनी उल्‍टी थीं कि ब्रजकिशोर के इतनें समझानें पर भी चुन्‍नीलाल का मन न भरा। वह संदेह के झूले मैं झोटे खा रहा था और बड़ा बिचार करके उस्‍नें यह युक्ति सोची थी कि “कुछ दिन दोनों को दम मैं रक्‍खूं, ब्रजकिशोर को मदनमोहन की सफाई की उम्‍मेद पर ललचाता रहूँ और इस काम की कठिनाई दिखा, दिखाकर अपना उपकार जताता रहूँ। मदनमोहन को अदालत के मुकदमों मैं ब्रजकिशोर सै मदद लेनें की पट्टी पढ़ाऊँ पर बेपरवाई जतानें के बहानें सै दोनों मैं परस्‍पर काम की बात खुल कर न होनें दूं जिस्‍मैं दोनों का मिलाप होता रहै। उन्‍के चित्त को धैर्य मिलनें के लिये सफाई के आसार, शिष्‍टाचार की बातें दिन, दिन बढ़ती जायं परन्‍तु चित्त की सफाई न होनें पाए, और दोनों की कुंजी मेरे हाथ रहै।”

ब्रजकिशोर चुन्‍नीलाल की मुखचर्या से उस्‍के मन की धुकड़ धुकड़ पहचान्‍ता था इसलिये उस्‍नें जाती बार हीरालाल के भेजनें की ताकीद कर दी थी। वह जान्ता था कि हीरालाल बेरोजगारी सै तंग है वह अपनें स्‍वार्थ सै चुन्‍नीलाल को सच्‍ची सफाई के लिये बिवस करेगा और उस्‍की जिद के आगे चुन्‍नीलाल की कुछ न चलेगी। निदान ऐसाही हुआ। हीरालाल नें ब्रजकिशोर की सावधानी दिखाकर चुन्‍नीलाल को बनावट के बिचार सै अलग रक्‍खा, ब्रजकिशोर की प्रामाणिकता दिखाकर उसै ब्रजकिशोर सै सफाई रखनें के वास्‍तै पक्‍का किया, मदनमोहन के काम बिगड़नें की सूरत बताकर आगे को ब्रजकिशोर का ठिकाना बनानें की सलाह दी और समझाकर कहा कि “एक ठिकानें पर बैठे हुए दस ठिकानें हाथ आ सक्‍ते हैं जैसे एक दिया जल्‍ता हो तो उस्से दस दिये जल सक्ते हैं परन्‍तु जब यह ठिकाना जाता रहैगा तो कहीं ठिकाना न लगेगा।” अदालत मैं मदनमोहन पर नालिश होनें से चुन्‍नीलालके भेद खुलनें का भय दिखाया और अन्‍त मैं ब्रजकिशोर से चुन्‍नीलाल नें सच्‍ची सफाई न की तो हीरालाल की चोरी साबित करनें की धमकी दी और इन बातौं से परवस होकर चुन्‍नीलाल को ब्रजकिशोर से मन की सफाई करनें के लिये दृढ़ प्रतिज्ञा करनी पड़ी।

परन्‍तु आज ब्रजकिशोर की वह सफाई और सचाई कहां है ? हरकिशोर का कहना इस्‍समय क्‍या झूंट है ? इस्‍के आचरण सै इस्‍को धर्मात्‍मा कौन बता सक्ता है ? और जब ऐसे खर्तल मनुष्‍य का अन्‍तमैं यह भेद खुला तो संसार मैं धर्मात्‍मा किस्‍को कह सक्ते हैं ? काम, क्रोध, लोभ, मोह का बेग कौन रोक सक्ता है ? परन्‍तु ठैरो ! जिस मनुष्‍य के जाहिरी बरताब पर हम इतना धोखा खा गए कि सवेरे तक उस्‍को मदनमोहन का सच्‍चा मित्र समझते रहे हर जगह उस्‍की सावधानी, योग्‍यता, चित्त की सफाई और धर्मप्रवृति की बड़ाई करते रहे उस्के चित्त मैं और कितनी बातें गुप्‍त होगी यह बात सिवाय परमेश्‍वर के और कौन जान सक्ता है ? और निश्‍चय जानें बिना हमलोगों को पक्‍की राय लगानें का क्‍या अधिकार है ?

प्रकरण-२९ : बातचीत

सीख्‍यो धन धाम सब कामके सुधारि वे को

सीख्‍यो अभिराम बाम राखत हजूरमैं ।।

सीख्‍यो सराजाम गढ़कोटके गिराइबेको

सीख्‍यो समसेर बां धि काटि अरि ऊरमैं ।।

सीख्‍यो कुल जंत्र मंत्र तन्त्र हू की बात

सीख्‍यो पिंगल पुरान सीख वो बह्यौ जात कूरमैं ।।

कहै कृपाराम सब सीखबो गयो निकाम

एक बोल वो न सीख्‍यो गयो धूरमैं ।।

श्रृंगार संग्रह।

“आज तो मुझ से एक बड़ी भूल हुई” मुन्‍शी चुन्‍नीलाल नें लाला मदनमोहन के पास पहुँचते ही कहा “मैं समझा था कि यह सब बखेड़ा लाला ब्रजकिशोर नें उठाया है परन्‍तु वह तो इस्‍सै बिल्‍कुल अलग निकले। यह सब करतूत तो हरकिशोर की थी। क्‍या आपनें लाला ब्रजकिशोर के नाम चिट्ठी भेज दी ?”

“हां चिट्ठी तो मैं भेज चुका” मदनमोहन नें जवाब दिया।

“यह बड़ी बुरी बात हुई। जब एक निरपराधी को अपराधी समझ कर दण्ड दिया जायगा तो उस्‍के चित्त को कितना दु:ख होगा” मुन्शी चुन्‍नीलाल नें दया करके कहा (!)

“फ़िर क्‍या करें ? जो तीर हाथ सै छुट चुका वह लौटकर नहीं आसक्ता” लाला मदनमोहन नें जवाब दिया।

“निस्‍सन्‍देह नहीं आ सक्ता परन्‍तु जहां तक हो सके उस्‍का बदला देना चाहिये” मुन्‍शी चुन्‍नीलाल कहनें लगा “कहते हैं कि महाराज दशरथ नें धोके सै श्रवण के तीर मारा परन्‍तु अपनी भूल जान्‍ते ही बड़े पछतावे के साथ उस्‍सै अपना अपराध क्षमा कराया। उसै उठाकर उस्‍के माता पिता के पास पहुँचाया उन्‍को सब तरह धैर्य दिया और उन्‍का शाप प्रसन्‍नता सै अपनें सिर चढ़ा लिया।”

“ब्रजकिशोर की यह भूल हो या न हो परन्‍तु उस्‍नें पहले जो ढिटाई की है वह कुछ कम नहीं है। गई बला को फ़िर घर मैं बुलाना अच्‍छा नहीं मालूम होता। जो कुछ हुआ सो हुआ चलो अब चुप हो रहो” मास्‍टर शिंभूदयाल नें कहा।

“इस्‍समय ब्रजकिशोर सै मेल करना केवल उन्‍की प्रसन्‍नताके लिये नहीं है बल्कि उस्सै अदालत मैं बहुत काम निकलनें की उम्‍मेद की जाती है” मुन्शी चुन्‍नीलालनें मदनमोहन को स्‍वार्थ दिखाकर कहा।

“कल तो तुमनें मुझसै कहा था कि उन्की विकालत अपनें लिये कुछ उपकारी नहीं हो सक्ती” मदनमोहन नें याद दिवाई।

यह बात सुन्‍कर चुन्‍नीलाल एकबार ठिठका परन्‍तु फ़िर तत्‍काल सम्‍हल कर बोला “वह समय और था यह समय और है। मामूली मुकद्दमौं का काम हम हरेक वकील सै ले सक्ते थे परन्‍तु इस्‍समय तो ब्रजकिशोर के सिवाय हम किसी को अपना विश्‍वासी नहीं बना सक्ते।”

“यह तुम्‍हारी लायकी है। परन्‍तु ब्रजकिशोर का दाव लगे तो वह तुम को घड़ी भर जीता न रहनें दे” मास्‍टर शिंभूदयाल नें कहा।

“मैं अपनें निज के सम्‍बन्‍ध का बिचार करके लाला साहब को कच्‍ची सलाह नहीं दे सक्ता” चुन्‍नीलाल खरे बनें।

“अच्‍छा तो अब क्‍या करें ? ब्रजकिशोर को दूसरी चिट्ठी लिख भेजें या यहां बुलाकर उन्‍की खातिर कर दें ?” निदान लाला मदनमोहन नें चुन्‍नीलाल की राह सै राह मिलाकर कहा।

“मेरे निकट तो आप को उन्‍के मकान पर चलना चाहिये और कोई कीमती चीज तोहफ़ा मैं देखकर ऐसे प्रीति बढ़ानी चाहिये जिस्‍सै उन्‍के मनमैं पहली गांठ बिल्‍कुल रहै न और आप के मुकद्दमों मैं सच्‍चे मन सै पैरवी करें। ऐसे अवसर पर उदारता से बड़ा काम निकलता है। सादी नें कहा है “द्रब्य दीजिये बीर कों तासों दे वह सीस ।। प्राण बचावेगा सदा बिनपाये बखशीस।।”[7] मुन्‍शी चुन्‍नीलाल नें कहा।

“लाला सा‍हब को ऐसी क्‍या गरज पड़ी है जो ब्रजकिशोर के घर जायं और कल जिसै बेइज्‍जत करके निकाल दिया था आज उस्‍की खुशामद करते फिरें ?” मास्‍टर शिंभूदयाल बोले।

“असल मैं अपनी भूल है और अपनी भूलपर दूसरे को सताना बहुत अनुचित है” मुन्‍शी चुन्‍नीलाल संकेत सै मास्‍टर शिंभूदयाल को धमकाकर कहनें लगा “बैठनें उठनें, और आनें जानें की साधारण बातोंपर अपनी प्रतिष्‍ठा, अप्रतिष्‍ठा का आधार समझना संसार मैं अपनी बराबर किसी को न गिन्‍ना, एक तरह का जंगली बिचार है। इस्‍की निस्बत सादगी और मिलनसारी सै रहनें को लोग अधिक पसन्‍द करते हैं। लाला ब्रजकिशोर कुछ ऐसे अप्रतिष्ठित नहीं हैं कि उन्‍के हां जानें सै लाला साहब की स्‍वरूप हानि हो”

“यह तो सच है परन्‍तु मैंमैं उनका दुष्‍ट स्‍वभाव समझ कर इतनी बात कही थी” मास्‍टर शिंभूदयाल चुन्‍नीलाल का संकेत समझ कर बोले।

“ब्रजकिशोरके मकान पर जानें मैं मेरी कुछ हानि नहीं है परन्‍तु इतना ही बिचार है कि मेल के बदले कहीं अधिक बिगाड़ न हो जाय” लाला मदनमोहन नें कहा।

“जी नहीं, लाला ब्रजकिशोर ऐसे अनसमझ नहीं हैं। मैं जानता हूँ कि वह क्रोधसै आग हो रहे होंगे तो भी आपके पहुँचते ही पानी हो जायंगे क्‍योंकि गरमीमैं धूप के सताए मनुष्‍य को छाया अधिक प्‍यारी होती है” मुन्‍शी चुन्‍नीलाल नें कहा।

निदान सबकी सलाहसै मदनमोहन का ब्रजकिशोर के हां जाना ठैर गया। चुन्‍नीलाल नैं पहलेसै खबर भेजदी, ब्रजकिशोर वह खबर सुन्‍कर आप आनें को तैयार होते थे इतनें मैं चुन्‍नीलाल के साथ लाला मदनमोहन वहां जा पहुँचे। ब्रजकिशोर नें बड़ी उमंगसै इन्‍का आदर सत्‍कार किया।

इस छोटीसी बात सै मालूम हो सक्ता है कि लाला मदनमोहन की तबियत पर चुन्नीलाल का कितना अधिकार था।

“आपनें क्‍यों तकलीफ की ? मैं तो आप आनें को था” लाला ब्रजकिशोर नें कहा।

“हरकिशोर के धोखे मैं आज आप के नाम एक चिट्ठी भूल सै भेज दी गई थी इसलिये लाला साहब चल कर यह बात कहनें आए हैं कि आप उस्‍का कुछ खयाल न करें” मुन्‍शी चुन्‍नीलाल नें कहा।

“जो बात भूल सै हो और वह भूल अंगीकार कर ली जाय तो फ़िर उस्में खयाल करनें की क्‍या बात है ? और इस छोटेसे काम के वास्‍तै लाला साहब को परिश्रम उठाकर यहां आनें की क्‍या ज़रूरत थी ?” लाला ब्रजकिशोर नें कहा।

“केवल इतना ही काम न था। मुझ सै कल भी कुछ भूल हो गई थी और मैं उस्‍का भी एवज दिया चाहता था” यह कहक़र लाला मदनमोहन नें एक बहुमूल्‍य पाकेटचेन (जो थोड़े दिन पहले हैमिल्‍टन कम्‍पनी के हां सै फ़र्मायशी बनकर आई थी) अपनें हा‍थ सै ब्रजकिशोर की घड़ीमैं लगा दी।

“जी ! यह तो आप मुझको लज्जित करते हैं। मेरा एवज़ तो मुझ को आप के मुख सै यह बात सुन्‍ते ही मिल चुका। मुझ को आपके कहनें का क़भी कुछ रंज नहीं होता इस्‍के सिवाय मुझे इस अवसर पर आप की कुछ सेवा करनी चाहिये थी सो मैं उल्‍टा आप सै कैसे लूं ? जिस मामले मैं आप अपनी भूल बताते हैं केवल आपही की भूल नहीं है आप सै बढ़कर मेरी भूल है और मैं उस्‍के लिये अन्त:करण सै क्षमा चाहता हूँ” लाला ब्रजकिशोर कहनें लगे “मैं हर बात मैं आप सै अपनी मर्जी मूजिब काम करानेंके लिये आग्रह करता था परन्‍तु वह मेरी बड़ी भूल थी। बृन्‍दनैं सच कहा है “सबको रसमैं राखिये अन्त लीजिये नाहिं ।। बिष निकस्‍यो अति मथनते रत्‍नाकरहू मांहिं ।।” मुझको विकालत के कारण बढ़ाकर बात करनें की आदत पड़ गई है और मैं क़भी क़भी अपना मतलब समझानें के लिये हरेक बात इतनी बढ़ाकर कहता चला जाता हूँ कि सुन्‍नें वाले उखता जाते हैं मुझको उस अवसर पर जितनी बातें याद आती हैं मैं सब कह डालता हूँ परन्‍तु मैं जान्‍ता हूँ कि यह रीति बात चीतके नियमों सै बिपरीत है और इन्‍का छोड़ना मुझ पर फ़र्ज है। बल्कि इन्‍हें छोड़नें के लिये मैं कुछ कुछ उद्योग भी कर रहा हूँ”

“क्‍या बातचीत के भी कुछ नियम हैं ?” लाला मदनमोहन नें आश्‍चर्य से पूछा-

“हां ! इस्‍को बुद्धिमानों नें बहुत अच्‍छी तरह बरणन किया है” लाला ब्रजकिशोर कहनें लगे “सुलभा नाम तपस्विनी नें राजा जनक सै बचन के यह लक्षण कहे हैं – “अर्थ सहित, संशय रहित, पूर्वापर अविरोध ।। उचित, सरल, संक्षिप्‍त पुनि कहो वचन परिशोध ।।१।। प्राय: कठिन अक्षर रहित, घृणा अमंगल हीन ।। सत्‍य, काम, धर्मार्थयुत शुद्धनियम आधीन ।।२।। संभव कूट न अरुचिकर, सरस, युक्ति दरसाय ।। निष्‍कारण अक्षर रहित खंडितहू न लखाय ।।३।। [8]” संसार मैं देखा जाता है कि कितनें ही मनुष्‍यों को थोड़ीसी मामूली बातें याद होती हैं जिन्हैं वह अदल बदलकर सदा सुनाया करते हैं जिस्से सुन्‍नेवाला थोड़ी देरमैं उखता जाता है। बातचीत करनें की उत्तम रीति यह है कि मनुष्‍य अपनी बातको मौकेसै पूरी करके उस्‍पर अपना अपना, बिचार प्रगट करनें के लिये औरों को अवकाश दे और पीछैसै कोई नई चर्चा छेड़ें और किसी विषय मैं अपना बिचार प्रगट करे तो उस्‍का कारण भी साथही समझाता जाय, कोई बात सुनी सुनाई हो तो वह भी स्‍पष्‍ट कहदे। हँसीकी बातों मैं भी सच्‍चाई और गम्‍भीरता को न छोड़े, कोई बात इतनी दूर तक खेंचकर न ले जाय जिस्सै सुन्‍नें वालों को थकान मालूम हो। धर्म, दया, और प्रबन्‍ध की बातों मैं दिल्‍लगी न करे। दूसरेके मर्म की बातों को दिल्‍लगी मैं जबान पर न लाय। उचित अवसर पर वाजबी राह सै पूछ पूछकर साधारण बातों का जान लेना कुछ दूषित नहीं है परन्‍तु टेढ़े और निरर्थक प्रश्‍न कर‍के लोगों को तंग करना अथवा बकवाद करके औरोंके प्राण खा जाना, बहुत बुरी आदत है। बातचीत करनें की तारीफ यह है कि सबका स्‍वभाव पहिचान कर इस ढबसै बात कहै जिस्मैं सब सुन्‍नें वाले प्रसन्‍न रहैं। जची हुई बात कहना मधुर भाषण सै बहुत बढ़कर है खासकर जहां मामलेकी बात करनी हो। शब्‍द विन्‍यास के बदले सोच बिचार कर बातचीत करना सदैव अच्‍छा समझा जाता है और सवाल जवाब बिना मेरी तरह लगातार बात कहते चले जाना कहनें वाले की सुस्‍ती और अयोग्‍यता प्रगट करता है। इसी तरह असल मतलब पर आनें के लिये बहुतसी भूमिकाओं सै सुन्नें वालेका जी घबरा जाता है परन्तु थोड़ी सी भूमिका बिना भी बातका रंग नहीं जमता इसलिये अब मैं बहुतसी भूमिकाओं के बदले आपसै प्रयोजन मात्र कहता हूँ कि आप गई बीती बातों का कुछ खयाल न करें ?”

“जो कुछ भी खयाल होता तो लाला साहब इस तरह उठकर क्‍या चले आते ? अब तो सब का आधार आप की कारगुजारी (अर्थात् कार्य कुशलता) पर है” मुन्‍शी चुन्‍नीलाल नें कहा।

“मेरे ऐसे भाग्‍य कहां ?” लाला ब्रजकिशोर प्रेम बिबस होकर बोले।

“देखो हरकिशोर नें कैसा नीचपन किया है !” लाला मदनमोहन नें आंसू भरकर कहा।

“इस्‍सै बढ़कर और क्‍या नीचपन होगा ?” लाला ब्रजकिशोर कहनें लगे “मैनें कल उस्‍के लिये आप को समझाया था इस्सै मैं बहुत लज्जित हूँ। मुझको उस्समय तक उस्के यह गुन मालूम न थे। अब अफवाह किसी तरह झूठ हो जाय तो मैं उसे मजा दिखाऊं”

“निस्सन्देह आप की तरफ़ सै ऐसेही उम्‍मेद है। ऐसे समय मैं आप साथ न दोगे तो और कौन् देगा ?” लाला मदनमोहन नें करुणा सै कहा।

“इस्‍समय सब सै पहले अदालत की जवाब दिहीका बंदोबस्‍त होना चाहिये क्‍योंकि मुकद्दमों की तारीखें बहुत पास-पास लगी हैं” मुन्शी चुन्‍नीलाल नें कहा।

“अच्‍छा ! आप अपना कागज तैयार करानें के वास्‍तै तीन चार गुमाश्‍ते तत्‍काल बढ़ा दें और अदालत की कार्रवाई के वास्‍ते मेरे नाम एक मुख्‍त्‍यार नामा लिखते जायं बस फ़िर मैं समझ लूंगा” लाला ब्रजकिशोर नें कहा।

निदान लाला मदनमोहन ब्रजकिशोर के नाम मुख्‍त्‍यार नामा लिखकर अपनें मकान को रवानें हुए।

प्रकरण-३० : नैराश्‍य (नाउम्‍मेदी)

फलहीन मही रू ह कों खगवृन्‍द तजै बन कों मृग भस्‍म भए ।

मकरन्‍द पिए अरविन्‍द मिलिन्‍द तजै सर सारस सूख गए ।।

धन हीन मनुष्‍य तजैं गणिका नृपकों सठ सेवक राज हुए ।

बिन स्‍वारथ कौन सखा जग मैं ? सब कारज के हित मीत भए ।।[9]

भर्तृहरि।

सन्‍ध्‍या समय लाला मदनमोहन भोजन करनें गए तब मुन्शी चुन्‍नीलाल और मास्‍टर शिंभूदयाल को खुलकर बात करनें का अवकाश मिला। वह दोनों धीरे, धीरे बतलानें लगे।

“मेरे निकट तुमनें ब्रजकिशोरसै मेल करनें मैं कुछ बुद्धिमानी नहीं की। बैरी के हाथ मैं अधिकार देकर कोई अपनी रक्षा कर सक्ता है ?” मास्‍टर शिंभूदयाल नें कहा।

“क्‍या करूं ? इस्‍समय इस युक्ति के सिवाय अपनें बचाव को कोई रास्‍ता न था। लोगों की नालिशें हो चुकीं, अपनें भेद खुलनें का समय आ गया। ब्रजकिशोर सब बातों सै भेदी थे इसलिये मैंनें उन्‍हीं के जिम्‍मे इन बातों के छिपानें का बोझ डाल दिया कि वह अपनें विपरीत कुछ न करनें पायं !” मुन्शी चुन्‍नीलाल नें हीरालाल की बात उड़ाकर कहा,

“परन्तु अब ब्रजकिशोर तुम्हारा भेद खोल दें तो तुम कैसे अपना बचाव करो ? हर काम मैं आदमी को पहले अपनें निकास का पूरा रस्ता सोचना चाहिये। अभिमन्यु की तरह धुन बांध कर चकाबू (चक्रव्यूह) मैं घुसे चले जाओगे तो फ़िर निकलना बहुत कठिन होगा, पतंग उड़ाकर डोर अपनें हाथ मैं न रक्खोगे तो उस्के हाथ लगनें की क्या उम्मेद रहेगी ?” मास्टर शिंभूदयाल नें कहा।

“मैंनें अपनें निकास की उम्मेद केवल ब्रजकिशोर के विश्वास पर बांधी है परन्तु उन्की दो एक बातों सै मुझको अभी संदेह होनें लगा। प्रथम तो उन्होंनें इस गए बीते समय में मदनमोहन सै मेल करनें मैं क्या फायदा बिचारा है ? और महन्तानें के लालच सै मेल किया भी था तो ऐसी जलदी कागज तैयार करानें की क्या ज़रूरत थी ? मैं जान्ता हूँ कि वह नालिश करनेंवालों सै जवाबदिहि करनें के वास्तै यह उपाय करते होंगे परन्तु जब वह जवाबदिहि करेंगे तो नालिश करनेंवालों की तरफ़ सै हमारा भेद अपनें आप खुल जायगा और जिस बात को हम दूर फेंका चाहते हैं वही पास आजावेगी” मुन्शी चुन्नीलाल नें कहा।

“वकीलों के यही तो पेच होते हैं। जिस बात को वह अपनी तरफ़ सै नहीं कहा चाहते उल्टे सीधे सवाल करके दूसरे के मुख सै कहा लेते हैं और आप भलेके भले बनें रहते हैं। बिचारो तो सही हमनें ब्रजकिशोर के साथ कौन्सी भलाई की है जो वह हमारे साथ भलाई करेंगे ? वकीलों के ढंग बड़े पेचीदा होते हैं। वह एक मुक़द्दमे मैं तुम्हारे वकील बनते हैं तो दूसरे मैं तुम्हारे बैरी के वकील बन जाते हैं परन्तु अपना मतलब किसी तरह नहीं जानें देते।”

“सच है इस काम मैं लाला ब्रजकिशोर की चाल पर अवश्य संदेह होता है परन्तु क्या करें ? अपनें वकील न करेंगे तो वह प्रतिपक्षी के वकील हो जायंगे और अपना भेद खोलनें मैं किसी तरह की कसर न रक्खेंगे” मुन्शी चुन्नीलाल कहनें लगा “असल तो यह है कि अब यहां रहनें मैं कुछ मजा नहीं रहा। प्रथम तो आगे को कोई बुर्द नहीं दिखाई देती फ़िर जिन लोगों सै हजारों रुपे खाए पीए हैं उन्हीं के सामनें होकर बिवाद करना पड़ेगा और जब हम उन्सै बिवाद करेंगे तो वह हमसै मुलाहजा क्यों रक्खेंगे। हमारा भेद क्यों छिपावेंगे ? क़भी, क़भी हम उन्सै लाला साहब के हिसाब मैं लिखवाकर बहुतसी चीजें घर लेगए हैं इसी तरह उन्के यहां जमा करानें के वास्तें लाला साहब जो रुपे लेगए थे वह उन्के यहां जमा नहीं कराए ऐसी रकमों की बाबत पहले, पहले तो यह बिचार था कि इस्समय अपना काम चला लें फ़िर जहांकी तहां पहुँचा देंगे परन्तु पीछे सै न तो अपनें पास रुपे की समाई हुई न कोई देखनें भालनें वाला मिला, बस सब रकमें जहां की तहां रह गईं अब अदालत मैं यह भेद खुलेगा तो कैसी आफत आवेगी ? और हम लाला साहब की तरफ़ सै बिवाद करेंगे तो यह भेद कैसे छिप सकेगा ? क्या करें ? कोई सीधा रस्ता नहीं दिखाई देता।”

यदि ऐसै ही पाप करके लोग बच जाया करते तो संसार मैं पाप पुण्यका बिचार काहेको रहता ?

“मुझको तो अब सीधा रास्ता यही दिखाई देता है कि जो हाथ लगे सो ले लिवाकर यहां सै रफूचक्कर हो। ब्रजकिशोर तुम्हारे भाग्य सै इस्समय आफंसा है। इस्के सिर मुफ्त का छप्पर रख कर अलग हो बैठो” मास्टर शिंभूदयाल कहनें लगा “जिस तरह अलिफलैला मैं अबुलहसन और शम्सुल्निहार के परस्पर प्रेम बिवस हुए पीछे बखेड़ा उठनें की सूरत मालूम हुई तब उन्का मध्यस्थ इब्नतायर उन्को छिटकाकर अलग हो बैठा आउट एक जौहरी नें मुफ्त मैं वह आफत अपनें सिर लेकर अपनें आपको जंजाल मैं फंसा दिया। इसी तरह इस्समय तुम्हारी और ब्रजकिशोर की दशा है ब्रजकिशोर को काम सोंप कर तुम इस्समय अलग हो जाओ तो सब बदनामी का ठीकरा ब्रजकिशोर के सिर फूटेगा और दूध मलाई चखन वाले तुम रहोगे !”

“यह तो बड़े मजे की बात है। ब्रजकिशोर पर तो हम यह बोझ डालेंगे कि तुम्हारे लिये हम अलग होते हैं पीछे से हमारा भेद न खुलनें पाय। लेनदारों सै यह कहेंगे कि तुम्हारे वास्ते लाला साहब सै हमारी तकरार हो गई उन्होंनें हमारा कहा नहीं माना अब तुम भी कहीं हमको धोका न देना” मुन्शी चुन्नीलाल नें कहा।

“आज तो दोनों मैं बड़ी घुट, घुट कर बातें हो रही हैं” लाला मदनमोहन नें आते ही कहा। तुम्हारी सलाह क़भी पूरी नहीं होती। न जानें कौन्से किले लेनें का बिचार किया करते हो !”

“जी हुजूर ! कुछ नहीं, मिस्टर रसल के मामले की चर्चा थी उस की जायदाद की नीलाम की तारीख मैं केवल दो दिन बाकी हैं परन्तु अब तक रुपे का कुछ बंदोबस्त नहीं हुआ” मुन्शी चुन्नीलाल नें तत्काल बात पलट कर कहा। “इस बिना बिचारी आफत का हाल किस्‍को मालूम था ? तुम उन्‍हें लिख दो कि जिस तरह हो सके थोड़े दिन की मुहलत लेलें। हम उस्‍के भीतर, भीतर रुपे का प्रबन्‍घ अवश्‍य कर देंगे” लाला मदनमोहन नें कहा।

“मुहलत पहले कई बार लेचुके हैं इस्‍सै अब मिलनी कठिन है। परन्‍तु इस्‍समय कुछ गहना गिरवे रखकर रुपे का प्रबन्‍ध कर दिया जाय तो उस्‍की जायदाद बनी रहै और धीरे, धीरे रुपया चुका कर गहना भी छुड़ा लिया जाय” मास्‍टर शिंभूदयाल नें जाते जाते सिप्‍पा लगानें की युक्ति की। उस्का मनोर्थ था कि यह रकम हाथ लग जाय तो किसी लेनदार को देकर भलीभांति लाभ उठायें अथवा मदनमोहन मांगनें योग्‍य न रहै तो सबकी सब रकम आप ही प्रसाद कर जायें। अथवा किसी के यहां गिरवी भी धरें तो लेनदारों को कुर्की करानें के लिये उस्‍का पता बता कर उनसै भली भांति हाथ रंगें। अथवा माल अपनें नीचे दबे पीछे और किसी युक्ति सै भर पूर फ़ायदे की सूरत निकालें। परन्‍तु मदनमोहन के सौभाग्‍य सै इस्‍समय लाला ब्रजकिशोर आ पहुँचे इसलिये उस्‍की कुछ दाल न गली।

“क्‍या है ? किस काम के लिये गहना चाहते हो ?” लाला ब्रजकिशोर नें शिंभूदयाल की उछटतीसी बात सुनी थी, इस्‍पर आते ही पूछा।

“जी कुछ नहीं, यह तो मिस्‍टर रसल की चर्चा थी” मुन्शी चुन्‍नीलाल नें बात उड़ानें के वास्‍ते गोल-मोल कहा।

“उस्‍का क्‍या लेनदेन है ? उस्‍का मामला अब तक अदालत मैं तो नहीं पहुँचा ?” लाला ब्रजकिशोर पूछनें लगे।

“वह एक नीलका सौदागर है और उस्‍पर बीस, पच्‍चीस हजार रुपे अपनें लेनें हैं। इस्‍समय उस्‍की नीलकी कोठी और कुछ बिस्वै बिस्‍वान्सी दूसरे की डिक्री मैं नीलाम पर चढ़े हैं और नीलाम की तारीख मैं केवल दो दिन बाकी हैं। नीलाम हुए पीछै अपनें रुपे पटनें की कोई सूरत नहीं मालूम होती इसलिये ये लोग कहते थे कि गहना गिरवी रखकर उस्‍का कर्ज चुका दो परन्‍तु इतना बंदोबस्‍त तो इस्‍समय किसी तरह नहीं हो सक्ता” लाला मदनमोहन नें लजाते हुए कहा।

“अभी आप को अपनें कर्जेका प्रबन्‍ध करना है और यह मामला केवल मुहलत लेनें सै कुछ दिन टल सक्ता है” लाला ब्रजकिशोर नें अपनें मनका संदेह छिपाकर कहा।

“मैं जान्ता हूँ कि मेरा कर्ज चुकानें के लिये तो मेरे मित्रों की तरफ़ सै आज कल मैं बहुत रुपया आ पहुँचेगा” लाला मदनमोहन नें अपनी समझ मूजिब जवाब दिया।

“और मुहलत कई बार लेली गई है इस्‍सै अब मिलनी कठिन है” मास्‍टर शिंभूदयाल बोले।

“मैं खयाल करता हूँ कि अदालत को विश्‍वास योग्‍य कारण बता दिया जायगा तो मुहलत अवश्‍य मिल जायगी” लाला ब्रजकिशोर नें कहा।

“और जो न मिली ?” शिंभूदयाल हुज्‍जत करनें लगा।

“तो मैं अपनी जामिनी देकर जायदाद नीलाम न होनें दूंगा” ब्रजकिशोर नें जवाब दिया और अब शिंभूदयाल को बोलनें की कोई जगह न रही।

“कल कई मुकद्दमों की तारीखैं लगरही हैं और अबतक मैं उन्‍के हाल सै कुछ भेदी नहीं हूँ। तुमको अवकाश हो तो लाला साहब सै आज्ञा लेकर थोड़ी देरके लिये मेरे साथ चलो” लाला ब्रजकिशोर नें मुन्शी चुन्‍नीलाल सै कहा।

“हां, हां तुम साथ जाकर सब बातें अच्‍छी तरह समझा आओ” लाला मदनमोहन नें मुन्शी चुन्‍नीलाल को हुक्‍म दिया।

“आप इस्‍समय किसी काम के लिये किसीको अपना गहना न दें। ऐसे अवसरपर ऐसी बातों मैं तरह, तरहका डर रहता है” लाला ब्रजकिशोर नें जाती बार मदनमोहन सै संकेत मैं कहा और मुन्शी चुन्‍नीलाल को साथ लेकर रुख़सत हुए।

आज लाला मदनमोहन की सभा मैं वह शोभा न थी। केवल चुन्‍नीलाल शिंभूदयाल आदि दो चार आदमी दिखाई देते थे परन्‍तु उन्‍के मन भी बुझे हुए थे। हँसी चुहल की बातें किसी के मुखसै नहीं सुनाई देती थीं। खास्कर ब्रजकिशोर और चुन्‍नीलाल के गए पीछे तो और भी सुस्‍ती छागई। मकान सुन्‍सान मालूम होनें लगा। शिंभूदयाल ऊपर के मन सै हँसी चुहल की कुछ, कुछ बातें बनाता था परन्‍तु उन्‍मैं मोमके फूलकी तरह कुछ रस न था। निदान थोड़ी देर इधर-उधर की बातें बनाकर सब अपनें, अपनें रस्‍ते लगे और लाला मदनमोहन भी मुर्झाए चित्तसै पलंग पर जा लेटे।

प्रकरण-३१ : चालाक की चूक

सुखदिखाय दुख दीजिये खलसों लरियेकाहि

जो गुर दीयेही मरै क्यौं विष दीजै ताहि ?

बृन्‍द।

“लाला मदनमोहन का लेन देन किस्‍तरह पर है ?” ब्रजकिशोर नें मकान पर पहुँचते ही चुन्‍नीलाल सै पूछा।

“विगत बार हाल तो कागज तैयार होनें पर मालूम होगा परन्‍तु अंदाज यह है कि पचास हजार के लगभग तो मिस्‍टर ब्राइट के देनें होंगे, पन्दरह बीस हजार आगाहसनजान महम्‍मद जान वगैरे खेरीज सौदागरों के देनें होंगे, दस बारह हजार कलकत्ते, मुंबई के सौदागरों के देनें होंगे, पचास हजार मैं निहालचंद, हरकिशोर वगैर बाजार के दुकानदार और दिसावरों के आढ़तिये आ गये” मुन्शी चुन्‍नीलाल नें जवाब दिया।

“और लेनें किस, किस पर हैं ?” ब्रजकिशोर नें पूछा।

“बीस पच्‍चीस हजार तो मिस्‍टर रसल की तरफ़ बाकी होगें, दस बार‍ह हजार आगरे के एक जौहरी मैं जवाहरात की बिक्रीके लेनें हैं, दस पंदरह हजार यहां के बाजारवालों मैं और दिसावरों के आढ़तियों में लेनें होंगे। पांच, सात हजारका खेरीज लोगों मैं और नौकरों मैं बाकी होंगे, आठ दस हजार का व्‍यापार सीगे का माल मौजूद है, पांच हजार रुपे अलीपुर रोड के ठेके बाबत सरकार सै मिलनेंवाले हैं और रहनें का मकान, बाग। सवारी सर सामान वगैरे सब इन्‍सै अलग हैं” मुन्शी चुन्‍नीलालनें जवाब दिया।

“इस तरह अटकल पंच्चू हिसाब बतानें सै कुछ काम नहीं चल्ता। जब तक लेनें देनें का ठीक हाल मालूम नहीं फैस्ला किस तरह किया जाय ? तुम सबेरे लाला जवाहरलाल को मेरे पास भेज देना मैं उस्सै सब हाल पूछ लूंगा। ऐसे अवसर पर असावधानी रखनें सै देना सिर पर बना रहता है और लेना मिट्टी हो जाता है” ब्रजकिशोर नें कहा।

“कागज बहुत दिनों का चढ़ रहा है और बहुत जमा खर्च होनें बाकी है इस लिये कागज सै कुछ नहीं मालूम हो सक्ता” मुन्शी चुन्‍नीलालनें बात उड़ानें की तजबीज की।

“कुछ हर्ज नहीं, मैं लोगों सै जिरहके सवाल करके अपना मतलब निकाल लूंगा। मुझको अदालत मैं हर तरहके मनुष्‍यों सै नित्‍य काम पड़ता है” लाला ब्रजकिशोर कहनें लगे “तुमनें आज सबेरे मुझसै सफाई करनें की बात कही थी परन्‍तु अभी सै उस्‍मैं अन्‍तर आनें लगा। मै वहां पहुँचा उस्‍समय तुम लोग लाला साहब सै गहना लेनें की तजबीज कर रहे थे परन्‍तु मेरे पहुँचते ही वह बात उड़ानें लगे। मुझको कुछ का कुछ समझानें लगे सो मैं ऐसा अन्‍समझ नहीं हूँ। यदि मेरा रहना तुमको असह्य है, मेरे मेल से तुम्‍हारी कमाई मैं जर्क आता है, मेरे मेल करनें का तुमको पछतावा होता है तो मैं तुम्‍हारी मारफत मेल करकै तुम्‍हारा नुक्‍सान हरगिज नहीं किया चाहता, लाला साहब सै मेल नहीं रक्‍खा चाहता। तुम अपना बंदोवस्‍त आप कर लेना।”

“आप वृथा खेद करते हैं। मैंनें आप से छिप कर कोन्‍सा काम किया ? आप के मेल सै मेरी अप्रसन्‍नता कैसे मालूम हुई ? आप पहुँचे जब निस्‍सन्‍देह शिंभूदयालनें मिस्‍टर रसल के लिये गहनें की चर्चा छेड़ी थी परन्‍तु वह कुछ पक्‍की बात न थी और आपकी सलाह बिना किसी तरह पूरी नहीं पड़ सक्ती थी। आपसै पहले बात करनें का समय नहीं मिला इसी लिये आपके साम्नें बात करनें मैं इतना संकोच हुआ था परन्‍तु आप को हमारी तरफ़ सै अब तक इतना संदेह बना रहा है तो आप लाला साहबके छोड़नें का बिचार क्‍यों करते हैं आप के लिये हमहीं अपनी आवाजाई बन्‍द कर देंगे” मुन्शी चुन्‍नीलाल नें कहा।

सादी नें सच कहा है “बृद्धा बेश्‍या तपश्विनी न होय तो और क्‍या करे ? उतरा सेनक किसीका क्‍या बिगाड़कर सक्ता है कि साधु न बनें ?” [10] लाला ब्रजकिशोर मुस्‍कराकर कहनें लगे “मैं किसी काम मैं किसी का उपकार नहीं सहा चाहता। यदि कोई मुझपर थोड़ा सा उपकार करे तो मैं उस्से अधिक करनें की इच्‍छा रखता हूँ फ़िर मुझको इस थोथे काम मैं किसी का उपकार उठानें की क्‍या ज़रूरत है ? जो तुम महरबानी करके मेरा पूरा महन्‍ताना मुझको दिवा दोगे तो मैं इसी मैं तुम्‍हारी बड़ी सहायता समझूंगा और प्रसन्‍नता सै तुम्‍हारा कमीशन तुम्‍हारी नजर करूंगा” लाला ब्रजकिशोर इस बातचीत मैं ठेठ सै अपनी सच्‍ची सावधानी के साथ एक दाव खेल रहे थे। उन्‍नें इस युक्ति सै बात-चीत की थी जिस्सै उनका कुछ स्‍वार्थ न मालूम पड़े और चुन्‍नीलाल आप सै आप मदनमोहन को छोड़ जानें के लिये तैयार हो जाय, पास रहनें मैं अपनी हानि, और छोड़ जानें मैं अपना फायदा समझे बल्कि जाते, जाते अपनें फ़ायदे के लालच सै ब्रजकिशोर का महन्‍ताना भी दिवाता जाय।

“आप अपना महन्‍ताना भी लें और लाला मदनमोहन के यहां कुल अख्‍त्‍यार भी लें हमको तो हर भांति आपकी प्रसन्‍नता करनी है हमनें तो आपकी शरण ली है। हमारा तो यही निवेदन है कि इस्‍समय आप हमारी इज्‍जत बचालें” मुन्शी चुन्‍नीलाल नें हार मानकर कहा। वह भीतर सै चाहे जैसा पापी था परन्‍तु प्रगट मैं अपनी इज्‍जत खोनें सै बहुत डरता था। संसार मैं बड़ा भला मानस बना फ़िरता था और इसी भलमनसात के नीचे उसनें अपनें सब पाप छिपा रखे थे।

“इन बातों सै इज्‍जत का क्‍या संबन्‍ध है ! मुझसै हो सकेगा जहां तक मैं तुम्‍हारी इज्‍जत पर धब्‍बा न आनें दूंगा परन्‍तु इस कठिन समय मैं तुम मदनमोहन के छोड़नें का बिचार करते हो इस्मैं मुझको तुम्हारी भूल मालूम होती है। ऐसा न होकि पीछै सै तुम्‍हें पछताना पड़े। चारों तरफ़ दृष्टि रखकर बुद्धिमान मनुष्‍य काम किया करते हैं” लाला ब्रजकिशोर नें युक्तिसै कहा।

“तो क्‍या इस्‍समय आपकी राय मैं लाला मदनमोहन के पास सै हमारा अलग होना अनुचित है ?” मुन्शी चुन्‍नीलाल नें ब्रजकिशोर पर बोझ डालकर पूछा।

“मैं साफ कुछ नहीं कह सकता क्‍योंकि और की निस्बत वह अपना हानि लाभ आप अधिक समझ सकते हैं” लाला ब्रजकिशोर नें भरम मैं कहा।

“तो खैर मेरी तुच्‍छ बुद्धि मैं इस्‍समय हमारी निस्‍बत आप लाला मदनमोहन की अधिक सहायता कर सकते हैं और इसी मैं हमारी भी भलाई है” मुन्शी चुन्‍नीलाल बोले।

“तुमनें इन दिनों मैं नवल और जुगल (ब्रजकिशोर के छोटे भाई) की भी परीक्षा ली या नहीं ! तुम गए तब वह बहुत छोटे थे परन्‍तु अब कुछ होशियार होते चले हैं” लाला ब्रजकिशोर नें पहली बात बदलकर घरबिधकी चर्चा छेड़ी;

“मैनें आज उन्‍को नहीं देखा परन्‍तु मुझको उनकी तरफ़ सै भली भांत विश्‍वास है। भला आपकी शिक्षा पाए पीछै किसी तरह की कसर रह सकती है ?” मुन्शी चुन्‍नीलालनें कहा।

“भाई ! तुम तो फ़िर खुशामद की बातें करनें लगे। यह रहनें दो। घर मैं खुशामद की क्‍या ज़रूरत है ?” लाला ब्रजकिशोर नें नरम ओलंभा दिया और चुन्‍नीलाल उनसै रुख़सत होकर अपनें घर गया।

प्रकरण-३२ : अदालत

काम परेही जानि ये जो नर जैसो होय ।।

बिन ताये खोटो खरो गहनों लखै न कोय ।।

बृन्‍द।

अदालत में हाकिम कुर्सीपर बैठे इज्‍लास कर रहे हैं। सब अ‍हलकार अपनी, अपनी जगह बैठे हैं निहालचंद मोदी का मुकद्दमा हो रहा है। उस्‍की तरफ़ सै लतीफ हुसैन वकील हैं। मदनमोहनकी तरफ़ सै लाला ब्रजकिशोर जवाबदिही करते हैं। ब्रजकिशोर नें बचपन मैं मदनमोहन के हां बैठकर हिंदी पढ़ी थी इस वास्तै वह सराफी कागज की रीति भांति अच्‍छी तरह जान्‍ता था और उस्‍नें मुकद्दमा छिड़नें सै पहले मामूली फीस देकर निहालचंद के बही खाते अच्‍छी तरह देख लिये थे। इस मुकद्दमें मैं क़ानूनी बहस कुछ न थी केवल लेन देनका मामला था।

ब्रजकिशोर नें निहालचंदको गवाह ठैराकर उस्‍सै जिरहके सवाल पूछनें शुरू किये “तुम्‍हारा लेन देन रुक्‍के पर्चों सै है !”

जवाब “नहीं”

“तो तुम किस तरह लेन देन रखते हो ?”

ज० “नोकरों की मारफत”

“तुमको कैसे मालूम होता है कि यह आदमी लाला मदनमोहन की तरफ़ सै माल लेनें आया है और उन्‍हींके हां ले जायगा !”

“हम यह नहीं जान सक्‍ते परन्‍तु लाला साहब का हुक्‍म है कि वह लोग जो, सामान मांगें तत्‍काल दे दिया करो”

“अच्‍छा ? वह हुक्‍म दिखाओ !”

ज० “वह हुक्‍म लिखकर नहीं दिया था जबानी है”

“अच्‍छा ! वह हुक्‍म किस्के आगे दिया था-?” किस किसके लिये दिया था !” कितनें दिन हुए ?” “कौन्सा समय था ?” “कौन्‍सी जगह थी ?” “क्‍या कहा था ?”

“बहुत दिन की बात है मुझको अच्‍छी तरह याद नहीं है”

“अच्‍छा ? जितनी बात याद हो वही बताओ ?”

ज० “मैं इस्‍समय कुछ नहीं कह सक्‍ता”

“तो क्‍या किसीसै पूछकर कहोगे ?”

“ज० “जी नहीं याद करके कहूँगा”

“अच्‍छा ! तुम्‍हारा हिसाब होकर बीच मैं बाकी निकल चुकी है ?”

ज० “नहीं”

“तो तुमनें सालकी साल बाकी निकालकर ब्‍याजपर ब्‍याज कैसे लगा लिया ?”

“साहुकारेका दस्‍तूर यही है,”

“साहूकारेमैं तो सालकी साल हिसा‍ब होकर ब्‍याज लगाया जाता है फ़िर तुमनें हिसाब क्‍यों नहीं किया ?”

ज० “अवकाश नहीं मिला”

“तुम्‍हारी बहियोंमैं उदरत खाते सै क्‍या मतलब है ?”

“लाला मदनमोहनके लेन देन सिवाय आप और किसी खाते का सवाल न करें” निहालचंदके वकीलनें कहा।

“मुझको इससै लाला मदनमोहन के लेन देनका विशेष सम्बन्ध मालूम होता है इसीसै मैंनें वह सवाल किया है” लाला ब्रजकिशोरनें जवाब दिया और परिणाम मैं हाकिम के हुक्‍म सै यह सवाल पूछा गया।

“जो रक़मैं बही खाते मैं हिसाब पक्‍का करके लिखी जानेंके लायक होती हैं और तत्‍काल उन्‍का हिसाब पक्‍का नहीं हो सक्‍ता वह रक़मैं हिसाब की सफाई हौनें तक इस खाते मैं रहती हैं और सफाई होनें पर जहांकी तहां चली जाती है” निहालचंदनें जवाब दिया।

“अच्‍छा ! तुम्‍हारे हां जिन मितियों मैं बहुत करके लाला मदनमोहन के नाम बड़ी, बड़ी रक़में लिखी गई हैं उनहीं मितियों मैं उदरत खाते कुछ रक़म जमा की गई है और फ़िर कुछ दिन पीछे उदरत खाते नाम लिखकर वह रक़में लोगोंको

हाथों हाथ दे दी गई हैं या उन्‍के खाते मैं जमा कर दी गई हैं इस्का क्‍या सबब है ?” लाला ब्रजकिशोरनें पूछा।

“मैं पहले कह चुका हूँ कि जिन लोगों की रक़में अलल हिसाब आती जाती हैं या जिन्‍का लेन देन थोड़े दिनके वास्‍तै हुआ करता है उन्‍की रक़म कुछ दिनके लिये इस तरह पर उदरत खाते मैं रहती है परन्‍तु मैं किसी ख़ास रक़मका हाल बही देखे बिना नहीं बता सक्ता” निहालचंदनें जवाब दिया।

“और यह भी ज़रूर है कि जिस दिन लाला मदनमोहन का काम पड़े उस दिनकी यह कारवाई अयोग्‍य समझी जाय ?” निहालचंदके वकीलनें कहा।

“तो ये क्‍या ज़रूर है कि जिस मितिमैं लाला मदनमोहनके नाम बड़ी रक़म लिखी जाय उसी मितीमैं कुछ रक़म उदरत खाते जमा हो और थोड़े दिन पीछै वह रक़म जैसीकी तैसी लोगों को बांट दी जाय ?” लाला ब्रजकिशोरनें जवाब दिया।

“देखो जी ! इस मुकद्दमेमैं किसी तरह का फ़रेब साबित होगा तो हम उसै तत्‍काल फ़ौजदारी सुदुर्द कर देंगे” हाकिमनें संदेह करके कहा।

“हजूर हमको एक दिनकी मुहलत मिल जाय। हम इन सब बातोंके लिये लाला ब्रजकिशोर साहबकी दिलजमई अच्‍छी तरह कर देंगे” निहालचंद के वकीलनें हाकिम सै अर्ज की और ब्रजकिशोरनें इस बातको खुशी सै मंजूर किया।

उदरत खाते सै लाला मदनमोहनके नौकरों की कमीशन वगैरे का हाल खुल्‍ता था। जहां रक़म जमा थी किस्‍सै आई ? किस बाबत आई इसका कुछ पता न था परन्‍तु जहां रकम दी गई मदनमोहनके नोकरोंका अलग, अलग नाम लिखा था और हिसाब लगानें सै उसका भेद भाव अच्‍छी तरह मिल सक्‍ता था। जिन नोकरोंके खाते थे उन्‍के खातोंमैं यह रकमें जमा हुई थीं और कानूनके अनुसार ऐसे मामलोंमैं रिश्‍वत लेनें देनें वाले दोनों अपराधी थे परन्तु ब्रजकिशोरके मनमैं इन्‍के फंसानें की इच्‍छा न थी वह केवल नमूना दिखाकर लेनदारों की हिम्‍मत घटाया चाहता था। उस्‍नें ऐसी लपेट सै सवाल किये थे कि हाकिम को भारी न लगे और लेनदारोंके चित्तमैं गढ़ जांय सो ब्रजकिशोर की इतनी ही पकड़सै बहुतसे लेनदारों के छक्‍के छूट गए।

कितनें ही छिपे लुच्‍चे मदनमोहनकी बेखरची, और कागजका अंधेर, लेनदारों का हुल्‍लड़, मुकद्दमोंके झटपट हो जानेंकी उम्मेद, मदनमोहनके नोकरोंकी स्‍वार्थपरता के भरोसे पर कुछ कुछ बढ़ाकर दावे कर बैठे थे। यह सूरत देखतेही उन्के पांव तलेकी जमीन निकल गई। मिस्‍टर ब्राइट की कुर्की मैं सब माल अस्‍बाबके हो जानें सै लेनदारोंको अपनी रकम के पटनेंका संदेह तो पहलेही हो गया था। अब किसी तरह की लपेट आजानें पर इज्‍जत खो बैठनेंका डर मालूम होनें लगा “नमाजको गए थे रोजे गले पड़े”

सिवायमैं यह चर्चा सुनाई दी कि मदनमोहन को और, और दिसावरों का बहुत देना है। यदि सब माल जायदाद नीलाम होकर हिस्से रसदी सब लेनदारों को दिया गया तो भी बहुत थोड़ी रकम पल्‍ले पड़ेगी, ब्रजकिशोरसै लोग इस्‍का हाल पूछते थे तब वह अजान बन्कर अलग हो जाता था इस्‍सै लोगोंकी और भी छाती बैठी जाती थी। जिस्‍तरह पलभर मैं मदनमोहन के दिवालेकी चर्चा चारों तरफ़ फैल गई थी इसी तरह अब यह सब बातें अफ़वाकी जहरी हवामैं मिलकर चारों तरफ़ उड़नें लगीं।

मोदीके मुकद्दमें के सिवाय आज कोई पेचदार मुकद्दमा अदालतमैं न हुआ जिन्‍के मुकद्दमोंमैं आज की तारीख लगी थी उन्‍नें भी निहालचंदके मुकद्दमें का परिणाम देखनेंके लिये अपनें मुकद्दमें एक, एक दो, दो दिन आगे बढ़वा दिये।

जब इस कामसै अवकाश मिला तो लाला ब्रजकिशोरनें अदालतसै अर्ज करके मिस्‍टर रसलकी जायदाद नीलाम होनें की तारीख आगे बढ़वा दी परन्‍तु यह बात ऐसी सीधी थी कि इस्‍के लिये कुछ विशेष परिश्रम न उठाना पड़ा।

लाला ब्रजकिशोर की चाल देखकर बड़ा आश्‍चर्य होता है। सब लेनदार चारों तरफ़सै निराश होकर उस्‍के पास आते हैं परन्‍तु वह आप उस्सै अधिक निराश मालूम होता है। वह उन्‍के साथ बड़ा बेपरवाई सै बातचीत करता है उन्‍को हर तरहके चढ़ाव उतार दिखाता है जब वह लोग अपना पीछा छुटानें के लिये उस्से बहुत आधीनता करते हैं तो वह बड़ी बेपरवाईसै उन्‍के साथ लगाव की बात करता है परन्‍तु जब वह किसी बात पर जमते हैं तो वह आप कच्‍चा पक्‍का होनें लगता है उल्‍टी सीधीं बात करके अपनी बातसै निकला चाहता है और जब कोई बात मंजूर करता है तो बड़ी आनाकानीसै जबान निकलनें के कारण उस्‍को यह बोझ उठाना पड़ता हो ऐसा रूप दिखाई देता है। कचहरी से लौटती बार उस्‍ने घन्टे डेढ़ घन्टे मिस्‍टर ब्राइटसै एकाँतमैं बातचीत की ! अदालतके कामोंमें उस्‍का वैसा ही उद्योग दिखाई देता है परन्‍तु दरअसल वह किसी अत्यन्त कठिन काममैं लग रहा हो ऐसा ढंग मालूम होता है उस्‍के पहले सब काम नियमानुसार दिखाई देते थे परन्तु इस समय कुछ क्रम नहीं रहा इस्‍समय उसके सब काम परस्‍पर बिपरीत दिखाई देते हैं इसलिये उस्‍का निज भाव पहचान्‍ना बहुत कठिन है परन्‍तु हम केवल इतनी बात पर संतोष बांध बैठे हैं कि जब उस्‍की कारवाईका परिणाम प्रगट हो जायगा तो वह अपना भाव सर्व साधारण की दृष्टिसे कैसे गुप्‍त रख सकेगा ?

प्रकरण-३३ : मित्रपरीक्षा

धन न भयेहू मित्रकी सज्‍जन करत सहाय ।।

मित्र भाव जाचे बिना कैसे जान्‍यो जाय ।। [11]

विदुरप्रजागरे

आज तो लाला ब्रजकिशोर की बातोंमैं लाला मदनमोहन की बात ही भूल गये थे !

लाला मदनमोहन के मकान पर वैसी ही सुस्ती छा रही है केवल मास्‍टर शिंभूदयाल और मुन्शी चुन्‍नीलाल आदि तीन, चार आदमी दिखाई देते हैं परन्‍तु उन्‍का भी होना न होना एकसा है वह भी अपनें निकासका रस्‍ता ढूंढ़ रहे हैं। हम अबतक लाला मदनमोहनके बाकी मुसाहबोंकी पहचान करानें के लिये अवकाश देख रहे थे इतनेंमैं उन्‍नें मदनमोहन का साथ छोड़ कर अपनी पहचान आप बतादी। हरगोबिन्‍द और पुरुषोत्तमदास नें भी कल सै सूरत नहीं दिखाई थी। बाबू बैजनाथ को बुलानें के लिये आदमी गया था परन्‍तु उन्‍हैं आनें का अवकाश न मिला। लाला हरदयाल साहब के नाम कुछ दिन के लिये थोड़े रुपे हाथ उधार देनें को लिखा गया था परन्‍तु उन्‍का भी जवाब नहीं आया। लाला मदनमोहन का ध्‍यान सबसै अधिक डाककी तरफ़ लग रहा था उन्को विश्वास था कि मित्रों के तरफ़सै अवश्‍य अवश्‍य सहायता मिलेगी बल्कि कोई, कोई तो तार की मार्फ़त रुपे भिजवायेंगे।

“क्‍या करें? बुद्धि काम नहीं करती” मास्‍टर शिंभूदयाल नें समय देखकर अपनें मतलब की बात छेड़ी “इन्‍हीं दिनोंमैं यहां काम है और इन्हीं दिनों मैं लड़कों का इमतहान है। कल मुझको वहां पहुँचनें मैं पाव घन्टे की देर हो गई थी इस्‍पर हेडमास्‍टर सिर हो गये। वहां न जायं तो रोजगार जाता है यहां न रहैं तो मन नहीं मानता (मदनमोहन सै) आप आज्ञा दें जैसा किया जाय ?”

“खैर ? यहां का तो होना होगा सो हो रहैगा तुम अपना रोज़गार न खोओ” लाला मदनमोहन नें रुखाई सै जवाब दिया।

“क्‍या करूं ? लाचार हूँ” मास्‍टर शिंभूदयाल बोले “यहां आए बिना तो मन नहीं मानेंगा परन्‍तु हां कुछ कम आना होगा आठ पहर की हाजरी न सध सकेगी। मेरी देह मदरसेमैं रहेगी परन्‍तु मेरा मन यहां लगा रहैगा”

“बस आपकी इतनी ही महरबानी बहुत है” लाला मदनमोहन नें जोर देकर कहा।

निदान मास्‍टर शिंभूदयाल मदरसे जानें का समय बताकर रूख़सत हुए।

“आज निहालचंद का मुकद्दमा है देखैं ब्रजकिशोर कैसी पैरवी करते हैं” मुन्शी चुन्‍नीलालनें कहा “कल आपके पाकटचेन देनेंसै उन्‍का मन बहुत बढ़गया परन्तु वह उसे अपनें महन्‍तानें मैं न समझैं। मेरे निकट अब उन्‍का महन्ताना तत्‍काल भेज देना चाहिए जिस्‍सै उन्‍को यह संदेह न रहै और मन लगाकर अपनें मुकद्दमों मैं अच्‍छी जवाब दि‍ही करैं मैं इन्के पास रहक़र देख चुका हूं कि यह अपनें मुखसै तो कुछ नहीं कहते परन्‍तु इन्‍के साथ जो जितना उपकार करता है यह उस्‍सै बढ़कर उसका काम कर देते हैं”

“अच्‍छा ! तो आज शाम को कोई कीमती चीज इन्‍के महन्‍तानेंमैं दे देंगे और काम अच्‍छा किया तो शुक्राना जुदा देंगे” लाला मदनमोहननें कहा।

इतनें मैं डाक आई उस्‍मैं एक रजिस्‍ट्री चिट्ठी मेरठसै एक मित्र की आई थी जिस्‍मैं दस हजार की दर्शनी हुंडी निकली और यह लिखा था कि “जितनें रुपे चाहियें और मंगा लेना। आपका घर है” लाला मदनमोहन यह चिट्ठी देखते ही उछल पड़े और अपनें मित्रों की बड़ाई करनें लगे। हुंडी तत्‍काल सकरानें को भेज दी परन्‍तु जिसके नाम हुंडी थी उस्‍नें यह कहक़र हुंडी सिकारनेंसै इन्‍कार किया कि जिस साहूकार के हां सै लाला मदनमोहन के पास हुंडी आई है उसीनें तार देकर मुझको हुंडी सिकारनें की मनाई की है इस्‍सै सब भेद खुल गया। असल बात यह थी कि जिस्‍समय मदनमोहन की चिट्ठी उस्‍के पास पहुँची उस्को मदनमोहनके बिगड़नें का जरा भी संदेह न था इसलिये मदनमोहन की चिट्ठी पहुँचते ही उस्‍नें सच्‍ची प्रीति दिखानेंके लिये दस हजार की हुंडी खामदी परन्‍तु पीछेसै और लोगोंकी जबानी मदनमोहन के बिगड़नें का हाल सुन्कर घबराया और तत्‍काल तार देकर हुंडी खड़ी रखवादी।

लाला मदनमोहन इस तरह अपनें एक मित्रके छलसै निराश होकर तीसरे पहर अपनें शहरके मित्रोंसै सहायता मांगनेंके लिये आप सवार हुए। पहलै रस्‍तै मैं जो लोग झुक-झुक कर सलाम करते थे वही आज इन्‍हें देखकर मुख फेरनें लगे बल्कि कोई, कोई तो आवाजें कसनें लगे। मदनमोहन को सबसै अधिक विश्‍वास लाला हरदयाल का था इसलिये वह पहलै उसीके मकान पर पहुँचे।

हरदयाल को मदनमोहनके काम बिगड़नें का हाल पहले मालूम हो चुका था और इसी वास्‍तै उस्‍नें मदनमोहन की चिट्ठी का जवाब नहीं भेजा था। अब मदनमोहनके आनें का हाल सुन्‍ते ही वह जरासी देर मैं मदनमोहन के पास पहुँचा और बड़े सत्‍कार सै मदनमोहनको लिवा लेजाकर अपनी बैठकमैं बिठाया।

लाला मदनमोहननें कल सहायता मांगनेंके लिये चिट्ठी भेजी थी उस्‍को पहलै उस्‍नें हंसीकी बात ठैराई और जवाब न भेजनें का भी यही कारण बताया परन्‍तु जब मदनमोहननें वह बात सच्‍ची बताई और उस्‍के पीछे का सब वृत्तान्त कहा तो लाला हरदयाल अत्‍यन्‍त दुखित हुए और बड़ी उमंगसे अपनी सब दौलत लाला मदनमोहन पर न्‍योछावर करनें लगे। लाला हरदयाल की यह बातें केवल कहनें के लिये न थी वह दौड़कर अपनें गहनें का कलमदान उठा लाए और उस्मैंसै एक एक, रकम निकाल कर लाला मदनमोहन को देनें लगे। इतनें मैं एकाएक दरवाजा खुला हरदयाल का पिता भीतर पहुँचा और वह हरदयाल को जवाहरात की रकमें मदनमोहनके हाथमें देते देख कर क्रोध सै लाल हो गया।

“अभागे हटधर्मी ! मैंनें तुझको इतनी बार बरजा परन्‍तु तू अपना हठ नहीं छोड़ता आजकल के कपूत लड़के इतनी बातको सच्‍ची स्‍वतन्‍त्रता समझते हैं कि जहां तक हो सके बड़ों का निरादर और अपमान किया जाय, उन्‍को मूर्ख और अनसमझ बताया जाय, परन्‍तु मैं इन बातों को क़भी नहीं सहूँगा मेरे बैठे तुझको घर बरबाद करनें का क्‍या अधिकार है ? निकल यहांसै काला मुंहक़र तेरी इच्‍छा होय जहां चला जा मेरा तेरा कुछ सम्‍बन्‍ध नहीं रहा” यह कह कर एक तमाचा जड़ दिया और गहना सम्‍हाल, सम्हालकर संदूक मैं संदूक मैं रखनें लगा। थोड़ी देर पीछे लाला मदनमोहन की तरफ़ देखके कहा। “संसारके सब काम रुपै सै चल्‍ते हैं फ़िर जो लोग अपनी दौलत खोकर बैरागी बन बैठें और औरों की दौलत उड़ाकर उन्को भी अपनी तरह बैरागी बनाना चाहें वह मेरे निकट सर्वथा दया करनेंके योग्‍य नहीं हैं और जो लोग ऐसे अज्ञानियों की सहायता करते हैं वह मेरे निकट ईश्‍वर का नियम तोड़तेहैं और संसारी मनुष्‍यों के लिये बड़ी हानिका काम करते हैं मेरे निकट ऐसे आदमियों को उन्की मूर्खताका दण्‍ड अवश्‍य होना चाहिये जिस्‍सै और लोगों की आंखें खुलैं, क्‍या मित्रता का यही अर्थ है कि आप तो डूबें सो डूबें अपनें साथ औरों को भी ले डूबें ! नहीं, नहीं आप ऐसे बिचार छोड़ दीजिये और चुपचुपाते अपनें घर की राह लीजिये यह समय अपनें मित्रोंको देनें का है अथवा उल्टा उन्‍सै लेनें का है ?”

“बुरे वक्‍त मैं एक मित्रका जी दुखाना, और दयाके समय क्रूरता करनी, किसीकी दुखती चोट पर हँसना, एक गरीब को उस्‍की गरीबीके कारण तुच्‍छ समझना, अथवा उस्‍की गरीबी की याद दिवाकर उसै सताना, दूसरे का बदला भुगताती बार अपनें मतलब का खयाल करना, कैसा ओछापन और घोर पाप है। जहां सज्‍जन धनवानों की खुशामद सै दूर रहक़र गरीबोंका साथ देनें और सहायता करनें मैं सच्‍ची सज्‍जनता समझते हैं। कठोर वचन दो तरह से कहा जाता है। जो लोग अपनायत की रीति सै कहते हैं उन्‍कीकहनसै तो अपनें चित्तमैं वफादारी और आधीनता बढ़ती हैं पर जो अभिमान की राहसै दूसरे को तुच्‍छ बनाते हैं उन्‍की कहनसै चित्तमैं क्रोध और धि:कार बढ़ता जाता है। हर तरह का घाव ओषधि सै अच्‍छा हो सक्ता है परन्‍तु मर्म बेधी बात का नासूर किसी तरह नहीं रुझता। विदुरजीनें सच कहा है “नावक सर धनु तीर काढे कुढत शरीरते ।। कुबचन तीर गम्भीर कढत न क्‍यों हूँ उर गढे ।। १।।”

निदान लाला मदनमोहन को यह कहना अत्‍यन्‍त असह्य हुई। वह तत्‍काल उठकर वहांसै चल दिये परन्‍तु बैठक सै बाहर जाते, जातै उन्हैं पीछैसै हरदयाल का यह बचन सुनकर बड़ा आश्‍चर्य हुआ कि “चलो यह स्‍वांग (अभिनय) हो चुका अब अपना काम करो।”

लाला मदनमोहन वहां सै चलकर एक दूसरे मित्रके मकान पर पहुँचे और उस्‍सै अपनै आनेंकी खबर कराई वह उस्‍समय कमरेमैं मोजूद था परन्‍तु उस्‍नें लाला मदनमोहन को थोड़ी देर अपनें दरवाजे पर बाट दिखानेंमैं और अपनें कमरे को ज़रा मेज कुरसी, किताब, अखबार आदि सै सजाकर मिलनेंमैं अधिक शोभा समझी इसलिये कहला भेजा कि “आप ठैरें लाला साहब भोजन करनें गये हैं अभी आकर आप सै मिलेंगे।” देखिये आज-कलके सुधरे विचारोंका नमूना यह है ? थोड़ी देर पीछै वह लाला मदनमोहनको लिवानें आया और बड़े शिष्‍टाचारसै लिवा ले जाकर उन्‍हैं तकियेके सहारे बिठाया। लाला मदनमोहन को थोड़ी देर उस्‍की बाट देखनी पड़ी थी इस्‍की क्षमा चाही और इधर-उधर की दो चार बातें करके मानों कुछ चिट्ठियाँ अत्‍यन्‍त आवश्‍यकीय लिखनी बाकी रह गई हों। इस्‍तरह चिट्ठी लिखनें लगा परन्‍तु दो चार पल पीछे फ़िर कलम रोककर बोला “हां यह तो कहिये आपनें इस्‍समय किस्‍तरह परिश्रम किया ?”

“क्‍यों भाई ! आनें जानें का कुछ डर है ? क्‍या मैं पहले क़भी तुम्‍हारे यहां नहीं आया ? या तुम मेरे यहां नहीं गए ?” लाला मदनमोहननें कहा।

“आपनें यह तो बड़ी कृपा की परन्‍तु मेरे पूछनें का मतलब यह था कि कुछ ताबेदारी बताकर मुझे अधिक अनुग्रहीत कीजिये” उस मनुष्‍यनें अजानपनें मैं कहा।

“हां कुछ काम भी है। मुझको इस्‍समय कुछ रुपे की ज़रूरत है मेरे पास बहुत कुछ माल अस्‍बाब मौजूद है परन्‍तु लोगोंनें बृथा तकाजा करके मुझको घबरा लिया” लाला मदनमोहन भोले भाव सै बोले।

“मुझको बड़ा खेद है कि मैंनें अपना रुपया अभी एक और काम मैं लगा दिया यदि मुझको पहलै सै सूचना होती तो मैं सर्वथा वह काम न करता” उस मनुष्‍य नें जवाब दिया।

“अच्‍छा ! कुछ चिन्‍ता नहीं आप मेरे लेनदारोंकी जमाखातर ज़रा अपनी तरफ़ सै कर दें।

“इस्‍सै हमारी स्‍वरूपहानि है हम ज़ामनी करें तो हमको रुपया उसी समय देना चाहिये” उस पुरुष नें जवाब दिया और लाला मदनमोहन वहां सै भी निराश होकर रवानें हुए।

रस्‍ते मैं एक और मित्र मिले वह दूरी ही सै अजानकी तरह दृष्टि बचाकर गली मैं जानें लगे परन्‍तु लाला मदनमोहन नें आवाज देकर उन्हें ठैराया और अपनी बग्‍गी खड़ी की इस्‍सै लाचार होकर उन्‍हें ठैरना पड़ा परन्‍तु उनके मनमैं पहली सी उमंग नाम को न थी।

“आप प्रसन्‍न हैं ? मुझको इस्‍समय एक बड़ा जरूरी काम था। माफ़ करें मैं किसी समय आपके पास हाजिर होऊँगा” यह कहक़र वह मनुष्‍य जानें लगा परन्‍तु मदनमोहननें उसै फ़िर रोका और कहा “हां भाई ? अब तुमको अपनें जरूरी कामों के आगे मुझसैं मिलनें का अवकाश क्‍यों मिलनें लगा था ? अच्‍छा ? जाओ हमारा भी परमेश्‍वर रक्षक है।”

इस तानें सै लाचार होकर उसै ठैरना पड़ा और उसके ठैरनें पर लाला मदनमोहन नें अपना वृत्तान्त कहा।

“यह हाल सुन्‍कर मुझको अत्यन्त खेद हुआ। परमेश्‍वर आप पर कृपा करें। वह सर्वशक्तिमान दीनदयाल सर्वं का दु:ख दूर करता है। उस्‍पर विश्‍वास रखनें सै आपके सब दु:ख दूर हो जायंगे आप धैर्य रक्‍खें। मुझको इस्‍समय सचमुच बहुत जरूरी काम है इस लिये मैं अधिक नहीं ठैर सक्ता परन्‍तु मैं आजकल मैं आपके पास हाजिर होऊंगा और सलाह करके जो बात मुनासिब मालूम होगी उस्‍के अनुसार बरताव किया जायगा” यह कह कर वह मनुष्‍य तत्‍काल वहां सै चल दिया।

लाला मदनमोहन और एक मित्रके मकान पर पहुँचे। बाहर खबर मिली कि “वह मकान के भीतर हैं” भीतर सै जवाब आया कि “बाहर गए” लाचार मदनमोहन को वहां सै भी खाली हाथ फ़िरना पड़ा। और अब और मित्रों के यहां जानें का समय नहीं रहा इसलिये निराश होकर सीधे अपनें मकान को चले गए।

प्रकरण-३४ : हीनप्रभा (बदरोबी)

नीचन के मन नीति न आवै । प्रीति प्रयोजन हेतु लखावै ।।

कारज सिद्ध भयो जब जानैं । रंचकहू उर प्रीति न मानै ।।

प्रीति गए फलहू बिनसावै । प्रीति विषै सुख नैक न पावै ।।

जादिन हाथ कछू नहीं आवै । भाखि कुबात कलंक लगावै ।।

सोइ उपाय हिये अवधारै । जासु बुरो कछु होत निहारै ।।

रंचक भूल कहूँ लख पा वैं । भाँति अनेक बिरोध बढ़ावै ।।[12]

विदुरप्रजागरे।

लाला मदनमोहन मकान पर पहुँचे उस्‍समय ब्रजकिशोर वहां मौजूद थे।

लाला ब्रजकिशोर नें अदालत का सब वृत्तान्त कहा। उस्‍मैं मदनमोहन, मोदी के मुकद्दमें का हाल सुन्‍कर बहुत प्रसन्‍न हुए। उस्‍समय चुन्‍नलीलाल नें संकेत मैं ब्रजकिशोर के महन्‍तानें की याद दिवाई जिस्‍पर लाला मदनमोहन नें अपनी अंगुली सै हीरे की एक बहुमूल्‍य अंगूठी उतार कर ब्रजकिशोर को दी और कहा “आपकी मेहनत के आगे तो यह महन्‍ताना कुछ नहीं है परन्‍तु अपना पुराना घर और मेरी इस दशा का बिचार करके क्षमा करिये”

य‍ह बात सुन्‍ते ही एक बार लाला ब्रजकिशोर का जी भर आया परन्तु फ़िर तत्‍काल सम्‍हल कर बोले “क्‍या आपनें मुझ को ऐसा नीच समझ रक्‍खा है कि मैं आपका काम महन्‍तानें के लालच सै करता हूँ ? सच तो यह है कि आप के वास्‍ते मेरी जान जाय तो भी कुछ चिन्‍ता नहीं परन्‍तु मेरी इतनी ही प्रार्थना है कि आपनें अँगूठी देकर मुझसै अपना मित्र भाव प्रगट किया सो मैं आपको बराबर का नहीं बना चाहता मैं आपको अपना मालिक समझता हूँ इसलिये आप मुझे अपना ‘हल्‍क:बगोश’ (सेवक) बनायं”

“यह क्‍या कहते हो ! तुम मेरे भाई हो क्‍योंकि तुमको पिता सदा मुझसै अधिक समझते थे। हां तुम्‍हैं बाली पहन्‍नें की इच्‍छा हो तो यह लो मेरी अपेक्षा तुम्‍हारे कान मैं यह बहुमूल्‍य मोती देखकर मुझको अधिक सुख होगा परन्‍तु ऐसे अनुचित बचन मुखसै न कहो” यह कहक़र लाला मदनमोहननें अपनें कानकी बाली ब्रजकिशोर को दे दी !

”कल हरकिशोर आदि के मुकद्दमे होंगे उन्‍की जवाबदिहि का बिचार करना है कागज तैयार करा कर उन्सै रहत (बदर) छांटनी है इसलिये अब आज्ञा हो” यह कह कर ब्रजकिशोर रुख़सत हुए और लाला मदनमोहन भोजन करनें गए।

लाला मदनमोहन भोजन करके आये उस्‍समय मुन्शी चुन्‍नीलालनें अपनें मतलब की बात छेड़ी।

“मुझको हर बार अर्ज करनेंमैं बड़ी लज्‍जा आती है परन्‍तु अर्ज किये बिना भी काम नहीं चल्‍ता” मुन्शी चुन्‍नीलाल कहनें लगा “ब्‍याह का काम छिड़ गया परन्‍तु अबतक रुपेका कुछ बन्‍दोबस्‍त नहीं हुआ। आपनें दो सौके नोट दिये थे वह जाते ही चटनी हो गए। इस्‍समय एक हजार रुपयेका भी बन्‍दोबस्‍त हो जाय तो खैर कुछ दिन काम चल सक्ता है, नहीं तो काम नहीं चल्‍ता।”

“तुम जान्‍ते हो कि मेरे पास इस्‍समय नगद कुछ नहीं है और गहना भी बहुतसा काममें आचुका है” लाला मदनमोहन बोले “हां मुझको अपनें मित्रों की तरफ़ सै सहायता मिल्नें का पूरा भरोसा है और जो उन्‍की तरफ़ सै कुछ भी सहायता मिली तो मैं प्रथम तुम्‍हारी लड़की के ब्‍याहका बन्‍दोबस्‍त कर दूंगा।”

“और जो मित्रों सै सहायता न मिली तो मेरा क्‍या हाल होगा ?” मुन्शी चुन्‍नीलालनें कहा “ब्‍याह का काम किसी तरह नहीं रुक सक्‍ता और बड़े आदमियों की नौकरी इसी वास्‍ते तन तोड़ कर की जाती है कि ब्‍याह शादी मैं सहायता मिले, बराबरवालोंमैं प्रतिष्‍ठा हो परन्‍तु मेरे मन्‍द भाग्‍य सै यहां इस्‍समय ऐसा मौका नहीं रहा इसलिये मैं आपको अधिक परिश्रम नहीं दिया चाहता। अब मेरी इतनी ही अर्ज है कि आप मुझको कुछ दिनकी रुख्सत देदें जिस्‍सै मैं इधर उधर जाकर अपना कुछ सुभीता करूं।”

“तुमको इस्‍समय रुख़सत का सवाल नहीं करना चाहिये मेरे सब कामों का आधार तुम पर है फ़िर तुम इस्‍समय धोका दे कर चले जाओगे तो काम कैसे चलेगा ?” लाला मदनमोहननें कहा।

“वाह ! महाराज वाह ! आपनें हमारी अच्छी कदर की !” मुन्शी चुन्‍नीलाल तेज होकर कहनें लगा “धोका आप देते हैं या हम देते हैं ? हम लोग दिन रात अपकी सेवा मैं रहैं तो ब्‍याह शादी का खर्च लेनें कहां जायं ? आपनें अपनें मुख सै इस ब्‍याह मैं भली भांति सहायता करनें के लिये कितनी ही बार आज्ञा की थी, परन्‍तु आज वह सब आस टूट गई तो भी हमनें आपको कुछ ओलंभा नहीं दिया। आप पर कुछ बोझ नहीं डाला केवल अपनें कार्य निर्वाह के लिये कुछ दिन की रुख्सत चाही तो आपके निकट बड़ा अधर्म हुआ। खैर ! जब आपके निकट हम धोखेबाज ही ठैरे तो अब हमारे यहां रहनें सै क्‍या फायदा है ? यह आप अपनी तालियां लें और अपना अस्‍बाब सम्भाल लें। पीछे घटे बड़ेगा तो मेरा जिम्‍मा नहीं है। मैं जाता हूँ।” यह कह कर तालियोंका झूमका लाला मदनमोहनके आगे फेंक दिया और मदनमोहन के ठंडा करते-करते क्रोध की सूरत बना कर तत्‍काल वहां सै चल खड़ा हुआ।

सच है नीच मनुष्‍य के जन्‍म भर पालन पोषण करनें पर भी एक बार थोड़ी कमी रहजानें सै जन्‍म भर का किया कराया मट्टी मैं मिल जाता है। लोग कहते हैं कि अपनें प्रयोजन मैं किसी तरह का अन्‍तर आनें सै क्रोध उत्‍पन्‍न होता है अपनें काम मैं सहायता करनें सै बिरानें हो जाते हैं और अपनें काम में बिघ्‍न करनें सै अपनें बिरानें समझे जाते हैं परन्‍तु नहीं क्रोध निर्बल पर विशेष आता है और नाउम्‍मेदी की हालात मैं उस्‍की कुछ हद नहीं रहती। मुन्शी चुन्‍नीलाल पर लाला मदनमोहन कितनी ही बार इस्‍सै बढ़, बढ़ कर क्रोधित हुए थे परन्‍तु चुन्‍नीलाल को आज तक क़भी गुस्‍सा नहीं आया ? और आज लाला मदनमोहन उस्‍को ठंडा करते रहे तो भी वह क्रोध करके चल दिया। वृन्‍दनें सच कहा है “बिन स्‍वारथ कैसे सहे कोऊ करुए बैन । लात खाय पुचकारिए होय दुधारू धेन ।।”

मुन्शी चुन्‍नीलाल के जानें सै लाला मदनमोहन का जी टूट गया परन्‍तु आज उनको धैर्य देनें के लिये भी कोई उन्‍के पास न था। उन्‍के यहां सैकड़ों आदमियों का जमघट हर घड़ी बना रहता था सो आज चिड़िया तक न फटकी। लाला मदनमोहन इस सोच बिचार मैं रात के नौ बजे तक बैठे रहे परन्‍तु कोई न आया तब निराश होकर पलंग पर जा लेटे।

अब लाला मदनमोहन का भय नोकरोंपर बिल्‍कुल नहीं रहा था। सब लोग उन्‍के माल को मुफ्तका माल समझनें लगे थे। किसी नें घड़ी हथियाई, किसी नें दुशालेपर हाथ फैंका। चारों तरफ़ लूटसी होनें लगी। मोजे, गुलूबंद, रूमाल आदिकी तो पहलेही कुछ पूछ न थी। मदनमोहन को हर तरह की चीज खरीदनें की धत थी परन्‍तु खरीदे पीछे उस्‍को कुछ याद नहीं र‍हती थी और जहां सैकड़ों चीजें नित्‍य खरीदी जायँ वहां याद क्‍या धूल रहै ? चुन्‍नीलाल, शिंभूदयाल आदि कीमत मैं दुगनें चौगनें कराते थे परन्‍तु यहां असल चीजोंही का पता न था। बहुधा चीजें उधार आती थीं इस्‍सै उन्‍का जमा खर्च उस्‍समय नहीं होता था और छोटी, छोटी चीजों के दाम तत्‍काल खर्च मैं लिख दिये जाते थे। इस्‍सै उन्‍की किसी को याद नहीं रहती थी। सूची पत्र बनानें की वहां चाल न थी और चीज बस्‍त की झडती क़भी नहीं मिलाई जाती थी नित्‍य प्रति की तुच्‍छ बातोंपर क़भी, क़भी वहां हल्‍ला होता था परन्‍तु सब बातोंके समूह पर दृष्टि करके उचित रीतिसै प्रबन्‍ध करनें की युक्ति क़भी नहीं सोची जाती थी और दैवयोगेन किसी नालायक सै कोई काम निकल आता था तो वह अच्‍छा समझ लिया जाता था परन्‍तु काम करनें की प्रणाली पर किसी की दृष्टि न थी। लाला साहब दो तीन वर्ष पहलै आगरे लखनऊ की सैर को गए थे वहां के रस्‍ते खर्च के हिसाब का जमा खर्च अबतक नहीं हुआ था और जब इस तरह कोई जमा खर्च हुए बिना बहुत दिन पड़ा रहता था तो अन्‍त मैं उस्‍का कुछ हिसाब किताब देखे बिना यों ही खर्च मैं रकम लिखकर खाता उठा दिया जाता था। कैसेही आवश्‍यक काम क्‍यों न हो लाला साहब की रुचि के बिपरीत होनें सै वह सब बेफ़ायदे समझे जाते थे और इस ढब की बाजबी बात कहना गुस्‍ताखी मैं गिना जाता था। निकम्‍मे आदमियों के हरवक्‍त घेरे बैठे रहनें सै काम के आदमियों को काम की बातें करनें का समय नहीं मिल्‍ता था। “जिस्की लाठी उस्की भैंस” हो रही थी। जो चीज जिस्‍के हाथ लगती थी वह उस्‍को खूर्दबुर्द कर जाता था। भाड़े और उघाई आदिकी भूली भुलाई रकमों को लोग ऊपर का ऊपर चट कर जाते थे आधे परदे पर कर्जदारों को उनकी दास्‍तावेज फेर दी जाती थी। देशकाल के अनुसार उचित प्रबन्‍ध करनें में लोक निंदाका भय था ! जो मनुष्‍य कृपापात्र थे उनका तन्‍तना तो बहुत ही बढ़ रहा था उन्‍के सब अपराधों सै जान बूझकर दृष्टि बचाई जाती थी। वह लोग सब कामों मैं अपना पांव अड़ाते थे और उन्‍के हुक्‍म की तामील सबको करनी पड़ती थी यदि कोई अनुचित समझकर किसी काम मैं उज्र करता तो उस्‍पर लाला साहब का कोप होता था और इस दुफसली कारवाई के कारण सब प्रबन्‍ध बिगड़ रहा था (बिहारी) “दुसह दुराज प्रजान को क्‍यों न बढ़ै दुंख दुंद ।। अधिक अंधेरो जग करै मिल मावस रबि चंद ।।” ऐसी दशा मैं मदनमोहन की स्‍त्री के पीछे चुन्‍नीलाल और शिंभूदयाल के छोड़ जानें पर सब माल मतेकी लूट होनें लगे, जो पदार्थ जिसके पास हो वह उस्‍का मालिक बन बैठे इस्‍मैं कौन आश्‍चर्य है ?

प्रकरण-३५ : स्तुति निन्‍दा का भेद

बिनसत बार न लागही ओछे जनकी प्रीति ।।

अंबर डंबर सांझके अरु बारूकी भींति ।।

सभाविलास।

दूसरे दिन सवेरे लाला मदनमोहन नित्‍य कृत्‍य सै निबटकर अपनें कमरे मैं इकल्‍ले बैठे थे। मन मुर्झा रहा था किसी काम मैं जी नहीं लगता था एक, एक घड़ी एक, एक बरस के बराबर बीतती थी इतनें मैं अचानक घड़ी देखनें के लिये मेज़पर दृष्टि गई तो घड़ी का पता न पाया। हें ! यह क्‍या हुआ ! रात को सोती बार जेबसै निकालकर घड़ी रक्‍खी थी फ़िर इतनी देर मैं कहां चली गई ! नौकरों सै बुलाकर पूछा तो उन्‍होंनें साफ जवाब दिया कि “हम क्‍या जानें आपनें कहां रक्‍खी थी ? जो मौकूफ करना हो तो यों ही करदें वृथा चोरी क्‍यों लगाते हैं” लाचार मदनमोहन को चुप होना पड़ा क्‍योंकि आप तो किसी जगह आनें जानें लायक ही न थे सहायता को कोई आदमी पास न रहा। लाला जवाहरलाल की तलाश कराई तो वह भी घर सै अभी नहीं आए थे। लाला मदनमोहन को अपाहजों की तरह अपनी पराधीन दशा देखकर अत्‍यन्‍त दु:ख हुआ परन्‍तु क्‍या कर सक्ते थे ? उन्‍के भाग्‍य सै उन्‍का दु:ख बंटानें के लिये इस्‍समय बाबू बैजनाथ आं पहुँचे। उन्‍को देखकर लाला मदनमोहन के शरीर मैं प्राण आगया।

लाला मदनमोहन नें आंखों सै आंसू बहाकर उन्सै अपना सर्व दु:ख कहा और अन्‍त मैं अपनी घड़ी जानें का हाल कह कर इस काम मैं सहायता चाही।

“आपका हाल सुन्‍कर मुझको बहुत खेद होता है मुझे चुन्‍नीलाल की तरफ़ सै सर्वथा ऐसा भरोसा न था इसी तरह आप अपनें काम काज सै इतनें बेखबर होंगे यह भी उम्‍मेद न थी” बाबू बैजनाथ नें काम बिगड़े पीछे अपनी आदत मूजिब सबकी भूल निकालकर कहा “मैंनें तो अखबारों मैं भी आपके नाम की धूम मचा दी थी परन्‍तु आप अपनें काम ही को सम्‍हाल न रक्‍खें तो मैं क्‍या करूं ? महाजनी काम मुझको नहीं आता और इतना अवकाश भी नहीं मिलता। मैं घड़ी का पता लगानें के लिये उपाय करता परन्‍तु आजकल रेल पर काम बहुत है इस्‍सै लाचार हूँ। मेरे निकट इस्‍समय आपके लिये यही मुनासिब है कि आप इन्‍सालवन्‍ट होनें की दरखास्‍त दे दें।”

“अच्‍छा ! बाबू साहब ! आपसै और कुछ नहीं हो सक्‍ता तो आप केवल इतनीही कृपा करें कि मेरी घड़ी जानें की रपट कोतवाली मैं लिखाते जायं” लाला मदनमोहननें गिड़गिड़ाकर कहा।

“मैं रेलवे कम्‍पनी का नौकर हूँ इस वास्‍तै कोतवाली मैं रिपोर्ट नहीं लिखा सक्‍ता बल्कि प्रगट होकर किसी काम मैं आपको कुछ सहायता नहीं दे सक्ता। मुझसै निज मैं आपकी कुछ सहायता हो सकेगी तो मैं बाहर नहीं हूँ परन्‍तु आप मुझ सै किसी जाहरी काम के वास्‍तै कहक़र मुझे अधिक लज्जित न करें और अन्‍त मैं मैं आपको इतनी ही सलाह देता हूँ कि “आप लाला ब्रजकिशोर पर विश्‍वास रखकर उस्‍के बसमें न हो जायं बल्कि उसको अपनें बस मैं रखकर अपना काम आप करते रहैं।”

“सच है यह समय किसी पर विश्‍वास रखनें का नहीं है जो लोग अपनें मतलब की बार सच्‍चे मित्र बनकर मेरे पसीनें की जगह खून डालनें को तैयार रहते थे मतलब निकल जानें सै आज उन्‍की छाया भी नहीं दिखाई देती। सत्‍सम्‍मति देना तो अलग रहा मेरे पार खड़े रहनें तक के साथी नहीं होते। जो लोग किसी समय मेरी मुलाकात के लिये तरस्‍ते थे वह अब तीन; तीन बार बुलानें सै नहीं आते। मेरे पास आनें जानें मैं जिन लोगों की इज्‍जत बढ़ती थी वह आज मुझ सै किसी तरह का सम्‍बन्‍ध रखनें मैं लजाते हैं” लाला मदनमोहन नें भरमा भरमी इतनी बात कहक़र अपनी छाती का बोझ हल्‍का किया।

“यह तो सच है जिसका प्रयोजन होता है उसै उचित अनुचित बातों का कुछ बिचार नहीं रहता” बाबू बैजनाथ नें जैसे का तैसा जवाब दिया और थोड़ी देर इधर-उधर की बातें करके रुख़सत हुआ।

लाला मदनमोहन बड़े चकित थे कि हे ! परमेश्‍वर ! य‍ह क्‍या भेद है मेरी दशा बदलते ही सब संसार के बिचार कैसे बदल गए। और जिन्‍सै मेरा किसी तरह का सम्‍बन्‍ध न था वह भी मुझको अकारण क्‍यों तुच्‍छ समझनें लगे ? मेरे नर्म होनें पर भी बेप्रयोजन मुझ सै क्‍यों लड़ाई झगड़ा करनें लगे ? जिन लोगों को मेरी योग्‍यता और सावधानी के सिवाय अब तक कुछ नहीं दिखाई देता था उन्‍को अब क्‍यों मेरे दोष दृष्टि आनें लगे ? लाला मदनमोहन इन बातों का बिचार कर रहे थे इतनें मैं लाला ब्रजकिशोर वहां जा पहुँचे और मदनमोहन नें अपनें मन का सब संदेह उन्‍हें कह सुनाया।

“एक तो जो लोग प्रथम स्वार्थबस प्रीति करते हैं उनकी कलई ऐसे अवसर पर खुल जाती है। दूसरे साधारण लोगों की स्‍तुति निन्‍दा कुछ भरोसे लायक नहीं होती। वह किसी बात का तत्‍व नहीं जान्‍ते प्रगट मैं जैसी दशा देखते हैं वैसा ही कहनें लगते हैं बल्कि उसीके अनुसार बरताव करते हैं इस्‍सै साधारण लोगों की प्रतिष्‍ठा योग्‍यता के अनुसार नहीं होती द्रव्य अथवा जाहरदारी के अनुसार होती हैं और द्रव्‍य अथवा जाहरदारी के परदे तले घोर पापी अपनें पापों को छिपाकर क्रम, क्रम सै प्रतिष्ठित लोगों मैं मिल सकता है बल्कि प्रतिष्ठित लोगों मैं मिलना क्‍या ? कोई पूरा चालाक मनुष्य हो तब तो वह द्रव्‍य के भरम और जाहरदारी के बरताव सै द्रव्‍य तक पैदा कर सकता है ! ऐसा मनुष्‍य पहले अपनें द्रव्‍य अथवा योग्‍यता का झूठा प्रपंच फैलाकर लोगों के मन मैं अपना विश्‍वास बैठाता है और विश्‍वास हुए पीछै कमाई की अनेक राह सहज मैं उस्‍के हाथ आ जाती है। लोग उस्‍को अपनें आप धीरनें लगते हैं क़भी, क़भी ऐसे मनुष्‍य अपनी धूर्तता सै सच्‍चे योग्‍य अथवा धनवानों सै बढ़कर काम बना लेते हैं यद्यपि अन्त मैं उन्‍की कलई बहुधा खुल जाती है परन्‍तु साधारण लोग केवल वर्तमान दशा पर दृष्टि रखते हैं। जिस्‍समय जिसकी उन्‍नति देखते हैं उन्‍नति का मूल कारण निश्‍चय किये बिना उस्‍की बड़ाई करनें लगते हैं उस्‍के सब काम बुद्धिमानी के समझते हैं इसी तरह जब किसी की प्रगट मैं अवनति दिखाई देती है तो वह उस्‍की मूर्खता समझते हैं और उस्‍के गुणों मैं भी दोषारोप करनें लगते हैं ? सस्‍समय उन्‍को भूलहीं भूल दृष्टि आती है सो आप प्रत्‍यक्ष देख लीजिये कि जब तक सर्व साधारण को प्रगट मैं आप की उन्‍नति का रूप दिखाई देता था। आपका द्रव्‍य, आपका वैभव, आपका यश, आपकी उदारता, आपका सीधापन, आपकी मिलन सारी, देखकर वह आपका आचरण अच्‍छा समझते थे आपकी बुद्धिमानीकी प्रशंसा करते थे आपसै प्रीति रखते थे। जब आपको यह झटका लगा प्रगट मैं आपकी अवनति का सामान दिखाई देनें लगा झट उस्‍की राह बदल गई आपके बड़प्‍पन के बदले उनके मन मैं धिक्‍कार उत्‍पन्न हुआ। आपकी अतिव्‍ययशीलता, अदूरदृष्टि, अप्रबंध, और आत्‍मसुखपरायणता आदि दोष उस्‍को दिखाई देनें लगे। आपके बनें रहनें पर उन लोगों को आप सै जो, जो आशाएँ थीं और उन आशाओं के कारण आपसै स्‍वार्थपरता की जितनी प्रीति थी वह उन आशाओं के नष्ट होते ही सहसा छाया के समान उन्‍के ह्रदयसै जाती रही बल्कि आशा भंग होनें का एक प्रकार खेद हुआ फ़िर जब साधारण लोगों का यह अभिप्राय हो, मुन्‍शी चुन्‍नीलाल, शिंभूदयाल आदि आपको यों अकेला छोड़कर चले जायं तब आपके छोटे नौकर निडर होकर आपके माल की लूट मचानें लगें जो चीज जिस्‍के पास हो वह उसका मालिक बन बैठे इस्‍मैं कौन आश्‍चर्य है ?”

“अच्‍छा ? अब आगे के लिये आप कहैं जैसे करूँ इस्का कुछ प्रबंध तो अवश्‍य होना चाहिये” लाला मदनमोहन नें गिड़गिड़ाकर कहा।

इस्‍पर लाला ब्रजकिशोर घर के सब नौकरों को धमका कर बड़े क्रोध सै कहनें लगे “आज सवेरेसै इस कमरे के भीतर कौन, कौन आया था उन सबके नाम लिखवाओ मैं अभी कोतवाली को रुक्का लिखता हूँ वह सब हवालात मैं भेज दिये जायंगे और उन्‍के मकान की उन्‍के सम्‍बन्धियों समेत तलाशी ली जायगी जिनके घर सै कोई चीज चोरी की निकलेगी या जिनपर और किसी तरह चोरी का अपराध साबित होगा उन्‍को ताजी-रात हिन्‍द की दफै ४०८ के अनुसार सात बरस तक की कैद और जुर्मानें का दण्‍ड भी हो सकेगा।”

“अजी महाराज ! एक मनुष्‍य के अपराध सै सबको दण्‍ड हो यह तो बड़ा अनर्थ है” बहुतसे नौकर गिड़गिड़ाकर कहनें लगे “हम लोग अब तक लाला साहब के यहां बेटा बेटी की तरह पले हैं इस्‍सै अब ऐसी ही मर्जी हो तो हमको मौकूफ कर दीजिये परन्‍तु बदनामी का टीका लगा कर और जगह के कमानें खानें का रस्‍ता तो बंद न कीजिये।”

“हां हां यह तो सफाईसै निकल जानें का अच्‍छा ढंग है परन्‍तु इस्‍तरह तुम्‍हारा पीछा पहीं छुटेगा जो तुम लाला साहब के यहां बेटा बेटी की तरह पले हो तो तुमको इस्‍समय यह बात कहनी चाहिये ? तुम इस्‍समय लाला साहब सै अलग होनें मैं अपना लाभ समझते हो परन्‍तु यह तुम्‍हारी भूल है इस्मैं तुम उल्‍टे फंस जाओगे” लाला ब्रजकिशोर नें सिंह की तरह गर्ज कर कहा।

“अच्‍छा ! हम को साँझ तककी छुट्टी दीजिये हमसै हो सकेगा जहां तक हम घड़ी का पता लगावेंगे” नौकरोंनें जवाब दिया।

“तुम लोग यह बहाना करके अपनें घर सै चोरी का माल दूर किया चाहते हो परन्‍तु मैं घड़ी का पता लगाये बिना तुम को क़भी ढीला नहीं छोडूंगा, मैं अभी कोतवाली को रुक्‍का लिखता हूँ” यह कह कर लाला ब्रजकिशोर सचमुच रुक्‍का लिखनें लगे।

जिन लोगोंनें सवेरे मदनमोहन की बात पर कुछ ध्‍यान नहीं दिया था वही इस्‍समय ब्रजकिशोर की जरा सी धमकी सै मदनमोहन के पांव पकड़ कर रोनें लगे। तुलसी दासजी नें सच कहा है “शूद्र गमार ढोल पशु नारी । सकल ताड़ना के अधिकारी ।।”

“भाई ! इन्‍को सांझ तक अवकाश दे दो। जो तुम अब करना चाहते हो सांझ को कर लेना” लाला मदनमोहन नें पिघल कर अथवा किसी गुप्‍त कारण सै दब कर कहा।

“आप को किसीकी रिआयत हो तो आप निज मैं भले ही उन्‍को कुछ इनाम दे दें परन्‍तु प्रबन्‍ध के कामों मैं इस तरह अपराधियों पर दया करके अपनें हाथ सै प्रबन्‍ध न बिगाड़ें। ये लोग आपका क्‍या कर सक्ते हैं ? मनुस्‍मृति मैं कहा है “दंड विषै संभ्रम भये वर्ण दोष है जाय । मचै उपद्रव देश मैं सब मर्याद नसाय ।।” [13]

सादी कहते हैं “पापिन मांहिं दया है ऐसी । सज्‍जन संग क्रूरता जैसी ।।” [14]

लाला ब्रजकिशोर नें कहा।

“खैर ! कुछ हो आज का दिन तो इन्‍को छोड़ दीजिये” लाला मदनमोहन नें दबा कर कहा।

“बहुत अच्‍छा ! जैसी आपकी मर्जी” ब्रजकिशोर नें रुखाई से जवाब दिया।

“मुझकौ मित्रों की तरफ़ सै सहायता मिलनेंका विश्‍वास है परन्‍तु दैवयोग सै न मिली तो क्‍या इन्‍सालवन्‍ट होनें की दरख्‍वास्‍त देनी पड़ेगी” लाला मदनमोहननें पूछा।

“अभी तो कुछ ज़रूरत नहीं मालूम होती परन्‍तु ऐसा बिचार किया भी जाय तो आपके लेन देन और माल अस्‍बाब का कागज कहां तैयार है ?” लाला ब्रजकिशोर नें जवाब दिया और कचहरी जानें के लिये मदनमोहन सै रुख्सत होकर रवानें हुए।

प्रकरण-३६ : धोके की टट्टी

बिपत बराबर सुख नहीं जो थो रे दिन होय

इष्‍ट मित्र बन्‍धू जिते जान परैं सब कोय ।।

लाला ब्रजकिशोर के गये पीछे मदनमोहन की फ़िर वही दशा हो गई। दिन पहाड़ सा मालूम होनें लगा। खास कर डाक की बड़ी तला मली लगरही थी। निदान राम, राम करके डाक का समय हुआ डाक आई। उस्‍मैं दो तीन चिट्ठी और कई अखबार थे।

एक चिट्ठी आगरे के एक जौहरी की आई थी जिस्‍मैं जवाहरात की बिक्री बाबत लाला साहब के रुपे लेनें थे और वह यों भी लाला साहब सै बड़ी मित्रता जताया करता था। उस्‍नें लाला साहब की चिट्ठी के जवाब मैं लिखा था कि “आप की ज़रूरत का हाल मालूम हुआ मैं बड़ी उमंग सै रुपे भेज कर इस्‍समय आपकी सहायता करता परन्‍तु मुझको बड़ा खेद है कि इन दिनों मेरा बहुत रुपया जवाहरात पर लग रहा है इसलिये मैं इस्‍समय कुछ नहीं भेज सक्ता। आपनें मुझकौ पहले सै क्‍यों न लिखा ? अब जिस्‍समय मेरे पास रुपया आवेगा मैं प्रथम आपकी सेवा मैं ज़रूर भेजूंगा। मेरी तरफ़ सै आप भलीभांति विश्‍वास रखना और अपनें चित्त को सर्वथा अधैर्य न होनें देना। परमेश्‍वर कुशल करेगा” यह चिट्ठी उस कपटी नें ऐसी लपेट सै लिखी थी कि अजान आदमी को इस्के पढ़नें सै लाला मदनमोहन के रुपे लेनें का हाल सर्वथा नहीं मालूम होसक्ता था। वह अच्‍छी तरह जान्‍ता था कि लाला मदनमोहनका काम बिगड़ जायगा तो मुझसै रुपे मांगनें वाला कोई न रहैगा इस वास्‍तै उस्‍नें केवल इतनी ही बात पर सन्‍तोष न किया बल्कि वह गुप्‍तरीति सै मदनमोहनके बिगड़नें की चर्चा फैलानें, और उस्‍के बड़े, बड़े लेनदारों को भड़कानें का उपाय करनें लगा। हाय ! हाय ! इस असार संसार मैं कुछ दिन की अनिश्चित आयु के लिये निर्भय होकर लोग कैसे घोर पाप करते हैं ! ! !

दूसरी चिट्ठी मदनमोहन के और एक मित्र (!) की थी। वह हर साल आकर महीनें बीस रोज मदनमोहन के पास रहते थे इसलिये तरह, तरह की सोगात के सिवाय उन्‍की खातिरदारी मैं मदनमोहन के पांच सात सौ रुपे सदैव खर्च हो जाया करते थे। उन्‍नें लिखा था कि “मैंनें बहुत सस्‍ता समझकर इस्‍समय एक गांव साठ हजार रुपे मैं खरीद लिया है। मेरे पास इस्‍समय पचास हजार अन्‍दाज मोजूद हैं इसलिये मुझको महीनें डेढ़ महीनें के वास्‍ते दस हजार रुपे की ज़रूरत होगी। जो आप कृपा करके यह रुपया मुझको साहूकारी ब्‍याजपर दे देंगे तो मैं आपका बहुत उपकार मानूंगा” यह चिट्ठी लाला मदनमोहन की चिट्ठी पहुँचते ही उस्‍नें अगमचेती करके लिख दी थी और मिती एक दिन पहलेकी डाल दी थी कि जिस्‍सै भेद न खुलनें पावै-

मदनमोहन के तीसरे मित्र की चिट्ठी बहुत संक्षेप थी। उस्‍मैं लिखा था कि “आपकी चिट्ठी पहुँची उस्के पढ़नें सै बड़ा खेद हुआ। मैं रुपे का प्रबन्‍ध कर रहा हूँ यदि हो सकेगा तो कुछ दिन मैं आपके पास अवश्‍य भेजूंगा” इस्‍के पास पत्र भेजनें के समय रुपया मोजूद था परन्‍तु इस्‍नें यह पेच रक्‍खा था कि मदनमोहन का काम बना रहैगा तो पीछे सै उस्‍के पास रुपया भेज कर मुफ्तमैं अहसान करेंगे और काम बिगड़ जायगा तो चुप हो रहैंगे अर्थात् उस्‍को रुपे की ज़रूरत होगी तो कुछ न देंगे और ज़रूरत न होगी तो जबरदस्‍ती गले पड़ेंगे !

इन्के पीछै लाला मदनमोहन एक अखबार खोलकर देखनें लगे तो उस्‍मैं एक यह लेख दृष्टि आया :-

“सुसभ्‍यता का फल”

हमारे शहरके एक जवान सुशिक्षित रईसकी पहली उठान देखकर हमको यह आशा होती थी बल्कि हमनें अपनी यह आशा प्रगट भी कर दी थी कि कुछ दिनमैं उस्‍के कामोंसै कोई देशोपकारी बात अवश्‍य दिखाई देगी परन्‍तु खेद है कि हमारी वह आशा बिल्‍कुल नष्‍ट हो गई बल्कि उस्‍के विपरीत भाव प्रतीत होनें लगा। गिन्‍ती के दिनोंमैं तीन चार लाख पर पानी फ़िरगया। बिलायत मैं डरमोडी नामी एक लड़का ऐसा तीक्षण बुद्धि हुआ था कि वह नो वर्ष की अवस्‍था मैं और विद्यार्थियों को ग्रीक और लाटिन भाषाके पाठ पढ़ाता था परन्‍तु आगे चलकर उस्‍का चाल चलन अच्‍छा नहीं रहा। इसी तरह ही यहां प्रारम्‍भ सै परिणाम बिपरीत हुआ। हिनदुस्तानियों का सुधरना केवल दिखानें के लिये है वह अपनी रीति भांति बदलनें मैं सब सुसभ्‍यता समझते हैं परन्‍तु असल मैं अपनें स्‍वभाव और विचारोंके सुधारनें का कुछ उद्योग नहीं करते। बचपन मैं उन्‍की तबियत का कुछ, कुछ लगाव इस तरफ़ को मालूम होता भी तो मदरसा छोड़े पीछे नाम को नहीं दिखाई देता। दरिद्रियों को भोजन वस्‍त्र की फिकर पड़ती है और धनवानों को भोग बिलास सै अवकाश नही मिल्‍ता फ़िर देशोन्‍नति का बिचार कौन करे ? बिद्या और कला की चर्चा कौन फैलाय ? हमको अपनें देश की दीन दशा पर दृष्टि करके किसी धनवान का काम बिगड़ता देखकर बड़ा खेद होता है परन्‍तु देश के हित के लिये तो हम यही चाहते हैं कि इस्‍तरह पर प्रगट मैं नए सुधारे की झलक दिखा कर भीतर सै दीया तले अंधेरा रखनें वालों का भंडा जल्‍दी फूट जाय जिस्‍सै और लोगों की आंखै खुलें और लोग सिंह का चमड़ा ओढ़नें वाले भेड़िये को सिंह न समझैं” इस अखबार के एडीटर को पहलै लाला मदनमोहन सै अच्‍छा फायदा हो चुका था परन्‍तु बहुत दिन बीत जानें सै मानों उस्‍का कुछ असर नहीं रहा। जिस तरह हरेक चीज के पुरानें पड़नें सै उस्‍के बन्‍धन ढ़ीले पड़ते जाते हैं इसी तरह ऐसे स्‍वार्थपर मनुष्‍यों के चित्त मैं किसी के उपकार पर, लेन देन पर, प्रति व्‍यवहार पर, बहुत काल बीत जानें सै मानों उस्‍का असर कुछ नहीं रहता जब उन्‍के प्रयोजन का समय निकल जाता है तब उन्‍की आंखैं सहसा बदल जाती हैं तब वह किसी लायक होते हैं तब उन्के ह्रदय पर स्‍वेच्‍छाचार छा जाता है। जब उन्‍के स्‍वार्थ मैं कुछ हानि होती है तब वह पहले के बड़े से बड़े उपकारों को ताक मैं रख कर बैर लेनें के लिये तैयार हो जाते हैं। सादी नें कहा है “करत खुशामद जो मनुष्य सो कछु दे बहु लेत । एक दिवस पावै न तो दो सै दूषण देत ।।” [15] इस अखबार का एडीटर विद्वान था और विद्या निस्‍सन्‍देह मनुष्‍य की बुद्धि को तीक्ष्‍ण करती है परन्‍तु स्‍वभाव नहीं बदल सक्‍ती, जिस मनुष्य को विद्या होती है पर वह उस्‍पर बरताव नहीं करता वह बिना फल के बृक्ष की तरह निकम्‍मा है।

लाला मदनमोहन इन लिखावटों को देख कर बड़ा आश्‍चर्य करते थे परन्‍तु इस्सै भी अधिक आश्‍चर्य की बात यह थी कि बहुत लोगोंनें कुछ भी जवाब नहीं भेजा। उन्‍मैं कोई, कोई तो ऐसे थे कि बड़ों की लकीर पर फकीर बनें बैठे थे यद्यपि उन्‍के पास कुछ पूंजी नहीं रही थी उन्‍का कार ब्‍योहार थक गया था उन्‍का हाल सब लोग जान्‍ते थे इस्‍सै आगे को भी कोई बुर्द हाथ लगनें की आशा न थी परन्‍तु फ़िर भी वह खर्च घटानें मैं बेइज्‍जती समझते थे। सन्‍तान को पढ़ानें लिखानें की कुछ चिन्‍ता न थी परन्‍तु ब्‍याह शादियोंमैं अब तक उधार लेकर द्रब्य लुटाते थे उन्‍सै इस अवसर पर सहायता की क्‍या आशा थी ? कितनें ही ऐसे थे जिन्‍होंनें केवल अपनें फ़ायदे के लिये धनवानों का सा ठाठ बना रक्‍खा था इस वास्‍तै वह मदनममोहन के मित्र न थे उस्‍के द्रब्यके मित्र थे वह मदनमोहन पर किसी न किसी तरह का छप्‍पर रखनें के लिये उस्‍का आदर सत्‍कार करते थे इसलिये इस अवसर पर वह अपना पर्दा ढ़कनें के हेतु मदनमोहन के बिगाड़नें मैं अधिक उद्योग न करें इसी मैं उन्‍का विशेष अनुग्रह था। इस्‍सै अधिक सहायता मिलनें की उन्‍सै क्‍या आशा हो सकती थी ? कोई, कोई धनवान ऐसे थे जो केवल हाकमों की प्रसन्‍नता के लिये उन्‍की पसन्‍द के कामों मैं अपनी अरुचि होनें पर भी जी खोलकर रुपया दे देते थे परन्‍तु सच्‍ची देशोन्‍नति और उदारता के नाम फूटी कौड़ी नहीं खर्ची जाती थी वह केवल हाकमों सै मेल रखनें मैं अपनी प्रतिष्‍ठा समझते थे परन्‍तु स्‍वदेशियों के हानि लाभ का उन्‍हें कुछ बिचार न था, केवल हाकमों मैं आनें जानें वाले रईसों से मेल रखते थे और हाकमों की हां मैं हां मिलाया करते थे इस वास्‍ते साधारण लोगों की दृष्टि मैं उन्‍का कुछ महत्‍व न था। हाकमों मैं आनें जानें के हेतु मदनमोहन की उन्‍सै जान पहचान हो गई थी परन्‍तु वह मदनमोहन का काम बिगड़नें सै प्रसन्‍न थे क्‍योंकि वह मदनमोहन की जगह कमेटी इत्‍यादि मैं अपना नाम लिखाया चाहते थे इस वास्‍तै वह इस अवसर पर हाकमों सै मदनमोहन के हक़ मैं कुछ उलट पुलट न जड़ते यही उनकी बड़ी कृपा थी इस्‍सै बढ़ कर उन्‍की तरफ़ सै और क्‍या सहायता हो सक्ती थी ? कोई, कोई मनुष्‍य ऐसे भी थे जो उन्‍की रकम मैं कुछ जोखों न हो तो वह मदनमोहन को सहारा देनें के लिये तैयार थे परन्‍तु अपनें ऊपर जोखों उठाकर इस डूबती नाव का सहारा लगानें वाला कोई न था। विष्‍णु पुराण के इस वाक्‍य सै उन्‍के सब लक्षण मिल्‍ते थे “जाचत हूँ निज मित्र हित करैं न स्‍वारथ हानि । दस कौड़ी हू की कसर खायं न दुखिया जानि ।” [16]

निदान लाला मदनमोहन आज की डाक देखे पीछे बाहर के मित्रों की सहायता सै कुछ, कुछ निराश होकर शहर के बाकी मित्रों का माजना देखनें के लिये सवार हुए।

प्रकरण-३७ : बिपत्तमैं धैर्य

प्रिय बियोग को मूढ़जन गिन‍त गड़ी हिय भालि ।।

ताही कों निकरी गिनत धीरपुरुष गुणशालि ।।[17]

लाला ब्रजकिशोर नें अदालत मैं पहुँचकर हरकिशोर के मुकद्दमे मैं बहुत अच्‍छी तरह बिबाद किया। निहालचंद आदि के छोटे, छोटे मामलों मैं राजीनामा होगया। जब ब्रजकिशोर को अदालत के काम सै अवकाश मिला तो वह वहां सै सीधे मिस्‍टर ब्राइट के पास चले गए।

हरकिशोर नें इस अवकाश को बहुत अच्‍छा समझा तत्‍काल अदालत मैं दरख्‍वास्‍त की कि “लाला मदनमोहन अपनें बाल-बच्‍चों को पहलै मेरठ भेज चुके हैं उन्‍के सब माल अस्‍बाब पर मिस्‍टर ब्राइट की कुर्की हो रही है और अब वह आप भी रूपोश (अन्तर्धान) हुआ चाहते हैं। मैं चाहता हूँ कि उन्‍के नाम गिरफ्तारी या वारन्‍ट जारी हो।” इस बात पर अदालत मैं बड़ा विवाद हुआ, जवाब दिही के वास्‍तै लाला ब्रजकिशोर बुलाये गए परन्‍तु उन्‍का कहीं पता न लगा। हरकिशोर के वकील नें कहा कि लाला ब्रजकिशोर झूंट बोलनें के भय सै जान बूझकर टल गए हैं। निदान हरकिशोर के हलफ़ी इजहार (अर्थात् शपथ पूर्वक वर्णन करनें) पर हाकीम को बिबस होकर वारन्ट जारी करनें का हुक्‍म देना पड़ा। हरकिशोर नें अपनी युक्ति सै तत्‍काल वारन्‍ट जारी करा लिया और आप उस्‍की तामील करनें के लिये उस्‍के साथ गया। मदनमोहन सै जिन लोगों का मेल था उस्‍मैं सै कोई, कोई मदनमोहन को खबर करनें के लिये दौड़े परन्‍तु मंद भाग्‍य सै मदनमोहन घर न मिले।

हां मदनमोहन की स्‍त्री अभी मेरठ सै आई थी वह यह खबर सुन्‍कर घबरा गई उस्‍नें चारों तरफ़ को आदमी दौड़ा दिये। मेरठ मैं मदनमोहन के बिगड़नें की खबर कल से फैल रही थी परन्‍तु उस्‍के दु:ख का बिचार करके उस्‍के आगे यह बात करनें का किसी को साहस न हुआ। आज सबेरे अनायास यह बात उस्‍के कान पड़ गई बस इस बात को सुन्‍ते ही वह मच्‍छी की तरह तड़पनें लगी, रेलके समय मैं दो घन्टे की देर थी यह उसै दो जुग सै अधिक बीते। उस्‍के घरके बहुत कुछ धैर्य देते थे परन्‍तु उसै किसी तरह कल नहीं पड़ती थी। जब वह दिल्‍ली पहुँची तो उस्‍नें अपनें घर का और ही रंग देखा। न लोगों की भीड़, न हँसी दिल्‍लगी की बातें, सब मकान सूना पड़ा था और उस्‍मैं पांव रखते ही डर लगता था। जिस्‍पर विशेष यह हुआ कि आते ही भयंकर खबर सुनी। जब सै उस्‍नें यह खबर सुनी उस्‍के आंसू पल भर नहीं बन्‍द हुए वह अपनें पतिके लिये प्रसन्‍नतासे अपना प्राण देनें को तैयार थी।

इधर लाला मदनमोहन आपनें स्‍वार्थपर मित्रों से नए, नए बहानों की बातें सुन्‍ते फ़िरते थे इतनें मैं एकाएक कान्‍सटेबल नें कोचमैंन को पुकार कर बग्‍गी खड़ी कराई और नाजिर नें पास पहुँचतेही सलाम करके वारन्‍ट दिखाया, लाला मदनमोहन उस्‍को देखते ही सफेद होगए, सिर झुका लिया, चेहरे पर हवाइयां उड़नें लगी, मुखसै एक अक्षर न निकला। हरकिशोर नें एक खखार मारी परन्‍तु मदनमोहन की आंख उस्‍के सामनें न हुई। निदान मदनमोहन नें नाजिर को संकेत मैं अपनी पराधीन्ता दिखाई इस्‍पर सब लोग कचहरी को चले।

मदनमोहन अदालत मैं हाकम के सामनें खड़े हुए। उस्‍समय लाजसै उन्‍की आंख ऊँची नहीं होती थी। हाकम को इस बात का अत्‍यन्‍त खेद था परन्‍तु वह कानून सै परबस थे।

“हमको आपकी दशा देखकर अत्‍यन्‍त खेद है और इस हुक्‍म के जारी करनें का बोझ हमारे सिर आपड़ा इस्‍सै हमको और भी दु:ख होता है परन्‍तु हमारे आपके निज के सम्‍बन्‍ध को हम अदालत के काम मैं शामिल नहीं कर सक्ते। ताजकी वफ़ादारी, ईमानदारी, मुल्‍क का इन्‍तजाम सब लोगों की हरक़सी, और हरेक आदमीके फ़ायदे के लिये इन्साफ़ करना बहुत जरूरी है” हाकम नें कहा “आपसे सीधे सादे आदमियों को अपनें भोलेपन सै इतनी तक्लीफ उठानी पड़े यह बड़े खेद की बात है और मेरा जी यह चाहता है कि मुझसै हो सके तो मैं अपनें निज सै आपके कर्ज का इन्‍तजाम करके आपको छोड़ दूं परन्‍तु यह बात मेरे बूते सै बाहर है। क्या आपके कोई ऐसे दोस्त नहीं हैं जो इस्समय आपकी सहायता करैं ? या आप इन्‍सालवन्‍सी वगैरे की दरख्‍वास्‍त रखते हैं।”

लाला मदनमोहन के मुख सै कुछ अक्षर न निकले इस वास्‍तै थोड़ी देर पीछे हारकर उन्‍को हवालात मैं भेजना पड़ा।

इतनें मैं लाला ब्रजकिशोर आ गए। उन्‍का स्‍वभाव बड़ा गंभीर था परन्‍तु बिना बादल के इस बिजली गिरनें सै तो वह भी सहम गए। उन्‍को इतनें तूल हो जानें का स्‍वप्‍न मैं भी खयाल न था इस लिये वह थोड़ी देर कुछ न समझ सके। वह क़भी इन्‍सालवन्‍सी का बिचार करते थे। क़भी हरकिशोर की डिक्री का रुपया दाखिल करके मदनमोहन को तत्‍काल छुड़ा लिया चाहते थे। परन्‍तु इन बातों से उनके और प्रबन्‍ध मैं अन्‍तर आता था इसलिये इन्‍मैं सै कोई बात उस्‍समय न कर सके। वह समझे कि “ईश्‍वर की कोई बात युक्ति शून्‍य नहीं होती कदाचित् इसी मैं कुछ हित समझा हो। ईश्‍वर की अपार महिमा है। सेआक्‍सनी का हेनरी नामी अमीर बड़ा दुष्‍ट, क्रूर और अन्‍याई था। उस्‍के स्‍वेच्‍छाचारसै सब प्रजा त्राहि, त्राहि कर रही थी इसलिये उस्‍को भी प्रजासै बड़ा भय रहता था। एकबार वह कुछ दुष्‍कर्म करके निद्राबस हुआ उस्‍समय उस्‍नें यह स्‍वप्‍न देखा कि वहां का ग्राम्‍य देवता उस्‍की और कुछ क्रोध और दया की दृष्टि सै देख रहा है और यह कह रहा है कि “ले अधम पुरुष ! तेरे लिये यह आज्ञा हुई है” यह कहक़र उस ग्राम देवतानें लिपटा हुआ कागज हेनरी की तरफ़ फेंक दिया और अन्‍तर्धान हो गया। हेनरीनें कागज खोलकर देखा तो उस्‍मैं ये शब्‍द लिखे थे कि “छ:के पश्‍चात्” हेनरी नें जगकर निश्‍चय समझा कि मैं छ:पहर, छ:दिन, छ:अठवाड़े, छ:मास या छ:वर्ष मैं अवश्‍य मर जाऊंगा इस्‍सै हेनरी को अपनें दुष्‍कर्मों का बड़ा पछतावा हुआ और छ: महीनें तक मृत्‍यु भय सै अत्‍यन्‍त व्‍याकुल रहा परन्‍तु मृत्‍यु की अवधि छठे वर्ष समझ कर समाधानीसै सत्‍कर्म करनें लगा। अपनें कुकर्मों के लिये सच्‍चे मनसै ईश्‍वर की क्षमा चाही और उस्‍सै पीछे केवल सत्‍कर्म करके प्रजा की प्रीति प्रतिदिन बढ़ता गया। उस्‍की पहली चालसै वह कड़ुवा फल उस्‍को मिला था कि जिस्‍सै बेचैन होकर वह गुमराह हो जाता था उस्‍के बदले इस्‍समय के आनन्‍द के मिठाससै उस्सका चित्त प्रफुल्लित रहनें लगा और जैसे, जैसे वह पहले के कड़ु आपनसै इस्‍समय के मिठास का मुकाबला करता गया वैसे वैसे उस्‍का आनन्‍द विशेष बढ़ता गया। उस्‍के चित्त मैं कोई बात छिपानेंके लायक नहीं रही इस्‍सै उस्‍के मन पर किसी तरह का बोझ न मालूम होता था। लोगों के जी मैं उस्‍का विश्‍वास एक साथ बढ़ गया बड़े-बड़े राजा उस्‍को अपना मध्‍यस्‍थ करनें लगे और छ: वर्ष पीछे जब वो अपनें मरनें की घड़ी समझता था ईश्‍वर की कृपा सै उसी स्‍वप्‍न के कारण वह जर्मनी का राज करनें के सबसै योग्‍य पुरुष समझा जाकर राज सिंहासनपर बैठाया गया ! ! !” इस लिये अब यह सूरत हो चुकी है तो लाला मदनमोहन के चित्त पर इस्‍का पूरा असर हो जाना चाहिये क्‍योंकि जो बात सौ बार समझानें सै समझमें नहीं आती वह एक बार की परीक्षा सै भली भांति मनमैं बैठ जाती है और इसीवास्‍तै लोग “परीक्षा (को) ‘गुरु’ मान्‍ते हैं” बस इतनी बात समझमें आते ही लाला ब्रजकिशोर मदनमोहन को धैर्य देनें के लिये उस्‍के पास हवालात में गए। उस्‍का मुंह उतर गया था। आँसू डबडबा रहे थे, लज्‍जा के मारे आंख ऊँची नहीं होती थी।

“आप इतनें अधीर न हों इस बिना बिचारी आफत आनेंसै मुझको भी बहुत खेद हुआ परन्‍तु अब गई बीतीं बातोंके याद करनें सै कुछ फायदा नहीं मालूम होता है कि लाला ब्रजकिशोर कहनें लगे “हर बात के बन्‍ते बिगड़ते रहनें सै मालूम होता है कि सर्व शक्तिमान परमेश्‍वर की इच्‍छा संसार का नकशा एकसा बनाये रखनें की नहीं है। देवताओं को भी दैत्‍योंसै दु:ख उठाना पड़ता है, सूर्य चन्‍द्रमा को भी ग्रहण लगता है, महाराज रामचन्‍द्रजी और राजा नल, राजा हरिश्‍चन्‍द्र राजा युधिष्ठिर आदि बड़े बड़े प्रतापियों को भी हद्दसै बढ़कर दु:ख झेलनें पड़े हैं अभी तीन सौ साढ़े तीन सौ वर्ष पहलै दिल्‍ली के बादशाह जलालुद्दीन बाबर और हुमायूं नें कैसी, कैसी तक्‍लीफें उठाई थीं। क़भी वह हिन्‍दुस्‍थान के बादशाह हो जाते थे क़भी उन्‍के पास पानी पीनें तकको लोटा नहीं रहता था और वलायतों मैं देखो। फ्रांस का सुयोग्‍य बादशाह चोथा हेनरी एक बार भूखों मरनें लगा तब उस्‍नें एक पादरी सै गवैयों मैं नौकर रखनें की प्राथर्ना की परन्‍तु उस्‍के मन्‍द भाग्‍य सै वह भी नामंजूर हुई। फ़्रांसके सातवें लूईनें एक अपना बूट गांठनें के लिये एक चमार को दिया तब उस्‍की गठवाईके पैसे उस्‍की जेबमैं न निकले इस्‍सै उसै लाचार होकर वह बूट चमारके पास छोड़ देना पड़ा। अरस्‍ततालीस नें लोगों के जुल्‍मसै विष पीकर अपनें प्राण दिये थे और और अनेक विद्वान बुद्धिमान राजाओं को काल चक्र की कठिनाई सै अनेक प्रकार का असह्य क्‍लेश झेल, झेल कर यह असार संसार छोड़ना पड़ा है इसलिये इस दु:ख सागर मैं जो दु:ख न भोगना पड़े उसी का आश्‍चर्य है।जब अपनें जीनें का पलभर का भरोसा नहीं तो फ़िर कौन्‍सी बात का हर्ष बिषाद किया जाय। यदि संसार मैं कोई बात बिचार करनें के लायक है तो यह है कि हमारी इतनी आयु वृथा नष्‍ट हुई इस्‍मैं हमनें कौन्‍सा शुभ कार्य किया ? परन्‍तु इस विषय मैं भी कोरे पछतावे के निस्‍बत आगे के लिये समझ कर चलना अच्‍छा है क्‍योंकि समय निकला जाता है। तुलसी दास जी विनय पत्रिका मैं लिखते हैं “लाभ कहा मानुष तन पाये । काय बचन मन सपनें हुँ कबहुंक घटत न काज पराये । जो सुख सुर पुर नरक गेह बन आवत बिनिहिं बुलाये । तिह सुख कहुँ बहु यत्‍न करत मन समुझत नहीं समुझाये । परदारा पर द्रोह मोहबस किये मूढ़ मन भाये । गर्भ बास दुखरासि जातना तीब्र बिपति बिसराये । भय निद्रा मैथुन अहार सबके समान जग जाये । सुरदुर्लभ तन धरिन भजे हरि मद अभिमान गंवाये । गई न निज पर बुद्धि शुद्धि ह्वै रहे राम लयलाये । तुलसी दास यह अवसर बीते का पुनके पछताये ?” धर्म का आधार केवल द्रव्‍य पर नहीं है हरेक अवस्‍था मैं मनुष्‍य धर्म कर सक्ता है अलबत्ता पहले उस्‍को अपना स्‍वरूप यथार्थ जान्‍ना चाहिये यदि अपनें मैं भूल रह जायगी तो धर्म अर्धम हो जायगा और व्‍यर्थ दु:ख उठाना पड़ेगा। विपत्तिके समय घबराहटकी बराबर कोई बस्‍तु हानिकारक नहीं होती विपत्ति भंवर के समान हैं जों, जों मनुष्‍य बल करके उस्‍सै निकला चाहता है अधिक फंसता है और थक कर बिबस होता जाता है परन्‍तु धैर्य सै पानी का बहावके साथ सहज मैं बाहर निकल सक्ता है। ऐसे अवसर पर मनुष्‍य को धैर्य सै उपाय सोचना चाहिये और परमादयालु भगवान की कृपा दृष्टि पर पूर्ण विश्‍वास रखना चाहिये उस्‍को सब सामर्थ है”

“यह सब सच है परन्‍तु विपत्ति के समय धैर्य नहीं रहता” लाला मदनमोहन नें आंसू भर कर कहा।

“विपत्तिमनुष्‍य की कसौटी है, नीति शास्‍त्र मैं कहा है ‘दूरहि सों डरपत रहैं निकट गए तें शूर । बिपत पड़े धीरज गहैं सज्‍जन सब गुण पूर।। [18]” लाला ब्रजकिशोर कहनें लगे “महाभारत मैं लिखा है कि राजा बलि देवताओं सै हारकर एक पहाड़ की कन्‍दरा में जा छिपे तब इन्‍द्र नें वहां जाकर अभिमान सै उन्‍को लज्जित करनेंका बिचार किया इस्‍पर बलि शान्तिपूर्वक बोले “तुम इस्‍समय अपना वैभव दिखाकर हमारा अपमान करते हो परन्‍तु इस्‍मैं तुम्‍हारी कुछ भी बड़ाई नहीं है हार हुए के आगे अपनी ठसक दिखानें सै पहली निर्बलता मालूम होती है जो लोग शत्रु को जीतकर उस्‍पर दया करते हैं वही सच्‍चे वीर समझे जाते हैं। जीत और हार किसी के हाथ नहीं है यह दोनों समयाधीन हैं। प्रथम हमारा राज था अब तुम्‍हारा हुआ पाछे किसी और का हो जायगा। दुख सुख सदा अदलते बदलते रहते हैं होनहार को कोई नहीं मेट सक्ता। तुम भूल सै इस वैभव को अपना समझते हो। यह किसी का नहीं है। पृथु, ऐल, मय और भीम आदि बहुत से प्रतापी राजा पृथ्‍वी पर होगए हैं परन्‍तु काल नें किसी कौ न छोड़ा इसी तरह तुम्‍हारा समय आवेगा तब तुम भी न रहोगे। इसलिये मिथ्‍याभिमान न करो। सज्‍जन सुख दुख सै क़भी हषै विषाद नहीं करते। वह सब अवस्‍थाओं मैं परमेश्‍वर का उपकार मानकर सन्‍तोषी रहते हैं++और सब मनुष्‍यों को अपना समय देख कर उपाय करना चाहिए सो यह समय हमारे बल करनें का नहीं है सहन करनें का है इसीसै हम तुम्‍हारे कठोर वचन सहन करते हैं। दु:ख के समय धैर्य रखना बहुत आवश्‍यक है क्‍योंकि अधैर्य होनें सै दु:ख घटता नहीं बल्कि बढ़ता जाता है इसलिये हम चिन्‍ता और उद्वेग को अपनें पास नहीं आनें देते।” ऐसे अवसर पर मनुष्‍य के मन को स्थिर रखनें के लिये ईश्‍वर नें कृपा करके आशा उत्‍पन्‍न की है और इसी आशा सै संसार के सब काम चल्‍ते हैं इसलिये आप निराश न हों परमेश्‍वर पर विश्‍वास रखकर इस दु:ख की निवृत्ति का उपाय सोचें, यह विपत्ति आप पर किस तरह एकाएक आ पड़ी इस्‍का कारण ढ़ूंड़े ईश्‍वर शीघ्र कोई सुगम मार्ग दिखावेगा”।

“मुझको तो इस्‍समय कोई राह नहीं दिखाई देती। तुम्‍हें अच्‍छा लगे सो करो” लाला मदनमोहन नें जवाब दिया।

इतनें मैं लाला ब्रजकिशोर सै आकर एक चपरासी नें आकर कहा कि “आपको कोई बाहर बुलाता है।” इस्‍पर वह बाहर चले गए,

प्रकरण-३८ : सच्‍ची प्रीति

धीरज धर्म्‍म मित्र अरु नारी

आपतिकाल परखिये चारी

तुलसीकृत

लाला ब्रजकिशोर बाहर पहुँचे तो उन्‍को कचहरी सै कुछ दूर भीड़ भाड़सै अलग वृक्षों की छाया मैं एक सेजगाड़ी दिखाई दी। चपरासी उन्‍हें वहां लिवा ले गया तो उस्‍मैं मदनमोहन की स्‍त्री बच्‍चों समेत मालूम हुई। लाला मदनमोहन की गिरफ्तारी का हाल सुन्ते ही वह बिचारी घबराकर यहां दौड़ आई थी उस्‍की आंखों सै आंसू नहीं थमते थे और उस्‍को रोती देखकर उस्‍के छोटे, छोटे बच्‍चे भी रो रहे थे। ब्रजकिशोर उन्की यह दशा देख कर आप रोनें लगे। दोनों बच्‍चे ब्रजकिशोर के गले से लिपट गए और मदनमोहन की स्‍त्रीनें अपना और अपनें बच्‍चों का गहना ब्रजकिशोर के पास भेजकर यह कहला भेजा कि “आपके आगे उन्‍की यह दशा हो इस्‍सै अधिक दु:ख और क्‍या है ? खैर ! अब यह गहना लीजिये और जितनी जल्‍दी होसके उन्‍को हवालात सै छुड़ानें का उपाय करिये।”

“वह समझदार होकर अनसमझ क्‍यों बन्‍ती हैं ? इस घबराहट सै क्‍या लाभ है ? वह मेरठ गईं जब उन्‍‍होंनें आप कहवाया था कि ऐसी सूरत मैं इन अज्ञान बालकों की क्‍या दशा होगी ? फ़िर वह आप इस बात को कैसे भूली जाती हैं ? उन्‍को अपनें लिये नहीं तो इन छोटे, छोटे बच्‍चों के लिये हिम्‍मत रखनी चाहिये” लाला ब्रजकिशोर कहनें लगे “इंग्लेंड के बादशाह पहले जेम्‍स की बेटी इलेक्‍टर पेलेटीन के साथ ब्‍याही थी उस्‍नें अपनें पति को बोहोमिया का बादशाह बनानें की उमंग मैं इन्‍की तरह अपना सब जेवर खो दिया इस्‍सै अन्‍त मैं उस्‍को अपनें निर्वाहके लिये भेष बदलकर भीख मांगनी पड़ी थी।”

“अपनें पति के लिये भीख मांगनी पड़ी तो क्‍या चिन्‍ता हुई ? स्‍त्री को पति सै अधिक संसार मैं और कौन है ? जगत माता जानकीजीनें राज सुख छोड़कर पति के संग बनमैं रहना बहुत अच्‍छा समझा था और यह वाक्‍य कहा था “देत पिता परिमित सदा परिमित सुत और भ्रात । देत अमित पति तासुपद नहीं पूजहिं किहिं भांति ? [19]” सती शिरोमणि सावित्रीनें पतिके प्राण वियोग पर भी वियोग नहीं सहा था। मनुस्‍मृति मैं लिखा है “शील रहित पर नारि रत होय सकल गुण हानि । तदपि नारि पूजै पति हि देव सदृश जिय जानि ।। [20]

नारिन को ब्रत यज्ञतप और न कछु जगमाहिं । केवल पति पद पूज नित सहज स्‍वर्ग मैं जाहिं ।। [21]” पति के लिये गहना क्‍या ? प्राण तक देनें पड़ें तो मैं बहुत प्रसन्‍न हूँ। हाय ! वह कैद रहैं और मैं गहनें का लालच करूँ ? वह दु:ख सहें और मैं चैन करूँ ? हम लोगों की जबान नहीं है इस्‍सै क्‍या हमारे हृदय की प्रीति शून्‍य है क्‍या कहूँ ? इस्‍समय मेरे चित्त को जो दु:ख है वह मैं जान्‍ती हूँ। हे धरती माता ! तू क्‍यों नहीं फटती जो मैं अभागी उस्‍मैं समा जाऊँ ?” लाला मदनमोहन की स्‍त्री गद्गद स्‍वर और रुके हुए कंठ सै भीतर बैठी हुई बहुत धीरे, धीरे बोली ! “भाई ! मैं तुमसै आज तक नहीं बोली थी परन्‍तु इस्‍समय दु:ख की मारी बोल्ती हूँ सो मेरी ढिठाई क्षमा करना। मुझसै यह दु:ख नहीं सहा जाता मेरी छाती फटती है। मुझको इस्‍समय कुछ नहीं सूझता जो तुम अपनी बहन के और इन छोटे, छोटे बच्‍चों के प्राण बचाया चाहते हो तो यह गहना लो और हो सके जैसे इसी समय उन्‍को छुड़ा लाओ नहीं तो केवल मैं ही नहीं मरूंगी मेरे पीछे ये छोटे, छोटे बालक भी झुर, झुर कर-”

“बहन ! क्‍या इस्‍समय तुम बावली हो गई हो। तुम्हैं अपनें हानि लाभका कुछ भी बिचार नहीं है ?” लाला ब्रजकिशोर बाहर सै समझानें लगे “देखो शकुन्‍तला भी पतिव्रता थी परन्‍तु जब उस्‍के पतिनें उस्‍को झूंठा कलंक लगाकर परित्‍याग करनें का बिचार किया तब उसे भी क्रोध आए बिना नहीं रहा। क्‍या तुम उस्‍सै बढ़कर हो जो अपनें छोटे, छोटे बच्‍चों के दु:ख का कुछ बिचार नहीं करतीं ? थोड़ी देर धैर्य रक्‍खो धीरे, धीरे सब, हो जायगा”

“भाई ! धैर्य तो पहलैही विदा हो चुका अब मैं क्‍या करूं ? तुम बार, बार बाल बच्‍चों की याद दिवाते हो परन्‍तु मेरे जान पति सै अधिक स्‍त्री के लिये कोई भी नहीं है” मदनमोहन की स्‍त्री लजा कर भीतर सैं कहनें लगी “पति से विवाद करना तो बहुत बात है परन्‍तु शकुन्‍तलाके मन मैं दुष्‍यन्‍त की अत्‍यन्‍त प्रीति हुए पीछे शकुन्‍तला को दुष्‍यन्‍तके दोष कैसे दिखाई दिये यही बात मेरी समझ मैं नहीं आती। फ़िर मैं शकुन्‍तला की अधिक नकल कैसे करूं ? मैं बड़ी अधीन्‍ता सै कहती हूँ कि ऐसे मर्मवेधी बचन कहक़र मेरे हृदय को अधिक घायल मत करो और यह सब गहना ले जाकर होसके जितनी जल्‍दी इस डूबती नावको बचानें का उपाय करो। मुझको तुम्‍हारे सामनें इस विषयमें बात करते अत्‍यन्‍त लज्‍जा आती है हाय ! यह पापी प्राण अब भी क्‍यों नहीं निकलते इस्‍सै अधिक और क्‍या दु:ख होगा ?” यह बात सुन्‍ते ही ब्रजकिशोर की आंखों से आंसू टपकनें लगे थोड़ी देर कुछ नहीं बोला गया उस्‍को उस्समय नारमण्‍डी के अमीरजादे रोबर्टकी स्‍त्री समबिल्‍ला की सच्‍ची प्रीति याद आई। रोबर्ट के शरीर मैं एक जहरी तीर लगनेंसै ऐसा घाव हो गया था कि डाक्‍टरोंके बिचार मैं जबतक कोई मनुष्य उस्का जहर न चूसे रोबर्ट के प्राण बचनें की आशा न थी और जहर चूसनें सै चूसनें वाले का प्राण भय था। रोबर्टनें अपनी प्राण रक्षाके लिये एक मनुष्‍य के प्राण लेनें सर्वथा अंगीकार न किये परन्‍तु उसकी पतिव्रता स्‍त्रीनें उस्‍के सोतेमैं उस्के घाव का विष चूसकर उस्‍पर अपनें प्राण न्‍योछावर कर दिये।

“बहन ! मैं तुम्‍हारे लिये तुम सै कुछ नहीं कहता परन्‍तु तुम्‍हारे छोटे, छोटे बालकोंको देखकर मेरा हृदय अकुलाता है तुम थोड़ी देर धैर्य धरो ईश्‍वर सब मंगल करेगा” लाला ब्रजकिशोरनें जैसे तैसे हिम्‍मत बांधकर कहा।

“भाई ! तुम कहते हो सो मैं भी समझती हूँ यह बालक मेरी आत्‍मा हैं और विपत्त मैं धैर्य धरना भी अच्‍छा है परन्‍तु क्‍या करूं ? मेरा बस नहीं चल्‍ता। देखो तुम ऐसे कठोर मत बनो” मदनमोहनकी स्‍त्री विलाप कर कहनें लगी महाभारत मैं लिखा है कि जिस्‍समय एक कपोतनें अतिथि सत्‍कारके बिचार सै एक बधिक के लिये प्रसन्‍नतापूर्वक अपनें प्राण दिये तब उस्‍की कपोती बिलाप कर कहनें लगी हा ! नाथ ! हमनें क़भी आपका अमंगल नहीं बिचारा। संतानके होनें पर भी स्‍त्री पति बिना सदा दु:ख सागर मैं डूबी रहती है भाई बंधु भी उस्‍को देखकर शोक करते हैं। आप के साथ मैं सब दशाओं मैं प्रसन्‍न थी। पर्बत, गुफा, नदी, झर्ना, वृक्ष और आकाश मैं मुझको आपके साथ अत्‍यन्‍त सुख मिल्‍ता था परन्‍तु वह सुख आज कहां है ? पति ही स्‍त्री का जीवन है पति बिना स्‍त्री को जीकर क्‍या करना है” यह कहक़र वह कपोती आग मैं कूद पड़ी। फ़िर क्या मैं एक पक्षी सै भी गई बीती हूँ ? तुमसै हो सके तो सौ काम छोड़कर पहलै इस्‍का उपाय करो न हो सके तो स्‍पष्‍ट उत्तर दो। मुझ स्‍त्री की जातिसै जो उपाय हो सकेगा सो मैं ही करूंगी। हाय ! यह क्‍या गजब है ! क्‍या अभागों को मौत भी नहीं मिलती !”

“अच्‍छा ! बहन ! तुमको ऐसा ही आग्रह है तो तुम घर जाओ मैं अभी जाकर उन्‍कौ छुड़ानैं का उपाय करता हूँ” लाला ब्रजकिशोर नें कहा।

“न जानें कैसी घड़ीमैं मैं मेरठ गई थी कि पीछेसै यह गजब हुआ। जिस्‍समय मेरे पास रहनें की आवश्‍यकता थी उसी समय मैं अभागी दूर जा पड़ी ! इस दु:ख सै मेरा कलेजा फटता है मुझको तुम्‍हारे कहनें पर पूरा विश्‍वास है परन्‍तु एक बार अपनी आंख सै भी उन्हैं देख सक्ती हूँ ?” मदनमोहन की स्‍त्री नें रोकर कहा।

“इस्‍समय तो कचहरी मैं हजारों आदमियों की भीड़ हो रही है। सन्‍ध्‍या को मौका होगा तो देखा जायगा” ब्रजकिशोरनें जवाब दिया।

“तो क्‍या संध्‍या तक भी वह-” मदनमोहन की स्‍त्री के मुख सै पूरा वचन न निकल सका कंठ रुक गया और उस्‍को रोते देखकर उस्‍के बच्‍चे भी रोनें लगे।

निदान बड़ी कठिनाई सै समझाकर ब्रजकिशोरनें मदनमोहन की स्‍त्री को घर भेजा परन्‍तु वह जाती बार जबरदस्‍ती अपना सब गहना ब्रजकिशोर को देती गई और उस्‍के बच्‍चे भी ब्रजकिशोर को छोड़कर घर न आए। जब ब्रजकिशोर के साथ कचहरी मैं गए तब उन्‍‍की दृष्टि एकाएक मदनमोहन पर जा पड़ी और वह उस्‍को वहां देखते ही उस्‍सै जाकर लिपट गए।

“क्‍यों जी ! यह कहां सै आए ?” मदनमोहननें आश्‍चर्य सै पूछा।

“इन्‍की माके साथ ये अभी मेरठ सै आए हैं। वह विचारी आप का यह हाल सुन्कर यहां दौड़ आई थी सो मैंनें उसे बड़ी मुश्किलसै समझा बुझाकर घर भेजा है” ब्रजकिशोरनें जवाब दिया।

“लाला जी घर क्‍यों नहीं चल्‍ते ? यहां क्‍यों बैठे हो ?” एक लड़केनें गले सै लिपट कर कहा।

“मैं तो तुम्‍हारे छंग (संग) आज हवा खानें चलूंगा और अपनें बाग मैं चलकर मच्छियों का तमाछा (तमाशा) देखूंगा” दूसरा लड़का गोदमैं बैठकर कहनें लगा।

“लाला जी तुम बोल्‍ते क्‍यों नहीं ? यहां इकल्लै क्‍यों बैठे हो ? चलो छैल (सैर) करनें चलैं” एक लड़का हाथ पकड़ कर खैचनें लगा।

“जानें चुन्‍नीआल (लाल) कहां हैं ? विन्‍नें (उन्‍होंनें) हमें एक तछवीर (तस्‍वीर) देनी कही थी लालाजी ! तुम उछे (उसे) चोकटे मैं लगवा दोगे ?” दूसरे लड़केनें कहा।

“छैल (सैर) करनें नहीं चल्‍ते तो घर ही चलो, अम्‍मा आज सवेरे सै न जानें क्‍यों रो रही हैं और विन्‍नें आज कुछ भोजन भी नहीं किया” एक लड़का बोला।

“लाला जी तुम बोल्‍ते क्‍यों नहीं ? गुछा (गुस्‍सा) हो ? चलो, घर चलो। हम मेरठ छे (सै) खिलौनें लाए हैं छो (सो) तुम्‍हैं दिखावेंगे” दूसरा ठोडी पकड़ कर कहनें लगा।

“तुम तो दंगा करते हो चलो हमारे साथ चलो हम तुमको बरफी मंगादैंगे यहां लालाजी को कुछ काम है” ब्रजकिशोरनें कहा।

“आं आं हमतो लालाजी के छंग (संग) छैल को जायंगे। बाग मैं मच्छियोंका तमाछा देखेंगे हमको बप्‍फी (बरफ़ी) नहीं चाहिये हम तुम्‍हारे छंग नहीं चल्‍ते” दोनों लड़के मचल गए।

“चलो हम तुम्हैं पीतल की एक, एक मछली खरीद देंगे जो लोहेकी सलाई दिखाते ही तुम्‍हारे पास दौड़ आया करेगी” लाला ब्रजकिशोरनें कहा।

“हम यों नहीं चल्‍ते हम तो लालाजीके छंग चलेंगे।”

“और जबतक लालाजी घर नहीं जायंगे हम भी नहीं जायंगे” कहक़र दोनों लड़के मदनमोहन के गले से लिपट गए और रोनें लगे। उस्‍समय मदनमोहन की आंखों सै आंसू टपक पड़े और ब्रजकिशोर का जी भर आया।

“अच्‍छा ! तो तुम लालाजीके पास खेल्‍ते रहोगे ? मैं जाऊं ?” लाला ब्रजकिशोरनें पूछा।

“हां हां तुम भलेई जाओ, हम अपनें लालाजी के पाछ (पास) खेला करेंगे” एक लड़केनें कहा।

“और भूक लगी तो ?” ब्रजकिशोरनें पूछा।

“यह हमें बप्‍फी मंगा देंगे” छोटा लड़का अंगुली सै मदनमोहन को दिखाकर मुस्करा दिया,

“महाकवि कालिदास नें सच कहा है वे मनुष्‍य धन्‍य हैं जो अपनें पुत्रों को गोद मैं लेकर उन्‍के शरीर की धूल सै अपनी गोद मैली करते हैं और जब पुत्रों के मुख अकारण हंसी सै खुल जाते तो उन्‍के उज्जवल दांतों की शोभा देखकर अपना जन्‍म सफल करते हैं” लाला ब्रजकिशोर बोले और उन लड़कों के पास उन्‍के रखवाले को छोड़कर आप अपनें काम को चले गए।

बच्‍चे थोड़ी देर प्रसन्‍नता सै खैल्‍ते रहे परन्तु उन्‍को भूक लगी तब वह भूक के मारे रोनें लगे पर वहां कुछ खानें को मौजूद न था इसलिये मदनमोहन का जी उस्‍समय बहुत उदास हुआ।

इतनैं मैं सन्‍ध्‍या हुई इस्सै हवालात का दरवाजा बन्‍द करनें के लिये पोलिस आ पहुँची। अबतक उस्‍नें दीवानी हवालात और मदनमोहन ब्रजकिशोर आदि का काम समझ कर विशेष रोक टोक नहीं की थी परन्‍तु अब करनी पड़ी, वह छोटे, छोटे बच्‍चे मदनमोहन के साथ घर जानें की जिद करते थे और जबरदस्‍ती हटानें सै फूटफूटकर रोते थे। लोगोंके हाथों सै छूट, छूट कर मदनमोहन के गले सै जा लिपटेते थे इसलिये इस्‍समय ऐसी करुणा छा रही थी कि सब की आंखों सै टप, टप आंसू टपकनें लगे।

निदान उन बच्‍चों को बड़ी कठिनाई सै रखवाले के साथ घर भेजा गया और हवालात का दरवाजा बन्‍द हुआ।

प्रकरण-३९ : प्रेत भय

पियत रूधिर बेताल बाल निशिचरन सा थि पुनि ।।

करत बमन बि कराल मत्त मन मुदित घोर धुनि ।।

सा द्य मांस कर लि ये भयंकर रूप दिखावत ।।

रु धिरासव मद मत्त पूतना नाचि डरावत ।।

मांस भेद बस बिबस मन जोगन नाच हिं बिबिध गति ।।

बीर जनन की बीरता बहु विध बरणैं मन्‍द मति ।। [22]

रसिकजीवनें।

सन्ध्या का समय है कचहरी के सब लोग अपना काम बन्‍द करके घर को चलते जाते हैं। सूर्य के प्रकाश के साथ लाला मदनमोहनके छूटनें की आशा भी कम हो जाती है। ब्रजकिशोर नें अब तक कुछ उपाय नहीं किया। कचहरी बन्‍द हुए पीछे कल तक कुछ न हो सकेगा। रात को इसी छोटीसी कोठरी मैं अन्धेरे के बीच जमीन पर दुपट्टा बिछा कर सोना पड़ेगा। कहां मित्र मिलापियों के वह जल्‍से ! कहां पानी प्‍यानें के लिये एक खिदमतगार तक पास न हो ! इन बातों के बिचार सै लाला मदनमोहन का व्‍याकुल चित्त अधिक अकुलानें लगा।

इसी बिचार मैं सन्‍ध्‍या हो गई चारों तरफ़ अंधेरा फैल गया। मकान मनुष्‍य शून्‍य होगया। आस पास सब चीजें दिखनी बन्‍द हो गईं।

लाला मदनमोहन के मानसिक बिचारों का प्रगट करना इस्समय अत्‍यन्‍त कठिन है। जब वह अपनें बालकपन सै लेकर इससमय तक के बैभव का बिचार करता है तो उस्‍की आंखों के आगे अन्धेरा आ जाता है ! लाला हरदयाल आदि रंगीले मित्रों की रंगीली बातें, चुन्‍नीलाल शिंभूदयाल आदि की झूंटी प्रीति, रात एक, एक बजे तक गानें नाचनें के जल्‍से, खुशामदियों का आठ पहर घेरे रहना, हर बात पर हां मैं हां, हर बात पर वाह वाह, हर काम में प्राण देनें की तैयारी के साथ अपनी इस्‍समय की दशा का मुकाबला करता है और उन लोगों की इन दिनों की कृतघ्नता पर दृष्टि पहुँचाता है तो मन मैं दुख की हिलोरें उठनें लगती हैं ! संसार केवल धोके की टट्टी मालूम होता है जिन्‍के ऊपर अपनें सब कार्य व्‍यवहार का आधार था, जिन्को बारबार हजारों रुपे का फायदा कराया गया था, जो हर बात मैं पसीनें की जगह खून डालनें को तैयार रहते थे वह सब इस्‍समय कहां हैं ? क्‍या उन्‍मैं सै इस थोड़े से कर्ज को चुकानें के लिये कोई भी आगे नहीं आ सकता ? जिन्‍की झूंटी प्रीति मैं आ कर अपनी पतिब्रता स्‍त्री की प्रीति भूल गया, अपनें छोटे, छोटे बच्‍चों के लालन पालन का कुछ बिचार नहीं किया वह मुफ़्त मैं चैन करनेंवाले इस्‍समय कहां हैं ?

“मेरी इज्‍जत गई, मेरी दौलत गई, मेरा आराम गया, मेरा नाम गया, मैं लज्‍जा सै किसी को मुख नहीं दिखा सक्‍ता, किसी सै बात नहीं कर सक्ता, फ़िर मुझको संसार मैं जीनें सै क्‍या लाभ है ? ईश्‍वर मोत दे तो इस दु:ख सै पीछा छुटे परन्‍तु अभागे मनुष्‍य को मोत क्‍या मांगेसै मिल सकती है ? हाय ! जब मुझको तीस वर्ष की अवस्‍था मैं यह संसार ऐसा भयंकर लगता है तौ साठ वर्ष की अवस्‍था मैं न जानें मेरी क्‍या दशा होगी ?”

“हा ! मोत का समय किसी तरह नहीं मालूम हो सक्ता। सूर्य के उदय अस्‍त का समय सब जान्‍ते हैं, चन्‍द्रमा के घटनें बढ़नें का समय सब जान्‍ते हैं, ऋतुओं के बदलनें का, फूलों के खिलनें का, फलों के पकनें का समय सब जान्‍ते हैं परन्‍तु मोत का समय किसी को नहीं मालूम होता। मोत हर वक्‍त मनुष्‍य के सिर पर सवार रहती है उस्‍के अधिकार करनें का कोई समय नियत नहीं है। कोई जन्‍म लेते ही चल बसता है, कोई हर्ष बिनोद मैं, कोई पढ़नें लिखनें मैं, कोई खानें कमानें मैं, कोई जवानी की उमंग मैं, कोई मित्रों के रस रंग मैं अपनी सब आशाओं को साथ लेकर अचानक चल देता है परन्‍तु फ़िर भी किसी को मोत की याद नहीं रहती कोई परलोक का भय करके अधर्म नहीं छोड़ता ? क्‍या देखत भूली का तमाशा ईश्‍वर नें बना दिया है ?”

लाला मदनमोहन के चित्त मैं मोत का बिचार आते ही भूत प्रेतादि का भय उत्‍पन्‍न हुआ। वह अंधेरी रात, छोटी सी कोठरी, एकान्‍त जगह, चित्त की व्‍याकुलता मैं यह बिचार आते ही सब सुधरे हुए बिचार हवा मैं उड़ गए। छाती धड़कनें लगी, रोमांच हो आए, जी दहला गया और मोत की कल्‍पना शक्ति नें अपना चमत्‍कार दिखाना शुरू किया।

कोई प्रेत उन्‍की कोठरी मैं मोजूद है। उस्‍के चलनें फ़िरनें की आवाज सुनाई देती है बल्कि क़भी, क़भी अपनी लाल, लाल आंखों सै क्रोध करके मदनमोहन को घुरकता है, क़भी अपना भट्टीसा मुंह फैला कर मदनमोहन की तरफ़ दौड़ता है, क़भी गुस्‍सेसै दांत पीसता है, क़भी अपना पहाड़सा शरीर बढ़ाकर बोझसै मदनमोहन को पीस डाला चाहता है, क़भी कानके पर्दे फाड़ डालनें वाले भयंकर स्‍वरसै खिल खिलाकर हंसता है, क़भी नाचता है, क़भी गाता है, क़भी ताली बजाता है, और क़भी जम-दूत की तरह मदनमोहन को उस्‍के कुकर्म्मों के लिये अनेक तरहके दुर्बचन कहता है ! लाला मदनमोहननें पुकारनें का बहुत उपाय किया परन्‍तु उन्‍के मुख सै भयके मारे एक अक्षर न निकल सका वह प्रेत मानों उन्की छातीपर सवार होकर उन्‍का गला घोटनें लगा उस्‍के भयसै मदनमोहन अधमरे होगए उन्‍होंनें हाथ पांव चलानें का बहुत उद्योग किया परन्‍तु कुछ न हो सका। इस्समय लाला मदनमोहन को परमेश्‍वर की याद आई।

जो मदनमोहन परमेश्वर की उपासना करनें वालों को और धर्मकी चर्चा करनें वालों पर नास्तिक भाव सै हंसा करता था और मनुष्‍य देह का फल केवल संसारी सुख बताता था किसी तरह सै छल छिद्र करकै अपना मतलब निकाल लेनें को बुद्धिमानी समझता था वही मदनमोहन इस्‍समय सब तरफ़सै निराश होकर ईश्‍वर की सहायता मांगता है ! हा ! आज इस रंगीले जवान की क्‍या दशा हो गई ! इस्‍का अभिमान कहां जाता रहा ! जब इस्‍का कुछ बस न चल सका तो यह मूर्छित होकर पृथ्‍वी पर गिर पड़ा और कुछ देर यों ही पड़ा रहा।

जब थोड़ी देर पीछे इसै होश आया चित्त का उद्वेग कुछ कम हुआ तो क्‍या देखता है कि उस भयंकर प्रेतके बदले एक स्‍त्री इस्‍का सिर अपनें गोदमैं लिये बैठी हुई धीरे धीरे इस्‍के पांव दबा रही है अन्‍धेरेके कारण मुख नहीं दिखाई देता परन्‍तु उस्‍की आंखोंसै गरम, गरम आंसुओं की बूंदें उस्‍के मुख पर गिर रहीं हैं और इन आंसुओं ही सै मदनमोहन को चेत हुआ है।

इस्‍समय लाला मदनमोहन के व्‍याकुल चित्त को दिलासा मिलनें की बहुत ज़रूरत थी सो यह स्‍त्री उन्हैं दिलासा देनेंके लिये यहां आ पहुँची परन्‍तु मदनमोहन को इस्‍सै कुछ दिलासा न मिला वह इसै देखकर उल्‍टे डरगए।

“प्राणनाथ अब कैसै हो ! आपके चित्तमैं इस्‍समय अत्‍यन्‍त व्‍याकुलता मालूम होती है इसलिये अपनें चित्तका जरा समाधान करो, हिम्‍मत बांधो मैं आपके लिये भोजन लाई हूँ सो कुछ भोजन करके दो घूंट पानी के पिओ जिस्‍सै आपके चित्तका समाधान हो इस छोटीसी कोठरीमैं अन्धेरेके बीच आपको जमीन पर लेटे देखकर मेरा कलेजा फटता है” उस स्‍त्रीनें कहा।

“यह कोन ? वह मेरी पतिव्रता स्‍त्री है जिस्‍नें मुझसै सब तरह का दु:ख पानेंपर भी क़भी मन मैला नहीं किया ? आवाज सै तो वैसी ही मालूम होती है परन्‍तु उस्‍का आना संभव नहीं रातके समय कचहरी के बन्‍द मकान मैं पुलिस की पहरे चोकी के बीच वह बिचारी कैसे आ सकैगी ! मैं जानता हूँ कि मुझको कोई छलावा छलता है” यह कह कर लाला मदनमोहन नें फ़िर आंखैं बन्‍द करलीं।

“मेरे प्राण पतिके लिये यहां क्‍या ? मुझको नर्क मैं भी जाना पड़े तो क्‍या चिन्‍ता है ? सच्‍ची प्रीतिका मार्ग कोई रोक सक्‍ता है ? स्‍त्रीको पति के संग कैद, जंगल, या समुद्रादि मैं जानें सै कुछ भी भय नहीं है परन्‍तु पति के बिना सब संसार सूना है। यदि सुख दु:ख के समय उस्‍की विवाहिता स्‍त्री उस्‍के काम न आवैगी तो और कौन आवैगा ?” उस स्‍त्री नें कहा

लाला मदनमोहन सै थोड़ी देर कुछ नहीं बोला गया न जानें उन्‍के चित्तमैं किसी तरहका भय उत्‍पन्‍न हुआ, अथवा किसी बात के सोच बिचार मैं अपना आपा भूल गए, अथवा लज्‍जा सै कुछ न बोल सके, और लज्‍जा थी तो अपनी मूर्खता सै इस दशा मैं पहुँचनें की थी, अथवा अपनी स्‍त्रीके साथ ऐसे अनुचित व्‍यवहार करनें की थी ? परन्‍तु लाला मदनमोहन के नेंत्रों के आंसू निस्‍सन्‍देह टपकते थे वह उसी स्‍त्री की गोद मैं सिर रख; फूट, फूटकर रो रहे थे।

“मेरे प्राण प्रीतम ! आप उदास न हों जरा हिम्‍मत रक्‍खो जो आप की यह दशा होगी तो हम लोगोंका पता कहां लगेगा ? दु:ख सुख वायु के समान सदा अदलते बदलते रहते हैं इसलिये आप अधैर्य न हों आप के चित्त की स्थिरता पर हम सब का आधार है” उस स्‍त्री नें कहा।

“मुझ सै इस्‍समय तेरे सामनें आंख उठाकर नहीं देखा जाता, एक अक्षर नहीं बोला जाता, मैं अपनी करनी सै अत्‍यन्‍त लज्जित हूँ जिस्‍पर तू अपनी लायकी सै मेरे घायल ह्रदय को क्‍यों अधिक घायल करती है ? मुझको इतना दु:ख उन कृतघ्न मित्रों की शत्रुता सै नहीं होता जितना तेरी लायकी और अधीनता सै होता है। तू मुझको दु:खी करनें के लिये यहां क्‍यों आई ? तैनै मेरे साथ ऐसी प्रीति क्‍यों की ? मैनें तेरे साथ जैसी क्रूरता की थी वैसी ही तैनें मेरे साथ क्‍यों न की। मैं निस्‍सन्‍देह तेरी इस प्रीति के लायक नहीं हूँ फ़िर तू ऐसी प्रीति करके क्‍यों मुझको दु:खी करती है ?” लाला मदनमोहन नें बड़ी कठिनाई सै आंसू रोककर कहा।

“प्‍यारे प्राणनाथ ! मैं आपकी हूँ और अपनी चीज पर उस्‍के स्‍वामी को सब तरह का अधिकार होता है जिस्‍पर आप इतनी कृपा करते हैं यह तो बड़े ही सौभाग्‍य की बात है” वह स्‍त्री मदनमोहन की इतनी सी बात पर न्योछावर होकर बोली। “महाभारत मैं एक कपोती नें एक बधिक के जाल मैं अपनें पतिके फंसे पीछे उस्‍के मुख सै अपनी बड़ाई सुन्‍कर कहा था कि “आहा ! हम मैं कोई गुण हो या न हो जब हमारे पति हम सै प्रसन्‍न होकर हमारी बड़ाई करते हैं तो हमारे बड़ भागिनी होनें मैं क्‍या संदेह है ? जिस स्‍त्री सै पति प्रसन्‍न नहीं रहते वह झुल्‍सी हुई बेलके समान सदा मुर्झाई रहती है।”

“तेरी ये ही तो बातें ह्रदय विदीर्ण करनेंवाली हैं। मुझको क्षमा कर मेरे पिछले अपराधों को भूल जा। मैं जानता हूँ कि मुझसै अबतक जितनी भूलें हुई हैं उन्‍मैं सब सै अधिक भूल तेरे हक़ मैं हुई है। मैं एक हीरा को कंकर समझा, एक बहुमूल्‍य हार को सर्प समझकर मैंनें अपनें पास सै दूर फैंक दिया, मेरी बुद्धिपर अज्ञानता का पर्दा छा गया परन्‍तु अब क्‍या करूं ? अब तो पछतानें के सिवाय मेरे हाथ कुछ भी नहीं है” लाला मदनमोहन आंसू भरकर बोले।

“मुझको तो ऐसी कोई बात नहीं मालूम होती जिस्‍सै मेरे लिये आपको पछताना पड़े। मैं आपकी दासी हूँ फ़िर ऐसे सोच बिचार करनें की क्‍या ज़रूरत है ? और मैं आपकी मर्जी नहीं रख सकी उस्मैं तो उल्‍टी मेरी ही भूल पाई जाती है” उस स्‍त्रीनें रुके कंठ सै कहा।

“सच है सोनें की पहचान कसोटी लगाये बिना नहीं होती परन्‍तु तू यहां इस्‍समय कैसे आ सकी ? किस्‍के साथ आई ? कैसे पहरेवालोंनैं तुझे भीतर आनें दिया ? यह तो समझाकर कह” लाला मदनमोहन नें फ़िर पूछा।

“मैं अपनी गाड़ी मैं अपनी दो टहलनियों के साथ यहां आई हूँ और मुझको मेरे भाई के कारण यहां तक आनें मैं कुछ परिश्रम नहीं हुआ। मैं विशेष कुछ नहीं कह सक्ती वह आप आकर अभी आपसै सब वृत्तान्त कहैंगे” यह कहते, कहते वह स्‍त्री दरवाजे के पास जाकर अन्‍तर्धान होगई ! ! !

प्रकरण-४० : सुधारनें की रीति

कठिन कलाहू आय है करत करत अभ्‍यास ।।

नट ज्‍यों चालतु बरत पर साधे बरस छमास ।।

वृन्‍द

लाला मदनमोहन बड़े आश्‍चर्य मैं थे कि क्‍या भेद है जगजीवनदास यहां इस्समय कहां सै आए ? और आए भी तो उन्‍के कहनें सै पुलिस कैसे मान गई ! क्‍या उन्‍होंनें मुझको हवालात से छुड़ानें के लिये कुछ उपाय किया ? नहीं उपाय करनें का समय अब कहां है ? और आते तो अब तक मुझसै मिले बिना कैसे रह जाते ?

इतनें मैं दूर सै एकाएक प्रकाश दिखाई दिया और लाला ब्रजकिशोर पास आ खड़े हुए।

“हैं ! आप इस्‍समय यहां कहां ! मैंनें तो समझा था कि आप अपनें मकान मैं आराम सै सोते होंगे” लाला मदनमोहन नें कहा।

“यह मेरा मन्‍द भाग्‍य है जो आप ऐसा समझते हैं। क्‍या मुझ को भी आपनें उन्‍हीं लोगों मैं गिन लिया ?” लाला ब्रजकिशोर बोले।

“नहीं, मैं आप को सच्‍चा मित्र समझता हूँ परन्‍तु समय आए बिना फल नहीं होता”

“यदि यह बात आपनें अपनें मन सै कही है तो मेरे लिये भी आप वैसाही धोका खाते हैं जैसा औरोंके लिये खाते थे। मित्र मालूम होता उस्के कामों सै। मालूम होता है फ़िर आपनें मुझको किस्तरह सच्‍चा मित्र समझ लिया ?” लाला ब्रजकिशारे पूछनें लगे। “मैंनें आपके मुकद्दमों मैं पैरवी की जिस्‍के बदले भर पेट महन्‍ताना ले लिया यदि आपके निकट उन्‍के मेरे चाल चलन मैं कुछ अन्‍तर हो तो इतना ही होसक्ता है कि वह कच्‍चे खिलाड़ी थे जरा सी हलचल होते ही भग निकले, मैं अपना फायदा समझ कर अब तक ठैरा रहा”

“जो लोग फायदा उठा कर इस्‍समय मेरा साथ दें उन्‍को भी मैं कुछ बुरा नहीं समझता क्‍योंकि जिन् पर मुझको बड़ा विश्‍वास था वह सब मुझे अधर धार मैं छोड़कर चले गए और ईश्‍वरनें मुझको किसी लायक न रक्‍खा” लाला मदनमोहन रो कर कहनें लगे।

“ईश्‍वर को सर्वथा दोष न दो वह जो कुछ करता है सदा अपनें हितही की बात करता है” लाला ब्रजकिशोर कहनें लगे। श्रीमद्भागवत मैं राजा युधिष्ठिर सै श्रीकृष्‍णचन्द्र नें कहा है “जा नर पर हम हित न करें ताको धन हर लेहिं । धन दुख दुखिया को स्‍वत: सकल बन्धु तज देहिं।।” [23] सो निस्‍सन्‍देह सच है क्‍योंकि उद्योग की माता आवश्‍यकता है इसी तरह अनुभव सै उपदेश मिल्‍ता है सादी नें गुलिस्तां मैं लिखा है कि “एक बादशाह अपनें एक गुलाम को साथ लेकर नाव मैं बैठा। वह गुलाम क़भी नाव मैं नहीं बैठा था इसलिये भय सै रोनें लगा। धैर्य और उपदेशों की बातों सै उस्‍के चित्त का कुछ समाधान न हुआ। निदान बादशाह सै हुक्‍म लेकर एक बुद्धिमान नें (जो उसी नाव मैं बैठा था) उसै पानी मैं डाल दिया और दो, चार गोते खाए पीछै नाव पर ले लिया जिस्‍सै उस्‍के चित्तकी शान्ति हो गई। बादशाह नें पूछा इस्‍मैं क्‍या युक्ति थी ? बुद्धिमान नें जवाब दिया कि पहले यह डूबनें का दु:ख और नाव के सहारे बचनें का सुख नहीं जान्‍ता था। सुख की महिमा वही जान्‍ता है जिस्को दु:ख का अनुभव हो”

“परन्‍तु इस्‍समय इस अनुभव सै क्‍या लाभ होगा। ‘घोड़ा बिना चाबुक वृथा है’ लाला मदनमोहननें निराश होकर कहा।

“नहीं, नहीं ईश्‍वर की कृपा सै क़भी निराश न हो वह कोई बात युक्ति शून्‍य नहीं करता” लाला ब्रजकशोर कहनें लगे “मि। पारनेंलनें लिखा है कि “एक तपस्‍वी जन्‍म सै बन मैं रहक़र ईश्‍वराराधन करता था। एक बार धर्मात्‍माओं को दुखी और पापियों को सुखी देखकर उस्‍के चित्त मैं ईश्‍वर के इन्साफ़ विषै शंका उत्‍पन्‍न हुई और वह इस बात का निर्धार करनें के लिये बस्‍ती की तरफ़ चला। रस्‍ते मैं उस्‍को एक जवान आदमी मिला और यह दोनों साथ, साथ चलनें लगे। सन्‍ध्‍या समय इन्‍को एक ऊँचा महल दिखाई दिया और वहां पहुँचे जब उस्‍के मालिकनें इन दोनों का हद्द सै ज्‍याद: सत्‍कार किया। प्रात:काल जब ये चलनें लगे तो उस जवाननें एक सोनें का प्‍याला चुरा लिया। थोड़ी दूर आगे बढ़े। इतनें मैं घनघोर घटा चढ़ आई और मेह बरसनें लगा इस्‍सै यह दोनों एक पास की झोपड़ी मैं सहारा लेनें गए। उस झोपड़ी का मालिक अत्‍यन्‍त डरपोक और निर्दय था इसलिये उसनें बड़ी कठिनाई सै इन्‍हें थोड़ी देर ठैरनें दिया, अनादर सै सूखी रोटी के थोड़े से टुकड़े खानें को दिये और बरसात कम होते ही चलनें का संकेत किया, चल्‍ती बार उस जबाननें अपनी बगल सै सोनें का प्‍याला निकालकर उसै दे दिया। जिस्‍पर तपस्‍वी को जवान की यह दोनों बातें बड़ी अनुचित मालूम हुईं। खैर आगे बढ़े सन्‍ध्‍या समय एक सद्गृहस्‍थ के यहां पहुँचे जो माध्‍यम भाव सै रहता था और बड़ाई का भी भूखा न था। उस्‍नें इन्‍का भलीभांति सत्‍कार किया और जब ये प्रात:काल चलनें लगे तो इन्‍को मार्ग दिखानें के लिये एक अगुआ इन्‍के साथ कर दिया। पर यह जवान सबकी दृष्टि बचाकर चल्‍ती बार उस सद्गृ‍हस्‍थ के छोटे से बालका का गला घोंट कर उसै मारता गया ! और एक पुल पर पहुँचकर उस अगुए को भी धक्‍का दे नदी मैं डाल दिया ! इन्‍बातों सै अब तो इस तपस्वी के धि:कार और क्रोध की कुछ हद न रही। वह उस्‍को दुर्वचन कहा चाहता था इतनें मैं उस जवान का आकार एकाएक बदल गया उस्के मुखपर सूर्य का सा प्रकाश चमकनें लगा और सब लक्ष्ण देवताओं के से दिखाई दिये। वह बोला “मैं परमेश्‍वर का दूत हूँ और परमेश्‍वर तुम्‍हारी भक्ति सै प्रसन्‍न है इसलिये परमेश्‍वर की आज्ञा सै मैं तुम्‍हारा संशय दूर करनें आया हूँ। जिस काम मैं मनुष्‍य की बुद्धि नहीं पहुँचती उस्‍को वह युक्ति शून्‍य समझनें लगता है परन्‍तु यह उस्‍की केवल मूर्खता है। देखो यह सब काम तुमको उल्‍टे मालूम पड़ते होंगे परन्‍तु इन्हीं सै उस्‍के इन्साफ़ का बिचार करो। जिस मनुष्‍य का प्‍याला मैंनें चुराया वह नामवरी का लालच करके हद्द सै ज्‍याद: अतिथि सत्‍कार करता था और इस रीति सै थोड़े दिन मैं उस्‍के भिखारी हो जानें का भय था इस काम सै उस्‍की वह उमंग कुछ कम होकर मुनासिब हद्द आगई। जिस्‍को मैंनें प्‍याला दिया वह पहले अत्‍यन्‍त कठोर और निठुर था इस फ़ायदे सै उस्को अतिथि सत्कार की रुचि हुई। जिस सद्गृहस्‍थ का पुत्र मैंनें मारा उस्‍को मेरे मारनें का वृत्तान्त न मालूम होगा परन्‍तु वह इन दिनों सन्‍तान की प्रीति मैं फंसकर अपनें और कर्तव्य भूलनें लगा था इस्‍सै उस्‍की बुद्धि ठिकानें आगई। जिस मनुष्‍य को मैंनें अभी उठाकर नदीमैं डाल दिया वह आज रात को अपनें मालिक की चोरी करके उसै नाश किया चाहता था इसलिये परमेश्‍वर के सब कामों पर विश्‍वास रक्‍खो और अपना चित्त सर्वथा निराश न होनें दो।”

“मुझको इस्‍समय इस्‍बात सै अत्‍यन्‍त लज्‍जा आती है कि मैंनें आपके पहले हितकारी उपदेशों को वृथा समझ कर उन्‍पर कुछ ध्‍यान नहीं दिया” लाला मदनमोहननें मनसै पछतावा करके कहा।

“उन सब बातों का खुलासा इतना ही है कि सब पहलू बिचार कर हरेक काम करना चाहिये क्‍योंकि संसार मैं स्‍वार्थपर विशेष दिखाई देते हैं” लाला ब्रजकिशोरनें कहा।

“मैं आपके आगे इस्‍समय सच्‍चे मनसै प्रतिज्ञा करता हूँ कि मैं अब क़भी स्‍वार्थपर मित्रों का मुख नहीं देखूंगा। झूंटी ठसक दिखानें का बिचार न करूंगा, झूंठे पक्षपात को अपनें पास न आनें दूंगा और अपनें सुख के लिये अनुचित मार्ग पर पांव न रखूंगा” लाला मदनमोहननें बड़ी दृढ़ता सै कहा।

“इस्‍समय आप यह बातें निस्सन्देह मनसै कहते हैं परन्‍तु इस तरह प्रतिज्ञा करनें वाले बहुत मनुष्‍य परीक्षाके समय दृढ़ नहीं निकलते मनुष्‍य का जातीय स्‍वभाव (आदत) बड़ा प्रबल है तुलसीदासजीनें भगवान सै यह प्रार्थना की है:-

“मेरो मन हरिजू हठ न तजैं ।। निशदिन नाथ देउं सिख बहुबिध करय सुभाव निजै ।। ज्‍यों युवति अनुभवति प्रसव अति दारूण दुख उपजै ।। व्है अनुकूल बिसारि शूल शठ पुनि खल पतिहि भजै ।। लोलुप भ्रमत गृह पशू ज्‍यों जहं तहं पदत्राण बजैं ।। तदपि अधम बिचरत तेहि मारग कबहुँ न मूढ़लजै ।। हों हायौं कर बिबिध विधि अतिशय प्रबल अजै ।। तुलसिदास बस होइ तबहि जब प्रेरक प्रभु बरजै ।।” आदतकी यह सामर्थ्‍य है कि वह मनुष्‍य की इच्‍छा न होनें पर भी अपनी इच्‍छानुसार काम करा लेती है, धोका दे, देकर मनपर अधिकार कर लेती है, जब जैसी बात करानी मंजूर होती है तब वैसी ही युक्ति बुद्धि को सुझाती है, अपनी घात पाकर बहुत काल पीछे राख मैं छिपीहुई अग्नि के समान सहसा चमक उठती है। मैं गई बीती बातों की याद दिवाकर आपको इस्‍समय दुखित नहीं किया चाहता परन्‍तु आपको याद होगी कि उस्‍समय मेरी ये सब बातें चिकनाई पर बूंद के समान कुछ असर नहीं करती थीं इसी तरह यह समय निकल जायगा तो मैं जान्‍ता हूँ कि यह सब बिचार भी वायु की तरह तत्‍काल पलट जायेंगे। हम लोगों का लखोटिया ज्ञान है वह आग के पास जानें सै पिघल जाता है परन्तु उस्सै अलग होते ही फ़िर कठोर हो जाता है इस दशा मैं जब इस्समय का दुख भूलकर हमारा मन अनुचित सुख भोगनें की इच्‍छा करे तब हमको अपनी प्रतिज्ञा के भय सै वह काम छिपकर करनें पड़ें, और उन्‍को छिपानें के लिये झूंटी ठसक दिखानी पड़े, झूंटी ठसक दिखानें के लिये उन्हीं स्‍वार्थपर मित्रों का जमघट करना पड़े, और उन स्‍वार्थपर मित्रों का जमघट करनें के लिये वही झूंटा पक्षपात करना पड़े तो क्‍या आश्‍चर्य है ?” लाला ब्रजकिशोर नें कहा।

“नहीं, नहीं यह क़भी नहीं हो सक्‍ता। मुझको उन लोगों सै इतनी अरुचि हो गई कि मैं वैसी साहूकारी सै ऐसी गरीबी को बहुत अच्‍छी समझता हूँ। क्‍या अपनी आदत कोई नहीं बदल सक्‍ता ?” लाला मदनमोहन नें जोर देकर पूछा।

“क्‍यों नहीं बदल सक्ता ? मनुष्‍य के चित्त सै बढ़कर कोई बस्‍तु कोमल और कठोर नहीं है वह अपनें चित्त को अभ्‍यास करके चाहै जितना कम ज्‍याद: कर सकता है कोमल सै कोमल चित्त का मनुष्‍य कठिन सै कठिन समय पड़नें पर उसे झेल लेता है और धीरै, धीरै उस्‍का अभ्‍यासी हो जाता है इसी तरह जब कोई मनुष्‍य अपनें मनमैं किसी बातकी पक्‍की ठान ले और उस्‍का हर वक्‍त ध्‍यान बना रक्‍खे उस्‍पर अन्त तक दृढ़ रहैं तो वह कठिन कामों को सहज मैं कर सकता है परन्तु पक्‍का बिचार किये बिना कुछ नहीं हो सकता” लाला ब्रजकिशोर कहनें लगे:-

“इटली का प्रसिद्ध कवि पीट्रार्क लोरा नामी एक परस्‍त्री पर मोहित हो गया इसलिये वह किसी न किसी बहानें सै उस्‍के सन्मुख जाता और अपनी प्रीतिभरी दृष्टि उस्पर डाल्ता परन्‍तु उस्‍के पतिब्रतापन सै उस्‍के आगे अपनी प्रीति प्रगट नहीं कर सकता था। लोरानें उस्‍के आकार सैं उस्‍का भाव समझकर उस्‍को अपनें पास सै दूर रहनें के लिये कहा और पीट्रार्क नें भी अपनें चित्त सै लोरा की याद भूलनेंके लिये दूर देशका सफ़र किया परन्‍तु लोरा का ध्‍यान क्षणभर के लिये उस्‍के चित्त सै अलग न हुआ। एक तपस्‍वी नें बहुत अच्‍छी तरह उस्‍को अपना चित्त अपनें बस मैं रखनें के लिये समझाया परन्‍तु लोरा को एक दृष्टि देखते ही पीट्रार्क के चित्त सै वह सब उपदेश हवामैं उड़ गए। लोरा की इच्‍छा ऐसी मालूम होती थी कि पीट्रार्क उस्‍सै प्रीति रक्‍खे परन्‍तु दूरकी प्रीति रक्‍खे। जब पीट्रार्क का मन कुछ बढ़नें लगता तो वह अत्‍यन्‍त कठोर हो जाती परन्‍तु जब उस्‍को उदास और निराश देखती तब कुछ कृपा दृष्टि करके उस्‍का चित्त बढ़ा देती। इस तरह अपनें पतिब्रत मैं किसी तरह का धब्‍बा लगाये बिना लोरानें बीस वर्ष निकाल दिये। पीट्रार्क बेरोना शहर मैं था उस्‍समय एक दिन लोरा उसै स्‍वप्‍न में दिखाई दी और बड़े प्रेम सै बोली कि “आज मैंनें इस असार संसार को छोड़ दिया। एक निर्दोष मनुष्‍य को संसार छोड़ती बार सच्‍चा सुख मिल्‍ता है और मैं ईश्‍वर की कृपा सै उस सुख का अनुभव करती हूँ परन्‍तु मुझको केवल तेरे बियोग का दु:ख है”, “तो क्‍या तू मुझ सै प्रीति रखती थी ?” पीट्रार्क नें पूछा। “सच्‍चे मन सै” लोरानें जवाब दिया और उस्‍का उस दिन मरना सच निकला। अब देखिये कि एक कोमल चित्त स्‍त्री, अपनें प्‍यारे की इतनी अधीनता पर बीस वर्ष तक प्रीतिकी अग्नि को अपनें चित्त मैं दबा सकी और उसे सर्वथा प्रबल न होनें दिया। फ़िर क्‍या हम लोग पुरूष होकर भी अपनें मनकी छोटी, छोटी, कामनाओं के प्रबल होनें पर उन्हैं नहीं रोक सक्‍ते ?”

“यूनान के प्रसिद्ध वक्‍ता डिमास्टिनीज को पहलै पूरा सा बोलना नहीं आता था। उसकी ज़बान तोतली थी और ज़रासी बात कहनेंमैं उस्‍का दम भर जाता था परन्‍तु वह बड़े, बड़े उस्‍तादों की वक्‍तृता का ढंग देखकर उन्‍की नकल करनें लगा और दरियाके किनारे या ऊंची टेकड़ियों पर मुंह मैं कंकर भरकर बड़ी देर, देर तक लगातार छन्‍द बोलनें लगा जिस्‍सै उस्‍का तुतलाना और दम भरनाही नहीं बन्‍द हुआ बल्कि लोगों के हल्‍ले को दबाकर आवाज देनें का अभ्‍यास भी हो गया। वह वक्‍तृता करनें सै पहलै अपनें चेहरे का बनाव देखनें के लिये काचके सामनें खड़े होकर अभ्‍यास करता था और उस्‍को वक्‍तृता करती बार कंधेउचकांनें की आदत पड़ गई थी इस्‍सै वह अभ्‍यास के समय दो नोकदार हथियार अपनें कन्धों सै जरा ऊंचे लटकाए रखता था कि उन्‍के डरसै कन्धे न उचकनें पायें। उस्‍नें अपनी भाषा मैं प्रासिद्ध इतिहासकर्ता टयूसीडाइगस का सा रस लानेंके लिये उस्के लेख की आठ नकल अपनें हाथ सै की थीं।

“इंग्लेण्डका बादशाह पांचवां हेनरी जब प्रिन्‍स आफ वेल्‍स (युवराज) था तब इतनी बदचलनी में फंस गया था और उस्‍की संगति के सब आदमी ऐसे नालायक थे कि उस्‍के बादशाह होनें पर बड़े जुल्‍म होनें का भय सब लोगों के चित्त मैं समा रहा था। जिस्‍समय इंग्लेण्ड के चीफ जस्टिस गासकोइननें उस्‍के अपराध पर उसै कैद किया तो खास उस्‍के पिता नें इस बात सै अपनी प्रसन्‍नता प्रगट की थी कि शायद इस रीति सै वह कुछ सुधरे। परन्तु जब वह शाहजादा बादशाह हुआ और राजका भार उस्‍के सिर आ पड़ा तो उस्‍नें अपनी सब रीति भांति एकाएक ऐसी बदल डाली कि इतिहास मैं वह एक बड़ा प्रामाणिक और बुद्धिमान बादशाह समझा गया। उस्‍नें राज पाते ही अपनी जवानी के सब मित्रोंको बुलाकर साफ कह दिया था कि मेरे सिर राजका बोझ आ पड़ा है इसलिये मैं अपना चाल-चलन सुधारा चाहता हूँ सो तुम भी अपना चालचलन सुधार लेना। आज पीछे तुम्‍हारी कोई बदचलनी मुझको मालूम होगी तो मैं तुम्हैं अपनें पास न फटकनें दूंगा। उस्‍सै पीछे हेनरी नें बड़े योग्‍य, धर्मात्‍मा, अनुभवी और बुद्धिमान आदमियोंकी एक काउन्सिल बनाई और इन्साफ़ की अदालतों मैं सै संदिग्‍ध मनुष्यों को दूर करके उन्‍की जगह बड़े ईमानदार आदमी नियत किये। खास कर अपनें कैद करनें वाले गासकोइनकी बड़ी प्रतिष्‍ठा करके उस्‍सै कहा कि “जिस्‍तरह तुमनें मुझको स्‍वतन्त्रता सै कैद किया था इसी तरह सदा स्‍वतन्त्रता सै इन्साफ़ करते रहना”

“मेरे चित्तपर आपके कहनें का इस्समय बड़ा असर होता है और मैं अपनें अपराधोंके लिये ईश्‍वर सै क्षमा चाहता हूँ मुझको उस अमीरीके बदले इस कैद मैं अपनी भूलका फल पानें सै अधिक संतोष मिल्‍ता है। मैं अपनें स्‍वेच्‍छाचार का मजा देख चुका अब मेरा इतना ही निवेदन है कि आप प्रेमबिवस होकर मेरे लिये किसी तरह का दुख न उठायं और अपना नीति मार्ग न छोड़ें” लाला मदनमोहन नें दृढ़ता से कहा।

“अब आपके बिचार सुधर गए इस लिये आपके कृतकार्य (कामयाब) होनें मैं मुझको कुछ भी संदेह नहीं रहा ईश्वर आपका अवश्‍य मंगल करेगा” यह कहक़र लाला ब्रजकिशोरनें मदनमोहन को छाती सै लगा लिया।

प्रकरण-४१ : सुखकी परमावधि

जबलग मनके बीच कछु स्‍वारथको रस होय ।।

सुद्ध सुधा कैसे पियै ? परै बी ज मैं तोय ।।

सभाविलास

“मैंनें सुना है कि लाला जगजीवनदास यहां आए हैं” लाला मदनमोहननें पूछा।

“नहीं इस्‍समय तो नहीं आए आपको कुछ संदेह हुआ होगा” लाला ब्रजकिशोरनें जवाब दिया।

“आपके आनें सै पहलै मुझको ऐसा आश्‍चर्य मालूम हुआ कि जानें मेरी स्‍त्री यहां आई थी परन्‍तु यह संभव नहीं कदाचित् स्‍वप्‍न होगा” लाला मदनमोहननें आश्‍चर्य सै कहा।

“क्‍या केवल इतनी ही बात का आपको आश्‍चर्य है ? देखिये चुन्नीलाल और शिंभूदयाल पहलै बराबर मेरी निन्‍दा करके आपका मन मेरी तरफ़सै बिगाड़ते रहे थे बल्कि आपके लेनदारों को बहकाकर आपके काम बिगाड़नें तकका दोषारोप मुझपर हुआ था परन्‍तु फ़िर उसी चुन्‍नीलालनें आपसै मेरी बड़ाई की, आपसै मेरी सफाई कराई, आपको मेरे मकान पर लिवा लाया आपकी तरफ़ सै मुझसै क्षमा मांगी मुझे फ़ायदा पहुँचाकर प्रसन्‍न रखनें के लिये आपको सलाह दी और अन्‍तमैं मेरा आपका मेल करवाकर चुन्‍नीलाल और शिंभूदयाल दोनों अलग हो गए ! उसी समय मेरठ सै जगजीवनदास आकर आपके घरकों लिवा ले गया ! मैंनें जन्‍म भर आपसै रुपे का लालच नहीं किया था सो तीन दिन मैं ऐसे कठिन अवसर पर ठगोंकी तरह पाकटेचेन, हीरे की अंगूठी और बाली ले ली ! एक छोटेसे लेनदार की डिक्री मैं आपको इतनी देर यहां रहना पड़ा क्‍या इन बातों से आपको कुछ आश्‍चर्य नहीं होता ? इन्मैं कोई बात भेद की नहीं मालूम होती ?” लाला ब्रजकिशोर नें पूछा।

“आपके कहनें सै इस मामले मैं इस्‍समय निस्‍सन्‍देह बहुत सी बातें आश्‍चर्य की मालूम होती हैं और किसी, किसी बात का कुछ, कुछ मतलब भी समझ मैं आता है परन्‍तु सब बातों के जोड़ तोड़ पूरे नहीं मिल्‍ते और मन भरनें के लायक कोई कारण समझ मैं नहीं आता यदि आप कृपा करके इनबातों का भेद समझा देंगे तो मैं आपका बड़ा उपकार मानूंगा” लाला मदनमोहन नें कहा।

“उपकार मान्नें के लायक मुझ सै आपकी कौन्‍सी सेवा बन पड़ी है ?” लाला ब्रजकिशोरनें जवाब दिया और अपनी बगल सै बहुत से कागज और एक पोटली निकाल कर लाला मदनमोहन के आगे रखदी। इन कागजों मैं मदनमोहन के लेनदारों की तरफ़ सै अन्‍दाजन् पचास हजार रुपे के राजी नामे फारखती, और रसीद वगैरे थीं और मिस्टर ब्राइट का फैसलानामा था जिस्मैं पैंतीस हजार पर उस्‍सै फैसला हुआ था और मिस्‍टर रसल की रकम उस्के देनें में लगादी थी, और मिस्टर ब्राइट की बेची हुई चीजोंमैं सै जो चीज फेरनी चाहें बराबर दामोंमैं फेर देनें की शर्त ठैर गई थी। उस पोटली मैं पन्दरह बीस हजार का गहना था !लाला मदनमोहन यह देखकर आश्‍चर्य सै थोड़ी देर कुछ न बोल सके फ़िर बड़ी कठिनाई सै केवल इतना कहा कि “मुझको अबतक जितनी आश्‍चर्य की बातें मालूम हुई थीं उन सब मैं यह बढ़कर है !”

जितना असर आपके चित्तपर हौना चाहिये था परेश्‍वर की कृपा सै हो चुका इसलिये अब छिपानें की कुछ ज़रूरत नहीं मालूम होती” लाला ब्रजकिशोर कहनें लगे “आप किसी तरह का आश्‍चर्य न करैं, इन सब बातों का भेद यह है कि मैं ठेठसै आपके पिताके उपकार मैं बंधरहा हूँ जब मैंनें आपकी राह बिगड़ती देखी तो यथा शक्ति आपको सुधारनें का उपाय किया परन्‍तु वह सब वृथा गया। जब हरकिशोर के झगड़े का हाल आपके मुखसै सुना तो मुझको प्रतीत हुआ कि अब रुपे की तरी नहीं रही लोगों का विश्‍वास उठता जाता है और गहनें गांठें के भी ठिकानें लगनें की तैयारी है, आपकी स्‍त्री बुद्धिमान होनें पर भी गहनें के लिये आपका मन न बिगाड़ेगी लाचार होकर उसे मेरठ लेजानें के लिये जगजीवनदास को तार दिया और जब आप मेरे कहनें सै किसी तरह न समझे तो मैंनें पहलै बिभीषण और बिदुरजी के आचरण पर दृष्टि करके अलग हो बैठनें की इच्‍छा की परन्‍तु उस्‍सै चित्तको संतोष न हुआ तब मैं इस्बात के सोच बिचार मैं बड़ी देर डूबा रहा तथापि स्‍वाभाविक झटका लगे बिना आपके सुधरनें की कोई रीत न दिखाई दी और सुधरे पीछे उस अनुभव सै लाभ उठानें का कोई सुगम मार्ग न मिला। अन्‍तमैं सुग्रीव को धमकी देकर रघुनाथ जी जिस्‍तरह राह पर ले आये थे इसी तरह मुझको आपके सुधारनें की रुचि हुई और मैं आपके वास्‍तै आपही सै कुछ रुपया लेकर बचा रखनें के बिचार किया पर यह काम चुन्‍नीलाल के मिलाये बिना नहीं हो सक्ता था इसलिये तत्‍काल उस्‍के भाई (हीरालाल) को अपनें हां नोकर रख लिया। परन्‍तु इस अवसर पर हरकिशोर की बदोलत अचानक यह बिपत्ति सिर पर आपड़ी। चुन्‍नीलाल आदिका होसला कितना था ? तत्‍काल घबरा उठे और उस्‍सै मेल करनें के लिये फ़िर मुझको कुछ परिश्रम न करना पड़ा। वह सब रुपे के गुलाम थे जब यहां कुछ फ़ायदे की सूरत न रही, उधर लोगोंनें आप पर अपनें लेनें की नालशैं कर दीं और आपकी तरफ़ सै जवाब दिही करनें मैं उन्‍को अपनी खायकी प्रगट होनें का भय हुआ तत्‍काल आपको छोड़, छोड़ किनारे हो बैठै। मैंनें आप सै कुछ जो इनाम पाया था उस्‍की कीमत सै यह सब फैंसले घटा, घटा कर किये गए हैं। अब दिशावर वालों का कुछ जुज्वी सा देना बाकी होगा सो दो, चार हजार मैं निबट जायगा परन्‍तु मेरे मनकी उमंग इस्‍समय कुछ नहीं निकली इस्सै मैं अत्‍यन्‍त लज्जित हूँ” लाला ब्रजकिशोर नें कहा।

आपनें मेरे फ़ायदे के लिये बिचारे लेनदारों को वृथा क्‍यों दबाया” लाला मदनमोहन बोले।

“न मैंनें किसी को दबाया न धोका दिया न अपनें बस पड़ते कसर दीं उन लोगोंनें बढ़ा, बढ़ा कर आप के नाम जो रकमैं लिख लीं थीं वही यथा शक्ति कम की गई हैं और वह भी उन्‍की प्रसन्‍नता सैं कम की गई हैं” लाला ब्रजकिशोर नें अपना बचाव किया।

“इन सब बातों सै मैं आश्‍चर्य के समुद्र मैं डूबा जाता हूँ। भला यह पोटली कैसी है ?” लाला मदनमोहन नें पूछा।

“आपकी हवालात की खबर सुन्‍कर आपकी स्‍त्री यहां दौड़ आई थी और जिस्‍समय मैं आप सै बातें कर रहा था उस्‍समय उसी के आनें की खबर मुझको मिली थी मैंनें उसै बहुत समझाया परन्‍तु वह आपकी प्रीति मैं ऐसी बावली हो रही थी कि मेरे कहनें सै कुछ न समझी, उस्नें आपको हवालात सै छुड़ानें के लिये यह सब गहना जबरदस्‍ती मुझै दे दिया। वह उस्‍समय सै पांच फेरे यहां के कर चुकी है उस्नें सवेरे सै एक दाना मुंहमैं नहीं लिया उस्‍का रोना पलभर के लिये बन्‍द नहीं हुआ रोते, रोते उस्‍की आंखें सूज गईं हा ! उस्की एक, एक बात याद करनें सै कलेजा फटता है। और आप ऐसी सुपात्र स्‍त्री के पति होंनें सै निस्‍सन्‍देह बड़े भाग्‍य शाली हो” लाला ब्रजकिशोर नें आंसू भरकर कहा।

“भाई जब उस्नें उसी समय तुमको यह गहना देदिया था तो फ़िर मेरे छुड़ानें मैं देर क्‍यों हुई ?” लाला मदनमोहननें संदेह करके पूछा।

“एक तो दो एक लेनदारों का फैसला जब तक नहीं हुआ था और हरकिशोर की डिक्री का रुपया दाखिल कर दिया जाता तो फ़िर उन्‍के घटनें की कुछ आशा न थी, दूसरे आपके चित्तपर अपनी भूलों के भली भांति प्रतीत हो जानें के लिये भी कुछ ढ़ील की गई थी परन्‍तु कचहरी बरखास्‍त होनेंसै पहले मैंनें आपके छुड़ानें का हुक्‍म ले लिया था और इसी कारण सै मेरी धर्मकी बहन आपकी सुशीला स्‍त्री को आपके पास आनेंमैं कुछ अड़चन नहीं पड़ी थी। हां मैंनें आपका अभिप्राय जानें बिना मिस्‍टर ब्राइट सै उस्‍की चीजैं फेरनें का बचन कर लिया है यह बात कदाचित् आपको बुरी लगी होगी” लाला ब्रजकिशोरनें मदनमोहन का मन देखनें के लिये कहा।

“हरगिज नहीं, इस बातको तो मैं मनसें पसन्‍द करता हूँ झूंटी भड़क दिखानें मैं कुछ सार नहीं ‘आई बहू आए काम गई बहू गए काम’ की कहावत बहुत ठीक है और मनुष्‍य अपनें स्‍वरूपानुरूप प्रामाणिकपनेंसै रहक़र थोड़े खर्च मैं भली भांति निर्वाह कर सकता है” लाला मदनमोहन नें संतोष करके कहा।

“अब तो आपके बिचार बहुत ही सुधर गए। एबडोलोमीन्‍स को गरीबी सै एकाएक साइडोनिया के सिंहासन पर बैठाया गया तब उस्‍नें सिकन्‍दरसै यही कहा था कि “मेरे पास कुछ न था जब मुझको विशेष आवश्‍यकता भी न थी अब मेरा वैभव बढ़ेगा वैसी ही मेरी आवश्‍यकता भी बढ़ जायगी” कच्‍चे मन के मनुष्‍यों को अपनें स्‍वरूपानुरूप बरताव रखनेंमैं जाहिरदारी की झूंटी झिझक रहती है इसीसै वह लोग जगह, जगह ठोकर खाते हैं परन्‍तु प्रामाणिकपनें सै उचित उद्योग करकै मनुष्‍य हर हालत मैं सुखी रह सक्ता है” लाला ब्रजकिशोर नें कहा।

“क्‍या अब चुन्‍नीलाल और शिंभूदयाल आदिको उन्‍की बदचलनी का कुछ मजा दिखाया जायगा ?” लाला मदनमोहननें पूछा।

“किसी मनुष्य की रीति भांति सुधरे बिना उस्‍सै आगे को काम नहीं लिया जा सक्ता परन्‍तु जिन लोगों का सुधारना अपनें बूते सै बाहर हो उन्सै काम काजका सम्बन्ध न रखना ही अच्‍छा है और जब किसी मनुष्‍य सै ऐसा सम्बन्ध न रखा जाय तो उस्‍के सुधारनें का बोझ सर्व शक्तिमान परमेश्‍वर अथवा राज्याधिकारियों पर समझकर उस्सै द्वेष और बैर रखनें के बदले उस्‍की हीन दशा पर करुणा और दया रखनी सज्‍जनों को विशेष शोभित करती हैं” लाला ब्रजकिशोर नें जवाब दिया।

“मेरी मूर्खता सै मुझपर जो दुख पड़ना चाहिये था पड़ चुका अब अपना झूंटा बचाव करनें सै कुछ फायदा नहीं मालूम होता मैं चाहता हूँ कि सब लोगों के हित निमित्त इन दिनों का सब वृत्तान्‍त छपवा कर प्रसिद्ध कर दिया जाय” लाला मदनमोहन नें कहा।

“इस्‍की क्‍या ज़रूरत है ? संसार मैं सीखनें वालों के लिये बहुत सै सत्शास्‍त्र भरे पड़े हैं” लाला ब्रजकिशोरनें अपना सम्बन्ध बिचार कर कहा।

“नहीं सच्‍ची बातों मैं लजानें का क्‍या काम है ? मेरी भूल प्रगट हो तो हो मैं मन सै चाहता हूँ कि मेरा परिणाम देखकर और लोगों की आंखैं खुलैं इस अवसर पर जिन, जिन लोगों सै मेरी जो, जो बात चीत हुई है वह भी मैं उस्‍मैं लिखनें के लिये बता दूंगा” लाला मदनमोहननें उमंगसै कहा।

“धन्‍य ! लालासाहब ! धन्य ! अब तो आपके सुधरे हुए बिचार हद्द के दरजें पर पहुँच गए” लाला ब्रजकिशोरनें गद्गद बाणी सै कहा “औरों के दोष देखनें वाले बहुत मिल्‍ते हैं परन्‍तु जो अपनें दोषों को यथार्थं जान्‍ता हो और जान बूझकर उन्‍का झूंटा पक्ष न करता हो बल्कि यथाशक्ति उन्‍के छोड़नें का उपाय करता हो वही सच्‍चा सज्‍जन है”

“सिलसिले बन्‍द सीधा मामूली काम तो एक बालक भी कर सक्‍ता है परन्‍तु ऐसे कठिन समय मैं मनुष्य की सच्‍ची योग्‍यता मालूम होती है आपनें मुझको इस अथाह समुद्र मैं डूबनें सै बचाया है इस्‍का बदला तो आपको ईश्‍वर के हां सै मिलैगा मैं सो जन्‍म तक लगातार आपकी सेवा करूं तो भी आपका कुछ प्रत्‍युपकार नहीं कर सक्ता परन्‍तु जिस्‍तरह महाराज रामचन्‍द्र नें भिलनी के बेर खाकर उसे कृतार्थ किया था इसी तरह आप भी अपनी रुचिके विपरीत मेरा मन रखनें के लिये मेरी यही प्रेम भेंट अंगीकार करैं” लाला मदनमोहन ब्रजकिशोर को आठ दस हजार का गहना देनें लगे।

“क्‍या आप अपनें मनमैं यह समझते हैं कि मैंनें किसी तरह के लालच सै यह काम किया ?” लाला ब्रजकिशोर रुखाई सै बोले “आगे को आप ऐसी चर्चा करके मेरा जी बृथा न दुखावैं। क्‍या मैं गरीब हूँ इसी सै आप ऐसा बचन कहक़र मुझको लज्जित करते हैं ? मेरे चित्त का संतोष ही इस्‍का उचित बदला है। जो सुख किसी तरह के स्‍वार्थ बिना उचित रीति सै परोपकार करनें मैं मिल्‍ता है वह और किसी तरह नहीं मिल सक्‍ता। वह सुख, सुख की परमावधि है इसलिये मैं फ़िर कहता हूँ कि आप मुझको उस सुख सै वंचित करनें के लिये अब ऐसा बचन न कहैं।”

“आप का कहना बहुत ठीक है और प्रत्‍युपकार करना भी मेरे बूते सै बाहर है परन्‍तु मैं केबल इस्समय के आनन्द मैं-”

“बस आप इस विषय मैं और कुछ न कहैं। मुझको इस्‍समय जो मिला है उस्‍सै अधिक आप क्‍या दे सक्‍ते हैं मैं रुपे पैसे के बदले मनुष्‍य के चित्त पर विशेष दृष्टि रखता हूँ और आपको देनें ही का आग्रह हो तो मैं यह मांगता हूँ कि आप अपना आचरण ठीक रखनें के लिये इस्‍समय जैसे मजबूत हैं वैसे ही सदा बनें रहैं और यह गहना मेरी तरफ़ सै मेरी पतिब्रता बहन और उस्‍के गुलाब जैसे छोटे, छोटे बालकों को पहनावें जिन्‍के देखनें सै मेरा जी हरा हो” लाला ब्रजकिशोर नें कहा।

“परमेश्‍वर चाहेंगे तो आगे को आप की कृपा सै कोई बात अनुचित न होगी” लाला मदनमोहन नें जवाब दिया।

“ईश्‍वर आप को सदा भले कामों की सामर्थ्‍य दे और सब का मंगल करे !” लाला ब्रजकिशोर सच्‍चे सुख मैं निमग्‍न होकर बोले।

निदान सब लोग बड़े आनन्‍द सै हिल मिलकर मदनमोहन को घर लिवा ले गए और चारों तरफ़ सै “बधाई” “बधाई” होनें लगी।जो सच्‍चा सुख, सुख मिलनें की मृगतृष्‍णा से मदनमोहन को अब तक स्‍वप्‍न मैं भी नहीं मिला था वही सच्‍चा सुख इस्‍समय ब्रजकिशोर की बुद्धिमानी से परीक्षागुरु के कारण प्रामाणिक भाव से रहनें मैं मदनमोहन को मिल गया ! ! !

लेखक

  • लाला श्रीनिवास दास

    लाला श्रीनिवास दास (1850-1907) हिंदी के प्रथम उपन्यास के लेखक हैं। उनके द्वारा लिखे गए उपन्यास का नाम परीक्षा गुरू (हिन्दी का प्रथम उपन्यास) है जो 25 नवम्बर 1882 को प्रकाशित हुआ। लाला श्रीनिवास दास भारतेंदु युग के प्रसिद्ध नाटककार भी थे। नाटक लेखन में लाला श्रीनिवास दास भारतेंदु के समकक्ष माने जाते हैं। वे उत्तरप्रदेश राज्य के मथुरा जिले के निवासी थे और हिंदी, उर्दू, संस्कृत, फारसी एवं अंग्रेजी भाषा के अच्छे ज्ञाता थे। उनके द्वारा रचित नाटकों में प्रह्लाद चरित्र, तप्ता संवरण, रणधीर और प्रेम मोहिनी और संयोगिता स्वयंवर प्रमुख नाटक हैं। उपन्यास परीक्षा गुरु उपन्यास सभ्रांत परिवारों के युवाओं को बुरी संगत के खतरनाक प्रभाव और परिणामस्वरूप गिरती नैतिकता के प्रति आगाह करता है। उस दौरान उभरते हुए मध्य वर्ग के आंतरिक और बाहरी दुनिया को दर्शाता है। इस उपन्यास में अपनी सांस्कृतिक पहचान को बचाए रखने के लिए औपनिवेशिक समाज को अपनाने में होने वाली कठिनाइयों को बख़ूबी दर्शाया गया है। हालांकि परीक्षा गुरु लाला श्रीनिवास द्वारा स्पष्ट रूप से ‘पढ़ने की खुशी’ के लिए विशुद्ध रूप से लिखा गया था।

    View all posts
परीक्षा गुरु (प्रकरण26-41)/लाला श्रीनिवास दास

प्रातिक्रिया दे

आपका ईमेल पता प्रकाशित नहीं किया जाएगा. आवश्यक फ़ील्ड चिह्नित हैं *

×